वैज्ञानिक मिज़ाज, लैंगिक व सामाजिक न्याय, भारत की संकल्पना पर हुआ मंथन
अखिल भारतीय जन विज्ञान कांग्रेस (एआइपीएससी), जो सामान्यत: हर दो साल में एक बार होती है, कोविड-19 महामारी के चलते दो साल तक टलने के बाद, गत 6 से 9 जून 2022 तक भोपाल में संपन्न हुई। महामारी से जुड़ी आशंकाओं को देखते हुए, अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए, इस बार जन विज्ञान कांग्रेस के लिए प्रतिनिधियों की संख्या भी काफी कम कर दी गयी थी। जहां सामान्यत: इस आयोजन में 500 से 550 तक प्रतिनिधि शिरकत करते आए हैं, इस कांग्रेस में करीब 350 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया, जिनमें आल इंडिया पीपल्स साइंस नैटवर्क (एआइपीएसएन) के सदस्य, 37 संगठनों के प्रतिनिधियों के अलावा अनेक पर्यवेक्षक तथा आमंत्रित रिसोर्स पर्सन भी शामिल थे। पाठकों को याद दिला दें कि एआइपीएसएन का स्वरूप एक संघ का है, जिसके अंतर्गत सदस्यों के रूप में समान विचार वाले राज्य स्तर के स्वतंत्र संगठन, एक साझा एजेंडा तथा समझदारी के साथ एकजुट हुए हैं। 1980 के दशक के आखिरी वर्षों में एआइपीएसएन के गठन के बाद से गुजरे इन तमाम वर्षों में, समय-समय पर उसके साथ नये संगठन जुड़ते रहे हैं।
पूर्णाधिवेशन और समापन सत्र
देश के वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए और वैज्ञानिक व अकादमिक समुदाय, नागरिक समाज कार्यकर्ताओं व सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा आम तौर पर जनता के सामने खड़ी चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए, इस जन विज्ञान कांग्रेस में विचार के लिए तीन व्यापक विषय तय किए गए थे–आत्मनिर्भरता, वैज्ञानिक मिजाज और भारत की संकल्पना। इन्हीं कुंजीभूत चिंताओं को केंद्र में रखते हुए, इस जन कांग्रेस के विभिन्न तकनीकी सत्रों में बहस-मुबाहिसा हुआ। इन सत्रों के विषय इस प्रकार थे: वैज्ञानिक मिजाज, आत्मनिर्भरता, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन, कृषि, आजीविकाएं और लैंगिक व सामाजिक न्याय। इन विषयों को, 7 तथा 8 जून को दोपहर के भोजन से पहले के सत्रों को दो हिस्सों में बांटकर, दो-दो समांतर उप-पूर्णाधिवेशनों में लिया गया, जबकि दोपहर के भोजन के बाद के सत्र में इन सभी विषयों से जुड़े मुद्दों पर अलग-अलग कार्यशालाओं का आयोजन किया गया। इसके अलावा, 6 जून को दोपहर बाद विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन सत्र हुआ। इसके अलावा मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के विकास पर एक विशेष सत्र का आयोजन किया गया और 9 जून को इस कांग्रेस का समापन पत्र हुआ।
जन विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन तथा समापन सत्रों को जाने-माने वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने संबोधित किया और इस 17वीं कांग्रेस के मुख्य विषयों पर अपने विचार रखे। उद्घाटन सत्र में जाने-माने पत्रकार व कार्यकर्ता, पी साईनाथ ने आज के संदर्भों में भारत की संवैधानिक संकल्पना के महत्व पर जोर दिया और विशेष रूप से सामाजिक न्याय के कमजोर किए जाने के खतरों को, आम बेरोजगारी की परिघटना को और मीडिया पर राजनीतिक नियंत्रण के खतरों को रेखांकित किया। चेन्नई स्थित, इंस्टीट्यूट ऑफ मैथमेटिकल साइंसेज की डॉ इंदुमती ने सिर्फ विज्ञान के दायरे में तथा शिक्षा संस्थाओं में ही नहीं बल्कि आम तौर पर पूरे समाज के स्तर पर भी वैज्ञानिक नजरिए के महत्व पर जोर दिया।
