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बीएचयू में मनुस्मृति रिसर्च प्रोजेक्ट पर बवाल, बीएसएम और एबीवीपी आमने-सामने

"बीएचयू जैसे शीर्षस्थ विश्वविद्यालय में ऐसा कोई भी अध्ययन अथवा शोध नहीं होना चाहिए जो समाज को पीछे ले जाने वाला बना दे। आज जब पूरी दुनिया विकास के नए आयाम गढ़ रही है ऐसे में अपने अतीत से चिपककर बैठे रहना उचित नहीं है।"
Student
मनुस्मृति का विरोध जारी रखने का ऐलान

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में मनुस्मृति पर रिसर्च के लिए फेलोशिप शुरू किए जाने को लेकर उपजा विवाद गहराने लगा है। एक तरफ भगत सिंह स्टूडेंट्स मोर्चा (बीएसएम) मनुस्मृति पर नए रिसर्च प्रोजेक्ट का विरोध कर रहा है तो दूसरी ओर बीजेपी का अनुसांगिक संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) ‘मनुस्मृति दहन’ के विरोध में खड़ा हो गया है। बीएसएम ने सोमवार की शाम कला संकाय के मनुस्मृति की प्रतीक प्रतियां फूंकी तो अभाविप ने इसके विरोध में मंगलवार को कुलपति आवास पर प्रदर्शन किया और भद्दे नारे लगाए। इस दौरान कुलपति और चीफ प्राक्टर पर भद्दी टिप्पणियां भी की गईं। बीएसएम का आरोप है कि, "सत्ता में बैठे लोगों ने ब्राह्मणवाद सर्वश्रेष्ठ बताने को इस मनुस्मृति रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए भारी-भरकम धनराशि स्वीकृति कराई है। सत्ता की शह पर बीएचयू में जातिवादी और सांप्रदायिक माहौल बनाने के लिए झूठ और भ्रम का वितंडा खड़ा किया जा रहा है।"

बीएचयू के कला संकाय के बाहर भगत सिंह छात्र मोर्चा के दर्जन भर छात्रों के समूह ने सोमवार को सादे पन्ने पर मनुस्मृति के श्लोक लिखकर उसकी प्रतियां फूंकी और आक्रोश व्यक्त किया। मनुस्मृति में ब्राह्मणवाद के महिमामंडन की आलोचना करते हुए ब्राह्मणवाद-मुर्दाबाद, मनुवाद-मुर्दाबाद और जातिवाद को धवस्त करो जैसे नारे भी लगाए गए। भगत सिंह स्टूडेंट्स मोर्चा के फेसबुक पेज पर एक वीडियो भी पोस्ट किया गया है, जिसमें मनुस्मृति की प्रतियां भी जलाईं जा रहीं हैं। यह मोर्चा पिछले कई दिनों से मनुस्मृति के खिलाफ मुहिम चला रहा है।

बीएचयू में मनुस्मृति के समर्थन में विद्यार्थी परिषद के पदाधिकारी

दूसरी ओर, मनुस्मृति दहन के विरोध में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े स्टूडेंट्स भास्कर आदित्य, राजकुमार, मृत्युंजय तिवारी, पतंजली पांडेय आदि ने मंगलवार को कुलपति आवास पर पहुंचकर मनुस्मृति दहन के विरोध में प्रदर्शन किया और भद्दे नारे भी लगाए। इनके विरोध प्रदर्शन का एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें कुलपति और कुलसचिव के खिलाफ आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है।
बीएचयू में मनुस्मृति पर शोध शुरू किए जाने के साथ ही विरोध के स्वर तेज होने लगे हैं। भगत सिंह स्टूडेंट्स मोर्चा के अलावा बहुजन समाज छात्र संगठन भी बीएचयू में मनुस्मृति पर रिसर्च का विरोध कर रहा है। इनका आरोप है कि मनुस्मृति में बहुत कुछ ऐसी गलत बातें लिखी गई हैं जो समाज में जातिवाद, वर्ण व्यवस्था और धर्मांधता को बढ़ावा देती हैं।

मनुस्मृति पर रिसर्च का विरोध क्यों?

