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केजरीवाल के आगे की राह, क्या राष्ट्रीय पटल पर कांग्रेस की जगह लेगी आप पार्टी

मोदी-आरएसएस से सीधे भिड़े बिना कांग्रेस को निपटाती आप पार्टी, क्या एक बार फिर केजरीवाल की ‘अस्पष्ट’ विचारधारा के झांसे में आएगा देश?
kejriwal

पंजाब में आम आदमी पार्टी की प्रंचड सफलता को देखकर यह भविष्यवाणी होने लगी है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश में इस साल के अंत में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी एक राष्ट्रीय दल की हैसियत पा लेगी। उसके बाद जब सन 2023 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव होंगे तो आप बहुत साफ तरीके से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की देशव्यापी छवि और शक्ति को ध्वस्त करते हुए भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के सामने एक विकल्प के रूप में उपस्थित होगी। बल्कि ऐसा भी हो सकता है कि 2024 से पहले वह भारत में लोकतंत्र को बचाने के लिए भारत बनाम भ्रष्टाचार जैसे किसी बड़े आंदोलन का आयोजन करे और कांग्रेस को छोड़कर देश के तमाम क्षेत्रीय दलों के मिलाकर एक समवेत शक्ति खड़ी करे। 

आम आदमी पार्टी ने हाल में चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के बाद अपने जनाधार में जिस तरह से वृद्धि की है वह कुछ इस तरह है। पंजाब- 42 प्रतिशत मत, गोवा- 6.7 प्रतिशत, उत्तराखंड- 3.4 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश- 0.3 प्रतिशत। इसके अलावा दिल्ली तो 55 प्रतिशत मतों के साथ उनके पास है ही। अगर गुजरात और हिमाचल प्रदेश में उसके पास चार प्रतिशत से ज्यादा वोट शेयर हो जाए तो उसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल सकता है। विशेषज्ञों का दावा है कि आम आदमी पार्टी का यह विस्तार कांग्रेस की कीमत पर हो रहा है। क्योंकि दिल्ली से लेकर पंजाब तक दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के वोट उसके साथ जुड़ते जा रहे हैं। 

वे मूलतः कांग्रेस के ही वोट काट रहे हैं। दूसरी ओर अगर यह मान लिया जाए कि आप भाजपा के शहरी और विशेषकर वैश्य समुदाय और सवर्ण समुदाय के वोटों में सेंध लगा रही है तो भी भाजपा का वोट प्रतिशत गिरता हुआ नहीं दिख रहा है। वह कहीं न कहीं से अपने वोटों का विस्तार कर लेती है।

ऐसी स्थिति में अगर यह मान लिया जाए कि कांग्रेस के पास राष्ट्रीय स्तर पर जो 11 करोड़ वोट हैं वे बने रहते हैं तो भी यह धारणा बनती जा रही है कि केजरीवाल राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प के रूप उभर रहे हैं और पहले वे कांग्रेस को खत्म करेंगे फिर बसपा जैसे दलों को हजम कर सकते हैं और फिर भाजपा के सामने राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती बन कर खड़े होंगे। 

केजरीवाल की एक खूबी यह भी है कि कांग्रेस पार्टी की तरह उनकी विचारधारा स्पष्ट नहीं है। उनका उभार एक कांग्रेस विरोधी या भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और फिर पार्टी के रूप में हुआ था और उस आंदोलन को नेपथ्य से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और अंतरराष्ट्रीय दानदाता संस्थाओं का समर्थन था। उनके आंदोलन का सबसे ज्यादा लाभ अगर किसी दल को हुआ तो वह भारतीय जनता पार्टी को और किसी व्यक्ति को हुआ तो वह थे नरेंद्र मोदी। अगर किसी दल को सर्वाधिक हानि हुई तो वह कांग्रेस पार्टी को। केजरीवाल गैर भाजपावाद से जुड़े होने का आभास कई बार देते हैं और दिल्ली में उन्होंने भाजपा के उभार को रोककर वैसा साबित भी किया। हो सकता है गुजरात और हिमाचल में वे भाजपा के सामने मजबूत विपक्ष बनकर भी उभरें। 

आम आदमी पार्टी के खाते में कई रिकार्ड दर्ज होने लगे हैं। उनमें दिल्ली और पंजाब के चुनावों में झाड़ू लगाकर विपक्षी दलों को कचरा पेटी में डाल देने का ही मामला नहीं है बल्कि आंदोलन से निकलकर सत्ता में पहुंचने का मामला भी है। इससे पहले असम की असम गण परिषद छात्रों के आंदोलन से निकलकर राज्य की सत्ता में पहुंची थी। लेकिन वह किसी और राज्य में अपना विस्तार नहीं कर पाई, बल्कि अपने ही राज्य में खत्म हो गई। जबकि आम आदमी पार्टी देश की पांचवीं ऐसी पार्टी बनी है जो अपने मूल राज्य से लेकर दूसरे राज्य में पहुंची है।