जाने-माने हिंदी कवि-लेखक तथा मध्य प्रदेश के निवासी, राजेश जोशी ने भारत की विविधता और मिली-जुली संस्कृति के महत्व पर जोर दिया। और केरल की पूर्व-स्वास्थ्य मंत्री सुश्री शैलजा टीचर ने, जिनकी महामारी से निपटने के प्रति वैज्ञानिक तथा संवेदनशील दृष्टि को सारी दुनिया में सराहा गया था, ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के महत्व पर जोर दिया और केरल की सहभागितापूर्ण शासन व्यवस्था तथा विकेंद्रीकृत सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के प्रति, वहां जन-जागृति की भूमिका को रेखांकित किया, जिनके सहारे वहां की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था तक राज्य के एक-एक निवासी की पूरी पहुंच सुनिश्चित की गयी है।
समापन सत्र में झारखंड में दुमका स्थित, सिधु-कानू मुर्मु यूनिवर्सिटी की वाइस चांसलर, प्रो सोनझरिया मिन्ज से सामाजिक मुद्दों की समझ के लिए वैज्ञानिक दृष्टि के महत्व पर जोर दिया और वैज्ञानिकों व अन्य विशेषज्ञों से अपील की कि आम लोगों के तार्किक रुख को और खासतौर पर आदिवासी इलाकों के लोगों के गुजर-बसर, आजीविका तथा वहनीय जीवन शैलियों के मुद्दों के प्रति रुख की तार्किकता को पहचानें। हैदराबाद स्थित, एनएएलएसएआर यूनिवॢसटी ऑफ लॉ के वाइस चांसलर, डॉ फैजान मुस्तफा ने एक भावपूर्ण प्रस्तुति करते हुए, रेखांकित किया कि किस तरह साक्ष्य-आधारित तर्क तथा विचार की बहुलता और भिन्न विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता, वैज्ञानिक मिजाज की नींव हैं। उनका कहना था कि ठीक इसीलिए, वैज्ञानिक मिजाज हमले के निशाने पर है।
उन्होंने आगे यह दलील भी दी कि 42वें संविधान संशोधन के अंतर्गत, वैज्ञानिक मिजाज के संविधान में जोड़े जाने से पहले भी, उक्त आधारगत सिद्घांत हमारे संविधान का आधार बने हुए थे और हमारे संविधान की स्थापना के लिए आधार बनाने वाले सिद्धांत बने हुए थे। पुणे स्थित आइआइएसईआर के प्रो सत्यजीत रथ ने आत्मनिर्भरता के लिए शोध तथा विकास के महत्व पर और खासतौर पर सार्वजनिक क्षेत्र में ऐसे शोध तथा विकास के महत्व पर जोर दिया। चेन्नई के ही इंस्टीट्यूट आफ मैथ साइंस के ही डॉ रामानुजम ने भारत में उच्चतर शिक्षा तथा शोध को, वर्तमान संदर्भ के लिए तथा जनता की जरूरतों के लिए, और ज्यादा प्रासांगिक बनाने की जरूरत पर जोर दिया।
वैज्ञानिक मिजाज
इस विषय से संबंधित उप-पूर्णाधिवेशन के वक्ताओं ने और खासतौर पर डॉ इंदुमती ने, उद्घाटन सत्र से शुरू हुई चर्चा को आगे बढ़ाया। उन्होंने तथा डॉ विवेक मोंटेरियो ने इसकी जरूरत पर जोर दिया कि सिर्फ वैज्ञानिक जानकारियों का ही प्रसार नहीं किया जाए बल्कि शैक्षणिक कक्षाओं में रचनात्मक शिक्षण शास्त्र के प्रयोग के जरिए, वैज्ञानिक मिजाज को पाला-पोसा जाए और इसके साथ ही प्रश्नाकुलता को बढ़ावा दिया जाए तथा जीवन के प्रति साक्ष्य-आधारित रुख को बढ़ावा दिया जाए, जिसमें ज्ञान उपलब्ध न होने को स्वीकार करना भी शामिल है। होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजूकेशन से जुड़े वक्ताओं