90 घंटे काम की सलाह: हमें भी भूख लगती है, हमें भी नींद आती है

सुबह के दस बजे से रात के बारह बजाते हो
हमें भी भूख लगती है, हमें भी नींद आती है
— ओम प्रकाश नदीम
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर रोज़ हमें दिन में 18 घंटे काम करने की शिक्षा दी जाती है। इंफोसिस के चेयरमैन नारायण मूर्ति हमें सप्ताह में 70 घंटे काम करने की सलाह देते हैं। गौतम अडानी कहते हैं कि 8 घंटे घर पर रहोगे तो बीवी भाग जाएगी और अब इस मैदान में आए हैं L&T के चेयरमैन सुब्रह्मण्यन जो सबसे आगे बढ़कर कहते हैं कि आप घर में बैठकर कितनी देर पत्नी को निहार सकते हैं। वह हमें हफ्ते में 90 घंटे काम की सलाह देते हैं।
तो इन बातों का क्या मतलब है। यह कुछ सफल व्यक्तियों की सफलता का सूत्र है। जो काम को बहुत महत्व देते हैं। कुछ धनपतियों का सिरफिरा विचार है या इसके पीछे पूंजीवादी तंत्र की कुछ और मंशा, कुछ और साज़िश है। जिसने सांमतवादी, सांप्रदायिक राजनीति से पक्का गठजोड़ कर लिया है।
इस आलेख में हम आज इसी पर विस्तार से बात करेंगे।
90 घंटे काम की सलाह और महिलाओं का अपमान
L & T यानी लार्सन एंड टुब्रो के चेयरमैन S.N. सुब्रह्मण्यन ने अपने कर्मचारियों के साथ ऑनलाइन बातचीत के दौरान यह ज्ञान दिया कि हमें 90 घंटे काम करना चाहिए।
जब उनसे पूछा गया कि बिलियन डॉलर वाली यह कंपनी अपने एम्पलॉइज को शनिवार को भी क्यों बुलाती है तो उन्होंने कहा कि “मुझे खेद है कि मैं आपको रविवार को काम नहीं करवा पा रहा हूं। अगर मैं रविवार को भी आपको काम करवा पाऊं तो मुझे ज़्यादा ख़ुशी होगी, क्योंकि मैं रविवार को भी काम करता हूं।”
फिर ये महाज्ञानी धनपति अपने कर्मचारियों से पूछते हैं कि आप घर में बैठकर क्या करते हैं। आप अपनी पत्नी को कितनी देर तक निहार सकते हैं। आपकी पत्नी आपको कितनी देर तक निहार सकती है। चलो ऑफिस जाओ और काम शुरू करो।
उनकी इस बात, इस सलाह के तीन मायने तो सीधे-सीधे सामने आते हैं–
1.पहला यह कि यह बयान सीधे सीधे महिला विरोधी है। उनका अपमान करता है, मज़ाक उड़ाता है।
2.दूसरी बात इससे यह भी पता चलता कि यह साहब घर के काम को कितना महत्व देते हैं या कितना गैरज़रूरी, कितना हीन मानते हैं। और साथ ही घर का काम केवल महिलाओं के लिए मानते हैं।
3.और तीसरा इन्हें कर्मचारी नहीं बल्कि काम करने की एक मशीन, या साफ कहें कि एक गधा चाहिए। इनकी मंशा साफ तौर पर उसी दास प्रथा के युग में लौटने की है जब श्रम का कोई मूल्य नहीं था। प्रभावशाली लोग, ग़रीब-कमज़ोर लोगों को अपना दास, अपना ग़ुलाम बना कर रखते थे और उनसे दिन-रात बेगार कराते थे।
इस अमानवीय स्थिति को बदलने में कितने साल और कितनी कुर्बानियां लगीं सुब्रह्मण्यन साहब को नहीं पता।
बहुत कुर्बानियों से तय हुए काम के घंटे
आपको पता है कि काम के आठ घंटे तय कराने के लिए कितनी कुर्बानियां, कितने बलिदान दिए गए। पहले कैसे और कितने घंटे जबरन काम लिया जाता था। कितना शोषण किया जाता था। इसे जानने के लिए आपको मई दिवस यानी लेबर डे का इतिहास जानना होगा। कैसे और क्यों एक मई का दिन अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
