Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

ANIMAL: हिंसा, दक़ियानूसी पूर्वाग्रह, पितृसत्ता को ग्लोरिफाई करती फ़िल्म!

क़माई के लिहाज़ से भले फ़िल्म सुपरहिट हो लेकिन एक सामाजिक परिदृश्य में ये बेहद ही ख़राब, हिंसक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाली दक़ियानूसी पूर्वाग्रहों से ग्रसित स्त्री विरोधी फ़िल्म है।
ANIMAL

"सिनेमा समाज का आईना होता है। इसे देखकर हम बड़े हुए हैं, सिनेमा देखकर युवा काफी इन्फ्लूएंस (प्रभावित) होता है...फ़िल्म में महिलाओं का अपमान करना और उसे जस्टिफ़ाई करना सही नहीं है।"

ये बातें देश की संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा में कांग्रेस सांसद रंजीत रंजन ने एनिमल फ़िल्म को लेकर कहीं। ये फ़िल्म इन दिनों काफी सुर्खियां बटोर रही है और इसकी वजह फ़िल्म का कंटेंट है, जो क़माई के लिहाज़ से भले सुपरहिट हो, लेकिन एक सामाजिक परिदृश्य में ये बेहद ही ख़राब, हिंसक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाली दक़ियानूसी पूर्वाग्रहों से ग्रसित स्त्री विरोधी, मुसलमानों की ख़ास बनी-बनाई छवि पर्दे पर पेश करती है, जिसे बदलने के लिए सालों से संघर्ष जारी है।

फ़िल्म में इतनी मारधाड़ और खून-खराबा है कि कमज़ोर दिल के लोग इसे पूरी देख तक नहीं सकते। कई ऐसे सीन हैं जहां मनोरंजन नहीं सिर्फ़ गोलियां, ख़ून और हिंसा का वीभत्स रूप आपको देखने को मिलता है। मर्दों की धौंसवाली मर्दानगी, औरतों को क़ाबू में रखने की ज़िद इस फ़िल्म की यूएसपी है। यहां हीरो के ज़रिए हिंसा का महिमामंडन, उसे ग्लोरिफाई किया जा रहा है। समस्या कुछ भी हो हिंसा को ही समाधान बनाकर पर्दे पर दर्शकों के बीच परोसा जा रहा है और ये सब कहीं न कहीं एक बार फिर हमें पितृसत्ता की ओर ढकेलते हैं, प्यार नहीं नफ़रत को बढ़ावा देते हैं।

इसमें कोई दो राह नहीं कि फ़िल्म में तमाम किरदारों ने उम्दा एक्टिंग की है, लेकिन काश ये किरदार समाज के लिए रोल मॉडल भी बन पाते। काश इनकी एक्टिंग औरों को कुछ बेहतर करने की प्रेरणा दे पाती। काश ये फ़िल्म प्यार के नाम पर हिंसा को जस्टिफाई न कर, सही-ग़लत का फर्क समझाती। काश ये स्त्रियों को नियंत्रण में रखने की बजाय उन्हें आज़ादी से अपनी ज़िंदगी जीने को प्रेरित कर पाती और काश ये फ़िल्म पितृसत्ता की जड़ें गहरी न कर, उसे चुनौती देती, जिसके लिए आज भी तमाम महिला आंदोलन संघर्षरत हैं।

क्या हैं फ़िल्म में ऐसा जो आपको एक सभ्य समाज के तौर पर परेशान करेगा?

इस पूरी फ़िल्म की कहानी एक 'अल्फ़ा मर्द' के ईर्द-गिर्द घूमती है, जिसकी शुरुआत भी इसी सवाल से होती है कि ये अल्फ़ा मर्द आख़िर है क्या? फ़िल्म में हीरो रणबीर कपूर हिरोइन रश्मिका मंदाना को बताते हैं कि सदियों पहले अल्फ़ा मर्द कैसे होते थे- "स्ट्रॉंग बंदे, मर्द बंदे" जो जंगलों में घुसकर शिकार कर लाते थे। वो शिकार बाक़ी सब में बंटता था। महिलाएं खाना बनाती थीं, बच्चों और बाक़ी सबको खिलाती थीं। वे सिर्फ़ खाना ही नहीं पकाती थीं बल्कि यह भी तय करती थीं कि शिकारियों में से कौन मर्द उसके साथ बच्चे पैदा करेगा। कौन उसके साथ रहेगा और कौन उसे प्रोटेक्ट करेगा यानी उसकी हिफ़ाज़त करेगा और समुदाय ऐसे ही चलता था।

