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18 साल की लड़कियों का आजादी के ऊपर सबसे बड़ा दांव लगा है

प्रज्ञा सिंह के साथ एक इंटरव्यू में सुरिंदर एस जोधका आजादी के बाद भारत के गांवों के विकास पर चर्चा कर रहे हैं।
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Image courtesy: The NewsMinute

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफेसर सुरिंदर एस जोधका ने जाति, सामाजिक वर्गीकरण, ग्रामीण और कृषिगत बदलावों पर बहुत लिखा है। प्रज्ञा सिंह के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने आजादी के बाद के शुरूआती सालों से भारत के गांवों के विकास और देश के गणराज्य बनने पर चर्चा की है।

इस इंटरव्यू के मुद्दे उनके और एडवर्ड सिंपसन द्वारा संपादित हालिया किताब ''इंडियाज़ विलेज इन द ट्वंटीफर्स्ट सेंचुरी: रीविजिट्स एंड रिवीज़न (India’s Villages in the 21st Century: Revisits and Revisions)'' का विषय भी हैं।

जोधका भारतीय लोकतंत्र की जड़ों की चर्चा करते हैं और बताते हैं कि क्यों शाहीन बाग जैसे आंदोलन एक अपरिवर्तनीय सामाजिक बदलाव लाते हैं। जोधका कहते हैं, ''मैं पिछले चार साल से कह रहा हूं कि अगर कोई भारतीय लोकतंत्र को बचा सकता है तो वो 18 साल की उम्र की लड़कियां हैं, जिनका आजाद रहने में सबसे ज्यादा दांव लगा हुआ है।'' जोधका आगे कहते हैं, ''आज वो जहां हैं, उसे वहां तक पहुंचने में संघर्ष करना पड़ा है। उनके पास अपनी सहूलियतें भी हैं और उन्हें बखूबी महसूस हुआ है कि यह सब सहूलियतें हैं, जिन्हें वापस भी लिया जा सकता है।''

आपकी हालिया किताब ग्रामीण जीवन में ज़मीन की अहमियत पर दोबारा जोर देती है। लेकिन किताब में बताया गया है कि आज भी ज़मीन उन्हीं लोगों और समुदायों के पास है, जिनके पास पहले हुआ करती थी। अगर ऐसा है तो हालिया दशकों में ग्रामीण भारत में क्या बदला है?

जिन लोगों के पास ज़मीन है, कुछ मायनों में वे वर्चस्ववादी वर्ग हैं। मैं वर्ग शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं, जबकि यह जातियां हैं, प्रभुत्वशाली जातियां। जाति में भी दो या तीन परिवारों के पास बड़ी मात्रा में ज़मीन है और सभी लोग उनपर निर्भर होते हैं। क्योंकि वही उनके रोजगार का साधन होता है। वह उनके माई-बाप होते हैं, वो इस मायने में कि उन्हें अगर अपने बच्चे की शादी के लिए कुछ पैसों की जरूरत होती है, तो यह प्रभुत्वशाली परिवार उन्हें देते हैं। जमीन अधिकार के साथ संरक्षक-संरक्षित का रिश्ता भी चलता रहता है।

तो पहली बात कि अब यह बदल गया है। इसके दो कारण हैं पहला- अब कामगार संबंधों में अनौपचारिकता आई है। पहले जमीनधारियों और जिनके पास ज़मीन नहीं होती थी, उनके बीच एक जुड़ाव होता था, बाद वाले लोग स्वाभाविक तौर पर दलित थे, जिनके पास किसी भी तरह की ज़मीन नहीं थी। जजमानी के तौर पर पहचानी जाने वाली यह प्रथा आज पूरी तरह से लगभग सभी जगह खत्म हो चुकी है।