काम के घंटे तय करने की मांग सबसे पहले 19वीं सदी में उठी। यह पश्चिम में औद्योगीकरण का दौर था और मज़दूरों से सूर्योदय से सूर्यास्त तक काम लिया जाता था। अक्टूबर 1884 में अमेरिका और कनाडा की ट्रेड यूनियनों के संगठन फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनाइज़्ड ट्रेड्स एंड लेबर यूनियन ने तय किया कि मज़दूर 1 मई, 1886 के बाद रोज़ाना 8 घंटे से ज़्यादा काम नहीं करेंगे। जब वो दिन आया तो अमेरिका के अलग-अलग शहरों में लाखों श्रमिक हड़ताल पर चले गए।
इन विरोध प्रदर्शनों के केंद्र में शिकागो था। यहां दो दिन तक हड़ताल शांतिप्रिय तरीके से चली। लेकिन तीन मई की शाम को पुलिस ने इसका बर्बर दमन किया और कई मज़दूर मारे गए। इस घटना के विरोध में अगले दिन 4 मई को मजदूर शिकागो के ‘हे मार्केट स्क्वायर’ पर एकत्र हुए। यहां सभा के खत्म होने के वक्त मज़दूरों की भीड़ पर एक बम फेंका गया। इसमें चार मजदूर और सात पुलिसवाले मारे गए। इसके बाद चार मजदूर नेताओं को फांसी की सजा सुनाई गई। हे मार्केट की इस घटना ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा।
इसके बाद 1889 से लेकर 1890 तक अलग अलग देशों में मज़दूरों ने प्रदर्शन किए। ब्रिटेन के हाइड पार्क में 1890 की पहली मई को तीन लाख मज़दूरों 8 घंटे काम की मांग को लेकर सड़कों पर उतरे। जैसे-जैसे वक्त बीता ये दिन श्रमिकों के बाकी अधिकारों की तरफ ध्यान दिलाने का भी एक मौका बन गया।
यह एक जायज़ मांग थी, क्योंकि मनुष्य न कोई पशु है न कोई मशीन। और पशु को भी आराम की ज़रूरत होती है। उसके भी अधिकार हैं। और मशीनें तो और भी नखरीली और खर्चीली होती हैं। उन्हें भी बीच-बीच में रेस्ट दिया जाता है। पूरी सुख-सुविधाओं के बीच रखा जाता है। समय-समय पर सर्विस की जाती है। लगातार काम करने पर तो आपका कंप्यूटर भी फेल हो जाता है। कार बंद हो जाती है। एसी फुंक जाता है। तो फिर आपका शरीर और दिमाग़ कैसे स्वस्थ रह सकते हैं।
आज तो विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर डॉक्टर्स तक का भी कहना है कि सप्ताह में 35-40 घंटों से ज्यादा काम करने से न सिर्फ़ सेहत खराब होती है, फिजिकिली-मेंटली दोनों…बल्कि कर्मचारियों की जान तक जा सकती है, उनकी परफॉर्मेंस और प्रोडक्टिविटी पर भी बुरा असर पड़ता है।
और उस समय की स्थितियां सोचिए। कितने बुरे हालात थे।
भारत में आठ घंटे काम की पहली लड़ाई हावड़ा रेलवे स्टेशन पर काम करने वाले मजदूरों ने 1862 में लड़ी थी।
भारत में पहला मई दिवस 1923 में उस समय के मद्रास में मनाया गया।
ख़ैर यह लंबा इतिहास है। इसमें महिलाओं और पुरुषों सभी ने कुर्बानियां दीं।
कहने का मतलब यह है कि काम के 8 घंटे का अधिकार जितनी मुश्किल और जितनी कुर्बानियों के बाद हासिल किया गया आज उसे उसी तरह हवा में उड़ाया जा रहा है। गंवाया जा रहा है।
तमाम बड़ी बड़ी कंपनियों में अघोषित तौर पर पहले से ही 10-12 घंटे काम का चलन बना दिया गया है। मीडिया तो इसमें अव्वल है।
क्या कहता है क़ानून