ने प्राचीन भारत में वैज्ञानिक ज्ञान के कई पहलुओं को रेखांकित किया, जिन पर हमारे देश के लोग सचमुच गर्व कर सकते हैं। लेकिन, इसके साथ ही उन्होंने मिथकों के सहारे तथा भ्रामक पूर्वकल्पनाओं के सहारे हिदुत्व के पैरोकारों द्वारा किए जाने वाले अनाप-शनाप दावों का खंडन भी किया। सीएसआइआर से जुड़े रहे, गौहर रजा ने मौजूदा हालात में, वैज्ञानिक मिजाज के प्रसार को एक राजनीतिक काम के तौर पर लिए जाने की मांग की। मणिपुर के पत्रकार, किशोर चंद्र वांगखेम ने, जिन्हें अन्यायपूर्ण तरीके से इसीलिए जेल में डाल दिया गया था कि उन्होंने गोमूत्र तथा गोबर से कोविड का उपचार हो सकने का, सार्वजनिक रूप से खंडन किया था, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिफाजत के लिए और ज्यादा सक्रियता का आह्वान किया। इस विषय से संबद्घ तीन कार्यशालाओं में से एक में वैज्ञानिक मिजाज का प्रसार करने के लिए, ब्रह्मांड पर आधारित संचार कार्यक्रमों के उपयोग की संभावनाओं की छानबीन की गयी। एक और कार्यशाला में विभिन्न छद्म विज्ञानों को बेनकाब किया गया, जबकि तीसरी कार्यशाला में विज्ञान के सम्प्रेषण की विभिन्न प्रौद्योगिकियों पर ध्यान केंद्रित किया गया।
आत्मनिर्भरता
इस प्रश्न पर उप-पूर्णाधिवेशन तथा कार्यशालाओं में हुई चर्चा में अनेक वक्ताओं ने इस पर जोर दिया कि भारत में नवउदारवादी प्रतिमान के अंतर्गत, विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को भारी क्षति पहुंच रही है। साम्राज्यवाद के वर्चस्व के समग्र संदर्भ में इस नवउदारवादी रास्ते की शुरूआत 1990 के दशक से हुई थी और मौजूदा शासन द्वारा इसे जोर-शोर से आगे बढ़ाया जा रहा है। दिनेश अब्रोल तथा सात्यकी राय ने ध्यान दिलाया कि किस तरह विकास के आयात निर्भर रास्ता अपनाए जाने के चलते, कृषि निर्यातों, विदेशी निगमों के लिए सूचना व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विज्ञान व प्रौद्योगिकी के कार्य, जीनोम शोध आदि, के जरिए भारत से संसाधनों का बाहर की ओर बहुत भारी उत्प्रवाह हुआ है। रघुनंदन ने रेखांकित किया कि इसका खतरा है कि कथित चौथी औद्योगिक क्रांति में भारत पूरी तरह से पिछड़ ही जाए। यह क्रांति आने वाले दशकों में कृत्रिम मेधा, इंटरनैट ऑफ थिंग्स, भूमि पर तथा हवा में चलने वाले स्वचालित वाहनों, स्वचालन, नवीकरणीय ऊर्जा तथा उससे जुड़े भंडारण आदि के माध्यम से, विश्व अर्थव्यवस्था पर हावी हो जाने वाली है। इस क्रांति के मामले में भारत पिछड़ने की वजह बनेगा, शोध व विकास के लिए तथा खासतौर पर सार्वजनिक क्षेत्र में शोध व विकास के लिए, राजकीय सहायता का अभाव और इसके प्रति निजी क्षेत्र में भी दिलचस्पी का अभाव क्योंकि वह विदेशी कंपनियों के साथ गठजोड़ करने तथा इन गठजोड़ों में मातहत का दर्जा मिलने पर ही संतुष्ट होकर बैठ सकता है। भारत पहले भी इलैक्ट्रोनिक्स, सेमी-कंडक्टर तथा बड़े पैमाने पर उत्पादन के अवसरों का दोहन करने में 1980 तथा 1990 के दशकों के दौरान चूक चुका है और भविष्य में देश के युवाओं को अंधकारपूर्ण भविष्य का सामना करना पड़ सकता है।