फिर भी इसके कुछ अवशेष बाकी हैं, जैसे मल उठाने का काम दलित जातियों के अलावा कोई नहीं करेगा। जैसा आपने कहा कि अभी भी ज़मीन उन्हीं समुदायों और जातियों के पास है, जिनके पास पहले थी। लेकिन जो दूसरा बड़ा बदलाव आया है, वह यह है कि लोगों के पास ज़मीन की मात्रा बहुत कम हो गई है। बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तरप्रदेश और राजस्थान में ज़मीनों पर अधिकार की इस सामंतवादी प्रवृत्ति को भूमि सुधारों ने कुछ नुकसान पहुंचाया था। लेकिन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में हरित क्रांति ने बड़ा बदलाव किया। उदाहरण के लिए मजदूर बिहार से पंजाब प्रवास करते रहे हैं, लेकिन जैसे ही रोजगार के दूसरे साधनों के चलते बिहार बदला लालू प्रसाद यादव जैसे राजनेताओं का उभार संभव हुआ।

तो इसलिए अब लोगों के पास ज़मीनों की मात्रा कम हुई है, साथ ही ज़मीन पर अधिकार रखने वालों की संख्या भी पहले की तुलना में गिरी है। इसका क्या प्रभाव हुआ?

हरित क्रांति के कुछ अमीर किसान शहरी पेशों की ओर मुड़े। वहीं कुछ राजनीति के ज़रिए शहरों में रियल एस्टेट का काम करने चले गए। उनके बच्चे शहर में डॉक्टर, वकील और कई दूसरे पेशों को अपनाते गए। इस तरह के प्रवास ने गांव से उनके प्रवक्ता भी छीन लिए।

उदाहरण के लिए 1980 के दशक में भारत के कई हिस्सों में बहुत ताकतवर किसान आंदोलन हुआ था। पंजाब में मैंने देखा भारतीय किसान यूनियन के नेता शहरी मंडियों में जाकर आड़तिये बन गए। जबकि इसी यूनियन ने उस आंदोलन का नेतृत्व किया था। उन्होंने उस विविधता को अपना लिया, जिसका वे विरोध कर रहे थे। वे गांवों से अलग हट गए, इसलिए गांवों के लिए बोलने वाला कोई नहीं बचा। यह वही वक्त था जब गांवों में किसानों ने आत्महत्याएं शुरू कर दीं और किसान राजनीति अपने अवसान की ओर मुड़ने लगी।

पिछले सात दशकों में साथ ही उन लोगों की संख्या भी कम हुई, जो कृषि पर निर्भर थे। हां यह सही है कि ग्रामीण जनसंख्या की हिस्सेदारी कुल जनसंख्या में 85 फ़ीसदी से घटकर 67 फीसदी हुई है। लेकिन कुल ग्रामीण लोगों की संख्या आजादी से बाद से पांच गुना बढ़ गई। जितने ज्यादा लोग कृषि पर निर्भर होंगे, लोगों के हाथों में जोतें उतनी ही छोटी होती जाएंगी। यह तब तक होगा, जब तक आप विविधता नहीं लाते। कुछ लोग उद्यम के स्तर पर अपने पेशे में विविधता लाए हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों ने जीवन यापन के स्तर की ही पेशेगत विविधता हासिल की है।

उदाहरण के लिए, किसी बिल्डिंग के बाहर बतौर सिक्योरिटी गार्ड तैनात बिहार, छत्तीसगढ़ या झारखंड का भूमिहार। उसके पास आधा एकड़ ज़मीन बची है, जिसपर गांव में उनके पिता और पत्नियां जीवन यापन कर रहे हैं। यह एक नए किस्म का शहरी-ग्रामीण समझौता है। यही हमारी किताब का तर्क है कि बदलाव की दिशाएं बदली हैं, भले ही सब जगह तरीके ही अहम दिखाई पड़ते हों।

इन दिशाओं और तरीकों से आपका क्या मतलब है?
 
देखो, दिल्ली में मौजूद यह सुरक्षा गार्ड कभी ''शहरी'' नहीं होता। वह एक वृत्तीय प्रवासी है। वो अपना कामगार जीवन यहां गुजारता है,लेकिन गांव में आधा एकड़ जमीन उसे जिंदा रहने के लिए जरूरी है। जबकि आज के गांव में आप शहर से बहुत करीब से जुड़े हैं।

इसी तरह अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग दिशाएं हैं। बिहार में कृषि में कोई निवेश नहीं हुआ। जबकि वहां की ज़मीन अच्छी है। लेकिन पंजाब में हरित क्रांति के बाद कोई भी बहुत ज्यादा गरीब नहीं है। कोई गांव में भूखा नहीं है। वे शहर आते हैं और टैक्सी ड्राईवर बन जाते हैं। लेकिन वो किसी निर्माण की जगह पर मजदूरी नहीं करते। पंजाब में कोई जाट किसान अपनी जमीन का एक एकड़ बेंचकर अपने बेटे को विदेश भेज सकता है और अपनी आय में विविधता ला सकता है। वहीं बिहारी मजदूर के लिए विविधता अपनाना जिंदा रहने की जरूरत है। क्योंकि आधे एकड़ ज़मीन के साथ आप जीवन नहीं गुजार सकते। इसलिए वो शहर जाते हैं और भूख से बचने के लिए जहां काम मिलता है, वहां कर लेते हैं।

रजनी कोठारी ने कहा कि जाति ने अपना किरदार बदल लिया है, लेकिन खुद को नहीं बदला है। क्या आज भी जाति 60 या 70 पहले जितनी ही ताकतवर है?

मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि यह एक प्रभावशाली जाति का तर्क है। क्योंकि इस विचार में जाति को क्षैतिज वास्तविकता मान लिया गया है और इसे ''भारतीय नागरिक समाज'' की तरह देखा जाता है। इसलिए लोकतंत्र और जाति को आपस में समन्वयकारी मान लिया जाता है। इस नज़रिए के साथ दिक्कत यह है कि इसमें असमता जारी रहती हैं।

शहरी पेशेवर वर्ग की तुलना में प्रभुत्वशाली ग्रामीण जातियां हाशिए पर हैं, लेकिन जाति के आधार पर उनके मोब्लाइजेशन से ही वो राजनीतिक प्रक्रिया में बराबरी की हिस्सेदार बनती हैं। आज दलित शहरों में पहुंचकर चुनाव लड़ने में कामयाब रहे हैं, लेकिन असमता बनी हुई है, क्योंकि उनके पास ज़मीन नहीं है। जैसा हम जानते हैं, आधा एकड़ या दो एकड़ जमीन भी हरियाणा, पंजाब या महाराष्ट्र में आपके जीवन में बड़ा बदलाव ला सकती है।

तो बिहार के ग्रामीण इलाकों की उच्च जाति के लोग आईएएस ऑफिसर या उद्यमी बनते हैं और दुनियाभर में जाते हैं। वहीं पिछड़े वर्ग के लोग सब्जी वाले वेंडर, अति पिछड़ा वर्ग के लोग सिक्योरिटी गार्ड बनते हैं। लेकिन दलित निर्माण कार्य में मजदूर बनते हैं। इसे हमने और दूसरों ने अनुभव के आधार पर महसूस किया है। इसलिए किसान समाज की अवधारणा भारत में काम नहीं करती।

इसलिए जातियों के चलते किसानों को बड़े पैमाने पर संगठित नहीं किया जा सकता। इसलिए रजनी कोठारी पर्याप्त तरीके से सही नहीं हैं। मैं यह नहीं कहता कि वो पूरी तरह गलत हैं। वहां कुछ क्षैतिज समेकन (horizontal consolidation) है, लेकिन जाति की समता नहीं हैं। इस शब्दावली को एम एन श्रीनिवास ने लोकप्रियता दिलवाई थी। उदाहरण के लिए शहरी उच्च वर्ग खुद को संगठित और उच्च पदों पर स्थिर करने के लिए जाति को संसाधन की तरह इस्तेमाल करती है।

मतलब यह है कि वे चाहें या न चाहें, उन्हें जातिगत फायदा होता है?

नहीं, वे सक्रिय तरीके से इसका इस्तेमाल करती हैं। न केवल पारिवारिक उद्यम में, बल्कि औद्योगिक भर्ती में भी। यह नेटवर्क के जरिए होता है। जाट, पाटीदार और मराठा लोगों के बच्चे क्यों प्रदर्शन कर रहे हैं? वे शिक्षित हैं, हालांकि उनकी शिक्षा का स्तर खराब है। लेकिन सबसे अहम बात कि उनके पास नेटवर्क नहीं है। इसलिए उनका समेकन, उच्च जाति के जातिगत समेकन से अलग है, जो मेरिट और जातिविहीनता के इर्द-गिर्द रचा गया है। उच्च जाति, जाति व्यवस्था के खिलाफ होने का दिखावा करती है, जबकि वे अपनी निजी जगह बड़ी सावधानी और चालाकी से मेरिट के नाम पर बचाती हैं। दलितों के लिए तो यह और भी खराब है। उनके पास ज़मीन नहीं है और गांवों में रोजगार भी नहीं है। लेकिन शहरी अर्थव्यवस्था में उनके हिस्से केवल अनौपचारिक क्षेत्र का सबसे निचला काम आता है।

आपकी किताब के निबंधों में बताया गया है कि उद्योगों के पास के गांवों में रहने वाले शहरों में काम करते हुए गांवों में रहने में कामयाब रहे हैं? क्या बड़े पैमाने पर रोजगार से जातिगत ढांचा बदल सकता है?

पहले सरकार ने नौकरियां पैदा की थीं। उदाहरण के लिए भारतीय रेल ने नौकरियां पैदा कीं, इस तरह गतिशीलता आई। हमारा अध्ययन बताता है कि कुलीन लोग वे हैं, जिनके परिवार के ज्यादातर लोग गांव के बाहर अच्छी नौकरियां कर रहे हों। लेकिन 90 के दशक के बाद बाहर के रोजगार में फैक्ट्रियों के मालिकों और सरकारों ने सीधी भर्तियां खत्म कर दीं। ज्यादातर नौकरियों के लोग एजेंसियों से से आउटसोर्स करवाए जाने लगे। जिन्होंने कांट्रेक्टर्स को यह जिम्मेदारी सौंपी।

यहीं नाते-रिश्तेदारों वाला नेटवर्क अहम हो जाता है। जब एक निश्चित मात्रा में रोजगार उपलब्ध हो, तो संभावना यह है कि ओबीसी को नौकरी मिले, न कि दलित को। क्योंकि उनके पास अच्छा नेटवर्क होगा। इस तरह 90 के दशक के बाद जाति ने खुद को फिर ज्यादा प्रबलता से दिखाना शुरू कर दिया।नौकरी के लिए भर्ती करने वाले आमतौर पर रिश्तेदारी और दूसरे तरह के नेटवर्क पर काम करते हैं। इस तरह पहचान के ईर्द-गिर्द बुनी असमानता फिर जन्म लेती है। किसी गैर-कुलीन जाति को सहूलियत वाली नौकरियां तभी मिलेंगी, जब मांग बहुत ज्यादा हो या खुली भर्ती हो।

इस पृष्ठभूमि में हम समुदायों का उद्वेलन कैसे समझें? हम जाति आधारित टकराव देखते हैं, लेकिन अंत:जातीय असमानता का असफल महत्वकांक्षाओं के अहसासों को बनाने में क्या योगदान है?

अनुभवजन्य अध्ययनों से इसके कुछ उत्तर दिए जा सकते हैं। यह बताते हैं कि जैसे ही लोग प्रभुत्वशाली जातियों मे ऊपर जाते हैं, वे अपनी जाति-समुदाय के एकीकरण में निवेश करते हैं। उदाहरण के लिए कम्मा जाति के लोग खुद के समुदाय के लिए बड़े पैमाने पर लोकोपकार के काम में लगे हैं। अग्रवाल समुदाय के साथ भी यही चीज है। उदाहरण के लिए उन्होंने अग्रसेन को अपना भगवान बनाया, पत्रिकाएं शुरू कीं, शहरी विशेषाधिकारों को बचाने के लिए उन्होंने जातिगत संगठनों में निवेश किया, जो शादी के विकल्प जैसे सवाल के आसपास घूमते हैं। इसके बाद उनकी तादाद लोकतांत्रिक राजनीति के ज़रिए भी सामने आती है।

हर कोई अपनी रिश्तेदारी पर आधारित समुदाय के विकास में लगा है और जाति आधारित राजनीति को फैला रहा है, जो बीजेपी को मदद कर रही है, क्योंकि वे ओबीसी और उच्च जातियों आदि के पुराने एकीकरण की अपेक्षा चालाकी से इन जाति आधारित संगठनों में पहुंच बनाने में कामयाब रहे हैं।

तो अगर किसी प्रभुत्वशाली समुदाय में असमता ज्यादा भी है, तो भी वे बंटवारे की बजाए एकीकरण की ओर मुड़ेंगे?

यह बेहद अहम है। नव-उदारवादी पूंजीवाद में जिन लोगों को विशेषाधिकार प्राप्त हैं, या प्राप्त रहे हैं और जिन्हें विशेषाधिकार नहीं मिले, वो अब उन संसाधनों की तलाश में हैं, जिन पर नियंत्रण किया जा सके। ऐसा करने के लिए आपको कुछ संपर्कों, कुछ नेटवर्क की जरूरत होती है। भारत में हमारे पास व्यापक विश्वास की कमी होती है, नहीं तो अमेरिका में कॉरपोरेट स्थानीय चर्च की मदद से भर्तियां करवाते हैं। क्योंकि आपको व्यक्ति की निष्ठा की जरूरत होती है, जो सिर्फ बाजार आधारित ना हो।

90 के दशक के बाद जाति ज्यादा अहम संसाधन बन गई है, क्योंकि बड़े पैमाने पर रोजगार की अनुपलब्धता के चलते लोकतांत्रिक राजनीति अब ज्यादा अहम संसाधन बन गई है। इसलिए चाहे शहर में या गांव में, आप अपने रिश्तेदारों के बीच ही रहते हैं।

गणतंत्र दिवस पर हम संविधान के बारे में सुनते हैं। लेकिन क्या लोग अपने अधिकारों के बारे में जागरूक हैं? अगर वो किसी ज़मींदार से बंधे रहना नहीं चाहते या अछूत प्रथा पूरी तरह रुक चुकी है, तो इसका मतलब है कि उन्हें अपने अधिकारों के बारे में पता है। लेकिन किस हद तक?

ग्रामीण-शहरी द्वैध खुद शहरी मध्यम वर्ग के एकाधिकार की रणनीति का हिस्सा है। जहां हम यह दावा करते हैं कि ग्रामीण लोगों के लिए क्या बेहतर है। जबकि अपनी स्थितियों के मुताबिक वे लोग हमसे बेहतर समझते हैं। स्वाभाविक है कि ग्रामीण सत्ता का ढांचा पहले की जातिगत आधारित राजनीति से अलग हो चुका है। अब यह वर्ग आधारित राजनीति पर चलता है, जहां राज्य की योजनाएं किसी ग्रामीण के जीवन यापन का अहम हिस्सा बन चुकी हैं। यह योजनाएं बीच में मध्यस्थ की भूमिका को अहम बनाती हैं, जिन्हें हम ''राजनीतिक उद्यमी'' या नेता कहते हैं, जो बहुत अहम कनेक्टर बन जाते हैं।

एक विमर्श यह भी है कि विपक्ष का एक हिस्सा सरकार द्वारा प्रस्तावित  एनआरआईसी के खिलाफ बहुत मुखर नहीं है। इस पर एक बात यह निकलती है कि एनआरआईसी एक ऐसी सेवा बनेगी, जिसे नेता आम लोगों तक पहुंचाएंगे।

(हंसते हुए) हां, बिलकुल इसी तरह राजनीतिक उद्यमी खुद की अपिरहार्यता बनाए रखते हैं। इसी तरह ताकत कस्बों से देश तक पहुंचती है। वही लोग आज शहर आ चुके हैं, जो ग्रामीण राजनीति पर क्लाइंट आधारित नेटवर्क के ज़रिए नियंत्रण रखते हैं। हां, वहां लैंगिक भेद हैं, वर्ग भेद हैं, लेकिन लोकतंत्र का दायरा बहुत दूर तक फैला है।और हम इस भावना को दूर नहीं कर सकते कि हम सब बराबर हैं। कम से वोट के अधिकारों में तो बिलकुल नहीं।

1987 या 1988 में मुझसे एक आदमी ने कहा था कि बंधुआ मजदूरी कैसे ''एक पत्नी की तरह है, जिसके शरीर पर काम देने वाले का पूरा अधिकार होता है''। उसी गांव में बीस साल बाद यही शब्द दोहराए गए। उस गांव में आज भी कुछ बंधुआ मजदूर हैं। इसलिए आजादी का अपना मूल्य है। अगर उन्हें काम करते हुए दस रुपये कम भी मिलें (शहर में काम करते हुए) तो भी इसकी कीमत ज्यादा होगी।

केवल लोकतंत्र ही नहीं, गावों में लोग अर्थव्यवस्था को भी बेहतर समझते हैं। जबकि हम उन्हें सीधे और तार्किक तौर पर न सोचने वाला समझते हैं। उदाहरण के लिए वे न जानते हुए भी मार्क्स की सरप्लस लेबर की थ्योरी जानते हैं: ''देखो यहां मैं 12 घंटे काम करता हूं। बाहर में छ: घंटे में इतना कमा लेता हूं। छ: घंटे कहां गए? यो तो ले गया ना…'' इसलिए गांव में लोग जो मुझे बताते हैं, वह हम क्लासरूम में पढ़ाते हैं। जैसे ''मार्क्स लेबर थ्योरी ऑफ वेल्यू'', ''द थ्योरी ऑफ एक्सप्लॉयटेशन''….जैसी चीजें हम वैसे देखने के आदी हैं।हरियाणा में बीजेपी इतनी लोकप्रिय क्यों बनी? क्योंकि स्थानीय स्तर पर निर्भरता के संबंधों में बदलाव आया है। लोग आवाजाही कर रहे हैं। वो डेरों में जाते हैं, जहां वे आपसी जुड़ाव के संबंध को महसूस करना चाहते हैं।

क्या भारत बीस-तीस या पचास साल पहले की तुलना में आज ज्यादा धार्मिक है?

ग्रामीण इलाकों के लोग पहले की तुलना में ज्यादा धार्मिक हैं। जिसे हम ''मोबाइल रिलिजियोसिटी'' कहते हैं, वह भी बढ़ी है। पहले धर्म को घर पर व्यवहार में लाया जाता था। आज आपके पास कांवड़िए हैं, डेरों में जाते लोग हैं। आपके पास हिंदू होने का विचार भी है। जिसका मतलब कुछ हद तक वैश्विक होना भी है। धर्म वह संसाधन भी है, जिसके आधार पर आप दूसरों से संबंध बनाकर एक समुदाय होने और सुरक्षित होने का अहसास भी पाते हैं, आज गांवों में यह नहीं है।

और सरकार तीर्थ यात्राओं को बढ़ावा दे रही है…

सरकार जानती है कि इस चीज की मांग है। इसलिए वो इसकी व्यवस्था करवाती है। यह ग्राहक आधारित नई राजनीति है, जहां सेवाओं के प्रावधान हैं। जैसे आप पंजाब के रविदासियों को हर साल बनारस भेजने का प्रबंध करवाते हैं।

बनारस में बने उस रविदासी मंदिर, जिसे सोने के साथ दोबारा गढ़ा गया है…
हां, बनारस का वही रविदासी मंदिर जिसे जालंधर के पंजाबी दलितों ने बनाया है… (हंसते हुए)

अगर समुदाय धर्म में उलझ रहे हैं, तो क्या यह राज्य की असफलता नहीं है?

कुछ हद तक बिलकुल। आप उस संसाधन का एकीकरण करते हैं, जो आपके पास है। लोग धार्मिक कार्य को एक ''संसाधन'' की तरह देखते हैं। यही वह एक तरीका है जिससे वे लोग इंसान होने और बराबर बने रहने के बारे में सोचते हैं। एक ग्रामीण परिवार के बारे में सोचिए जिसका एक बेटा ऑफिसर बन गया है। अब वह खुद के घर नहीं आना चाहता। इस तरह गतिशीलता से आप मनौवैज्ञानिक तरीके से अपने समुदाय से दूर होते चले जाते हैं।

यह राजनीति में कैसे बदलाव करता है? क्या यह एक नए तरह की जजमानी प्रथा है?लोग कई तरह की गतिशीलताओं के लिए तैयार हैं। हिंदुत्व उनमें से एक है, जो जाति, संरक्षक-ग्राहक संबंधो, यहां तक कि लैंगिक बाध्यताओं के परे चला जाता है।

हमने जाति के बारे में बात की। लेकिन ग्रामीण भारत में समुदाय संबंध कैसे बदल गए?

लोग आमतौर पर शहरों में प्रवास करते हैं। इसलिए शहरों की जातीगत भिन्नता ग्रामीण वास्तिविकता से अलग होती है। लेकिन गांव भी शहरों से अलग नहीं है, इसलिए जब पहचान आधारित राजनीति सामान्य हो जाती है तो यह फैलती है। जब पहचान या सामुदायिक विवाद शुरू होता है, तो उन्हें भी फैलना ही होता है।

1980 के दशक में पानीपत के पास मैं कुछ गुज्जर लोगों से मिला। वो गुज्जर मुस्लिम थे। उन्होंने कहा कि हम बंटवारे के वक्त गांव में ही रुक गए। उन्होंने तर्क दिया कि वे हिंदू भी बन जाएंगे। यहां तक कि गांव के हिंदू गुज्जरों में भी कोई धार्मिकता नहीं थी, इसलिए सांप्रदायिकता के बावजूद गुज्जर मुस्लिम गांव में टिके रह पाए।

उस गांव में कोई मस्जिद भी नहीं थी। जहां तक 1980 में मेरे पहले फील्डवर्क की बात थी, तो उस वक्त वहां कोई मुस्लिम भी नहीं था। फिर मैं 2008 में उस गांव में लौटा। वहां कई मुस्लिम थे, और एक या दो मस्जिदें भी थीं। यह मुस्लिम कौन थे? यह वही गुज्जर परिवार थे, जो रुक गए थे। दरअसल उन लोगों ने अपने बच्चों की शादी यमुना पार वाले गुज्जर मुस्लिमों से की।

यमुना के उत्तर प्रदेश वाली तरफ?

हां, उन्होंने उत्तरप्रदेश के मुस्लिम गुज्जरों से शादियां की। जहां से वो मुस्लिम परंपराएं साथ लाए और जिनकी मदद से गांव में उन्होंने मस्जिद बनवाई। इस बीच अचनाक हमने सुना कि गांव का जोगी भी मुस्लिम था, न कि हिंदू (हंसते हुए)। तब तक वो जोगी थे, किसी को उनके धर्म का नहीं पता था। लेकिन जब उनसे विकल्प चुनने को कहा गया तो उन्होंने कहा कि उनके भगवान हिंदू धर्म से ज्यादा इस्लाम के करीब हैं। इसलिए उन्होंने खुद को मुस्लिम कहना शुरू कर दिया। यह बंटवारे हाल ही में दिखना ज्यादा शुरू हुए। खासकर पिछले एक या दो दशकों में। तो हां, ग्रामीण इलाकों में भी जातिगत आधार के साथ-साथ धार्मिक आधार पर भी आज बंटवारा ज्यादा है।

तो यह गणतंत्र बनने के सत्तर साल बाद भारत को कहां लेकर आ गया है?

मुझे लगता है कि आजादी के बाद हमने खुद को विकास आधारित राज्य बनाकर अच्छा किया। अगर हमने पाकिस्तान की तरह का विकल्प चुना होता तो हम और भी ज्यादा बुरी स्थिति में होते। विकास राज्य के बिना नहीं हो सकता था और राज्य लोकतंत्र के बिना जिम्मेदार नहीं बन सकता था। लोकतंत्र या चुनावी राजनीति ने राज्य को इस तरह बदल दिया है कि वो जमीन की वास्तिविकताओं से पूरी तरह अलग नहीं हो सकता।

आज परिस्थितियां बदल रही हैं। वह बेरंग दिखने लगी हैं। हम नहीं जानते कल क्या होगा। लेकिन मुझे लगता है कि लोग अब खुद को विकास के नजरिए से देख रहे हैं। आज उनमें खुद के प्रति वास्तिविकता का अनुभव जीवन जीने के सवाल, बेहतर जिंदगी और बेहतर अधिकारों से आता है।

अब राजनीति लोगों की नागरिकता पर सवाल उठा रही है, लेकिन ग्रामीण भारत शहरी लोगों की तरह उद्वेलित नहीं है। एनआरआईसी की जटिल प्रक्रिया खुद ग्रामीण लोगों के लिए सजा बन सकती है।

मैं जानता हूं तुम क्या कह रही हो। लेकिन मैं यह जानने का दावा नहीं कर सकता कि ग्रामीण भारत एनआरआईसी के मुद्दे पर गतिशील क्यों नहीं हुआ। बात यह है कि भारतीय समाज को सराहना चाहिए कि एक निम्न-मध्यम वर्ग के पिता ने अपनी बेटी को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया…. जबकि परिवार कोई बेटा चाहता था, या उनके पास बेटा था। अपने सभी संसाधन लगाते हुए उस पिता ने अपनी बेटी को जेएनयू, जामिया या आईआईटी भेजा। यह युवा लड़कियां महज बीस साल में जितनी बुद्धिमान और मुखर हैं, उतना तो मैं चालीस की उम्र में भी नहीं था! भारत में कुछ बदल गया है, जिसे आप पहले जैसा नहीं कर सकते।

आप ज्यादा हिंसा के साथ बदल सकते हैं। आपने पुलिस के हमले देखे होंगे…

लेकिन यह तो कुछ और होगा ना? यह समाज का पहले जैसा बदलाव नहीं होगा। आपके पास फासीवाद हो सकता है। लेकिन यह 1950 का दशक नहीं है। हां, आज चीजें नकारात्मक तरीके से बदल रही हैं, लेकिन यह पीछे जाने से अलग है। यह लड़कियां पीछे नहीं जा सकतीं। पिछले चार सालों से मैं कह रहा हूं कि आज अगर भारतीय लोकतंत्र को कोई बचा सकता है तो वो यह 18 साल की लड़कियां हैं। इनका आजादी में सबसे बड़ा दांव लगा है। उन्होंने यहां तक पहुंचने के लिए संघर्ष किया है। वो जानती हैं कि यह एक विशेषाधिकार है, इसे वापिस भी लिया जा सकता है।

आज शिक्षा पर हमला हो रहा है। इसमें कोई संशय नहीं है। लेकिन शिक्षा के लिए उत्साह कम नहीं हो रहा है। हर दिन यह बढ़ रहा है। आज हर कोई कहता है कि संविधान को बचाना है। यह एक सकारात्मक कदम है, जिसमें लोकतंत्र की झलक है। मौजूदा राजनीति कुछ चीजों को काट रही है, लेकिन लोगों द्वारा इस बात को महसूस करना कि दांव पर क्या लगा है, यह अपने आप में ही बड़ा हासिल है।

क्या शाहीन बाग एक बेहद शहरी अवधारणा है?

हां। भारतीय इतिहास में पहली बार भाईचारे को गतिशील किया जा रहा है। इस बारे में आंबेडकर बात किया करते थे। लोग पहली बार इस बारे में सोच रहे हैं कि दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार रखना जरूरी है। यह एक शहरी अवधारणा है। लेकिन वहां जो बच्चे हैं, वह शहरी मध्यम वर्ग से नहीं हैं…

तो वे कौन हैं?

यही मैं कह रहा हूं: शहरी-ग्रामीण अलगाव जैसा कुछ है ही नहीं। उनमें से कई बिहार से दिल्ली आए होंगे और यहां दस सालों, पांच सालों या कुछ महीनों से ही रह रहे होंगे। अगर मध्यप्रदेश के किसी छोटे कस्बे में शाहीन बाग हो रहा होता, तो हमें पता भी नहीं चलता। भारत में हर जगह कितने ही विरोध प्रदर्शन होते हैं, उन्हें पहचान नहीं मिलती। शाहीन बाग इसलिए शाहीन बाग है, क्योंकि यह दिल्ली में हो रहा है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

18-Year-Old Girls With Stakes in Azaadi Will Save Indian Democracy

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