भारत में कानून के अनुसार लोगों के अधिकतम काम के घंटे निर्धारित हैं. फैक्ट्रीज एक्ट–1948 में कहा गया है कि भारत की फैक्ट्रियों और उत्पादन इकाइयों में एक दिन में अधिकतम 8 से 9 घंटे तक ही काम कराया जा सकता है। हालांकि, सप्ताह में काम के कुल घंटे 48 से ज्यादा नहीं होने चाहिए। यानी छह दिन में अधिकतम 48 घंटे काम करने का ही प्रावधान है।
ऐसे ही अगर किसी फैक्ट्री या उत्पादन इकाई में अधिक काम के बदले ओवरटाइम का भुगतान किया जाता है, तो वह भी सप्ताह में कुल 60 घंटे से अधिक नहीं होना चाहिए। यही नहीं, कानून में यह भी कहा गया है कि रोज़ काम के दौरान अधिकतम पांच घंटे काम करने के बाद कम से कम एक घंटे का ब्रेक देना जरूरी है।
लेकिन अब देश में 44 श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार श्रम संहिता बना दी गई हैं। इसके तहत काम के घंटों को बढ़ाकर रोज 12 करने का प्रावधान किया गया है। हालांकि अभी शुक्र है कि इसमें भी कहा गया है कि हफ्ते में काम के अधिकतम घंटे 48 तक ही सीमित रहेंगे।
कुछ देशों में सप्ताह में अधिकतम 40 घंटे काम का क़ानून है। कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कुछ राष्ट्रीय कंपनियों ने भी भारत में 5 दिन काम और दो दिन अवकाश की परंपरा लागू की है। लेकिन इनमें से भी बहुत से संस्थानों का रवैया बदला नहीं है। अगर कोई कर्मचारी 8 घंटे बाद घर जाने के लिए अपनी सीट से उठ जाता है, काम करने से मना करता है तो उसे ख़राब नज़रों से देखा जाता है, कामचोर समझा जाता है। किसी न किसी बहाने काम से निकाल दिया जाता है।
आपको पता है कि हमारे यानी भारतीय युवाओं को अमेरिका-ब्रिटेन जैसे देशों में क्यों इतना पसंद किया जाता है। क्यों इतने युवा लड़के-लड़कियां उनकी कंपनियों में अमेरिका जैसे देशों में हैं या यहां रहकर उनके लिए काम कर रहे हैं। दरअसल उन देशों के युवा ड्यूटी ऑवर से एक मिनट भी ज़्यादा अपनी कंपनी को समय नहीं देते। और वीक एंड तो बिल्कुल नहीं छोड़ते। लेकिन हमारे भारतीय युवाओं से आप आराम से कितने ही घंटे काम ले सकते हैं और वे कोई शिकायत भी नहीं करते।
और इसमें सबसे ख़राब रोल निभाते हैं हमारे इंडियन मैनेजर। वो चाहे विदेश में तैनात हों या यहां भारत में। वही मालिकों के मुनाफे के लिए हमारे युवाओं को काम में झोंक देना चाहते हैं। कोविड काल में भी जब सब जगह वर्क फ्रॉम होम हो गया तब पहले तो इन इंडिनय मैनेजर्स को वर्क फ्रॉम होम समझ नहीं आया। क्योंकि इनकी नज़र में एल एंड टी चेयरमैन की तरह घर में काम थोड़े होता, सिर्फ़ आराम होता है या बीवियों को निहारना। इसलिए इन्होंने सुबह के 9 बजे से रात के 8–8, 10 बजे तक काम लिया। आदेश दिया कि कोई भी ऑफलाइन नहीं होगा, लॉगआउट नहीं करेगा। कम्यूटर, लैपटाप का कैमरा हर समय ऑन रहना चाहिए। ताकि वे आपको देख सकें कि आप अपनी कुर्सी पर ही हैं, इधर-उधर तो नहीं गए।
अब हर रोज़ तकनीक बढ़ती जा रही है, मशीनें बढ़ती जा रही हैं लेकिन काम के घंटे कम नहीं हो रहे बल्कि उन्हें बढ़ाने की वकालत की जा रही है। शोषण के नए नए तरीके खोजे जा रहे हैं। आज भी तमाम संस्थाएं अपने फील्ड कर्मचारियों से लाइव लोकेशन मांगती हैं। ताकि उन्हें पल पल की ख़बर रहे कि आप कहां हैं। इससे यह भी पता चलता है कि वह अपने कर्मचारियों पर कतई विश्वास नहीं करतीं।
और यह सब किस लिए, किसके लिए?
