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बी पी मंडल की जयंती के बहाने मंडल आयोग के हासिल पर एक नज़र

सवाल है कि जो दलित व पिछड़ी जातियां आरक्षण का लाभ ले रही थीं, कुछ ही वर्षों में भाजपा के साथ क्यों चली गई? मंडल आयोग की अनुशंसा एक राजनीतिक परिस्थितिजन्य का परिणाम था। चूंकि इसके लिए किसी तरह की राजनीतिक लड़ाई ही नहीं लड़ी गई थी इसलिए पिछड़ों को इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि उसे कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हाथ लगी है! बहुसंख्यक पिछड़ों के लिए मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होना एक स्वतः सरकारी फैसला होकर रह गया।
BP Mandal

मंडल कमीशन की रिपोर्ट तैयार करने वाले बी पी (बिन्देश्वरी प्रसाद) मंडल की आज जयंती है। इसी महीने 32 साल पहले (7 अगस्त 1990 को ) तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू किया था। जब इसे लागू करने की घोषणा की गई तो पूरे देश भर में आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में तीव्र ध्रुवीकरण हुआ। वी पी सिंह द्वारा आरक्षण लागू किए जाने की घोषणा के बाद उत्तर भारत के सभी शहरों में हाहाकार मच गया, करोड़ों की सरकारी संपत्ति को जलाकर राख कर दिया गया। पूरा गोबरपट्टी जातीय हिंसा में जलने लगा और अपवादों को छोड़कर सारे के सारे तथाकथित बुद्धिजीवी जाति आधारित आरक्षण के खिलाफ वी पी सिंह की सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। गोबरपट्टी ही नहीं बल्कि भारतीय समाज के तमाम ‘बड़े बुद्धिजीवियों’ का कहना था कि मंडल आयोग की सिफारिश लागू होने से देश से प्रतिभा खत्म हो जाएगी और समाज रसातल में चला जाएगा। हालांकि इस बीच नरेन्द्र मोदी की सरकार ने सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया और आरक्षण को रात-दिन गाली देनेवाले बुद्धिजीवियों ने सरकार के इस कदम का मोटे तौर पर स्वागत ही किया।

लेकिन वी पी सिंह द्वारा सामाजिक न्याय की लड़ाई की एक महत्वपूर्ण कड़ी मंडल आयोग को लागू करना था परन्तु उसका दुष्प्रभाव कुछ ही दिनों में दिखा जब 1992 के दिसंबर में बाबरी मस्जिद ढहाई दी गई थी। लेकिन मंडल का दूसरा सकारात्मक प्रभाव यह था कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के बीच राजनीतिक गोलबंदी हुई जो इतना कारगर था कि भाजपा द्वारा बाबरी मस्जिद के खिलाफ किए गए इतने बड़े लामबंदी के बावजूद दोनों दलों ने न सिर्फ उसे जबरदस्त शिकस्त दे दी थी, बल्कि मुलायम सिंह यादव को दूसरी बार राज्य का मुख्यमंत्री भी बना दिया था। लेकिन अहं का टकराव और 'दूरदृष्टि की कमी' की वजह से वह सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाई और उस दूसरी कड़ी को बिखरने में कुछ महीने ही लगे थे। लेकिन मुलायम-मायावती के बीच आहबगज t

सवाल है कि जो दलित व पिछड़ी जातियां आरक्षण का लाभ ले रही थीं, कुछ ही वर्षों में भाजपा के साथ क्यों चली गई?  इसका जवाब खोजना इतना मुश्किल नहीं है जितना यह सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेता पेश करने की कोशिश करते हैं। इसका सबसे आसान जवाब तो यह है कि पिछड़े वर्ग (ओबीसी-अदर बैकवर्ड क्लास) की अवधारणा बहुत नई है। यह शब्द देश के जनमानस में पहली बार मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने के बाद दर्ज हुआ था। अर्थात यह आइडिया 1990 में सबके सामने आया। लेकिन मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने के लिए कांग्रेस के चंद्रजीत यादव और बसपा के कांशीराम को छोड़कर किसी नेता ने कोई आंदोलन नहीं किया था। मतलब यह कि मंडल आयोग की अनुशंसा एक राजनीतिक परिस्थितिजन्य का परिणाम था। चूंकि इसके लिए किसी तरह की राजनीतिक लड़ाई ही नहीं लड़ी गई थी इसलिए पिछड़ों को इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि उसे कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हाथ लगी है! बहुसंख्यक पिछड़ों के लिए मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होना एक स्वतः सरकारी फैसला होकर रह गया।  

