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अबॉर्शन के किस मामले में फ़ैसले को लेकर असमंजस में पड़ा सुप्रीम कोर्ट?

सर्वोच्च अदालत में 26 सप्ताह की एक गर्भवती विवाहित महिला के गर्भपात का मामला बीते कई दिनों से सुर्ख़ियों में है। अदालत ने इस मामले में तीन जजों की एक बेंच का गठन किया है जो इस मामले की सुनवाई कर रही है।
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सर्वोच्च अदालत में 26 सप्ताह की एक गर्भवती विवाहित महिला के गर्भपात का मामला बीते कई दिनों से सुर्खियों में है। अदालत ने अपने 09 अक्टूबर के एक फैसले में इस 27 वर्षीय महिला को उसकी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दे दी थी, फिर कुछ समय बाद ही खुद अदालत ने ही इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए तीन जजों की एक बेंच का गठन किया, जो अब इस मामले की सुनवाई कर रही है।

बता दें कि ये एक अपने तरह का अलग मामला है, जहां गर्भवती महिला ने गर्भनिरोधक के तौर पर स्तनपान का तरीका अपनाया था जिसमें 95% से अधिक सुरक्षा बताई जाती है। हालांकि इसके बावजूद महिला गर्भावस्था में पहुंच गई और अब उसने अपनी मानसिक और आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते इसे खत्म करने की इज़ाजत के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाया है।

फिलहाल इस मामले में तीनों न्यायाधीशों ने आगे की जांच के लिए महिला को एम्स, दिल्ली भेज दिया है जहां भ्रूण के स्वास्थ्य और बच्चे के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की सही तरीके से जांच हो सके। अब इस मामले पर आगे की सुनवाई सोमवार 16 अक्टूबर को होनी है जो बहुत हद तक एम्स की जांच रिपोर्ट - मां और बच्चे की मानसिक और शारीरिक स्थिति - पर निर्भर करेगी।

चीफ़ जस्टिस ने अजन्में बच्चे के अधिकारों को लेकर भी टिप्पणी की। बार एंड बेंच की ख़बर के मुताबिक़, चीफ़ जस्टिस ने कहा, “सीजेआई ने कहा, "हमें अजन्मे बच्चे के अधिकारों को संतुलित करना होगा। बेशक, मां की स्वायत्तता की जीत होती है, लेकिन यहां बच्चे के लिए कोई सामने नहीं आ रहा है। हम बच्चे के अधिकारों को कैसे संतुलित करते हैं? तथ्य यह है कि यह सिर्फ एक भ्रूण नहीं है, यह एक जीवित व्यवहार्य भ्रूण है। यदि इसे जन्म दिया जाए तो यह बाहर जीवित रह सकता है। यदि अभी डिलीवरी की गई, तो इसमें गंभीर चिकित्सीय समस्याएं होंगी, इसलिए दो सप्ताह और इंतज़ार क्यों न किया जाए? उसे (गर्भवती महिला को) बच्चे को रखने की ज़रूरत नहीं है। क्या बच्चे को मौत की सज़ा देना ही एकमात्र विकल्प है और न्यायिक आदेश के तहत बच्चे को मौत की सज़ा कैसे दी जा सकती है?”

क्या है पूरा मामला?

दरअसल, अक्टूबर महीने की शुरुआत में इस महिला ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था। उन्होंने तर्क दिया कि वह 26 सप्ताह यानी लगभग 6 महीने से गर्भवती है, लेकिन उन्हें इसकी जानकारी कुछ दिन पहले ही मिली। उन्होंने पिछले साल ही एक बच्चे को जन्म दिया था और गर्भनिरोधक विधि के रूप में स्तनपान का उपयोग कर रही थीं। ये आपको गर्भावस्था से 95% से अधिक सुरक्षा प्रदान करता है और इसमें पीरियड्स भी नहीं होते हैं जिस कारण उन्हें बहुत समय तक अपनी प्रेगनेंसी का पता नहीं लगा। उन्हें हाल ही में इस बात की जानकारी हुई कि वो गर्भवती हैं।