भगत सिंह छात्र मोर्चा से जुड़ी आकांक्षा आजाद कहती हैं, "21वीं सदी में शोषित और वंचित तबके में एक नई रैडिकल चेतना का संचार हुआ है। ऐसे में अतीत के स्याह दौर की याद दिलाती इस किताब की प्रयोज्यता की बात करना दुनिया में भारत की कैसी छवि बनाएगा? बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने सामाजिक बुराइयों को मिटाने के लिए मनुस्मृति की प्रतियां फूंकी थी। मौजूदा समय में वो समस्याएं जस की तस हैं। महिलाओं और शूद्रों के साथ भेदभाव व असमानता बरकरार है। डा.आंबेडकर हिन्दू धर्म की बुराइयों पर सीधे वार करते थे और कहते थे कि मैं हिन्दू धर्म पैदा हुआ हूं लेकिन इस धर्म में मरूंगा नहीं। हिन्दू धर्म समानता और स्वतंत्रता का विरोधी है। उन्होंने मनुस्मृति में वर्णित चारो वर्ण व्यवस्था का जमकर विरोध किया और बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था।"

मनुस्मृति को लेकर दलित और पिछड़े वर्ग का प्रबुद्ध तबका दशकों से विरोध करता आ रहा है। दरअसल, इस पुस्तक में दलितों और महिलाओं के बारे में कई ऐसे श्लोक हैं जिनकी वजह से अक्सर विवादों का जन्म होता है। इतिहासकारों के मुताबिक, स्मृति का मतलब धर्मशास्त्र होता है। ऐसे में मनु द्वारा लिखा गया धार्मिक लेख मनुस्मृति कही जाती है। मनुस्मृति में कुल12अध्याय हैं जिनमें 2684 श्लोक हैं। कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2964है। मनुस्मृति को लेकर मराठी के अग्रणी लेखक प्रो. नरहर कुरूंदकर ने एक पुस्तक लिखी है जिसमें वह अपनी सोच को रेखांकित करते हुए कहते हैं, "मैं उन लोगों में शामिल हूं जो मनुस्मृति को जलाने में विश्वास करते हैं। ईसा से करीब दो सौ साल पहले मनुस्मृति लिखी गई थी।"

यूं जलाई गई प्रतीक मनुस्मृति


पहले से पढ़ाई जाती है मनुस्मृति

मनुस्मृति को एक खेमा खारिज करता नजर आ रहा है तो दूसरा खेमा एक के बाद एक नए सबूत पेश कर रहा है कि उनकी बात किस तरह सही है? इस बीच बीएचयू के धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग ने ‘दलितों एवं स्त्रियों को अपमानित करने वाली किताब मनुस्मृति पर शोध फेलोशिप लाकर नए सिरे से विवाद को बढ़ा दिया है। दरअसल, यही वो किताब है जो सौ साल से भी अधिक समय से विवादों में रही है और उसे लेकर बड़े-बड़े आंदोलन भी हुए हैं।'

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र-मीमांसा विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर शंकर कुमार मिश्रा कहते हैं, "यह पहला मौका नहीं है जब मनुस्मृति पढ़ाई जा रही है। जब से उनका विभाग बना है तभी से मनुस्मृति समेत कई ग्रंथ कोर्स में हैं और पढ़ाए जाते रहे हैं। उनके विभाग में हर वर्ग के स्टूडेंट्स पढ़ने आते हैं। वो पीएचडी भी करते हैं। स्मृतियों में मानवता के लिए उपदेश है। सद-आचरण की शिक्षा से भ्रमित लोगों को उबारने के लिए शोध की जरूरत है। धर्मशास्त्र में कई विचार और विषयों को सरल शब्दों और संक्षेप में जनमानस के सामने रखा जाए ताकि मानव कल्याण की बताई गई बातें से आम जनता परिचित हो। इस मामले में दुष्प्रचार किया जा रहा है। ‘भारतीय समाज में मनुस्मृति की प्रयोज्यता’ विषय पर शोध की योजना का धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग की ओर से प्रस्तुत किया गया है। शध और शिक्षा में किसी तरह की राजनीति नहीं होनी चाहिए। इस प्रोजेक्ट के लिए इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस से मिलने वाले बजट से अनूठे शोध होंगे।

सरकारी अधिसूचना के मुताबिक, केंद्र सरकार ने इंस्टिट्यूशंस ऑफ एमिनेंस स्कीम के तहत मनुस्मृति पर रिसर्च करने के लिए देश के दस सार्वजनिक शिक्षण संस्थाओं के लिए एक हजार करोड़ रुपये की मंजूरी दी है। यह धनराशि रिसर्च और डेवलपमेंट पर खर्च की जाएगी। मनुस्मृति का फेलोशिप प्रोग्राम भी इसी का हिस्सा है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 'मनुस्मृति की भारतीय समाज पर प्रयोज्यता' विषय पर रिसर्च कराएगा। रिसर्च फेलोशिप इसी साल31मार्च 2023 को संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय ने शुरू कराई है।

