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NRHC योजना: किराये के आवास से जुड़े मुद्दों को हल करने की असफल कोशिश

सरकार की अफोर्डेबल रेंटल हाउसिंग कॉम्प्लेक्स (एआरएचसी) योजना भारतीय शहरों में प्रवासी आबादी की समस्याओं का समाधान करने में नाकाफ़ी है।
NRHC योजना: किराये के आवास से जुड़े मुद्दों को हल करने की असफल कोशिश

मार्च 2020 में आई कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन ने शहरी विकास रणनीति के पूरे के पूरे खोखलेपन को उज़ागर कर के रख दिया है। अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक (ज्यादातर प्रवासी) महामारी के बाद के लॉकडाउन के बाद शहरी इलाकों में 24 घंटे भी नहीं रह सके और उन्हे अपने गाँव वापस लौटना पड़ा, क्योंकि उन्हे डर था कि अगर वे ये यहाँ रहे तो भूखे मर जाएंगे।

इस रिवर्स माइग्रेशन ने शहरों में मौजूद अपर्याप्त आवास के मुद्दे को उज़ागर कर दिया है। 1990 के दशक के बाद, सिंगापुर की शैली की तरह सहस्वामित्व वाले आवासों के निर्माण का मॉडल अपनाया गया, और निजी पूंजी को इसमें एक बड़ा भागीदार बना बनाया था, जो दिखाता है कि यह मॉडल कितना अन्यायपूर्ण है।

1960 के दशक के अंत में बने पुराने मॉडल कस्बों और 1990 के दशक के अंत में विकसित नई टाउनशिप (जो अभी भी जारी है) से संक्रमण का अनुभव काफी कठोर है। पुराने शहरों को औद्योगीकरण से युक्त शहर और आबादी के लिए आवास के एक अंतरंग हिस्से रूप में विकसित किया गया था। जबकि 1990 के दशक के बाद बने शहरों/कस्बों को मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों के साथ बनाया गया है, जहां अनौपचारिक क्षेत्र ने आवास बनाए और जो कामकाजी लोगों की पहुंच से बाहर के आवास हैं।

किराए के आवास

एनएसएसओ - 2019 के अनुसार, शहरी भारत में 31 मिलियन परिवार किराए पर रहते हैं और इनमें से अधिकांश झुग्गी बस्तियों/कच्ची बस्तियों आदि जैसी अनौपचारिक बस्तियों में रहते हैं। लेकिन सरकार, श्रमिकों के लिए आवास उपलब्ध कराने में सक्रिय भूमिका निभाने के बजाय, एआरएचसी (अफोर्डेबल रेंटल हाउसिंग कॉम्प्लेक्स) नाम की एक योजना लेकर आई है।

आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार, "एआरएचसी योजना, किफ़ायती किराये के आवासों के लिए एक स्थायी पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण की परिकल्पना करती है जो प्रवासियों और शहरी गरीबों को उनके कार्यस्थल के पास आवश्यक नागरिक सुविधाओं के साथ सम्मानजनक जीवन प्रदान कर पाएगी।"

एआरएचसी योजना में दो तरह के विचार हैं। पहले मॉडल में सरकार द्वारा वित्त पोषित मौजूदा सार्वजनिक आवास को सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा या पीपीपी (सार्वजनिक-निजी भागीदारी) मॉडल में किराये के आवास में परिवर्तित करना शामिल है। केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को इस घटक के तहत पिछली योजनाओं द्वारा वित्त पोषित, खाली और निर्माणाधीन घरों का इस्तेमाल करने का निर्देश दिया है। इन योजनाओं में शहरी गरीबों (बीएसयूपी), एकीकृत आवास और स्लम विकास कार्यक्रम (आईएचडीएसपी), जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) और राजीव आवास योजना (आरएवाई) के लिए बुनियादी सेवाओं के तहत निर्मित घर शामिल हैं।

वितरण के दूसरे तरीके में यह परिकल्पना की गई है कि किराये के आवास का निर्माण, संचालन और रखरखाव सार्वजनिक/निजी निवेशकों द्वारा उनकी खुद की भूमि पर किया जाएगा। हमें इंतजार करना होगा और देखना होगा कि यह कैसे उभर कर सामने आता है।

एक बार जब राज्य सरकारें आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर देती हैं, तो वे उन एजेंसियों को शामिल करेंगी जिन्हें योजना में भाग लेने के लिए दी गई रियायत के रूप में संदर्भित किया जाएगा। योजना के पहले तरीके के तहत चुनिंदा रियायतग्राही, निजी और सार्वजनिक संस्था, इन खाली इकाइयों की मरम्मत और पुनर्निर्माण या सुधार करेगी तथा 25 वर्षों की अवधि के लिए उनका प्रबंधन करेगी और फिर उन्हें राज्य/शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) को वापस सौंप देगी। किराये की राशि राज्य/यूएलबी द्वारा तय की जाएगी। रियायतग्राही एजेंसियों से अपेक्षा की जाती है कि वे आवश्यकतानुसार आवश्यक सामाजिक आधारभूत संरचना विकसित करेंगी।

आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के डैशबोर्ड के अनुसार, एआरएचसी योजना के तहत देश में लगभग 86,065 खाली घर हैं जिनका निर्माण विभिन्न योजनाओं के तहत किया गया था। अब तक (दिसंबर 2020 से) इनमें से केवल 1,934 घर आवंटित किए गए हैं। इस आवंटन का बड़ा हिस्सा चंडीगढ़ प्रशासन द्वारा किया गया है, जोकि वहां के कुल घरों की संख्या-1707 का लगभग 88 प्रतिशत है।

बड़ी आवास समस्या और उससे जुड़े पारिस्थितिकी तंत्र को संबोधित करने के बजाय, पहले से बने घरों को किराये में बदलने का कमतर दृष्टिकोण मदद नहीं करेगा। ऐसा क्यों है कि उपरोक्त योजनाओं के लाभार्थियों ने इन मकानों पर कब्जा नहीं किया है या करने के इच्छुक क्यों नहीं है?

यहां कुछ कारण दिए जा रहे हैं। सबसे पहले, अधिकांश शहरों में, ये परियोजनाएं शहरों या कस्बों से दूर स्थित सीमाओं के आसपास हैं, जो उन्हे अन्य आबादी वाले क्षेत्रों से ठीक प्रकार से नहीं जोड़ती हैं। दूसरे, चूंकि ये शहरों से काफी दूर है, इसलिए ये पानी और सीवरेज जैसी बुनियादी सेवाओं और आंगनबाड़ियों, सरकारी स्कूलों और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी सार्वजनिक सुविधाओं से नहीं जुड़ी हुई हैं। तीसरा, खराब डिजाइन और निर्माण भी एक पहलू है जिसे इन परियोजनाओं में नोट किया गया है।

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) और वर्किंग पीपल्स चार्टर (डब्ल्यूपीसी) के एक्टिविस्टों के एक समूह ने हाल ही में एक अध्ययन किया है जिसे 'इंडिया हाउसिंग रिपोर्ट' शीर्षक के नाम से लिखा गया है और उन्होने अन्य कुछ और कारण बताए हैं। अध्ययन में पाया गया है कि शहर के भीतर के स्लम आवास से दूरस्थ सार्वजनिक आवास में जाने से महिलाओं का जीवन विशेष रूप से प्रभावित हुआ है। ऐसा होने से उन्होंने न केवल घर के पास उपलब्ध काम के अवसरों को खो दिया बल्कि समय का भी काफी नुकसान हुआ है। इसलिए, वहां शायद ही कोई सामाजिक गतिशीलता नज़र आती है।

लगभग 85 प्रतिशत अनौपचारिक कर्मचारी, अपने निवास स्थान से कार्यस्थल पर जाने के लिए कम से कम 5 किमी की दूरी तय करते हैं और उस पर महीने में 500 रुपये से कम खर्च करते हैं। इसलिए दूरस्थ स्थान पर ये घर मजदूरों/कामगारों का जीवन अर्थहीन बना देंगे, क्योंकि वे महंगे परिवहन से आना-जाना नहीं कर सकते हैं और सब्सिडी वाली परिवहन व्यवस्था मौजूद नहीं है।

इसी तरह, किराया वहन करना भी एक बड़ा मुद्दा है। एनएसएसओ सर्वेक्षण 2018 के अनुसार, पूरे भारत में किराए के भुगतान का औसत लगभग 3,324 रुपये है। एआरएचसी का किराया इससे अधिक नहीं होना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसमें लोग रहें और रहने में निरंतरता भी हो। हालाँकि, यह दर्शाया गया है कि इस योजना को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए डिज़ाइन किया गया है जिसका अर्थ है कि इसे आत्मनिर्भर बनाने में किराया इसका प्रमुख घटक होगा। अगर ऐसा होता है तो फिर श्रमिक महंगे किराए के साथ इसका लाभ कैसे उठा पाएंगे?

एआरएचसी योजना जो कि शहरों में प्रवासी मजदूरों/कामगारों के लिए बेहद जरूरी है, इसके वांछित लक्ष्यों से कम है और यह मुद्रीकरण ढांचे में भी अंतर्निहित है जो चाहत भरे परिणाम हासिल नहीं कर सकती है।

ट्रेड यूनियनों और अन्य सामाजिक समूहों से विचार करते हुए शहर और राज्य सरकारों की इसमें सक्रिय भूमिका होनी चाहिए। नहीं तो यह योजना भी पूरी तरह से लड़खड़ा जाएगी, जिस तरह सरकार के अधिकांश प्रमुख कार्यक्रम लड़खड़ा गए हैं। लेकिन इसका लड़खड़ाना शहरों में प्रवासी आबादी के लिए अधिक खतरनाक होगा।

लेखक, शिमला, हिमाचल प्रदेश के पूर्व डिप्टी मेयर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

ARHC Scheme Falls Short Of Solving Rental Housing Issues

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