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भारत में महिला रोज़गार की वास्तविकता: पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे से अहम बातें

इस विश्लेषण से पता चलता है कि भारतीय श्रमिक बाज़ार संकट में सबसे ज़्यादा नुकसान महिलाओं को झेलना पड़ता है। चूंकि वे बेरोज़गारी वहन नहीं कर सकती हैं, इसलिए उन्हें जैसा काम मिलता है, वे ले लेती हैं।
भारत में महिला रोज़गार की वास्तविकता
Image Courtesy: Financial Express

भारत सरकार ने आधिकारिक तौर पर नेशनल सैंपल सर्वे (NSS) 2011-12 के पांच वर्षीय रोजग़ार और बेरोज़गारी सर्वेक्षण (EUS) को रद्द कर दिया है। श्रमशक्ति आंकड़ों की अहमियत के मद्देनज़र, 2017 में सरकार ने वार्षिक श्रम शक्ति आंकड़ों को जारी करने का फ़ैसला किया है। इसे ''पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे या PLFS'' कहा जाता है। 4 जून 2020 को सरकार ने PLFS के दूसरे बैच के आंकड़ों को जारी किया। इन आंकड़ों के लिए ''नेशनल स्टेटिस्टिकल ऑफिस (NSO)'' ने जुलाई 2018 से जून 2019 के बीच सर्वे किए थे, जिसमें करीब 1.01 लाख परिवारों के 4.2 लाख लोगों को शामिल किया गया था।

गौर करने वाली बात है कि PLFS आंकड़े बड़े फलक पर रोज़गार-बेरोज़गारी से जुड़े पैमानों के आंकड़े दिखाता है। PLFS और पुराने NSS-EUS की तुलना पर लगातार बहस होती है। इससे बचने के लिए और ज़्यादा से ज़्यादा तुलनात्मक स्वरूप देने के लिए, इस विश्लेषण में PLFS में पहली बार में ही इकट्ठा किए गए आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है (शहरी क्षेत्रों में PLFS के लिए आंकड़ें इकट्ठे करने वालों ने परिवारों के पास चार बार चक्कर लगाए, उनके द्वारा दोबारा की गई यात्राओं के आंकड़े इस विश्लेषण में शामिल नहीं किए गए हैं)।

PLFS (2017-18) के आंकड़ों के मुताबिक़, अखिल भारतीय स्तर पर महिलाओं की ''श्रमशक्ति सहभागित दर (वर्कफोर्स पार्टिशिपेशन रेट- WPR)'' 16.5 फ़ीसदी है। रिपोर्टों के मुताबिक़ यह 2018-19 में बढ़कर 17.6 फ़ीसदी हो गई। पूरे देश की महिलाओं के WPR में जो इज़ाफ़ा हुआ है, उसकी वजह ग्रामीण इलाकों की महिलाओं के WPR में बढ़ोतरी है, जो 2017-18 के 17.5 फ़ीसदी से बढ़कर 2018-19 में 19 फ़ीसदी पहुंच गया।

सबसे अहम बात है कि 2004-05 के बाद पहली बार ग्रामीण महिलाओं के WPR में बढ़ोतरी हुई है। हालांकि यह आंकड़ा अब भी 2011-12 में महिलाओं के WPR से काफ़ी कम है (2011-12 में महिलाओं का WPR 25 फ़ीसदी था)। ऊपर से ग्रामीण और शहरी इलाकों में महिलाओं के WPR में बड़ा अंतर भी है, शहरी क्षेत्रों में यह कम ही रहा है। यहां यह भी ध्यान देना है कि 2017-18 और 2018-19 में शहरी महिलाओं के WPR में कोई बदलाव नहीं आया है।

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भारत में महिला रोज़गार

रोज़गार के अलग-अलग वर्गों पर करीब़ से नज़र डालने पर पता चलता है कि ग्रामीण महिलाओं के WPR में बढ़ोतरी की वजह स्वरोज़गार (2017-18 से 2019-19) में आया उछाल है। स्वरोज़गार ग्रामीण महिलाओं के लिए रोज़गार का मुख्य साधन है। ग्रामीण महिलाएं ज़्यादातर बिना पैसे के अपने परिवार के सदस्यों को उनका उद्यम चलाने में मदद करती हैं। लेकिन इन्हें कोई नियमित वेतन नहीं मिलता।  लेकिन ग्रामीण महिलाओं में 2017-18 से 2018-19 के बीच ''स्वरोज़गार (Own Account Employment या OAE)'' के अनुपात में तीन फ़ीसदी का इज़ाफा हुआ है। स्वरोज़गार का मतलब है कि बिना किसी दूसरे कर्मचारी को काम पर रखे हुए रोज़गार में संलग्न रहना।