इसके अलावा जो तथ्य इतना ही महत्वपूर्ण है वह यह कि पिछड़े नेतृत्व के पास न कोई दृष्टि थी और न ही शासन करने का कोई खास रूपरेखा, जिसके सहारे समाज का बेहतरी किया जा सकता था। तथाकथित सामाजिक न्याय के नारों में गरीबी-भूखमरी-बेरोजगारी और विकास रहित जाति व्यवस्था से पीड़ित अवाम को कुछ मिलने के आसार ही नहीं थे। पिछले 32 वर्षों से जिस रूप में इन नेताओं को जनता समर्थन देती आती रही थी और जितनी राजनीति उससे प्रभावित हुई थी, सामाजिक न्याय के 'चैंपियनों' ने सिर्फ उसका दुरुपयोग किया है। उनके कार्यकलापों को देखने से लगता है कि सामाजिक न्याय का मतलब सिर्फ और सिर्फ नेताओं, उनके बाल-बच्चे और रिश्तेदारों की सत्ता और प्रतिष्ठान में भागीदारी व राजकीय खजाने के लूट में हिस्सेदारी ही रह गया है जिसके दायरे में कम से कम आम जनता तो कतई नहीं आती है। 

नेता चाहे लालू रहे हों या मायावती, या फिर मुलायम रहे हों- थोड़ा बहुत अंतर के साथ सभी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक (नीतीश व अखिलेश को छोड़कर) रूप से एक जैसे थे। उन नेताओं को सत्ता पर काबिज कराने वाली जनता गरीबी, बेरोजगारी और अशिक्षा से जुझ रही थी। उनके लिए 'नई सोच या विजन' के साथ स्कूल खोले जाने की जरूरत थी, उन पुराने सरकारी स्कूलों को बचाए रखने की जरूरत थी जिसकी बदौलत वे भविष्य में बेहतर रोजगार पा सकते थे। इसके अलावा किसी नई योजना के तहत उनके लिए शिक्षा के बेहतर अवसर भी मुहैया कराए जाने की जरूरत थी लेकिन वैसा कुछ नहीं किया गया और कुल मिलाकर शिक्षा व्यवस्था में आ रही गिरावट के चलते शिक्षा पूरी तरह नष्ट हो गई। यही हाल स्वास्थ्य क्षेत्र का रहा। सरकारी अस्पताल और स्वास्थ्य व्यवस्था खत्म हो गया और सरकारी अस्पताल के डॉक्टर अस्पतालों के अहाते में ही निजी क्लिनिक चलाने लगे। परिणामस्वरूप आम लोगों और गरीबों को स्वास्थ्य और शिक्षा मिलना बंद हो गया। अगर दोनों राज्य सरकारों के आकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि पिछले दो ढाई दशक में सरकारी अस्पतालों और सरकारी स्कूलों से ज्यादा निजी अस्पताल और स्कूल खुले हैं। जबकि बिहार-उत्तर प्रदेश के सामाजिक न्याय के जितने भी पुरोद्धा हैं (अखिलेश को छोड़कर)- लालू, नीतीश, मुलायम और मायावती, (रामविलास भी)- जब वे पैदा हुए होगें तो पहली बार इलाज के लिए सरकारी अस्पताल गए होगें। ठीक उसी तरह, जब वे पढ़ने के लिए स्लेट लेकर निकले होगें तो सरकारी स्कूल ही गए होगें लेकिन जिस रूप में इनलोगों ने आम जनता से सीधे तौर पर जुड़ी इन दोनों संस्थानों को नष्ट किया है या होने दिया है, इसका उदाहरण लोकतान्त्रिक इतिहास में आसानी से दिखाई नहीं देगा। 