चंद पूंजीपतियों, चंद कॉरपोरेट के मुनाफ़े के लिए। उनके सरप्लस के लिए। और इसके लिए सत्ता से गठजोड़ ज़रूरी है। इसलिए ऐसे लोगों ने विकसित भारत के नाम पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी बिना थके दिन में 18-18 घंटे काम करने की कहानियां गढ़नी शुरू कर दीं। इससे मोदी जी को भी फायदा हुआ। उनकी एक महामानव की छवि बननी शुरू हो गई। जो बिना थके बिना रुके देश सेवा में लगा हुआ है।
यही वजह है कि गाहे-बगाहे यह प्रचारित किया जाता है कि मोदी जी कभी छुट्टी नहीं लेते। उन्होंने अपने प्रधानमंत्रित्व के काल में एक भी छुट्टी नहीं ली।
मैं आपसे पूछता हूं कि जब आप ख़ुद अपने बॉस हो या मालिक हों। आपको किसी को अपने समय का हिसाब देना ही नहीं है, किसी से छुट्टी मांगनी ही नहीं है। आपको ऑफिस आने और जाने के समय दस्तख़त या पंच करना ही नहीं है। ऑफिस घूमने भी आ गए, तो भी आपकी सैलरी बन गई और सैलरी भी ऐसी वैसी नहीं करोड़ों में। यह जो ज्ञानी पुरुष हैं सुब्रह्मण्यन जी, उनकी सालाना सैलरी 51 करोड़ है। जो कंपनी के कर्मचारियों के औसत वेतन से 534.57 गुना अधिक है।
अगर सूरज को रूपक बनाकर मैं पूंजीवाद और इसके मैनेजरों की हक़ीक़त कहूं तो यही कहूंगा कि
कितने तारों का ख़ून करता है
सबको दिखता है चमकता सूरज
51 करोड़ सालाना के हिसाब से मिस्टर सुब्रह्मण्यन को सवा चार करोड़ रुपये महीना मिलता है। यानी क़रीब 14 लाख रुपये प्रतिदिन। 14 घंटे काम का भी हिसाब लगाया जाए तो 1 लाख रुपये प्रतिघंटा।
सोचिए कि मिस्टर सुब्रह्मण्यन दिन में ऑफिस आकर दस-बीस मिनट बैठकर एक कॉफी भी पी लें तो भी उतनी सैलरी बन गई जितनी आमतौर पर एक आम कर्मचारी या मज़दूर को पूरे महीने में नहीं मिल पाती है। और न भी ऑफिस आएं, घर बैठकर ही कर्मचारियों को डांट लिया तो भी ड्यूटी बन गई, सैलरी बन गई। और अगर अपनी कंपनी है, ख़ुद मालिक हैं तो सैलरी के साथ सारा मुनाफ़ा भी अपना।
कुल मिलाकर जब आपका सोना-जागना सब आपके काम में गिना जाता है तो यही कहा जाएगा कि आप रात-दिन काम करते हैं और आपने कोई छुट्टी नहीं ली।
आप बताइए कि देश के प्रधान सेवक मोदी जी जब गुजरात में अपनी मां से मिलने व्यक्तिगत तौर पर जाते थे तो क्या वे प्रधानमंत्री कार्यालय में छुट्टी की एप्लीकेशन देकर जाते थे। और इसे भी छोड़िए ये जो महीने-महीने भर चुनाव प्रचार करते हैं, दिन में तीन-तीन चुनावी रैलियां करते हैं उसे किसमें गिना जाता है, उनकी ड्यूटी में या छुट्टी में।
क्या यही उनका बिना छुट्टी के बिना थके 18-18 घंटे का काम है। क्या यह मोदी जी का व्यक्तिगत काम नहीं है। क्योंकि वह यह चुनाव प्रचार एक प्रधानमंत्री के रूप में नहीं करते, बल्कि अपनी पार्टी के नेता के तौर पर करते हैं। तो उनकी पार्टी के लिए यह प्रचार क्या छुट्टी में नहीं गिना जाना चाहिए।
लेकिन हाकिम से सवाल कौन करे। दरअसल ऐसी कहानियां, ऐसे उदाहरण इसलिए गढ़े जाते हैं ताकि पूंजीवादी तंत्र अपने कर्मचारी, अपने श्रमिक का बेरोक-टोक शोषण कर सके। इसीलिए फ़सलों की उचित एमएसपी नहीं दी जाती ताकि किसान पूंजीपतियों को औने-पौने दाम पर फसल बेचने को मजबूर हो और गरीब बना रहे। और उसके बच्चे खेती-किसानी छोड़कर इन्हीं पूंजीपतियों की फैक्टरियों में मज़दूर बन जाएं। उनका ईंधन बन जाएं। इसी वजह से 44 श्रम क़ानूनों की जगह 4 श्रम संहिता लाई जाती हैं ताकि मज़दूर अपना हक़ न मांग सके। कंपनियों में मज़दूर यूनियन अब गुज़रे ज़माने की बात हो गई है। प्राइवेट कंपनियों में तो यूनियन बनाने की इजाज़त ही नहीं दी जाती।