अलग-अलग उद्योगों में स्वरोज़गार पर नज़र डालने से पता चलता है कि निर्माण उद्योग में ग्रामीण महिलाओं की हिस्सेदारी में 2017-18 से 2018-19 के बीच उछाल आया है। इसमें बड़ा हिस्सा कपड़ा और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का है। दोनों ही उद्योगों में लघु स्तर की ईकाईयों का बोलबाला है। कपड़ा उद्योग में ग्रामीण महिलाओं ज़री लगाने, धागा सिलने और हथकरघे से जुड़ी दूसरी गतिविधियों में हिस्सा लेती हैं। महिला कर्मचारियों की मांग समय के साथ बढ़ती चली आ रही है, क्योंकि महिलाओं के ज़रिए सस्ता और लचीला श्रम आसानी से उपलब्ध हो जाता है। खाद्य उत्पाद बनाने वाले उद्योगों में महिलाएं ज़्यादातर बेकरी आइटम, मिष्ठान और चीनी-अनाज मिल के उत्पादों जैसे- आटा, चावल, दाल पिसाई जैसे दूसरे कामों में ज़्यादा हिस्सा लेती हैं।

जिन महिलाओं का सर्वे किया गया, उनमें से 2018-19 में 97 फ़ीसदी महिलाएं ऐसे उद्यमों में काम कर रही हैं, जिनमें 6 से कम कर्मचारियों की जरूरत होती है। 81 फ़ीसदी महिलाओं के मालिकाना हक़ वाले उद्यम उनके घर से ही चल रहे थे। छठवीं आर्थिक गणना के मुताबिक़, इनमें से ज़्यादातर उद्यमों में शौचालय, कचरा प्रबंधन सुविधा, बैंक और पोस्ट ऑफिस जैसी बुनियादी सेवाओं की भी कमी है। इससे न केवल रोजगार सृजन में इनके कम दायरे और क्षमता का पता चलता है, बल्कि इससे पता चलता है कि यह वह उद्यमी हैं, जो जरूरतों के चलते काम करने पर मजबूर हुए हैं। इसलिए महिलाओं के स्वरोज़गार में बढ़ोतरी से ग्रामीण महिला उद्योग के लक्ष्य और दायरे पर कई सवाल खड़े होते हैं। इससे यह भी झलकता है कि जरूरत के बजाए मौके पर आधारित उद्मयशीलता की ग्रामीण महिलाओं में बहुत कमी है।

इस बीच 2018-19 की बेरोज़गारी दर 2011-12 की तुलना में बहुत ज़्यादा है। यह ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी क्षेत्र में ज़्यादा है। पूरे दौर में ग्रामीण महिलाओं की तुलना में शहरी महिलाओं में यह दर और भी ज़्यादा थी।  लेकिन 2017-18 से 2018-19 के बीच इसमें थोड़ी सी कटौती आई।

यह देखना भी दर्द भरा है कि ज्यादा शिक्षित युवा महिलाओं को रोज़गार मिलने की दर कम है।  ''शहरी क्षेत्रों में युवा महिलाओं'' के बीच बेरोज़गारी दर 12 फ़ीसदी थी, लेकिन शहरी क्षेत्रों में ''शिक्षित युवा महिलाओं'' में यह दर बढ़कर 18 फ़ीसदी हो गई। यह 2018-19 के आंकड़े हैं। शिक्षित युवा महिलाओं से मतलब उन महिलाओं से है, जिन्होंने सेकंडरी या इसके बराबर के स्तर की शिक्षा हासिल कर ली हो। उच्च शिक्षा कई युवा महिलाओं को रोज़गार की गारंटी नहीं देती, इससे शिक्षित युवाओं के लिए नौकरियों की कमी भी साफ़ झलकती है। यह ट्रेंड 2018-19 में भी जारी रहा।

2011-12 से 2018-19 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों में स्वरोज़गार में बड़ा इज़ाफ़ा हुआ है, साथ में ''अनौपचारिक भत्ते पर काम करने वाले मज़दूरों'' की संख्या में कमी आई है। 2017-18 से 2018-19 के बीच कुछ गिरावट के बावजूद, स्वरोजगार, ग्रामीण पुरुषों के लिए आजीविका का मुख्य स्त्रोत रहा। शहरी क्षेत्रों में 2011-12 से 2018-19 के बीच ''नियमित वैतनिक रोज़गार'' ही पुरुषों और महिलाओं के लिए आय का मुख्य साधन रहा।

