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विकसित देशों के रास्ते पर चलना भारत के लिए बुद्धिमानी भरा नहीं है : प्रो. विक्रम सोनी

प्रोफ़ेसर विक्रम सोनी ने नए कोरोना वायरस के जलीय तंत्र में प्रवेश की व्याख्या और इससे उपजने वाले नतीजों को विस्तार में बताया है। वह बताते हैं कि सभी घरों में नल से जल की महत्वाकांक्षी और महंगी सरकारी योजना पर इसके क्या प्रभाव हो सकते हैं।
 कोरोना वायरस
Image Courtesy: Pixabay

प्रोफ़ेसर विक्रम सोनी ने भारत के जलतंत्र के पुनर्जीवन और उसकी स्वच्छता के क्षेत्र में तीन दशकों तक काम किया है। एक जाने-माने पर्यावरणविद् और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के मानद प्रोफ़ेसर, विक्रम सोनी को चिंता है कि कोविड-19 बीमारी फैलाने वाले नया कोरोना वायरस भारत के जलतंत्र के भीतर पहुंच चुका है। यहां रश्मि सहगल के साथ उनके साक्षात्कार के संपादित अंश पेश किए जा रहे हैं।

क्या नया कोरोना वायरस अपशिष्ट जल से फैल सकता है?

जब नया कोरोना वायरस इंसानी आबादी में प्रवेश कर चुका था, तो इसका अपशिष्ट जल में फैलाव स्वाभाविक तौर पर होना ही था। उदाहरण के लिए, इंग्लैंड, वेल्स और स्कॉटलैंड में अपशिष्ट जल के कुछ नमूनों की जांच की गई, इन सभी में वायरस के अंश पाए गए। सिडनी में वायरस के अंश मैले में तक पाए गए हैं।

स्टर्लिंग यूनिवर्सिटी में किए गए शोध से पता चलता है कि वायरस मैले के साथ फैल सकता है। भारत में अक्सर मैले को सीधे नदियों और दूसरे जलीय स्त्रोतों में छोड़ दिया जाता है। यह चिंताजनक स्थिति पैदा कर सकता है। नीति आयोग और वाटरऐड ने अपनी देशव्यापी रिपोर्ट में पाया है कि ज़मीन के भीतर मौजूद जल और सतह में मौजूद जल संसाधनों के 70 फ़ीसदी हिस्से में मानवीय गतिविधियों के फलस्वरूप उपजने वाले पदार्थ पाए गए हैं।

क्या हमारे पास इसके सबूत मौजूद हैं? और इसके क्या नतीजे हो सकते हैं? 

मल और अपशिष्ट जल से वायरस के संक्रमण पर फिलहाल बड़े स्तर पर शोध और जांच चल रही है। कोविड-19 के मरीज़ों द्वारा शौच के रास्ते बीमारी फैलाने की संभावना पर भी अध्ययन जारी है। इससे बहुत अहम जानकारी उपलब्ध होगी और हमें आगे चेतावनी देने के लिए उपकरण उपलब्ध हो पाएंगे।

एक संक्रमित नदी, जिसमें मानवीय अपशिष्ट, मैला और ज़हरीले अपशिष्ट हों, वे आसानी से वायरस को ग्रहण कर सकते हैं। हम नहीं जानते कब और कहां यह वायरस अपने आप में अनुवांशकीय बदलाव कर हमला कर दे। विकसित दुनिया के उलट, भारत में एक बड़ी आबादी नदियों, झीलों और भू-जल से सीधे प्रदूषित पानी का उपयोग पीने के लिए करती है। यह पहले ही बड़े पैमाने पर तनाव और मृत्यु दर का बड़ा स्त्रोत है।

क्या आप इसकी और व्याख्या कर सकते हैं?

