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आज़ादी के 75 साल और दलित-बहुजन का हाल

दिल्ली के नांगल गांव में 9 साल की गुड़िया के साथ बर्बर गैंगरेप और जलाकर मारने जैसा वीभत्स कांड हो जाता है मगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या गृहमंत्री अमित शाह के मुंह से एक शब्द नहीं निकलता। 
आज़ादी के 75 साल और दलित-बहुजन का हाल
Image courtesy : Dalit Lives Matter

भारत को आज़ाद हुए 75 वर्ष हो रहे हैं। इसीलिए अमृत महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। जश्न मनाया जा रहा है। आखिर दो सौ साल तक अंग्रेजों की गुलामी के बाद आज़ादी मिली थी। और उस आज़ादी को भी हो गए 75 वर्ष। इस आज़ादी के लिए हमारे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानी शहीद हुए। देश की आज़ादी के लिए न जाने कितने लोगों ने अपनी कुर्बानी देकर देश को आज़ाद कराया। उनको सादर याद किया जाना चाहिए। उनकी शहादत को नमन और श्रद्धांजलि।

इस देश को आज़ाद कराने में सभी जाति-धर्म-संप्रदाय-लिंग और भाषा के लोग शहीद हुए हैं। दलितों आदिवासियों में से भी बिरसामुंडा, मातादीन भंगी, ऊधम सिंह, झलकारी बाई आदि अनेक शहीदों के नाम गिनाए जा सकते हैं।  

वर्तमान परिदृश्य पर नजर डालें तो आज के आज़ाद भारत में कथित उच्च जातियों के दबंगों द्वारा आदिवासियों-दलितों-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों का निरंतर शोषण किया जा रहा है। उन पर अत्याचार किए जा रहे हैं। उनसे भेदभाव और छूआछूत बरती जा रही है। इन वंचित वर्गों की महिलाओं और बच्चियों से सामूहिक बलात्कार कर उनकी हत्याएं की जा रही हैं। 

हम हाथरस काण्ड और हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली में 9 साल की गुड़िया के साथ हुई हैवानियत को क्या भूल सकते हैं। क्या यही है हमारा आज़ाद भारत? आज़ादी के 75 सालों बाद देश जिस मुकाम पर पहुंचा है, देश का आमजन और खासतौर से दलित-बहुजन जिस तरह का दयनीय जीवन जी रहा है, क्या इसे ही हम सबका विकास कहेंगे?   

ये सही है कि देश ने तकनीकी तौर पर तरक्की की है पर राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक तौर पर देश का एक बड़ा तबका दलित-बहुजन आज भी बहुत पिछड़ा हुआ है।

इन 75 वर्षों की आज़ादी में देश ने कितनी तरक्की की। ये प्रधानमंत्री लालकिले की प्राचीर से बताएंगे। उनके मन की बात ही जन की बात होती है, कम से कम प्रधानमंत्री तो ऐसा ही मानते हैं। वे अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाएंगे। किसान सम्मान निधि की 9वीं किस्त के तहत, 9.75 करोड़ से अधिक लाभार्थी किसान परिवारों को 19,500 करोड़ रुपये से ज्यादा की धनराशि ट्रांसफर की गई है, इस का जिक्र करते हुए वे खुद को किसानों का मसीहा साबित करेंगे और देश के नागरिक गुनगुनाएंगे। मेरे देश की धरती सोना उगले…’’

वे जापान की राजधानी टोक्यो में हुए ओलिंपिक खेलों में जो खिलाड़ी मैडल जीत कर लाए हैं उनकी तारीफ़ करेंगे। और हम गर्व से अपना सीना 56 इंच का कर लेंगे। और हमारे होठों पर होगा, ‘’ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का, इस देश का यारो, क्या कहना...‘’

हो सकता है वे देश के शहीदों को याद करने की परम्परा को भी निभा दें और हम भावुक होकर गाने लगें, ‘’ए  मेरे वतन के लोगो, जरा आंख में भरलो पानी... ‘’ पर अंत में वे जनता की आंखों पर ऐसा जादुई चश्मा लगाएंगे कि उसे खुशहाल भारत के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देगा जैसे सावन के अंधे को हरा ही हरा सूझता है। चारों ओर हरियाली, चारों ओर खुशहाली। 