हालांकि शहरी क्षेत्रों में रोज़गार में लगे लोगों में एक बड़ा बदलाव देखा गया। एक तरफ नियमित वेतनभोगी रोज़गार बढ़े हैं, साथ में पुरुषों और महिलाओं के लिए अनौपचारिक रोज़गार में कमी आई है। 2011-12 से 2018-19 के बीच पुरुषों की तुलना में महिलाओं में नियमित वैतनिक रोज़गार के बढ़ने की दर ज्यादा रही है। लेकिन अगर इसी दौर में शहरी महिलाओं के WPR में बढ़ोतरी हो जाती, तो यह एक सकारात्मक बदलाव रहता। लेकिन ऐसा कुछ नहीं देखा गया, इसका मतलब हुआ कि नियमित वैतनिक नौकरियों में लगी महिलाओं की कुल संख्या में शायद ही कोई बदलाव हुआ हो।

NSSO का EUS नियमित वैतनिक रोज़गार में लगे लोगों और अनौपचारिक भत्ते पर काम करने वाले मज़दूरों के आंकड़े इकट्ठे करता था। वहीं PLFS इनके साथ-साथ स्वरोज़गार में लगे लोगों के आंकड़े भी जुटाता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि आंकड़ो से पता चलता है कि प्रतिदिन की मज़दूरी और कुल आय शहरी क्षेत्रों में ज़्यादा रही है। नियमित कर्मचारियों और अनौपचारिक भत्ते पर काम करने वाले मज़दूरों के लिए भी ऐसा ही है।

इसी तरह प्रतिदिन की औसत मज़दूरी दर, सभी वर्गों में पुरुषों की सबसे ज़्यादा रही है। अब लैंगिक मज़दूरी अंतर की बात करते हैं। मतलब महिला-पुरुषों की आय में अंतर। शहरी और ग्रामीण, ''नियमित रोज़गार'' और ''अनौपचारिक भत्तों पर काम करने वाले मज़दूरों'' की तुलना में ''स्वरोज़गार में लगे कर्मचारियों'' में महिला-पुरुषों के बीच लैंगिक आय में ज्यादा अंतर रहा है। यह आंकड़े 2017-18 से 2018-19 के बीच के हैं। स्वरोज़गार क्षेत्र में लैंगिक वेतन अंतर, ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी इलाकों में ज़्यादा बढ़ा है। शहरी महिलाओं को शहरी पुरुषों की तुलना में 62 फ़ीसदी कम आय होती है। दूसरी तरफ ''नियमित वैतनिक कर्मचारियों'' में शहरी और ग्रामीण, दोनों इलाकों में 2011-12 से 2018-19 के बीच लैंगिक अंतर कम हुआ है। लेकिन निजी अनौपचारिक काम करने पुरुषों और महिलाओं में लैंगिक अंतर बढ़ा है। यह ट्रेंड शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाकों में रहा है।

इस विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में श्रम बाज़ार संकट का सबसे बुरे तरीके से शिकार महिलाएँ हैं। चूंकि महिलाएं बेरोज़गार रहना वहन नहीं कर सकतीं, इसलिए उन्हें जैसा रोज़गार मिलता है, वे ले लेती हैं। इससे स्वखाता रोज़गार में लगी महिलाओं की दिक्क़तों का पता भी चलता है। उनके पास रोज़गार का निश्चित दायरा है। उन्हें दूसरे कर्मचारियों के तुलना में लैंगिक अंतर की ज़्यादा मार झेलनी पड़ती है। इससे साफ़ होता है कि MUDRA द्वारा उधार, स्किल डिवेल्पमेंट प्रोग्राम जैसी केंद्र सरकार की तमाम योजनाएं और कदम पर्याप्त नहीं हैं। इन तरीकों के अलावा महिला कर्मचारियों को बुनियादी ढांचागत् सुविधाएं देने की जरूरत है। ताकि उनके काम करने की स्थितियों में सुधार आ सके। इन चीजों से न केवल रोज़गार के मौके बढ़ेंगे, बल्कि देश में महिलाओं के फायदे वाले रोज़गार क्षेत्र के दरवाजे खुलेंगे।

लेखक नई दिल्ली और बंगलुरू में में इकनॉमिस्ट हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Stark Reality of Women’s Employment in India: Insights from the Periodic Labour Force Survey

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