'स्ट्रॉंग बंदों' के बाद फ़िल्म में कमज़ोर मर्द की परिभाषा भी बताई गई है, साथ ही ये भी बताया गया है कि उनके पास स्त्रियां कैसे आतीं? हीरो के मुताबिक़ कविता या शायरी करने वाले कमज़ोर मर्द हैं। वे स्त्रियों को रिझाने के लिए कविताओं में चांद-तारे तोड़ कर लाने का ज़िक्र करते हैं। वे समाज के लिए कुछ नहीं करते, जो करते हैं वो सिर्फ़ अपनी शारीरिक कमज़ोरी को छिपाने के लिए करते हैं। ऐसे लोग बेकार हैं, उनका कोई उपयोग नहीं है। समाज के लिए जो करते हैं, वे 'अल्फ़ा मर्द' ही करते हैं और इसलिए समाज में केवल ताकतवर मर्द ही पैदा होने चाहिए।

आदमी 'दबंग' और औरतें महज़ 'कठपुतली'

इस फ़िल्म में आपको सेक्सुअल कमेंट भी सुनने को मिलेगा। जहां एक सीन में हीरोइन को देख कर हीरो अंग्रेज़ी में बोलता है, "तुम्हारा पिछला हिस्सा बड़ा है। तुम अपने शरीर में स्वस्थ शिशुओं को पाल सकती हो।" इसके अलावा एक जगह हीरो कहता है, शादी में डर होना चाहिए। पकड़ कर रखो। डर गया, सब गया। इस फ़िल्म में भाई को बहनों का रक्षक भी दिखाने की कोशिश की गई है। एक सीन में जब हीरो को ये पता चलता है कि उसकी बहन को कॉलेज में कुछ लड़के काफ़ी परेशान कर रहे हैं, तो वो भरी क्लास में बड़ी बहन को लेकर पहुंच जाता है, वहां गोलियां चलाता है और बड़े गर्व से कहता है, 'तेरी सेफ़्टी के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं।'

फ़िल्म का आधार पुत्र का पिता के लिए लगाव है, मगर यह लगाव सामान्य बाप-बेटे के प्रेम से कहीं आगे एक हिंसक रूप ले लेता है। फ़िल्म में पिता के पिता, उनके भाई, भाइयों के बेटे…यानी मर्दों की पूरी सक्रिय दुनिया है, उस दुनिया में औरतें महज़ कठपुतली की तरह यहां-वहां आपको दिखाई देती हैं, जिन्हें क्या पीना है, क्या पहनना है, कैसे रहना है, किससे शादी करनी है, ये सब मर्द बताएंगे या यूं कहें कि उसके घर के मर्दों के मुताबिक़ ये तय होगा। फ़िल्म में मर्दानगी का एक और पैमाना यौन संबंधों में दमदार प्रदर्शन को भी दिखाया गया है, इसकी बात बार-बार आती है। हीरो ही नहीं बल्कि विलेन भी जब मन करता है और जहां मन करता है, यौन संबंध बना लेता है। यही नहीं, वो शादी से इतर भी संबंध बनाता है और स्त्रियों के शरीर पर दिए गए घावों को गर्व से अपनी उपलब्धि मानता है।