बहुत सारे ऐसे वायरस हैं, जिन्होंने कच्चे पानी (जिसे साफ़ ना किया गया हो) में अपनी जगह बनाई है। पानी में मिलने वाले वायरसों में सबसे आम कथित "गार्डन प्रजाति" के वायरस हैं, जिनसे हेपेटाइटिस, गैस्ट्रोएनटरिटिस, मेनिंगिटिस, बुखार और कजंक्टिवाइटिस (आंखों का आना) जैसी बीमारियां फैलती हैं। संक्रमित जल में एस्ट्रोवायरस और टोरोवायरस भी होते हैं, जो डायरिया और ग्रैस्ट्रोएनटरिटिस के स्त्रोत हैं और यह बीमारियां आमतौर पर वंचित तबके से आने वाले लोगों में फैलती हैं। एक SARS कोरोना वायरस ऐसा भी है, जो पानी में रहता है और श्वसन के साथ-साथ पेट संबंधी दिक्कतें पैदा कर सकता है। फिर एक एंटेरोवायरस A है, जिसे लोकप्रिय तौर पर कॉक्सैक्की A वायरस नाम से जाना जाता है, एंटेरोवायरस B है, जो बहुत सी श्वसन संबंधी दिक्कतों और मस्तिष्क बुखार की वज़ह बन सकता है। 

क्या हम इन वायरस से निपटने के लिए तैयार हैं?

बिल्कुल नहीं; क्योंकि हम अब तक इन वायरस की प्रवृत्ति समझने में नाकाम रहे हैं। जरूरी हस्तक्षेप रणनीतियां और स्वच्छता, जिससे वायरस रहित स्वच्छ पेयजल उपलब्ध हो पाए, वह बेहद जरूरी है। केवल इसी के ज़रिए नए कोरोना वायरस और दूसरे वायरस का प्रसार रोका जा सकता है। वैज्ञानिक पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि मौसम परिवर्तन की वज़ह से भविष्य में हमारे ऊपर नए वायरस हमला करेंगे।

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए आप सरकार की नल से जल योजना की आलोचना क्यों करते हैं, जो शहरों और कस्बों में पाइप से पानी पहुंचाने का लक्ष्य रखती है? 

सरकार द्वारा 3 लाख करोड़ की नल से जल योजना की घोषणा बुद्धिमानी भरी नहीं है। चूंकि अधिकतर पानी के स्त्रोत संक्रमित होते हैं, फिर योजना में RO जल को इसके एकमात्र समाधान के तौर पर पेश किया जा रहा है, जो बीमारियों को रोकने हेतु लक्षित (प्रोफाइलेक्टिक) रहने के साथ-साथ ऊसर भी रहता है, क्योंकि RO जल इंसानी शरीर के लिए जरूरी खनिज और पोषणीय पदार्थों को हटा देता है। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर RO जल के रूप में पाइप जल योजना को बढ़ावा देना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और बहुत ज़्यादा महंगा तरीका है। इस वायरस को खत्म करने के लिए हमे जल में UV(पराबैंगनी) तरीका अपनाना होगा, लेकिन यह भी काफ़ी महंगा होता है, हालांकि RO से सस्ता है। लेकिन UV प्रक्रिया रासायनिक पदार्थों को नहीं हटाती। 

सरकार ने सभी के लिए साफ़ और स्वच्छ जल की उपलब्धता के लिए काम क्यों नहीं किया?

इसकी वज़ह भविष्य के बारे में दूरदृष्टि, बुद्धिमानी और वैज्ञानिक सोच की कमी है। एक बार पानी के संक्रमित होने के बाद, पानी को वापस अपनी मूल अवस्था में लाना असंभव हो जाता है। मैं यहां जर्मनी का उदाहरण देता हूं। जर्मनी ने राइन नदी में प्रदूषण के ख़तरे को पहले ही भांप लिया था। उन्होंने सभी तरह के प्रदूषकों और मल का नदी में बहाव बंद कर दिया। लेकिन पचास साल बाद भी राइन नदी का पानी पीने के लिए सही नहीं है और उसका उपयोग सिर्फ तैरने के लिेए हो पाता है।

भारत में हम भी अपनी नदियों में बड़ी मात्रा में मल, औद्योगिक और घरेलू प्रदूषकों को डाल रहे हैं। हमारे गृह पर मौजूद सभी नदियों में से सिर्फ़ 2 फ़ीसदी में ही मीठा जल उपलब्ध है। जितना हो सके, हमें इस पानी को स्वच्छ रखना होगा। हर कीमत पर इसे प्रदूषित होने से बचाना होगा।  

नया कोरोना वायरस तेजी के साथ पूरी दुनिया में फैला। ऐसा क्यों हुआ और इसका समाधान क्या है?