रेलवे फैडरेशन के इलेंगोवन ने रेलवे में रेंग-रेंगकर बढ़ते निजीकरण की चर्चा की और रेखांकित किया कि किस तरह सरकार जनता के हित में, उद्योग जगत के हित में और ऊर्जा सक्षमता के हित में, रेलवे को उन्नत बनाने में विफल ही रही है। अखिल भारतीय किसान सभा के अध्यक्ष, डा0 अशोक ढवले ने कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के बहुत ही महत्वपूर्ण होने पर जोर दिया और ध्यान दिलाया कि किस तरह भारत दवाओं तथा तिलहनों के मामले में आयात निर्भर बना हुआ है, जबकि इन सभी को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत लाया जाना चाहिए। उन्होंने विश्व व्यापार संगठन के अन्यायपूर्ण नियमों के संदर्भ में भारतीय किसानों की मांगों का समर्थन करने के लिए एकता का भी आह्वान किया।
कृषि
डॉ सोमा मारला ने कृषि के 75 वर्ष पर एआइपीएसएन की किताबिया का सार संक्षेप प्रस्तुत किया। इस पुस्तिका में आजादी के बाद से भारतीय कृषि के यात्रा पथ को प्रस्तुत किया गया है और इस क्षेत्र के तीव्र संकट को उजागर किया गया है। इस संकट को शोध व विकास तथा विस्तार सेवाओं के लिए राजकीय सहायता के छीजते जाने ने और बढ़ा दिया है। जलवायु परिवर्तन तथा स्थानीय पर्यावरण व्यवस्थाओं पर उसके असर के खतरों ने इस संकट को और उग्र कर दिया है। अन्य वक्ताओं ने विश्व व्यापार संगठन के नियमों से पैदा हो रही चुनौतियों और उनके मामले में कारगर तरीके से हस्तक्षेप करने के प्रति सरकार की अनिच्छा पर ध्यान केंद्रित किया। सरकार की यह अनिच्छा, कृषि क्षेत्र में कारपोरेटों के बढ़ते प्रभाव को दिखाती है। दिनेश अब्रोल ने इस पर जोर दिया कि विश्व व्यापार संगठन की व्यवस्था में कृषि के सिलसिले में भारत की भागीदारी को और खासतौर पर घरेलू सहायता, बाजार तक पहुंच तथा निर्यात अंकुशों के मामले में भारत की भागीदारी को, घटाया जाना चाहिए। कार्यशालाओं में कोलकाता विश्वविद्यालय में एग्रो-इकॉलाजी इंटर्नशिप पर हुए दिलचस्प मैदानी परीक्षणों व केस स्टडीज की, प्राकृतिक गुड़ के मामले में फूड प्रोसेसिंग उद्योग के साथ काम पर और जल संरक्षण तथा नवोन्मेषी कृषि तरीकों पर रिपोर्टें पेश की गयीं।
पर्यावरण
रघुनंदन ने विहगावलोकन पेश करते हुए रेखांकित किया कि किस तरह भारत में वर्तमान शासन द्वारा सुनिश्चित तरीके से पर्यावरणीय नियमन को ढीला या खत्म किया जा रहा है ताकि ‘कारोबार की आसानी’ को बढ़ावा दिया जा सके। इसके हिस्से के तौर पर निवेश को आकर्षित करने की होड़ में राज्यों को ‘तली की ओर दौड़’ लगाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उन्होंने इसकी ओर भी ध्यान खींचा कि जलवायु परिवर्तन से पहले ही भारी मार पड़ रही है, जैसे शहरों में बाढ़ व भूस्खलन, तटीय भूमि के कटाव तथा सागर के जल स्तर का ऊपर चढऩा, जिससे अगले कुछ सालों में प्रमुख तटवर्ती शहरों के डूब जाने का खतरा है और मुख्य फसलों की पैदावार में तथा गुणवत्ता में गिरावट आयी है। वक्ता ने जन विज्ञान आंदोलन (पीएसएम) का आह्वान किया कि पर्यावरण के मामले में सरकार द्वारा कदम उठाए जाने की मांग करते हुए, जमीनी स्तर पर आंदोलन छेड़े जाएं। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की कांची कोहली ने पर्यावरण के मामले में विनियंत्रण की समस्या को रेखांकित किया और इसकी चर्चा की कि किस तरह अनेक प्रकट तथा परोक्ष तरीकों से यह विनियंत्रण किया जा रहा है और इसका पर्यावरण पर तथा जनता पर विभिन्न पहलुओं से कितना भारी असर पड़ रहा है। अगले वक्ता ने इसकी चर्चा की कि भारतीय संदर्भ में, कोयला-आधारित बिजली उत्पादन को छोडक़र, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर जाने की और ऐसा करते हुए प्रतिव्यक्ति ऊर्जा उपलब्धता को बढ़ाने की, कैसी संभावनाएं हैं? इस संदर्भ में उन्होंने विभिन्न विकल्पों तथा उनकी शक्तियों व सीमाओं की चर्चा की, जैसे नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन की अस्थिरता को देखते हुए ग्रिड की स्थिरता का मुद्दा और ऊर्जा के भंडारण के विकल्प, जैसे पम्प्ड भंडारण तथा ग्रीन हाइड्रोजन आदि। इसकी भी चर्चा की गयी कि विशेष रूप से कार्यबल के पहलू से, कोयला-आधारित ऊर्जा से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर ‘न्यायपूर्ण संक्रमण’ एक और मसला है, जिसका समाधान निकालने की जरूरत है। ओ पी भुरैटा ने अपनी विस्तृत प्रस्तुति में बताया कि किस तरह हिमालयी क्षेत्र में हाल में हुई कुछ बड़ी दुर्घटनाएं, प्रकटत: तो अतिवृष्टि तथा भूस्खलन जैसी प्राकृतिक घटनाओं के चलते हुई हैं, लेकिन वास्तव में खुद इंसान द्वारा लायी गयी आपदाएं थीं, जिनके पीछे खराब नियोजन, विकास के विकृत मॉडलों का और सडक़ों व अन्य ढांचागत सुविधाओं के निर्माण की हानिकारक पद्घतियों का हाथ था, जिसमें जल-विद्युत परियोजनाएं भी शामिल हैं। इस सबने मानव-कृत जलवायु परिवर्तन को उग्र बना दिया है। इस क्षेत्र की जनता द्वारा बढ़ते पैमाने पर इनका विरोध भी किया जा रहा है।
शिक्षा
आल इंडिया पीपुल्स साइंस नैटवर्क अपनी स्थापना के समय से ही शिक्षा के पहलू से गहराई से जुड़ा रहा है और वर्तमान शासन की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के खिलाफ मजबूती से प्रचार करता आया है। इसमें राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर की कन्वेंशनों का आयोजन भी शामिल है, जिनमें अन्य सभी हितधारकों को भी शामिल किया गया था। एआइपीएसएन ने इस सिलसिले में एक किताब भी प्रकाशित की है, जिसमें एनईपी की नुक्ता-दर-नुक्ता आलोचना प्रस्तुत की गयी है। इस जन विज्ञान कांग्रेस के संबंधित उप-पूर्णाधिवेशन में अनेक वक्ताओं ने एनईपी के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की। जेएनयू के प्रोफेसर सुरजीत मजूमदार ने एनईपी के पीछे काम कर रही राजनीति को और खासतौर पर इसमें निहित व्यापारीकरण तथा निजीकरण पर जोर को और इसके केंद्रीयकरणकारी तथा सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से एकरूपताकारी बलाघात को रेखांकित किया। दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर अनीता रामपाल ने रेखांकित किया कि किस तरह से शासन ने, स्कूली शिक्षा से पूरी तरह से हाथ ही खींच लिया है और अनगिनत स्कूलों को बंद कर दिया है। इससे इस क्षेत्र में निजी खिलाडिय़ों या एनजीओ के प्रवेश के लिए गुंजाइश बनी है। यह शिक्षा के भगवाकरण के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है और वर्चुअल या दूरस्थ शिक्षा की भूमिका को बढ़ाया जा रहा है। अन्य वक्ताओं ने इस पर चर्चा की कि किस तरह एनईपी में कमजोर तबकों के लिए या आम तौर पर सामाजिक न्याय के लिए ही शायद ही कोई गुंजाइश है, जबकि गरीब तथा कमजोर तबकों के छात्रों को बाहर धकेलने की व्यवस्था इसमें अंतर्निहित