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सीजेआई ने फिर उठाई न्यायपालिका में 50% से अधिक महिलाओं के प्रतिनिधित्व की मांग

सीजेआई रमाना इससे पहले भी कह चुके हैं कि महिला आरक्षण 'अधिकार' का विषय है 'दया' का नहीं। और इसके लिए महिला वकील न्यायपालिका में अपने 50 प्रतिशत आरक्षण के लिए जोरदार तरीके से मांग उठाएं।
N. V. Ramana

"हम मुख्य न्यायाधीशों को बताने की कोशिश कर रहे हैं कि हर बार जब वे 1-2 नामों की सिफारिश कर रहे हैं तो महिलाओं को अनिवार्य रूप से सूची में शामिल करना होगा।”

ये बातें चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एन.वी. रमाना ने न्यायपालिका में महिलाओं की अधिक से अधिक हिस्सेदारी के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहराते हुए कहीं। उन्होंने कानूनी क्षेत्र में महिलाओं के काफी कम प्रतिनिधित्व पर अफसोस जताते हुए कहा कि हाईकोर्ट में महिला जजों का प्रतिशत मात्र 11.5% है। वहीं सुप्रीम कोर्ट में हमारे पास 33 जजों में 4 महिला जज हैं। सीजेआई रमाना इससे पहले भी कह चुके हैं कि महिला आरक्षण 'अधिकार' का विषय है 'दया' का नहीं। और इसके लिए महिला वकील न्यायपालिका में 50 प्रतिशत आरक्षण के लिए जोरदार तरीके से मांग उठाएं।

बता दें कि बीते साल अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने भी न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगातार कम होने पर भी चिंता व्यक्त की थी साथ ही सुप्रीम कोर्ट सहित न्यायपालिका के सभी स्तरों पर महिलाओं का अधिक से अधिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की ओर ध्यान आकर्षित किया था। हालांकि अब सालभर बाद तस्वीर थोड़ी बदलती जरूर नज़र आ रही है। 

क्या है पूरा मामला?

वूमन इन लॉ एंड लिटिगेशन' की ओर से जस्टिस हिमा कोहली के सम्मान में आयोजित एक कार्यक्रम में मंगलवार, 14 दिसंबर को चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एन.वी. रमाना ने कहा कि वह कम प्रतिनिधित्व के बैकलॉग के मद्देनजर बेंच पर महिलाओं के 50% से अधिक प्रतिनिधित्व की मांग पर ध्यान दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि वह अपने कॉलेजियम सहयोगियों के साथ बेंच पर 50 प्रतिशत से अधिक महिलाओं के प्रतिनिधित्व की मांग को उठाएंगे। 

सीजेआई ने सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस हिमा कोहली के सम्मान समारोह में बोलते हुए कहा कि उन पर क्रांति भड़काने का आरोप लगाया गया था, जिसमें उन्होंने संशोधित कार्ल मार्क्स उद्धरण का उपयोग करके महिलाओं को अपने लिए अधिक प्रतिनिधित्व की मांग करने के लिए कहा था।

मालूम हो कि सीजेआई ने एक बार कहा था कि महिलाओं को न्यायपालिका में कम से कम 50% प्रतिनिधित्व की मांग करने का अधिकार है। उस घटना के दौरान, सीजेआई ने कार्ल मार्क्स के एक प्रसिद्ध उद्धरण को यह कहते हुए संशोधित किया था कि "दुनिया की महिलाओं के पास अपनी जंजीरों के अलावा खोने के लिए कुछ नहीं है"। 

उन्होंने सभा को बताया कि इस संशोधित कार्ल मार्क्स उद्धरण के लिए सर्वोच्च अधिकारी से उनकी शिकायत दर्ज कराई गई थी और उन पर क्रांति को भड़काने का आरोप भी लगाया गया था। इस दौरान सीजेआई ने कहा कि हमारी निचली न्यायपालिका में महिला जजों की संख्या औसतन 30% है। जबकि कुछ राज्यों में महिला जजों की अच्छी संख्या है, कुछ राज्यों में प्रतिनिधित्व कम है।