दिल्ली में सरकार चलाते हुए केजरीवाल ने केंद्र की मोदी सरकार से टक्कर लेने की भी कोशिश की और दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मांगने के लिए सड़क पर भी उतरे। लेकिन बाद में उन्होंने मोदी और अमित शाह से तालमेल बिठा लिया और जहां तक राजनीतिक कार्यक्रम और फैसलों के बारे में उनका रवैया है तो अपने को भाजपा के लिए एक अनुकूल विपक्ष साबित करने में भी सफल रहे हैं। अब तो उनकी कार्यशैली को देखकर यही लगता है कि वे भाजपा की मजबूत केंद्र सरकार के सहयोग से एक प्रायोजित विपक्ष के तौर पर उभर रहे हैं जिसका उद्देश्य कांग्रेस मुक्त भारत के निर्माण में भाजपा को सहयोग करना है।

केजरीवाल की विचारधारा क्या है यह न तो अन्ना आंदोलन के दौरान बहुत स्पष्ट थी और न ही दस साल तक राजनीतिक जीवन में रहने के बाद स्पष्ट हो पाई है। उस वक्त उन्होंने समाजवादियों और देश के दूसरे हिस्सों के आंदोलनकारियों और बौद्धिकों को अपने साथ जोड़ा था। वे लोग विचारधारा के सवाल पर यही कहते थे विचारधाराओं का युग चला गया है और अब लोग मुद्दों के आधार पर फैसला करते हैं और मुद्दों के आधार पर ही राजनीति होनी चाहिए। उन लोगों का यह भी कहना था कि समाजवाद, साम्यवाद शब्द अब बदनाम हो चुका है इसलिए इसे उठाने और छूने से परहेज करना चाहिए। इससे जनता दूर भागती है।

अन्ना आंदोलन के दौरान केजरीवाल के विचारों की बीज पुस्तक सन 2012 में `स्वराज’ नाम से लांच हुई थी। उस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर अन्ना हजारे की टिप्पणी छपी है। उसमें कहा गया है- यह किताब व्यवस्था परिवर्तन और भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे आन्दोलन का घोषणा पत्र है और देश में असली स्वराज लाने का प्रभावशाली मॉडल भी।

इस पुस्तक में दावा किया गया है कि ‘’सीधे जनता को कानूनन यह ताकत देनी होगी कि यदि राशन वाला चोरी करे तो शिकायत करने की बजाय सीधे जनता उसे दंडित कर सके। सीधे-सीधे जनता को व्यवस्था पर नियंत्रण देना होगा जिसमें जनता निर्णय ले और नेता और अफसर उन निर्णयों का पालन करें।’’

यही इस पुस्तक में व्यक्त किए गए विचारों का मूल उद्देश्य है और इसी उद्देश्य को पूरा करने से ग्रामसभा को शक्ति देना, मोहल्ला क्लीनिक बनाना और लोकपाल बनाने जैसे सुझाव दिए गए हैं। इसी को ध्यान में रखकर स्विटजरलैंड का मॉडल पेश किया गया है जहां जनता का एक हिस्सा भी अगर लिखकर दे दे तो कानून पास हो जाता है। लेकिन इसके अलावा केजरीवाल ने धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और समाजवाद जैसे मूल्य सिद्धांतों पर अपने कोई स्पष्ट विचार नहीं रखे हैं। 

बल्कि अगर ध्यान से देखा जाए तो उन्होंने भी भारतीय जनता पार्टी की तरह बहुसंख्यकवाद के धार्मिक मूल्यों पर आधारित राष्ट्रवाद और एनजीओ की जनसेवा और कल्याणकारी राज्य के सिद्धांत के आधार पर लोगों को मुफ्त में बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और राशन देने का एक मॉडल बनाया है। इसके अलावा उन्होंने उन मुद्दों पर ढुलमुल रवैया अपनाया है जहां पर भारतीय जनता पार्टी अपने तमाम अभियानों के माध्यम से अल्पसंख्यक समाज, वामपंथी राजनीति पर हमला बोलती है। बल्कि कई खास मौकों पर उसने भाजपा का साथ दिया है। जैसे कि चाहे अनुच्छेद 370 को हटाने का मामला हो, पुलवामा कांड और उसके बाद हुए बालाकोट में सर्जिकल आपरेशन का मामला हो। जब कांग्रेस सवाल खड़ा कर रही थी तब आम आदमी पार्टी राष्ट्रवादी ज्वार में बहते हुए अपना भविष्य संवार रही थी।