इसके बाद उन्होंने अदालत से गुहार लगाई कि वह प्रसवोत्तर मनोविकृति यानी “Postpartum Psychosis” से पीड़ित है, जो गर्भावस्था के दौरान और भी बदतर हो रही है। उन्होंने ये भी तर्क दिया कि उनके पास इस बच्चे का भरण-पोषण करने की वित्तीय क्षमता नहीं है, क्योंकि उनके पहले से ही 2 बच्चे हैं। इस पर अदालत ने महिला को गर्भपात की अनुमति दे दी और कहा कि चूंकि याचिकाकर्ता के पहले से ही दो बच्चे हैं, उसने पर्याप्त सुरक्षा ले रखी है। उसका मानसिक स्वास्थ्य खराब है इसलिए गर्भपात की अनुमति देनी चाहिए।

09 अक्टूबर को अदालत के फैसले के बाद मेडिकल बोर्ड के एक डॉक्टर ने सरकारी वकील के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट से इस संबंध में कुछ दिशा-निर्देश मांगे क्योंकि डॉक्टर का कहना था कि गर्भावस्था को समाप्त करने से पहले भ्रूण के दिल को बंद करना होगा। नहीं तो यह गर्भपात नहीं बल्कि समय से पहले प्रसव होगा, जहां पैदा होने वाले बच्चे को गहन देखभाल में रखना पड़ सकता है या उसे दीर्घकालिक शारीरिक और मानसिक विकलांगता हो सकती है। इसलिए डॉक्टर इस पर अदालत की स्थिति स्पष्ट चाहते थे। इसके बाद सरकारी वकील ने अदालत का रुख किया, जिस पर चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने तीन जजों की बेंच का गठन किया है।

कानून क्या कहता है?

महिला आंदोलन के लंबे संघर्ष के बाद भारत सरकार ने 2021 में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी यानी एमटीपी अधिनियम 1971 में संशोधन किया था। इसके तहत कुछ विशेष मामलों में गर्भपात की ऊपरी समय सीमा को बीस हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते कर दिया गया है। इन श्रेणियों में बलात्कार पीड़ित, अनाचार की शिकार और अन्य महिलाओं को रखा गया है। दंड संहिता के तहत गर्भपात कराना अपराध है, लेकिन एमटीपी के तहत ऐसे मामलों में अपवादों को अनुमति है। अन्य लोग भी इसका फायदा उठा सकते हैं यदि उनके पास 20 सप्ताह से पहले गर्भपात के लिए डॉक्टर की सहमति है।

आसान भाषा में समझें तो, 20 सप्ताह से कम में महिला आसानी से गर्भपात करवा सकती है। लेकिन 20-24 सप्ताह के बीच, यह मामला तथ्यों पर निर्भर करता है, जो गर्भपात की अनुमति के लिए ज़रूरी होते हैं। इसके अलावा अगर सरकारी मेडिकल बोर्ड को भ्रूण में पर्याप्त असामान्यताएं मिलती हैं, तो 24 सप्ताह के बाद भी, गर्भपात कराया जा सकता है। कई बार अगर डॉक्टर को लगता है कि गर्भवती महिला के जीवन को बचाने के लिए गर्भावस्था को तुरंत समाप्त करना ज़रूरी है, तो ऐसे में गर्भपात की अनुमति बिना मेडिकल बोर्ड की राय के भी किसी समय दी जा सकती है।

बहरहाल, अबॉर्शन नारीवादी आंदोलन की एक प्रमुख मांग रही है। अनचाहे और असुरक्षित अबॉर्शन और गर्भधारण दोनों ही महिलाओं के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं। हालांकि ये अलग तरह का मामला है क्योंकि इसमें गर्भावस्था, एमटीपी एक्ट, 1971 के तहत गर्भपात के लिए कानूनी रूप से स्वीकार्य 24 सप्ताह की सीमा को पार कर गई थी। अब ऐसे में देखने होगा कि सुप्रीम कोर्ट किस नतीजे पर पहुंचता है।

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