लाइव लॉ की खबर के मुताबिक सीजेआई ने कहा कि जब उन्होंने नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में दीक्षांत समारोह में भाग लिया तो देखा कि स्नातक करने वाली महिलाओं की संख्या पुरुषों की संख्या के बराबर थी और अधिकांश पदक विजेता महिलाएं थीं। हालांकि, दुर्भाग्य से, उनमें से अधिकांश पेशे में आने को तैयार नहीं हैं। उनकी प्राथमिकता कानून फर्मों, सिविल सेवाओं आदि की हैं। 

सीजेआई ने कहा कि न्यायिक बुनियादी ढांचा, या उसकी कमी, पेशे में महिलाओं के लिए एक और बाधा है। छोटे कोर्टरूम जो भीड़भाड़ वाले और तंग हैं, टॉयलेट का अभाव, चाइल्ड केअर सुविधाएं आदि सभी बाधाएं हैं। देश के लगभग 22 प्रतिशत न्यायालयों में शौचालय की सुविधा नहीं है।

गौरतलब है कि अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के राखी जमानत आदेश के खिलाफ महिला वकीलों द्वारा दायर एसएलपी में अपने लिखित सबमिशन में कहा था कि कभी कोई महिला भारत की मुख्य न्यायाधीश नहीं रही, न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने से यौन हिंसा से जुड़े मामलों में अधिक संतुलित और सशक्त दृष्टिकोण होगा।

बता दें कि इसी साल 31 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार 3 महिलाओं (जस्टिस हिमा कोहली, जस्टिस बीवी नागरत्न और जस्टिस बीएम त्रिवेदी) ने जस्टिस पद की शपथ ली थी। जिसके बाद पहली बार किसी महिला के चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया बनने की संभावना बनी है। सुप्रीम कोर्ट में जजों के कुल स्वीकृत 34 पदों में अब 33 पद भर चुके हैं। जस्टिस बीवी नागरत्ना वरिष्ठता के हिसाब से साल 2027 में भारत की पहली महिला चीफ जस्टिस बन सकती हैं। जस्टिस नागरत्ना के पिता जस्टिस ईएस वेंकटरमैया भी 1989 में चीफ जस्टिस बने थे। यह भी अपने आप में ऐतिहासिक है क्योंकि भारतीय न्यायपालिका में यह पहली बार होगा जब पिता के बाद दूसरी पीढ़ी में कोई बेटी चीफ जस्टिस बनेगी। निश्चित तौर पर ये अपने आप में बड़ी और गर्व करने वाली बात है।

न्यायालयों में इतनी कम महिला न्यायाधीश

भारत में सुप्रीम कोर्ट की स्थापना 1950 में हुई थी। यह 1935 में बनाए गए फ़ेडरेल कोर्ट की जगह स्थापित हुआ था। इसके बाद से अब तक 48 मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति हो चुकी है लेकिन अभी तक कोई महिला भारत की चीफ जस्टिस नहीं बनी है। अब तक केवल आठ महिलाओं को भारतीय की सर्वोच्च अदालत में न्यायाधीश के तौर पर नियुक्त किया गया था। 1989 में जस्टिस फ़ातिमा बीवी सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश बनीं।

मौजूदा समय में इन नई नियुक्तियों से पहले सुप्रीम कोर्ट के 34 न्यायाधीशों में जस्टिस इंदिरा बनर्जी अकेली महिला थी। देश भर के 25 उच्च न्यायालयों में केवल एक तेलंगाना हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश के तौर पर महिला न्यायाधीश हिमा कोहली थीं, जो अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुकी हैं। इन उच्च न्यायालयों में कुल 661 न्यायाधीश हैं और इनमें लगभग 72 महिलाएँ हैं। मणिपुर, मेघालय, बिहार, त्रिपुरा और उत्तराखंड की उच्च न्यायालयों में कोई महिला न्यायाधीश नहीं हैं।