पर कुछ सयाने लोग ये जादुई चश्मा पहनने से इनकार करते हैं और यथार्थवादी होकर ग़ालिब का शेर कहते हैं ‘हमें मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल को बहलाने के लिए ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है। कुछ अदम गोंडवी टाइप लोग ये भी कहने से नहीं चूकते ‘’सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है, दिल पर रख कर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है। आज़ादी पर व्यंग्य करता हुआ कवि तो यहां तक कहता है कि एक आदमी भूखा-नंगा, देख रहा है आज तिरंगा, उसे देखने की आज़ादी। कड़वी सच्चाई तो यह है कि भले ही हमें गोरे अंग्रेजों की गुलामी से आज़ादी मिल गई हो पर अभी भी इस देश के लोग काले अंग्रेजों के गुलाम हैं। इसलिए हमें चाहिए आज़ादी, मनुवाद से आज़ादी, ब्राह्मणवाद से आज़ादी, जातिवाद से आज़ादी, पितृसत्ता से आज़ादी, फासीवाद से आज़ादी, पूंजीवाद से आज़ादी। 

हमारे देश में लोकतंत्र है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। पर वर्तमान में मीडिया घराने और सरकार की सांठगांठ के कारण मीडिया भी सरकार की भाषा बोलने लगती है। जिसे मेनस्ट्रीम मीडिया कहा जाता है वह सरकार की हां में हां मिलाने लगती है । ऐसे में छोटे स्तर के अखबार, न्यूज़ पोर्टल, पत्रिकाएं और सोशल मीडिया ही लोकतंत्र के चौथे खम्भे की भूमिका निभाते हैं। ये ‘मन की बात’ नहीं बल्कि ‘जन की बात’ करते हैं।

न्यायपालिका को लोकतंत्र का तीसरा स्तम्भ माना जाता है। हालांकि इस पर भी सरकार का दबाब होता है। पर ये सरकार के अधीन नहीं बल्कि स्वायत्त संस्था होती है। इसलिए कभी-कभी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट सरकार के पक्ष में बोलते हैं तो कभी आमजन के फेवर में भी बोल देते हैं। जैसे हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने कहा कि थानों में मानवाधिकारों के हनन का सबसे ज्यादा खतरा है। क्योंकि हिरासत में यातना और अन्य पुलिसिया अत्याचार देश में अब भी जारी हैं। उन्होने कहा कि प्रत्येक थाने, जेल में डिस्प्ले बोर्ड और होर्डिंग लगाकर मुफ्त कानूनी सहायता की जानकारी दी जानी चाहिए। ये देश के नागरिक का संवैधानिक अधिकार है।

आमजन और खासतौर से दलित-बहुजन पुलिस थाने और कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने से बचना चाहते हैं। क्योंकि पुलिस थाने में उन्हें शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना मिलती है तो कोर्ट-कचहरी  में तारीख पे तारीख। जब मीडिया और कानून पुलिस तथा न्यायालयों पर सरकारी तंत्र हावी हो जाता है तो फिर दलित-बहुजन की कहीं सुनवाई नहीं होती। उसकी आवाज कोई नहीं सुनता। अमीरों और सत्ताधीशों की ही चलती है। 

बकौल शायर -

“लश्कर भी तुम्हारा है सरदार तुम्हारा है                                                                                                                            
तुम झूठ को सच लिख तो अखबार तुम्हारा है                                                                                                                    
इस दौर के फरियादी जाएं तो कहां जाएं                                                                                                                               
कानून तुम्हारा है दरबार तुम्हारा है” 

सरकार जब कार्पोरेट जगत के लोगों या उद्योगपतियों से मिल जाती है तब उसके अधिकांश फैसले जनहित में न होकर उद्योगपतियों के हित में होते हैं। सरकार उनके करोड़ों रुपयों के ऋण को माफ़ कर देती है। बड़ी-बड़ी सब्सिडी देती है। उनके मुनाफे का ध्यान रखती है। यही कारण है कि अंबानी अडानी जैसे उद्योग घराने कोरोना काल में भी मोटा लाभ कमाते हैं। ये घराने भी चुनाव के समय इन नेताओं को भरपूर आर्थिक सहायता देते हैं। इस तरह सरकार और उद्योगपतियों की मिलीभगत का खामियाजा आमजन और दलित बहुजन को भुगतना पड़ता है। सरकार राष्ट्रीय संपत्ति को भी इन्हें बेच रही है। 

