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सूचना का अधिकार क़ानून के 15 साल

इस क़ानून से केवल पढ़े लिखे शिक्षित लोगों को ही फायदा नहीं पहुंचा बल्कि उनको भी फायदा पहुंचा जो दूरदराज के इलाकों में बसे हुए थे। इन 15 सालों के दौरान सूचना का अधिकार क़ानून ने लोगों के बीच किसी जमीनी आंदोलन की तरह काम किया है।
सूचना का अधिकार

जरा सोचकर देखिए कि अगर आपको सही तरीके से पता चल जाए कि आपके गांव के मुखिया का काम क्या है? राज्य सरकार पंचायत को कितना पैसा देती है? पंचायत को उस पैसे का इस्तेमाल कहां करना है? एक नागरिक होने के नाते आप मुखिया से किस तरह के सवाल पूछ सकते है?

आप माने या ना माने लेकिन इस तरह की तमाम सवालों का जवाब अगर एक नागरिक को मिलता रहे तो आप यकीन मानिए एक नागरिक अपने आप को बहुत अधिक सशक्त महसूस करता है। जानकारियों और सूचनाओं के अभाव में किसी भी तरह के सिस्टम का चलना बहुत अधिक मुश्किल है। लोकतंत्र का चलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाता है।

इन्हीं सूचनाओं को नागरिकों के अधिकार के तौर पर तब्दील करने का कानून आज से 15 साल पहले 10 अक्टूबर साल 2005 में भारत में लागू हुआ। सैद्धांतिक तौर पर यह कानून भारत के नागरिकों को अधिकार देता है कि वह किसी भी लोक प्राधिकारी से जायज और जरूरी सूचनाएं मान सकें।

साल 2006 में द्वितीय प्रशासनिक सुधार की रिपोर्ट आई थी। इस रिपोर्ट में सूचना के अधिकार पर लिखा गया है कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका इनसे जुड़े सभी पदों पर नागरिकों के साथ खुलेपन के माहौल को विकसित करने की जरूरत है। अगर खुलेपन को नहीं अपनाया जा रहा है तो इसका मतलब है कि अंधकार में रखकर भ्रष्टाचार की संभावनाएं मजबूत हो रही है। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सूचना का अधिकार कानून एक महत्वपूर्ण औजार साबित हो सकता है।

इसलिए इस कानून से केवल पढ़े लिखे शिक्षित लोगों को ही फायदा नहीं पहुंचा बल्कि उनको भी फायदा पहुंचा जो दूरदराज के इलाकों में बसे हुए थे। इन 15 सालों के दौरान सूचना का अधिकार कानून ने लोगों के बीच किसी जमीनी आंदोलन की तरह काम किया है।

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 19 की व्याख्या करते हुए राइट टू इनफार्मेशन यानी सूचना के अधिकार को नागरिकों के मूलभूत अधिकार के तौर पर बतलाया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है राइट टो फ्री स्पीच में यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में जानने की स्वतंत्रता भी शामिल होती है। इसलिए नागरिकों को राइट टू इनफार्मेशन से अलग-थलग नहीं किया जा सकता है।

बिना सही जानकारी के किसी भी तरह की रायशुमारी कमजोर होती है। सरकार को जिम्मेदार और नागरिकों को सशक्त बनाने के लिए जरूरी सूचनाओं का महत्व इसलिए बहुत अधिक बढ़ जाता है। हर साल तकरीबन 60 लाख आवेदन सूचना के अधिकार कानून के तहत भारत में दाखिल किए जाते हैं। सरकार के अंदर पारदर्शिता के नाम पर किया गया दुनिया में नागरिकों द्वारा यह सबसे बड़ा हस्तक्षेप होता है।

राष्ट्रीय आंकड़े बताते हैं कि गरीब और गांव के लोगों ने सूचना के अधिकार कानून के तहत सबसे अधिक आवेदन दाखिल किया है। सरकार द्वारा मदद के तौर पर नागरिकों को दी जाने वाली सर्विस डिलीवरी के लचर होने की दशा में राइट टू इनफार्मेशन ने गरीब और हाशिए पर मौजूद लोगों की सबसे अधिक मदद की है।