मालूम हो कि न्यायपालिका में लैंगिग समानता का मुद्दा बीते काफी समय से सुर्खियों में रहा है। आबादी में पुरुष और महिलाओं का अनुपात क़रीब 50-50 प्रतिशत है और यह उच्च न्यायिक व्यवस्था में भी दिखना चाहिए इसके लिए कई याचिकाएं भी दाखिल हुई हैं। लेकिन वास्तविकता में आज भी लोग इस पेशे को जेंडर से अलग करके नहीं देख पाते जिस कारण महिलाओं के लिए इस क्षेत्र में आना और अपनी जगह बनाना मुश्किल है।

1923 में लीगल प्रैक्टिशनर (वीमेन) एक्ट के ज़रिए महिलाओं को वकालत करने की अनुमति दी गई। इससे पहले वकालत के पेशे को केवल पुरुषों का पेशा माना जाता था। रेगिना गुहा, सुधांशु बाला हाज़रा और कॉर्नेलिया सोराबजी नाम की तीन महिलाओं ने इसे चुनौती दी थी।

रेगिना गुहा ने अपनी क़ानूनी शिक्षा पूरी करने के बाद 1916 में याचिकाकर्ता के तौर पर नामांकन के लिए आवेदन दिया। यह उस वक़्त अपने आप में अनोखा मामला था। उनके आवेदन को कोलकाता हाईकोर्ट भेजा गया। बाद में इस मामले को 'फर्स्ट पर्सन केस' के तौर पर जाना गया।

लीगल प्रैक्टिशनर्स एक्ट, 1879 के तहत महिलाएँ याचिकाकर्ता नहीं हो सकती थीं और इस तरह से महिलाएँ पूरी तरह से इस पेशे से बाहर थीं। गुहा की याचिका को पाँच जजों की बेंच ने सुना और सर्वसम्मति से ख़ारिज कर दिया।

लंबे संघर्ष के बाद महिलाओं को मिला वकालत का अधिकार

1921 में सुधांशु बाला हाज़रा ने रेगिना गुहा की तरह ही कोशिश की। उन्होंने पटना हाईकोर्ट में याचिकाकर्ता होने के लिए आवेदन दिया। इसे 'सेकेंड पर्सन केस' के तौर पर जाना जाता है। सुधांशु बाला हाज़रा के मामले में पटना हाईकोर्ट की बेंच ने महिलाओं के वकालत करने के पक्ष में विचार रखे, लेकिन कोलकाता हाईकोर्ट के फ़ैसले को नज़ीर मानते हुए हाज़रा का आवेदन रद्द कर दिया। हालाँकि इससे पहले ब्रिटेन की अदालत ने सेक्स डिस्क्वालिफिकेशन रिमूवल एक्ट, 1919 को पारित कर दिया था, जिसके चलते क़ानूनी पेशे में महिलाओं के आने का रास्ता खुल गया था।

साल 1921 में ही कोर्नेलिया सोराबजी ने इलाहाबाद में याचिकाकर्ता के रूप में नामांकन के लिए याचिका दाख़िल की और फ़ैसला उनके पक्ष में आया। इस तरह से वे भारत की पहली महिला वकील बनीं।

इसके बाद लीगल प्रैक्टिशनर्स (वीमेन) एक्ट, 1923 में लागू हुआ और इस क़ानून ने कलकत्ता हाईकोर्ट और पटना हाईकोर्ट के फ़ैसले को निरस्त कर दिया। इस क़ानून ने लैंगिक आधार पर वकालत में होने वाले भेदभाव पर पाबंदी लगा दी और महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक कदम और बढ़ा दिया। अब जब वक्त बदल गया है और महिलाएं अच्छे फैसलों के साथ आगे बढ़ रही हैं तो ऐसे में देखना होगा कि न्यायपालिका में महिलाओं की तस्वीर बदलने में और कितना समय लगेगा।

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