है। एनईपी, पहले की शिक्षा नीतियों के रास्ते के, जिसमें शिक्षा का अधिकार कानून का रास्ता भी शामिल है, पूरी तरह से त्यागे जाने को दिखाती है। पहले का रास्ता शिक्षा के मामले में शासन की भूमिका बढ़ाने का, कमजोर तबकों के हितों की रक्षा करने का और शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने का रास्ता था। संबंधित कार्यशालाओं में इन मुद्दों पर विस्तार से चर्चा हुई। इस क्रम में विभिन्न राज्यों में एआइपीएसएन द्वारा किए गए सर्वेक्षणों के नतीजे भी पेश किए गए, जिन्हें प्रैस ने भी काफी विस्तार से कवर किया। ये सर्वेक्षण अन्य चीजों को अलावा यह दिखाते हैं कि सरकार की ओर से जिन ऑनलाइन शिक्षण की व्यवस्थाओं का इतना ढोल पीटा जाता है, उनके बावजूद महामारी के दौरान बच्चों के प्रचंड बहुमत को शिक्षा से पूरी तरह से वंचित ही रहना पड़ा है। जन विज्ञान आंदोलन द्वारा संचालित सामुदायिक शिक्षा केंद्रों के ठोस अध्ययन से पता चलता है कि इन सामुदायिक शिक्षण केंद्रों को बहुत व्यापक पैमाने पर इसके लिए सराहा गया है कि उनके जरिए ऑफलाइन शिक्षा, सहपाठियों के साथ सिखाई तथा आवश्यक सामाजीकरण का, व्यावहारिक अवसर मिल रहा था।
स्वास्थ्य
एआइपीएसएन, कोविड-19 महामारी के विभिन्न पहलुओं के संदर्भ में बहुत ही सक्रिय रहा है। इसमें नीतियों से लेकर, सरकार के कदमों तक और विज्ञान व प्रौद्योगिकी के उपयोग व दुरुपयोग, टीकाकरण आदि तक सभी पहलू शामिल रहे हैं। एआइपीएसएन ने एक कितबिया भी प्रकाशित की थी, जिसमें इस महामारी के संदर्भ में उसके द्वारा जारी 140 वक्तव्यों और पोजीशन पेपर्स को संकलित किया गया है। जैसाकि अनुमान लगाया ही जा सकता है, जन विज्ञान कांग्रेस में स्वास्थ्य के प्रश्न पर चर्चा मुख्य रूप से महामारी तथा उससे उभरने वाले मुद्दों पर ही केंद्रित रही। इससे संबंधित उप-पूर्णाधिवेशन में, डॉ सत्यजीत रथ ने स्वास्थ्य से संबंधित ज्ञान, जानकारियों व शोध के मामले में, आत्मनिर्भरता के संदर्भ में भारत के सामने उपस्थित चुनौतियों की चर्चा की। उन्होंने जानकारियां एकत्र करने के मामले में सार्वजनिक संस्थाओं की कमजोरियों को रेखांकित किया और ध्यान दिलाया कि किस तरह से सरकार की ओर से साक्ष्य-आधारित निर्णयों के अभाव में, महामारी पर नियंत्रण के लिए स्वास्थ्य संबंधी खराब निर्णय लिए गए। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि किस तरह वैज्ञानिक साक्ष्यों तथा नियमनकारी मानकों के हिसाब से चलने के प्रति सरकार के प्रतिरोध के चलते, टीकों के संबंध में दोषपूर्ण निर्णय लिए गए और इन निर्णयों के सारी दुनिया में भारतीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी की प्रतिष्ठ के लिए, अवांछित नतीजे निकले। उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य व शोध संस्थाओं में बड़े सुधार किए जाने की और विकेंद्रीयकृत क्षमता निर्माण की जरूरत पर जोर दिया।