लापरवाही भरी और अंधाधुंध मानवीय गतिविधियों को अक्सर पर्यावरणीय क्षरण और महामारियों की वज़ह बताया जाता है। कोविड-19 महामारी के साथ भी ऐसा है। नया कोरोना वायरस हवा से फैलने वाला वायरस है, जिसका स्त्रोत् एक जंगली जानवर है। मांस उत्पादों के बड़े स्तर पर उत्पादन के लिए जानवरों को बड़ी मात्रा में एक मानव जनित पर्यावरण में इकट्ठा किया जाता है, इससे पहले से सुसुप्त पड़े वायरस में उत्परिवर्तन हो सकता है। पहले जंगलों में रहने वाले जानवर इंसानों के साथ-साथ एक-दूसरे से भी दूर रहते थे। उन जानवरों में जो वायरस रहते थे, वो जैवविविधता के चलते कमजोर हो गए और फैल नहीं पाए।

आज इंसान जिस तरीके से काम करता है, उससे इन वायरस का हस्तांतरण और फैलाव मानवीय जनसंख्या में आसान हो गया है। बड़े स्तर की मानवीय आवाजाही और उत्पादन ने वायरस के वाहक के तौर पर काम किया है। इस तरह यह वायरस फैल रहे हैं। पहले स्थानीयता और जैव विविधता वायरस को नियंत्रण में रखती थीं।

अगर हमारे ग्रह का मानवीय गतिविधियों के चलते क्षरण हो रहा है, तो मौजूदा पर्यावरणीय संकट के समाधान के लिए आपात कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे?

हमें यह समझना होगा कि जीने के लिए हम जैविक जल, जैविक खाद्यान्न, मिट्टी, यहां तक कि स्वच्छ जैविक हवा जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं। यह ऐसे चयाअपचयी (मेटाबॉलिक) संसाधन हैं, जिनका विकास इंसान के साथ ही हुआ है, इनका कोई तकनीकी विकल्प नहीं हो सकता। हमें जंगल, नदियों और जैविक मिट्टी जैसे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना होगा। जंगलों के नीचे मौजूद पानी, प्राकृतिक वर्षा के पानी जितना ही अच्छा होता है। 

हमने अपनी विकास की चाहत में जीने के लिए जरूरी प्राकृतिक संसाधनों का बहुत क्षरण किया है। एक बार अगर जरूरी विरासत नष्ट हो जाती है, तो उसे वापस नहीं लाया जा सकता। हमारे साथ भी ऐसा ही है। हमें अपने जीवन और भविष्य की पीढ़ियों के लिए इसकी रक्षा करनी होगी। 

क्या यहीं भारत गलत जा रहा है?

हमारी सरकार की आंखों पर पट्टी बंधी हुई है और हम विकसित राष्ट्रों के विकास के तरीकों का मूर्खतापूर्ण ढंग से पालन कर रहे हैं। हम गैर जरूरी उपभोग में लिप्त हैं, हम लगातार अनवीकरणीय अपशिष्ट का उत्पादन कर रहे हैं, जिससे हमारे जीवन के लिए जरूरी प्राकृतिक संसाधन ख़त्म हो रहे हैं। इस मूर्खतापूर्ण सोच ने कई विपदाओं, जैसे- मौसम परिवर्तन और महामारियों को जन्म दिया है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विकसित देशों में स्थिर आबादी और परिदृश्य है। हमारी प्राकृतिक अवसंरचना का तेजी से खात्मा हो रहा है। अगर हम आज कदम नहीं उठाते, तो हमें बहुत बड़ा झटका लगने वाला है- इसमें इंसान सबसे पहले निशाना बनेंगे।

रश्मि सहगल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

‘Unwise for India to Follow Path of Developed Nations’—Prof Vikram Soni

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