यहां मुसलमानों की भी एक दक़ियानूसी छवि पेश करने की कोशिश की गई है। जैसे हीरो के परिवार का ही एक सदस्य जब विदेश जाकर धर्म परिवर्तन कर लेता है, तो उसे दिखाने की कोशिश की गई है कि अब उसकी कई बीवियां और कई बच्चे हैं। इसके साथ ही उसके बेटे की भी कई बीवियां हैं, जिनका संख्या बढ़ाकर बिज़नेस पर क़ब्ज़ा करने का इरादा है। फिर सब एक होकर इन्हें ख़त्म करने के पीछे लग जाते हैं। ये पूरा सीन कहीं न कहीं आपको समाज में फैले मुसलमानों के प्रति नफ़रत और नारों की भी याद दिलाता है।

फ़िल्म में हीरो की बड़ी बहन जो विदेश से एमबीए कर के आई होती है, उसका पति हीरो को नापसंद होता है, और इसलिए हीरो कहता है, "मैं छोटा था, वरना ये शादी होने नहीं देता।" आगे चलकर फ़िल्म बहन के फ़ैसले को ग़लत भी साबित करती है, क्योंकि उसका पति उसके पिता को मारने की साज़िश में शामिल हो जाता है और यहां हीरो की बात सही साबित हो जाती है। फिर एक सीन छोटी बहन का भी है जहां हीरो कहता है, "जो हाथ तेरी मांग में सिंदूर भरेगा, उसकी हर लकीर पहले मैं चेक करूंगा। मैं तुम्हारे लिए स्वयंवर करवाऊंगा।'

बैलेंसिंग का दिखावा मगर औरतों की ज़िंदगी पर क़ाबू

इस फ़िल्म को थोड़ा बैलेंस करने की कोशिश भी हुई है, जैसे फ़िल्म में हीरोइन को कई जगह हीरो से बराबरी से बहस करते और एक-दो जगह थप्पड़ मारते भी दिखाया गया है। फ़िल्म में एक सीन है, जहां हीरो का जीजा उसकी बहन पर हाथ उठाता है तो वह भड़क उठता है। वह बहन के लिए स्टैंड लेता है। हीरो बहन को पति से तलाक लेने और दूसरी शादी करने के लिए कहता है। साथ ही कहता है कि इतना पढ़-लिखकर ग़लत इंसान के साथ रहने से अच्छा है कि वह फैमिली बिज़नेस जॉइन करे। फ़िल्म में हीरो को हीरोइन के लिए बेशुमार प्यार लुटाने वाला भी दिखाया गया है। लेकिन ये किस तरह की बैलेंसिंग है? जहांं कभी प्यार तो कभी डर दिखाकर लोगों की ज़िंदगी पर क़ाबू किया जा रहा है। यहां महिलाओं को आज़ादी तो है, लेकिन उस आज़ादी की डोर पुरुष के हाथ में है।

गौरतलब है कि फ़िल्म जिस 'अल्फ़ा मर्द' की भूमिका गढ़ रही है, वो स्त्रियों और सभ्य समाज के लिए नुक़सानदेह और ख़तरनाक है। ऐसे मर्द पैदा नहीं होते, बल्कि इसी पितृसत्ता के ज़रिए बनाए जाते हैं, जो प्यार नहीं नफ़रत का प्रतिबिंब है। जिस तरह फ़िल्म का नाम एनिमल है, इसके हीरो के लक्षण भी जानवर की तरह ही दिखाने की कोशिश की गई है। क्योंकि फ़िल्म बड़े पर्दे पर प्रदर्शित हो रही है, इसका सीधा सरोकार आम जनता से है, इसलिए हमें इसके प्रति ज़्यादा सजग होने की ज़रूरत है। इस तरह के समाज की कल्पना शायद कोई सपने में भी न करना चाहे, फिर हम इसके असर को लोगों के दिलों-दिमाग पर हावी होने और उसी के नतीजों से प्रेरित होकर कुछ न कर गुज़रने की गारंटी कैसे ले सकते हैं। फ़िल्म इंसान से इतर जानवर की हिंसक प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है, जबकि हमारी शिक्षा और जागरूकता हमें इंसानियत को ज़िंदा रखने के लिए प्रेरित करती है। ऐसे में सिनेमा की ज़िम्मेदारी गंभीर है, जिसे इससे पैसे बनाने वालों को भी गंभीरता से ही लेना चाहिए।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest