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दो टूक: घृणा और हिंसक हिंदुत्व के जरिए साधा जाएगा 2024 का आम चुनाव

मणिपुर, उत्तराखंड और महाराष्ट्र इन सभी घटनाओं को एक साथ जोड़ कर देखा जाए तो चौंकाने वाले निष्कर्ष मिलते हैं। आरएसएस अपने शताब्दी वर्ष से पहले केंद्र की सत्ता में कायम रहने के लिए किसी भी स्तर तक जाने की तैयारी में जुट गया है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर।

एक माह से हिंसा की आग में जल रहे मणिपुर के निवासियों से राष्ट्रीय स्वय़ंसेवक संघ ने शांति की अपील की है। हज़ारों लोग विस्थापित हो चुके हैं, सैकड़ों घायल और सौ से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। इंफाल से लेकर विष्णुपुर, चूराचांदपुर... पूरे मणिपुर में तनाव के हालात बने हुए हैं। सवाल ये भी है कि ये अपील पीएम मोदी ने क्यों नहीं की। क्यों उन्होंने उस राजधर्म का पालन नहीं किया, जिसका हवाला पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दिया था। अटलजी ने इसी जून के महीने में 2001 को मणिपुर में हुई अशांति के वक्त अपील जारी की थी। आरएसएस की इस अपील से साफ है कि इन हालात का जिम्मेवार कौन है। संघ भी तब चेता जब केंद्रीय मंत्री आरके रंजन सिंह के घर पर पेट्रोल बम फेंका गया। बीजेपी कार्यालयों की तोड़फोड़ की गई, बीजेपी की प्रदेश अध्यक्ष ए शारदा देवी के घर पर हमला किया गया। सिंगजमई, तोंगजू और इंफाल ईस्ट को भी निशाना बनाया गया है।

ये अलग बात है कि सत्ता के लिए अनैतिक गठबंधनों की सियासत ही सत्तारूढ़ बीजेपी के गले का फंदा बन गई है। लेकिन बात सिर्फ इतनी सी नहीं है। आगामी लोकसभा चुनाव और पूर्वोत्तर की राजनीति में बीजेपी का स्थाई वोटबैंक तैयार करने के लिए हिंसा की सियासत का रास्ता खोल दिया गया है। यही महाराष्ट्र और उत्तराखंड में शुरू हो चुका है और साल भर में पूरे देश को अपनी चपेट में लेने को तैयार है।

उधर महाराष्ट्र में मुसलमानों के खिलाफ नफरत की आग से जल उठा कोल्हापुर किसी तरह शांत हुआ तो लातूर भड़क उठा। लातूर के बाद किसी और राज्य और उसके शहर को चुना जाएगा। औरंगजेब की डीपी या पोस्टर लगाना हिंसक हिंदुत्व के सांड को लाल कपड़ा दिखाने जैसा हो गया है। ऐसा लगता है कि हिंदुत्ववादियों को अचानक पता चला है कि चार सौ साल पहले औरंगजेब नाम का एक हिंदू विरोधी शासक था, जो कब्र से निकल आया है और पहले से खतरे में हिंदुत्व के लिए एक और खतरा बन गया है। अब लातूर में सोशल मीडिया पर औरंगजेब की डीपी लगाने पर बवाल मचाया गया। हिंदू संगठन सड़कों पर आ गए। दुकानें बंद करवाईं। महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने शांति की अपील के बजाय कहा कि “महाराष्ट्र में अचानक औरंगजेब की औलादें पैदा हुई हैं। इसके कारण एक दुर्भावना समाज में पैदा हो रही है जिसके चलते तनाव भी बढ़ रहा है। सवाल यह है कि औरंगजेब की औलादें कहां से पैदा हो रही हैं।”

बस फिर क्या था, हिंदू सांप्रदायिकता फैलाने वाले इस बयान के जवाब में मुस्लिम फिरकापरस्ती को भी जुबान मिल गई। एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी कूद पड़े जुबानी जंग में ओवैसी ने कहा कि ''महाराष्ट्र के गृह मंत्री फडणवीस बोले कि ये औरंगजेब की औलाद। अच्छा... आपको पूरा मालूम। कौन किसकी औलाद है, ये आपको मालूम है। मुझे नहीं पता था कि इतने एक्सपर्ट हैं आप। फिर ये गोडसे की औलाद कौन है, ये आप्टे की औलाद कौन है बोलो।"

ये सुनियोजित नूरा कुश्ती लड़ी जा रही है। लेकिन सवाल ये है कि ये उन इलाकों में क्यों तलाशी जा रही हैं, जहां से विपक्षी दलों ने जीत दर्ज की है और ये विरोधी दलों के गढ़ माने जाते हैं। कुल मिला कर 2024 आम चुनाव के साथ राज्य विधानसभा के लिए सांप्रदायिक उन्माद का माहौल अभी से बनाया जाने लगा है। महाराष्ट्र में पिछले पांच महीनों में सात से ज्यादा सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं देखने को मिली हैं। कोल्हापुर को केंद्र बनाने की वजह ये भी रही कि इसे कांग्रेस-एनसीपी का गढ़ माना जाता है। यहां की दस विधानसभा सीटों में से चार कांग्रेस, दो एनसीपी और तीन निर्दलीय के पास हैं। शिंदे शिवसेना के पास सिर्फ एक है। लिहाजा कोल्हापुर ध्रुवीकरण की राजनीति का शिकार बनाया गया। लातूर कभी कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री (दिवंगत) विलासराव देशमुख की कर्मभूमि रहा करती थी। यहां से बीजेपी सांसद सुधाकर श्रंगारे ने नेतृत्व से शिकायत करते हुए कहा था कि दलित होने की वजह से उन्हें स्थानीय कार्यक्रमों में भी बुलाया नहीं जाता। हिंदुत्व के वैचारिक खांचे में ऐसे सवाल नाफरमानी माने जाते हैं। ज़ाहिर है कि बीजेपी को लातूर को हिंदुत्व का गढ़ बनाना जरूरी है।

हालात कुछ इस कदर बिगाड़े जा रहे हैं कि हिंदुत्व के गुंडों के सामने कानून और प्रशासन की कोई हैसियत नहीं है। कोल्हापुर में एक प्राध्यापिका ने सोशल मीडिया पर सिर्फ इतना लिखा कि औरंगजेब ने महिलाओं को कभी प्रताड़ित नहीं किया, इस पर कोल्हापुर फिर एक बार उबल पड़ा। कमेंट से जाहिर है कि वो महिला पहलवानों से हो रही बदसुलूकी को लेकर उद्वेलित रही होंगी। लेकिन प्राध्यापिका के खिलाफ सड़कों पर मार्च निकाला गया, नारेबाजी की गई। दरअसल ये हिंसा के जरिए विपक्ष के साथ बुद्धिजीवी वर्ग को संदेश देने का प्रयास है। उन्हें बताया जा रहा है दाभोलकर, गौरी लंकेश की तरह उनका भी नंबर आएगा। लिहाजा हिंदुत्व के खिलाफ बोलना उचित नहीं है।

हिंसक हिंदुत्व की राजनीति का सबसे नग्न, कायराना और विकृत उदाहरण उत्तरकाशी में मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने की घटना है। बताया जा रहा है कि यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक पत्रकार और हिंदू संगठनों ने मिल कर सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की साजिश रची। पीड़ित परिवार के मुताबिक जानबूझ कर लव जिहाद का रंग देते हुए फर्जी शिकायत पत्र उक्त पत्रकार महोदय ने तैयार किया। थाने में पीड़ित परिवार ने तथ्यों से असहमति जताते हुए शिकायत पर दस्तखत करने से मना कर दिया। पुरोला थाने के एसएचओ खजान सिंह चौहान ने भी इस बात की तस्दीक की। साथ ही ये भी बताया कि आरोपियों और पीड़िता के कॉल रिकॉर्ड चेक कर लिए गए थे, उनमें आपस में बात नहीं होती थी। लेकिन दबाव बढ़ने पर पाक्सो की धाराओं के तहत उबैद और जितेंद्र सैनी को जेल भेज दिया गया। इधर हिंदू संगठनों ने मुसलमानों को प्रदेश से निकालने की मुहिम छेड़ दी। हालांकि 2024 के आम चुनाव से पहले नफरत का बाज़ार तैयार करने की ये साजिश बहुत हद तक नाकाम रही। स्थानीय लोगों ने मुसलमानों के पलायन का विरोध किया, लिहाजा बहुत से परिवारों ने रुकने की हिम्मत जुटा ली। फिर भी बड़ी संख्या में मुस्लिम परिवार पुरोला छोड़ कर जा चुके हैं। उनका सदियों से साथ रह रहे हिंदू पड़ोसियों से भरोसा उठ गया।