मनुस्मृति दहन के खिलाफ कुलपति आवास पर नारेबाजी-प्रदर्शन

कहां है विवाद की जड़

मनुस्मृति को लेकर उठे विवाद पर ‘न्यूजक्लिक’ ने दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के पूर्व प्रोफेसर डाशमशुल इस्लाम से विस्तार से बात की। वह इस पुस्तक के इतिहास को समझाते हुए कहते हैं, "बाबा साहेब के हिन्दू धर्म को छोड़ने की सबसे बड़ी वजह मनुस्मृति रही। दुर्भाग्य यह है कि हिन्दू कट्टरवाद का हिन्दुओं के बारे में जो एजेंडा है उस पर आज तक कभी कोई डिस्कशन नहीं हुआ है। मनुस्मृति के समर्थकों की तरह मुस्लिम लीग ने भी गैर-बराबरी और औरतों की हकमारी का एजेंडा चलाया था। मुगल शासक औरंगजेब के जमाने में जो इस्लामी शरीयत (फतवा-ए-जहागीरी) लागू की गई वह पूरी तरह मनुस्मृति से प्रभावित थी। औरंगजेब सोचता था कि हिन्दुओं के साथ वह मुसलमानों को कैसे नियंत्रित करे तो उसने शरीयत के अंदर मनुस्मृति की सारी बातें डाल दी। फतवा-ए-जहागीरी को मनुस्मृति की प्रतिकृति कहा जा सकता है।"

प्रो.शमशुल यह भी कहते हैं, "इस्लाम में औरतों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिया गया है। कुरान में कहीं भी पर्दा प्रथा का समर्थन नहीं किया गया है। औरतों को गुलाम बनाकर रखने के लिए मुगल शासकों ने शरिया कानून थोपा। जिस तरह मुस्लिमों के पास क़ानून की किताब के रूप में शरिया है उसी तरह हिंदुओं के पास मनुस्मृति है। मनुस्मृति बताती है कि ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊपर है इसलिए उसका सम्मान किया जाना चाहिए। अपने पति की सेवा के बगैर औरतें स्वर्ग प्राप्त नहीं कर सकती हैं। मनुस्मृति और शरिया कानून दोनों ही औरतों और शूद्रों के धार्मिक और शैक्षणिक अधिकारों को खारिज करती है। काशी के पंडितों ने अंग्रेज़ों को समझा दिया थी कि मनुस्मृति हिन्दुओं के जीवन का सूत्रग्रंथ है। इसके प्रचार-प्रसार से ही अपराधों पर अंकुश लग सकता है। अंग्रेजों ने जब इस किताब के जरिये कानूनी मामलों को हल करना शुरू किया तो मनुस्मृति चर्चित हो गई।"

‘पाखंडियों की संरक्षक है मनुस्मृति’

इतिहास के पन्नों को पलटने से पता चलता है कि महात्मा ज्योतिबा फुले ने सबसे पहले मनुस्मृति को चुनौती दी और खेतिहर किसानों, मजदूरों, वंचित तबके के लोगों की हालत देखकर उन्होंने ब्राह्मणों की आलोचना की। इसके बाद 25 जुलाई, 1927 को बाबा साहेब डा. भीमराव आंबेडकर ने महाराष्ट्र के कोलाबा में मनुस्मृति को जलाया। फिर देश में कई स्थानों पर मनुस्मृति जलाई गई। बाबा साहेब कहा करते थे कि मनु की जाति व्यवस्था एक बहुमंजिली इमारत की तरह है जिसमें एक से दूसरी मंजिल में जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं होती है। मनुस्मृति में कर्म को विभाजित करने के बजाय काम करने वालों को ही बांट दिया गया। उनका मानना था कि जाति व्यवस्था और पाखंडियों की संरक्षक मनुस्मृति है। आजादी के बाद साल1970 में कांशीराम ने बामसेफ बनाकर इस पुस्तक का विरोध किया। कांशीराम का भी मानना था कि मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था के चलते भारतीय समाज को हजारों जातियों में बांट दिया गया।

हाल के दिनों में समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने मनुस्मृति का कई मंचों पर विरोध किया है। तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस में औरतों व शूद्र जातियों के उत्पीड़न और अपमानजनक चित्रण की उन्होंने आलोचना की तो हर तरफ बहस छिड़ गई। मनुस्मृति को लेकर एक बड़ा विवाद उस समय भी खड़ा हुआ था जब दिल्ली उच्च अदालत की न्यायाधीश प्रतिभा सिंह ने फिक्की द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में इस पुस्तक की जमकर तारीफ की तो उनकी जबर्दस्त आलोचना हुई। न्यायाधीश प्रतिभा का कहना था कि मनुस्मृति ‘महिलाओं को सम्मानजनक दर्जा देती है।’