जाहिर है ये सरकार जनविरोधी है। पिछले आठ महीनों से चल रहा किसान आंदोलन इसका ताज़ा उदाहरण है। कॉर्पोरेट घरानों के हित में रखकर बनाए गए तीन काले कानूनों के रद्द करने की मांग को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं, पर सरकार टस से मस नहीं हो रही है। प्रधानमंत्री जापान में हो रहे ओलिंपिक खेलों के दौरान खिलाड़ियों से फोन पर बात कर लेते हैं पर दिल्ली और आसपास मौजूद किसानों से फोन पर भी बात नहीं करते। 

इसी प्रकार दिल्ली के नांगल गांव में 9 साल की गुड़िया के साथ बर्बर गैंगरेप और जलाकर मारने जैसा वीभत्स कांड हो जाता है मगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी या गृहमंत्री अमित शाह के मुंह से एक शब्द नहीं निकलता। इससे यह साबित हो जाता है कि ये सरकार कितनी संवेदनहीन है। गरीब और दलित बहुजन विरोधी है। 

इस देश में हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और न जाने कितने धर्म-संप्रदाय के लोग रहते हैं। मगर वर्तमान सरकार इसे हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहती है। इससे देश का साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ता है। इस सरकार के समर्थक मुसलमानों से घृणा करते हैं। उनके प्रति अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। बात-बात में उनको पाकिस्तान जाने को और जय श्री राम का नारा लगाने को कहते हैं। लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर साम्प्रदायिक दंगे करवाते हैं। 

साल 2002 में हुए गुजरात दंगों और 2020 के दिल्ली दंगों को लोग भूले नहीं है। यह सरकार फासीवादी सोच की सरकार है। यहां के लोग क्या खाएं क्या न खाएं, क्या पहनें और क्या न पहनें, किससे प्रेम करें और किससे न करें, सब कुछ ये सरकार डिसाइड करना चाहती है। यह लोगों की निजता पर हमला है। संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है। जबकि हमारा देश विभिन्न संस्कृतियों का संगम है। यहां अनेक प्रकार की विविधता है। यह देश सभी धर्मावलंबियों का है। यहां सर्व धर्म समभाव को बढ़ावा देने की जरूरत है।

हमारा संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सरकार की आलोचना करने का अधिकार देता है। पर वर्तमान में  परिस्थिति ऐसी है कि यदि कोई सरकार की आलोचना करता है तो उसे देशद्रोही घोषित कर जेल में डाल दिया जाता है। इसलिए सरकार की आलोचना करने से भी लोग डरने लगे हैं। इस सरकार ने एक तरह का अघोषित आपातकाल जैसा माहौल बना रखा है। सरकार का वश चले तो संविधान की जगह मनुस्मृति का विधान लागू कर दे।  

कह सकते हैं कि यह लोकतंत्र में तानाशाह सरकार है। यह सरकार सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (CAA), नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर(NPR) और नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स (NRC) जैसे जनविरोधी कानून लाती है। यही कारण है कि मुस्लिम महिलाओं को शाहीनबाग़ और किसानों को किसान आंदोलन करना पड़ता है।

वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी डॉ. जी.जी. पारिख ने ठीक ही कहा है कि, "हमारा देश हर मोर्चे पर एक गहरे संकट का सामना कर रहा है, क्योंकि वही ताकतें जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम के किनारे खड़ी थीं, आज हम पर शासन कर रही हैं। ये फासीवादी सांप्रदायिक ताकतें जनता को बांटती हैं और जनता का ध्रुवीकरण करती हैं। सरकार हमारी राष्ट्रीय संपत्ति को बेच रही है और उसका निजीकरण कर रही है। जनता के आंदोलन को एक लंबे समय तक चलने वाले लोकतांत्रिक संघर्ष के लिए तैयार रहना चाहिए, हमें जेल जाने के लिए तैयार रहना चाहिए, हमारे देश को किसी भी बलिदान की आवश्यकता है।"

अब हमें अपने लोकतंत्र और संविधान को बचाने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि आज हम दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को जो लाभ और अधिकार मिले हैं वे संविधान की वजह से ही मिले हैं। संविधान को खत्म करने वाली ताकतों से लड़ने के लिए दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों सभी को आपस में गठबंधन कर कमर कस लेनी चाहिए। तभी हम सच्ची आज़ादी का लुत्फ़ उठा पायेंगे भले ही 75 साल बाद सही।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हुए हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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