इन घटनाओं को एक साथ जोड़ कर देखा जाए तो चौंकाने वाले निष्कर्ष मिलते हैं। आरएसएस अपने शताब्दी वर्ष से पहले केंद्र की सत्ता में कायम रहने के लिए किसी भी स्तर तक जाने की तैयारी में जुट गया है। हिंसा को न्यायोचित ठहराना उसका बहुत पुराना विमर्श है। यहां तक कि सावरकर ने बलात्कार को भी राजनीतिक हथियार घोषित कर दिया था। इसीलिए बिलकीस बानों के बलात्कारियों की देश के स्वाधीनता दिवस के दिन रिहाई संयोग नहीं, स्पष्ट रूप से प्रयोग है। वहीं, गांधी विरोध भी मुखर हो चला है। हाल ही में बीजेपी के एक नेता ने गांधी विरोध जताते हुए साफ कहा कि अगर गांधी अहिंसावादी नीति पर नहीं चलते तो आजादी पैंतीस बरस पहले मिल जाती। हालांकि ये बयान इस मायने में भी बेतुका है कि आजादी से पैंतीस बरस पहले महात्मा गांधी अफ्रीका में थे। एक केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह तो नाथूराम गोडसे को देश के सपूत कहते हैं। साफ है कि अब कोई दुराव छिपाव नहीं रहा। नकाब उतार फेंका गया है। देश की सत्ता बाबरी मस्जिद की तरह हो गई है। जिसे तोड़ने की भूमिका शिवसेना, बजरंग दल और दूसरे हिंदूवादी संगठनों ने तैयार की। आखिर में खाकी निकर वालों ने ऊपर चढ़ कर तस्वीरें खिंचवा ली। आज बजरंग दल बनाने वाले विनय कटियार हाशिए पर हैं।

दुनिया में वैचारिक संघर्ष राजनीतिक विकल्पों को लेकर होता रहा, जिसमें देश और समाज के विकास की प्रक्रिया और सातत्य को लेकर संवाद होता है। चाहे वो लोकतंत्र का पूंजीवादी मॉडल हो या समाजवादी मॉडल। लेकिन लोकतंत्र से मिली आजादी के इस्तेमाल से ही लोकतंत्र को खत्म करने की रणनीति पर संघ और बीजेपी अमल कर रही है। समता, समानता, न्याय और बंधुत्व के मूल लोकतांत्रिक विचारों का ही जहां विरोध हो, वहां ना तो संवाद पर विश्वास किया जाता है ना ही फिर साधनों की पवित्रता की गुंजाइश ही रहती है। हिंसा के साधन और मानवता विरोधी तरीकों के इस्तेमाल से संघ और बीजेपी को परहेज कभी नहीं रहा। मणिपुर की घटना बताती है कि चुनावी जीत हासिल करने के लिए बीजेपी ने कुकी चरमपंथियों के साथ बकायदा एक करारनामा दस्तखत किया। अब मैतई समाज के भीतर तैयार किए गए बीजेपी समर्थित गुटों के जरिए स्थाई वोटबैंक तैयार करने की कोशिश जारी है। हाईकोर्ट के आदेश की आड़ में मैतई समाज को जनजातियों की श्रेणी में डालने का शिगूफा छोड़ गया। जिस पर कुकी जनजाति ने विरोध जताया। फूट डालो और राज करो की इस नीति का फायदा उठाने के लिए अतिवादी कुकी संगठनों को निशाने पर लिया गया है। लेकिन बीजेपी की रणनीति का विरोध करते हुए आदिवासी फोरम इंडिजिनस ट्राइबल लीडर्स फोरम ने आरोप लगाया है कि कुकी जनजाति की आवाज़ दबाने की कोशिश की जा रही है। आरोप तो यहां तक लग रहे हैं कि ना सिर्फ बीजेपी समर्थित गुटों बल्कि कुकी जनजाति के दमन के लिए असम और प्रदेश की प्रशासनिक मशीन की भी मदद ली जा रही है। स्थानीय नागरिक और कार्यकर्ता असम रायफल्स पर आरोप लगा रहे हैं। असम रायफल्स के बर्ताव के खिलाफ लिखने पर एक पत्रकार को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार भी कर लिया है। वहीं खबर ये भी आ रही है कि घुसपैठिए कुकी और मैतई दोनों के इलाकों में वारदात कर रहे हैं। ये पुलिस और सेना की वर्दी में आ रहे हैं। समझा जाता है कि छद्मरूप धर कर अपने मिशन को अंजाम देना संघ की पुरानी शैली है। जाकिर बाग, जामिया मीलिया इस्लामियां, जेएनयू पर हमला और दिल्ली दंगों के दौरान हुई घटनाओं में इसकी झलक देखी जा चुकी है। वोटबैंक के इस खेल में केंद्रीय गृहमंत्री के चार दिन के दौरे के बावजूद बाजी हाथ से निकल चुकी है।