कोविड-19 के दौरान वेंटिलेटर, ICU bed की मौजूदा संख्या से लेकर बहुत सारी जरूरी सूचनाएं आरटीआई की वजह से ही बाहर आ पाई। Corona की महामारी के दौरान प्रधानमंत्री कार्यालय ने पीएम केयर्स फंड बनाया। राष्ट्रीय आपदा कोष और राज्य आपदा कोष होते हुए भी प्रधानमंत्री कार्यालय ने ऐसा कदम क्यों उठाया? पीएम केयर्स फंड में कितने पैसे आए? यह सारी जानकारियां आरटीआई की वजह से नहीं मिल पाई। प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह कहा कि पीएम केयर्स फंड आरटीआई के दायरे में नहीं आता है। इसका आनाकानी का क्या मतलब निकाला जाए। क्या यह कहना गलत होगा कि आरटीआई की वजह से कम से कम यह तो संदेह मजबूत हो रहा है कि आपदा के नाम पर लिए गए पैसे का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा है?

कमोडोर बत्रा की आरटीआई की वजह से इलेक्टोरल बांड में होने वाली धांधलियां सामने आई। यह बात खुलकर पता चली कि भाजपा ने चंदे की पारदर्शिता के नाम पर इलेक्टोरल बांड का जो सिस्टम बनाया है, वह कोई सिस्टम नहीं बल्कि पारदर्शिता के नाम पर बनाया गया एक ऐसा परनाला है जिससे बह कर अधिकतर चंदे के पैसे भाजपा को मिलते हैं।

इस तरह से आरटीआई कानून के जरिए हिंदुस्तान के 130 करोड़ लोगों के पास यह संभावना मौजूद रहती है कि वह जब मर्जी तब सरकारी फाइलों में हो रही धांधलियों को उजागर कर व्हिसल ब्लोअर में तब्दील हो जाए। खुद ही सरकारी कामकाज की ऑडिटिंग करने लगे। इसीलिए सरकार आरटीआई से मिले नागरिक सशक्तता से डरती है।

और हर संभव आरटीआई को कमजोर करने में लगी रहती है। अगर कानून का उल्लंघन होता है तो किसी भी तरह के झगड़े का निपटारा करने के लिए केंद्र में केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य में राज्य सूचना आयोग की संस्था बनी है। लेकिन साल 2019 में आरटीआई कानून में संशोधन कर यह लिख दिया गया कि केंद्र और राज्य सूचना आयोग के सदस्यों का कार्यकाल और वेतन निश्चित नहीं होगा। इसमें जब मर्जी तब केंद्र सरकार फेरबदल कर सकती है। इस कानूनी प्रावधान का इशारा साफ है कि अगर केंद्र और राज्य सूचना आयोग ने ऐसा कुछ भी किया जिससे सरकार के छेद दिख सकते हैं तो इनकी खैर नहीं।

इसके साथ सरकार सही वक्त पर इनफॉरमेशन कमिश्नर की नियुक्ति नहीं करती है। परिणाम यह होता है कि नागरिकों के आवेदन शिकायत सब लंबे समय तक धरे के धरे रह जाते हैं। कोई पूछने वाला नहीं होता है। जानने का मूलभूत अधिकार अधिकारियों की गैरमौजूदगी की वजह से बहुत अधिक परेशान करने वाली प्रक्रिया में बदल जाता है।

साल 2014 से लेकर अब तक इनफॉरमेशन कमिश्नर का एक भी पद सरकार ने तब तक नहीं भरा जब तक मामला अदालत तक नहीं पहुंचा। अभी स्थिति यह है कि केंद्र सरकार के 11 इनफॉरमेशन कमिश्नर में से 6 पद खाली पड़े हुए हैं।

चीफ इनफॉरमेशन कमिश्नर का भी पद खाली है। 2014 के बाद यह पांचवीं बार है कि चीफ इनफॉरमेशन कमिश्नर के तौर पर किसी को जिम्मेदारी नहीं सौंपी गई है। ठीक यही हाल राज्य सरकारों का भी है। तकरीबन 8 राज्य सूचना आयोग की चीफ इनफॉरमेशन कमिश्नर की पदवी खाली है। त्रिपुरा और झारखंड का हाल तो और अधिक बुरा है। ना कोई कमिश्नर है और ना ही कोई सूचना आयोग है।

यह है सूचना के अधिकार कानून की अब तक की संक्षिप्त कहानी। चलते चलते एक लाइन मशहूर पॉलिटिकल फिलॉस्फर जेम्स मेडिसिन की पढ़िए। जेम्स मेडिसिन ने कहा था कि जो व्यक्ति अपना शासक खुद बनना चाहता है उसे खुद को इतना समर्थवान बनाना होगा कि सारी जानकारियों तक उसकी पहुंच बन पाए।

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