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AIUFWP: जनसुनवाई में फूटा थारू आदिवासियों का दर्द, बोले वन विभाग लाद रहा फर्जी मुकदमे

अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन (AIUFWP) से संबद्ध थारू आदिवासी और तराई क्षेत्र महिला मजदूर किसान मंच की सांगठनिक जनसुनवाई में थारू आदिवासियों का दर्द फूट पड़ा। बोले वन विभाग अंधाधुंध तरीके से फर्जी मुकदमों का बोझ लादता जा रहा है। जंगल से लकड़ी बीनने तक पर वन विभाग मुकदमा कर देता है तो सैंकड़ों लोगों पर शिकार करने जैसे हास्यास्पद और बेतुके आरोप में एफआईआर कर दे रहा है। 2200 लोगों पर फर्जी मुकदमे बना दिए है। यहां तक कि मृतकों, दृष्टिबाधित- दिव्यांग व महिलाओं बुजुर्गो तक पर भी मुकदमे कर दिए गए हैं।
AIUFWP

अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन (AIUFWP) की ओर से आयोजित सांगठनिक जनसुनवाई में ज्यूरी सदस्यों के सामने लोगों का दर्द फूट पड़ा। ज्यूरी सदस्यों ने थारू समुदाय की वनाधिकार से संबंधित समस्याओं को भी सुना और वन विभाग के फर्जी मुकदमों के बाबत, मामले को प्रदेश व केंद्र में उठाने का भरोसा दिया।

यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी और राष्ट्रीय सचिव रजनीश गंभीर ने कहा कि वन विभाग द्वारा करीब 2200 थारुओं पर फर्जी मुकदमे लाद दिए गए हैं। जिनमें कई लोगों का निधन तक हो चुका है। दूसरा, वनाधिकार कानून की बात करें तो वन विभाग, खुद ही वनाधिकार कानून को नहीं मानता है, जबकि 2006 में इसे संसद द्वारा पूर्ण बहुमत से पारित किया गया था। यही नहीं, कानून की प्रस्तावना में ही लोगों को उनके साथ सदियों से होते आ रहे ऐतिहासिक अन्नाय से निजात दिलाने की बात कही गई है तो वहीं, साफ तौर पर वनाश्रित समुदाय के लोगों को जंगल से जलौनी लकड़ी, जड़ी-बूटी, घास-फूस, औषधियां आदि लाने की बात कानून में स्पष्ट है लेकिन वन विभाग ऐसा करने पर भी फर्जी मुकदमे लाद दे रहा है।

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय सचिव रजनीश गंभीर ने बताया कि वन विभाग द्वारा थारू क्षेत्र के लोगों पर उत्पीड़न अत्याचार निरंतर बढ़ता जा रहा है। वन अधिकार कानून- 2006 के लागू हो जाने के बाद भी वन अधिनियम 1927, 1972, 1980 की विभिन्न धाराओं के तहत थारू समुदाय पर मुकदमे दर्ज किए गए हैं और किए जा रहे हैं। यह सिलसिला निरंतर जारी है।

गंभीर बताते हैं कि जंगली जानवर के शिकार के नाम पर वन विभाग द्वारा 400-500 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया गया है। इनमें 117 लोग नामजद है। सारा प्रकरण अपने आप में ही बेतुका और हास्यास्पद है लेकिन लोगों का उत्पीड़न किया जा रहा है। भला देंखे तो क्या 400 से 500 लोग मिलकर क्या किसी जानवर का शिकार करेंगे? जानवर तो दो लोगों को देखकर ही भाग जाता है। 500 लोग जाएंगे तो क्या जानवर दिखेगा? पहले ही भाग जाएगा। कई मृतक व दृष्टिबाधित लोगों तक पर भी एकदम बेतुके आरोप लगाए गए हैं लेकिन यह सब लोगों का उत्पीड़न करने के लिए पर्याप्त है।

मृतकों, दृष्टिबाधित बुजुर्गों तक पर मुकदमे

यूनियन सचिव रजनीश गंभीर के अनुसार, करीब 27 मुकदमों में 2200 से अधिक थारुओं को कथित तौर पर फर्जी तरीके से फंसाया गया है। आरोप है कि कुछ ऐसे लोग हैं जिनका मुकदमा दर्ज होने से पहले ही निधन हो चुका है। जबकि दृष्टिबाधित, विकलांग, बुजुर्ग और बेगुनाह लोगों पर वनाधिकार कानून लागू कराने के लिए कार्य करने पर वन विभाग ने फर्जी मुकदमे लादे हैं।

मृतकों के परिजनों द्वारा जनसुनवाई में खुद इन मुकदमों को ज्यूरी के सामने पेश किया गया। एक पीड़ित महिला ने बताया कि वन विभाग खुद हमला करता/कराता है और बाद में फर्जी केस बना, अत्याचार करता है। अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय सलाहकार धनंजय उपाध्याय ने कहा कि ज्यूरी टीम में उनके अलावा वनाधिकार कानून नियमावली ड्राफ्टिंग कमेटी की नंदिनी सुंदर, पूर्व सहायक निदेशक जनजाति निदेशालय समाज कल्याण डीएन सिंह, पूर्व डीजीसी लखीमपुर धर्मेंद्र शुक्ला, लखनऊ उच्च न्यायालय की अधिवक्ता नंदिनी वर्मा, यूनियन की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोकालो गोंड व वरिष्ठ पत्रकार अमित सेन गुप्ता आदि शामिल रहे। 
imageजनसुनवाई में उपस्थित महिलाएं

ज्यूरी सदस्यों ने सभी समस्याओं को गंभीरता से सुना, जाना और सभी मुद्दों को केंद्र और प्रदेश सरकार के समक्ष प्रमुखता से उठाने की बात कही। वहीं, अगले दिन 5 जून को संगठन का वार्षिक प्रतिनिधि सम्मेलन भी आयोजित किया गया जिसमे संगठन के भविष्य के कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार की गई और संघर्ष की रणनीति को अंतिम रूप दिया गया।

मुआवजे की मांग करें पीड़ित: अनिता

यूनियन कार्यकर्ता व एडवोकेट अनिता ने बताया कि लखीमपुर में थारू आदिवासियों के खिलाफ सैंकड़ों की संख्या में मुकदमे दर्ज कर, उनका शारीरिक मानसिक और आर्थिक उत्पीड़न किया जा रहा है। मृतकों तक पर केस दर्ज कर दिए गए हैं। ऐसे में, लोगों को भी उल्टे वन विभाग के अधिकारियों के खिलाफ व्यक्तिगत और विभागीय स्तर पर मुकदमें दर्ज कराने चाहिए और मुआवजे की मांग करनी चाहिए। कहा वन विभाग 1864 में बना लेकिन हम लोग सदियों से यहां जंगल में रहते आ रहे है। कहा यह सारी लड़ाई खनिज संपदाओं पर कारपोरेट के कब्जे को लेकर है तभी वन विभाग, सरकार की शह पर लोगों के उत्पीड़न और अत्याचार पर उतारू है। अनिता के अनुसार, जंगल की जड़ी बूटी आदि प्राकृतिक संसाधनों के लिए हमें मिलकर कॉपरेटिव बनाने जैसे साझे प्रयास करने होंगे ताकि समुदाय को आर्थिक मजबूती मिलने का भी काम हो सके।

साभार : सबरंग 

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