कुल मिला कर आरएसएस का हिंदुत्व एक ऐसी राजनीतिक विचारधारा है, जो धर्म की खाल ओढ़े एक लकड़बग्घा है। जिसे भावनाओं और तर्क दोनों से कुछ लेना देना नहीं है। बीजेपी के इस खेल में मणिपुर से चालीस हज़ार परिवार विस्थापित हुए हैं और मैतई और कुकी समुदायों के दिलों में गहरा घाव बन चुका है, जिसे भरने में बरसों लगेंगे। लेकिन बीजेपी को चुनाव के वक्त इस बंटवारे का फायदा मिलने की पूरी उम्मीद है।

महाराष्ट्र में भी औरंगजेब को प्रतीक इसीलिए बनाया गया है क्योंकि छत्रपति शिवाजी और औरंगजेब के बीच संघर्ष का भी राजनीतिक फायदा लिया जा सके। यहां क्षेत्रीय भावनाओं की आड़ में हिंदू मुसलमान किया जा रहा है। सब जानते हैं कि शिवाजी के बारह सेनापति मुस्लिम थे। औरंगजेब से धार्मिक आधार पर विरोध कतई नहीं था।

वहीं, उत्तराखंड में बीजेपी की ही सरकार है और मुसलमान आटे में नमक के बराबर। यहां महंगाई, बेरोजगारी समेत आर्थिक और बुनियादी मुद्दों से ध्यान बंटाने के लिए देवभूमि में लव जिहाद के खतरे का नारा दिया गया। ये सब घटनाएं बताती हैं कि 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वापसी के लिए संघ ने अपने स्तर पर तैयारी तेज़ कर दी है। दिलचस्प बात ये है कि यह तैयारी की तरह नज़र नहीं आएगी, लेकिन बीजेपी की जीत के लिए वोटों की उपजाऊ ज़मीन तैयार हो जाएगी। ऐसे में स्वाभाविक है कि लोकतंत्र में जहां विविधता के साथ विरोध और असहमति की प्रधानता होती है। राजनीतिक संगठन इसे आंतरिक लोकतंत्र कहते हैं। वहीं, संघ की विचारधारा में चिंतन और रणनीति निर्माण शीर्ष पर बैठे चितपावन ब्राह्मण करते हैं तो स्वयंसेवकों को सिर्फ अनुपालन का अधिकार है। उन्हें जिज्ञासा और प्रश्न खड़े करना उनका दायित्व नहीं है।

हिंसा और घृणा का वातावरण बना कर सत्तावरण करना संघ की व्यापक रणनीति का हिस्सा है। संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइज़र ने हाल ही में ये खुलासा भी किया है कि मोदी मैजिक पर भरोसा करना अब ठीक नहीं। जाहिर है कि स्वयंसेवकों को बताया जा रहा है कि अब हिंदू राष्ट्र निर्माण के लिए वैकल्पिक रणनीति पर अभी से काम करना होगा। दिलचस्प बात ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की निजी राजनीतिक समझ से संघ प्रेरित है। मणिपुर, कोल्हापुर से उत्तरकाशी से पुरोला तक मोशा की सोच के अनुरूप ही अभियान शुरू किया गया है। ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि महिला पहलवानों के मुद्दे पर ब्रजभूषण शरण सिंह का बचाव राजनीति से प्रेरित हो कर ही किया जा रहा है। इसी बहाने असामाजिक तत्वों को भी सत्ता से जुड़ने का संदेश दिया जा रहा है। हालिया घटनाओं ने स्पष्ट किया है कि पुलिस प्रशासन और संवैधानिक संस्थाओं का कानून की हद पार कर इस्तेमाल जारी है। लेकिन निजी स्तर पर भी अपराधी तत्वों के इस्तेमाल की भी तैयारी है। बीजेपी समझ चुकी है कि सहिष्णुता बरतने से समय से पहले सत्ता सरकने जा रही है। इसलिए साम, दाम, दंड और भेद सभी आजमाने की तैयारी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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