आम आदमी पार्टी भाजपा की तरह राष्ट्रवाद के आक्रामक प्रतीकों का प्रयोग करने की बजाय निरापद प्रतीकों का प्रयोग करती है और भाजपा के खतरनाक प्रयोगों पर खामोशी ओढ़ लेती है। शहीदों के लिए एक करोड़ की मानद राशि, तिरंगा यात्रा, बुजुर्गों के लिए तीर्थयात्रा योजना, देशभक्ति पाठ्यक्रम वगैरह उसके प्रमाण हैं। केजरीवाल स्वयं अयोध्या गए और दिल्ली के चुनावों के दौरान हनुमान मंदिर भी गए। उन्होंने जनता के लिए अयोध्या यात्रा के लिए भी व्यवस्था करने का एलान किया। दूसरी ओर आप पार्टी और सरकार सीएए एनआरसी कानूनों पर केंद्र सरकार के साथ खड़ी रही, कृषि कानूनों पर केंद्र सरकार के साथ खड़ी थी और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में वामपंथियों के दमन के मामले में भी खामोश रही है। दिल्ली दंगों के बारे में भी आप का रवैया अबूझ पहेली की तरह ही रहा और किसान आंदोलन के दौरान भी उसका रवैया सरकार और आंदोलकारियों के बीच संतुलन कायम करने का रहा।

यह बात याद दिलाने की है कि अन्ना आंदोलन के दौरान भारत बनाम भ्रष्टाचार के कार्यकर्ता निरंतर तिरंगा लहराया करते थे। आम आदमी पार्टी भारतीय जनता पार्टी की तरह से राष्ट्रीय प्रतीकों का इस्तेमाल करने में माहिर है। हाल में उन्होंने भगत सिंह और डा. भीमराव आंबेडकर को पकड़ा है। भगत सिंह के गांव खड़खड़कलां में मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान का शपथ ग्रहण समारोह आयोजत करके और देश भर के अखबारों में उसका विज्ञापन देकर उन्होंने यह दिखा दिया है। अन्ना आंदोलन के दौरान गांधी को पकड़ा था। अब शायद गांधी में उन्हें उतना बारूद नहीं दिखाई पड़ रहा है इसलिए नए प्रतीकों को उठाया है। यह उन्होंने देख लिया था कि किसान आंदोलन के दौरान गांधी से ज्यादा भगत सिंह लोकप्रिय थे। भगत सिंह के नाम पर पंजाब तो दीवाना होता ही है देश में भी क्रांतिकारी युवाओं की एक बड़ी तादाद है जो साथ आकर खड़ी हो जाती है। वे यह भी समझ रहे हैं कि बहुजन समाज पार्टी समाप्त हो रही है। दलित आंदोलन विभिन्न खित्तो में बंट गया है। दलित मध्य वर्ग के भीतर मोदी सरकार के प्रति नाराजगी है लेकिन उसके सामने कोई विकल्प नहीं है जो नए सिरे से डा. आंबेडकर की बात उठा सके। 

आम आदमी पार्टी के नेता केजरीवाल नरमी से संवाद करते हैं और राहुल गांधी के मुकाबले ज्यादा असरदार ढंग से लोगों के दिल में उतरते हैं। वे बढ़िया हिंदी बोलते हैं जबकि राहुल गांधी की हिंदी कमजोर है और ममता बनर्जी अभी हिंदी नहीं सीख पाई हैं। इसलिए इस बात की भी संभावना है कि अरविंद केजरीवाल राहुल वगैरह को पछाड़ते हुए मोदी से जाकर टकराएं। इसके लिए वे एक बार फिर अन्ना आंदोलन की तरह देश में लोकतंत्र बचाने और भगत सिंह और डा आंबेडकर के सपनों का भारत बनाने का नारा दे सकते हैं। हालांकि वे यह नहीं बताएंगे कि इन महापुरुषों के सपने क्या थे। लेकिन एक बात तय है कि वे संघ और भाजपा की वृहत्तर योजना को कहीं मौलिक रूप से चुनौती नहीं देने जा रहे हैं। वे न तो अंतरराष्ट्रीय पूंजी से लड़ने जा रहे हैं और न ही हिंदुत्व ब्रिगेड का मुकाबला करने की तैयारी में हैं। बल्कि किसान आंदोलन, सीएए एनआरसी आंदोलन और अगर आखिर में लोकतंत्र के लिए कोई आंदोलन खड़ा होता है तो उसमें प्रवेश करके उसकी धार को कुंद करने की भूमिका निभा सकते हैं। इस तरह लगता तो यही है कि जनता एक बार फिर उनके झांसे में आ सकती है। 

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