मनुस्मृति की वकालत करने वालों का मानना है कि मनु ने विश्व कल्याण के लिए ये किताब लिखी। वह क़ानून विशेषज्ञ थे। मनुस्मृति का समर्थन करने वाले दावा करते हैं कि यह पांचवा वेद है जो समाज के कल्याण की बात करती है। इस पुस्तक का अनादर किया जाना ठीक नहीं है। इस बीच मनुस्मृति की तरफदारी करने के लिए धर्मगुरुओं ने भी दुनिया को बताना शुरू कर दिया कि इस पुस्तक में वेद का सारांश है। इस मुद्दे पर बनारस के वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "बीएचयू अब आरएसएस का गढ़ बन गया है। यही वजह है कि मनुस्मृति पर रिसर्च के नाम पर भारी-भरकम धनराशि स्वीकृत की गई है। दुनिया जानती है कि भारत में जब बौद्ध धर्म का फैलाव होने लगा तो मनुस्मृति के जरिये ही ब्राह्मणों ने अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए मिथक रचना शुरू कर दिया कि उनका स्थान समाज में सबसे ऊपर है। उनके लिए अलग और दूसरों के लिए अलग नियम हैं। महामना मदन मोहन मालवीय की बगिया में समाज को जाति और धर्म के खांचे में बांटने का ढकोसला बंद होना चाहिए।"

नफरत पैदा करेगा मनुस्मृति पर रिसर्च

मनुस्मृति के शोध पर उपजे विवाद पर ‘न्यूजक्लिक’ ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के सामाजिक परिष्करण एवं समावेशी नीति अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर डा. अमरनाथ पासवान से विस्तार से बात की। डा.पासवान कहते हैं, "मनुस्मृति का विरोध इसलिए भी जायज है क्योंकि इस पुस्तक ने सौ साल से औरतों और शूद्र जातियों को अपमानित किया है और उनकी तरक्की भी रोकी है। इस तबके को आर्थिक और सामाजिक तौर पर स्थायी रूप से गुलाम बनाने की कोशिश की है। मनुस्मृति को किसी भी तरीके से धार्मिक अथवा पवित्र पुस्तक नहीं कहा जा सकता। इस मुद्दे को फिर से सैनिटाइज्ड किए जाने से मनुस्मृति को नए सिरे से वैधता मिलेगी और हिन्दू समाज में ऊंच-नीच की खाईं गहरी होगी। बाबा साहेब ने मनु की जिस व्यवस्था को पूरी तरह खत्म कर दिया था, शोध के जरिये उसे फिर जिंदा करने की कोई जरूरत नहीं है।"

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "मनुस्मृति पर शोध की योजना आरएसएस के चिंतन से मिलती-जुलती है। हिन्दुस्तान की आजादी के बाद जब संविधान बनाया जा रहा था उस समय भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा के शीर्षस्थ नेता गोलवलकर और सावरकर ने मनुस्मृति के एजेंडे को लागू कराने की कोशिश की थी। हिन्दुत्व के नाम पर सियासत करने वालों को मनुस्मृति आज भी सम्मोहित करती है। दरअसल, यह एक ऐसी पुस्तक है जो महिलाओं के पैरों में हथकड़ी डालती है और मर्दवादी समाज को तमाम दोषारोपणों से आजाद करती है। यही नहीं, यह इकलौती ऐसी पुस्तक है जो आरएसएस की चालाकी और बीजेपी की सियासत के लिए उर्बर जमीन भी तैयार करती है।"

प्रदीप कहते हैं, "सबसे बड़ी बात यह है कि देश भर में जहां विश्वविद्यालयों के खर्चों में जबर्दस्त कटौती की जा रही है, वहीं आरएसएस और बीजेपी के एजेंडे को आगे बढ़ाने वाली पढ़ाई के लिए टैक्सपेयर का मनमाना धन लुटाया जा रहा है। कोई भी पुस्तक जो समाज में गैर-बराबरी और नफरत पैदा करती हो, ऐसी पुस्तक की पढ़ाई गैर-वाजिब है। बीएचयू जैसे शीर्षस्थ विश्वविद्यालय में ऐसा कोई भी अध्ययन अथवा शोध नहीं होना चाहिए जो समाज को पीछे ले जाने वाला बना दे। आज जब पूरी दुनिया विकास के नए आयाम गढ़ रही है ऐसे में अपने अतीत से चिपककर बैठे रहना उचित नहीं है।"


(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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