बिहार और उत्तर प्रदेश के सामाजिक न्याय के नेताओं को देख लीजिए, 'लोकतंत्र को बचाने में' लालू, रामविलास मुलायम सिंह यादव, मायावती के परिवार के सभी लोग जी-जान से जुटे हुए हैं। नहीं तो लालू या मुलायम, मायावती या फिर रामविलास पासवान को यह कैसे लगा जब तक उनके परिवार के सदस्य चुनाव नहीं लड़ेंगे, लोकतंत्र नहीं बचेगा!  दुखद यह है कि इन नेताओं के लिए सामाजिक न्याय का मतलब इनका परिवार, इनके रिश्तेदार और अगर उन नेताओं में से किसी के पास 'परोपकार' जैसे शब्द बचे हैं तो अपनी जाति के मलाईदार तबके तक जाकर खत्म हो जाती है। नीतीश इस मामले में अकेले व्यक्ति हैं जो परिवारवाद से मुक्त हैं, लेकिन विजन की कमी उनको भी लालू-मुलायम और मायावती की श्रेणी में खड़ा कर देता है। 

पिछड़ा नेतृत्व हिन्दुत्व को चुनौती तभी दे सकता था जब एक वैकल्पिक मॉडल उनके दिमाग में होता। उस वैकल्पिक मॉडल के तहत उन्हें उस समुदाय के लिए स्कूल खोलना चाहिए था, छात्रावास की व्यवस्था करना चाहिए था, लड़कियों के लिए शिक्षा का विशेष प्रावधान किया जाना चाहिए था। लेकिन यह सोच किसी भी पिछड़े नेतृत्व में नहीं था। परिणामस्वरूप कई अवसर दिए जाने के बाद पिछड़े व दलित वोटरों ने प्रयोग करना मुनासिब समझा। उन समुदाय को कहीं से यह लगा ही नहीं कि अगर पिछड़ा या दलित मुख्यमंत्री सत्तासीन नहीं है तो उनके सेहत पर कोई अंतर पड़ रहा है। क्योंकि पिछड़े नेतृत्व के समय भी उनकी जिंदगी जैसी की तैसी ही रह गई थी। ऐसे ही उदासीन परिस्थिति में बीजेपी ने उनके अंदर हिन्दू होने का एहसास जगा दिया।

मंडल ने सभी धर्मों की पिछड़ी जातियों को एक सूत्र में बांधकर वर्गीय-सामाजिक एकता के आधार पर सही मायने में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर आधारित समाजनीति और राजनीति के लिए जमीन तैयार किया है। लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के तीन पाए पर भारत की संकल्पना, इसकी एकता और अखंडता तथा भारतीय गणराज्य खड़ा है। धर्मनिरपेक्षता के लिए वर्गीय - सामाजिक एकता की ठोस जमीन उपलब्ध करा कर मंडल ने भारतीय गणराज्य के आधार / फाउंडेशन को अभूतपूर्व योगदान दिया है।

मंडल ने जाति के सवाल और सामाजिक न्याय को भारतीय राजनीति के केंद्रीय एजेंडे में लाने का काम किया है। मंडल इस बात की ओर इशारा करता है कि जाति व्यवस्था से परे जाकर भारतीय समाज की पुनर्रचना का कार्यक्रम अनंत काल तक नहीं टाला जा सकता है। यदि भारत का राजनीतिक और नीति नियंता वर्ग सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप भारत के भौतिक संसाधनों, उत्पादित संपदाओं, ज्ञान, धन, सत्ता और सम्मान का सभी जातियों / वर्गों में न्यायोचित वितरण नहीं करता है तो भारतीय लोकतंत्र और अर्थव्यवस्था दोनों कमजोर पड़ते जायेंगे जो भारत के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी। 

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