इसी के चलते बेरोज़गारी भी दूर नहीं की जाती ताकि बेरोज़गारों की फ़ौज बनी रहे और मालिक नौकरी के नाम पर उनका भरपूर शोषण कर सके। बेरोज़गारी का बने रहना पूंजीपतियों के लिए फायदे का सौदा है। यहां बाज़ार का मांग और आपूर्ति का नियम लागू होता है। तभी काम मांगने पर छात्रों को लाठियां मिलती हैं और दूसरी तरफ़ ज़्यादा काम करने का उपदेश दिया जाता है।
तो ऐसे ही कहानियां गढ़ कर, अपने उदाहरण देकर प्रधानमंत्री या कंपनियों के मालिक, चेयरमैन क्या साबित करते हैं। कुछ नहीं बस आपके और ज़्यादा शोषण की ज़मीन तैयार करते हैं। विकास और विकसित भारत का नाम लेते हैं और अपनी जेबे भरते हैं।
तो ऐसा विचार सीधे-सीधे श्रमिक विरोधी है, मनुष्य विरोधी है। और सुब्रह्मण्यन जी तो महिला विरोधी भी हैं– क्योंकि हमारे यहां पूंजीवाद और सामंतवाद का गहरा गठजोड़ है और यह सामंतवाद, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता का ही उत्पाद है।
और महिलाओं के प्रति यह रवैया या नज़रिया कुछ नेताओं या कंपनी मालिकों और चेयरपर्सन का नहीं है, बल्कि सरकार का भी है जो महिलाओं के घरेलू श्रम को, श्रम की श्रेणी में ही नहीं रखती।
जी हां, घरेलू काम को देश की जीडीपी में नहीं गिना जाता। इस अवैतनिक घरेलू श्रम का न कोई महत्व है, न कोई सुविधा-सुरक्षा।
और यहां मैं अपने श्रम और श्रम के मूल्य को लेकर सजग पुरुषों से भी कहना चाहता हूं कि ख़ुद को भी टटोलिये कि कहीं आप भी मिस्टर सुब्रह्मण्यन जैसी मानसिकता का शिकार तो नहीं, क्योंकि आज भी घरों में अक्सर पति, पत्नी को यही ताना मारता है कि तुम पूरे दिन घर में बैठे-बैठे करती क्या हो।
इसी संदर्भ में रोज़ा लक्ज़मबर्ग की यह कविता याद करनी ज़रूरी है। जिसमें वह कहती हैं कि–
जिस दिन
औरतों के श्रम का हिसाब होगा
उस दिन मानव इतिहास की
सबसे बड़ी चोरी पकड़ी जाएगी।
और अब तो औरतों के श्रम की चोरी तो और बढ़ गई है क्योंकि औरतें घर से बाहर निकल कर भी काम कर रही हैं। खेती-मज़दूरी में तो पहले से ही थीं, अब हर क्षेत्र में आगे बढ़कर काम कर रही हैं। लेकिन फिर भी उनके काम को उतना महत्व नहीं दिया जाता। न उन्हें पुरुष कर्मचारी के बराबर वेतन मिलता है, न मज़दूरी, न पदवी, न सम्मान। जबकि एक महिला दोहरा काम करती है–
तभी सुजाता गुप्ता कहती हैं कि—
काम से लौटकर भी स्त्रियां
काम पर लौटती हैं।
इसलिए वो चाहे नारायण मूर्ति हों, या सुब्रह्मण्यन या अडानी। या फिर प्रधानसेवक के किस्से-कहानियां, सलाह–उपदेश…हमें इन्हें हंसी में उड़ाने की बजाय इनके सही राजनीतिक और आर्थिक निहितार्थ समझने होंगे, सही आलोचना पेश करनी होगी, प्रतिरोध करना होगा और अपने विचारों में सुधार भी, तभी श्रम का अवमूल्यन और चोरी रोकी जा सकती है। महिलाओं का अपमान और शोषण रोका जा सकता है।
इसी संदर्भ में आख़िर में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ याद आते हैं जो कहते हैं–
हम मेहनतकश इस दुनिया से
जब अपना हिस्सा मांगेंगे
इक बाग़ नहीं, इक खेत नहीं,
हम सारी दुनिया मांगेगे
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