डॉ समीर गर्ग ने महामारी के दौरान छत्तीसगढ़ के हालात की छानबीन के नतीजे पेश किए और रेखांकित किया कि किस तरह इस मुख्यत: आदिवासी आबादी वाले राज्य में इन संस्थाओं की तमाम कमजोरियों के बावजूद, जनता की नजरों में सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थाओं की प्रतिष्ठा बढ़ी है। इसके विपरीत, अन्य राज्यों में निजी चिकित्सा संस्थाओं ने गुणवत्ता तथा सेवा मुहैया कराने में, तरह-तरह से समझौते किए थे। डा0 इंदिरा चक्रवर्ती ने मोटे तौर पर स्वास्थ्य क्षेत्र की वित्त व्यवस्था के पहलू की चर्चा की और रेखांकित किया कि किस तरह सुनियोजित तरीके से इसका ज्यादा से ज्यादा बोझ जनता के कंधों पर ही डाला जा रहा है। उन्होंने जोर देकर कहा कि स्वास्थ्य को फिर से एक सामाजिक वस्तु के रूप में और कल्याणकारी राज्य के एक अभिन्न अंग के रूप में स्थापित करने के लिए, जनांदोलनों की जरूरत है। कार्यशालाओं में हुई प्रस्तुतियों में, दिल्ली साइंस फोरम की रिचा चिंतन ने, महिलाओं, किशोरों तथा बच्चों के स्वास्थ्य के संबंध में पहलों की चर्चा की; दिल्ली साइंस फोरम के इंद्रनील ने डिजिटल हैल्थ मिशन पर अपनी प्रस्तुति में दिखाया कि किस तरह, सरकार द्वारा तथा निजी क्षेत्र द्वारा व विशेष रूप से बीमा एजेंसियों द्वारा लोगों से जुड़ी जानकारियों तथा डॉटा का अपारदर्शी तरीके से इस्तेमाल किया जा रहा है; मध्य प्रदेश से सुश्री आरती तथा हरियाणा से डॉ दहिया ने आशा कार्यक्रम के लिए सहायता व्यवस्थाओं के अभाव तथा उनकी क्षमताओं के विकास की जरूरत पर चर्चा की; और दिल्ली साइंस फोरम के वी आर रमण ने दवा नीति तथा मूल्य निर्धारण पर चर्चा की। कार्यशालाओं में राज्यों के स्तर पर चलायी गयी अनेक गतिविधियों की जानकारी भी साझा की गयी, जैसे तमिलनाडु में गांव स्तर पर किए गए अध्ययन और तेलंगाना में चलाए गए स्वास्थ्य जागरूरकता के कार्यक्रम।
लैंगिक व सामाजिक न्याय
बड़ी संख्या में भागीदारी वाले उप-पूर्णाधिवेशन तथा कार्यशाला में वक्ताओं ने महिलाओं, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों तथा अन्य उत्पीडि़त तबकों के अधिकारों से तथा उनके लिए अवसरों की उपलब्धता से जुड़े विभिन्न पहलुओं की चर्चा की। प्रो मिन्ज ने उच्च शिक्षा में इन सभी तबकों की अनुपात से घटकर भर्ती को रेखांकित किया और इन तबकों के बीच व्यापक रूप से फैली गरीबी के चलते और उनकी क्षमताओं के संबंध में घिसी-पिटी धारणाओं के चलते, उनके हालात और भी खराब होने की चर्चा की। एडवा की मैमूना मौल्ला ने संघर्षों में महिलाओं की शिरकत के रास्ते में धार्मिक बाधाओं की चर्चा की और इस पर जोर दिया कि असली बाधा सामाजिक आचारों तथा धार्मिक कर्मकांडों से आती है, न कि धार्मिक विचारों व सिद्धांत मात्र से। उन्होंने पिछले कुछ वर्षों की तरह, एडवा-एआइपीएसएन के और ज्यादा संयुक्त अभियानों की जरूरत पर जोर दिया। हरियाणा पीपल्स साइंस मूवमेंट के प्रमोद गौरी ने इसकी चर्चा की कि किस तरह से सामाजिक न्याय का आग्रह, हमारे संविधान की विभिन्न धाराओं में गहराई से पैठा हुआ है और यह संविधान के मूलभूत मूल्यों का हिस्सा है। कर्नाटक के एन प्रभा ने इस समय देश में संवैधानिक अधिकारों के बढ़ते उल्लंघन की चर्चा की और एआइपीएसएन द्वारा लैंगिक समानता तथा सामाजिक न्याय के लिए और ज्यादा अभियान चलाए जाने का आग्रह किया। प्रो प्रज्वल शास्त्री ने विज्ञान व प्रौद्योगिकी के शोध व उच्च शिक्षा में महिलाओं की बहुत कम हिस्सेदारी की विस्तार से चर्चा की और इस असंतुलन को दूर करने के लिए और ज्यादा सतत कदमों की जरूर पर जोर दिया।
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