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‘अग्निपथ’ से दलित, आदिवासी, पिछड़े युवाओं को फ़ायदा या नुक़सान?

“जहाँ तक दलितों-आदिवासियों और पिछड़ों की सेना में भर्ती का प्रश्न है तो इसमें बहुत ज्यादा स्कोप नहीं होता है। दलितों का तो बहुत ही कम। और सेना में दलित अधिकारियों या बड़े अफसरों की संख्या तो लगभग नगण्य ही है।"
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सत्रह-अठारह साल की उम्र युवाओं के सपने देखने की उम्र होती है। जाहिर है इस उम्र के दलित, आदिवासी और पिछड़े युवा भी सपने देखते हैं। उनके कई सपने होते हैं उनमे एक सपना आर्मी में भर्ती होने का भी होता है। दरअसल फौजियों को इस टेक्निकल युग ने ग्लैमराईज्ड कर दिया है। कई बार फौजियों पर बनी फिल्मे देख कर ये युवा इंस्पायर हो जाते हैं। और खुद भी फौजी बनने का सपना देखने लगते हैं। दूसरी बात फौजी का समाज में एक अलग रुतबा तथा देश सेवा की भावना और पक्की नौकरी। यदि युद्ध में मारे भी गए तो देश के लिए शहीद और रिटायर हुए तो पेंशन। यही आकर्षण दलितों आदिवासियों और पिछड़ों को इस क्षेत्र में आकर्षित करता है। पर क्या इनका फौजी बनना इतना आसान होता है?

इस बारे में जाने-माने साहित्यकार डॉ. जयप्रकाश कर्दम कहते हैं कि- “जहाँ तक दलितों-आदिवासियों और पिछड़ों की सेना में भर्ती का प्रश्न है तो इसमें बहुत ज्यादा स्कोप नहीं होता है। दलितों का तो बहुत ही कम। और सेना में दलित अधिकारियों या बड़े अफसरों की संख्या तो लगभग नगण्य ही है। सेना में जातिवाद हावी है। अंग्रेजों के जमाने में जो राजपूत रेजिमेंट, जाट रेजिमेंट और गोरखा रेजिमेंट, सिख रेजिमेंट होते थे वे आज भी हैं। सत्ताधारी लोग जो अंग्रेजों का विरोध करते हैं उनके द्वारा समुदाय और जाति आधारित रेजिमेंट के नाम क्यों नहीं बदलते। वे चाहें तो इनके नाम देश के लिए अपनी जान देने वाले अमर शहीदों के नाम पर भी रख सकते हैं। और आपको बता दूं जब अंग्रेज ये रेजिमेंट बना रहे थे तब इन जाति और समुदाय के लोगों के नाम पर रेजिमेंट का नाम रखने की सिफारिश करने वाले कथित उच्च जाति के अंग्रेजों के ‘प्रिय’ लोग ही थे।

कुछ महीनों पहले आपने एक न्यूज़ पढ़ी होगी कि दलितों(अनुसूचित जाति) और आदिवासियों (अनुसूचित जनजाति) के युवाओं पर सेना में चयन के समय, SC और ST का ठप्पा लगाया जा रहा था। ये क्या साबित करता है?”

दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय के अधिकांश युवा गरीब परिवार से होते हैं। सेना में भर्ती होने के लिए जिस तरह की ऊर्जा और मेहनत चाहिए उसके लिए पौष्टिक भोजन चाहिए। यह ज्यादातर युवाओं को मयस्सर नहीं होता। गरीबी उनकी सबसे बड़ी दुश्मन होती है जो उनके अच्छे करियर में सबसे बड़ी बाधा होती है। वह करियर को नहीं शिक्षा को नहीं, बल्कि भूखे पेट के लिए रोटी को सबसे बड़ी प्राथमिकता बना देती है।

एक दलित-आदिवासी-पिछड़ा बेरोजगार युवा सुबह चार बजे उठकर कसरत करता है। दौड़ लगाता है। उसका एक ही सपना है आर्मी में भर्ती होना ताकि उसकी बेरोजगारी खत्म हो जाए। वो खुद के और अपने माता-पिता के सपनों को पूरा कर सके।

मैंने जब युवाओं द्वारा ट्रेनों में की जा रही आगजनी और तोड़-फोड़ तथा पत्थरबाजी की घटनाओं के बारे में प्रतिक्रिया देने को आर्मी के तैयारी कर रहे एक दलित युवा से पूछा तो उसने कहा- ‘पेट पर पड़ी चोट पत्थर उठाने को मजबूर कर देती है अंकल।’ ऐसे युवाओं की बेबसी और आक्रोश समझा जा सकता है। पर इंडियन आर्मी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह अग्निवीरों की नियुक्ति से पहले उनका पुलिस वेरिफिकेशन कराएगी। यदि कोई युवा आगजनी और पत्थर फेंकने का दोषी पाया गया तो उसका चयन अग्निपथ में नहीं किया जाएगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अग्निपथ योजना का विरोध करने वाले अमीर युवा नहीं हैं। गरीब युवा ही इसका विरोध कर रहे हैं। इस संदर्भ में मैंने दलित आंदोलन से जुड़े राज्यों के सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात की।

दलित युवाओं का भविष्य अंधकारमय बनाएगी अग्निपथ

हरियाणा के दलित सामाजिक कार्यकर्ता राजकुमार बोहत कहते हैं- “दलित समुदाय के लोग आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हैं। पर उनके युवा बच्चे का मन होता है कि वो फ़ौज में जाएं। बच्चे के माता-पिता भी सोचते हैं कि चलो बच्चे का मन है तो उसके लिए वो खर्च भी करते हैं चाहे इसके लिए उन्हें कर्ज ही क्यों न लेना पड़े। वो उसके खाने-पीने पर भी खर्च करते हैं। उन्हें फल-फ्रूट, घी आदि खिलाते हैं। बच्चा भी मेहनत करता है। उसका सपना होता है कि मैं फ़ौज में जाऊँगा। इसके लिए वो शारीरिक परिश्रम भी करता है। सुबह उठकर दौड़ता है। व्यायाम करता है। माता-पिता को भी लगता है कि बच्चा मेहनत कर रहा है। सफल होगा।

कुछ माता-पिता तो उनको जहां आर्मी का प्रशिक्षण दिया जाता है, वहां (एकेडमी में) भर्ती करते हैं। उसके लिए उन्हें सुबह चार बजे उठना होता है। ऐसे कई दलित युवाओं से मैं मिला भी हूँ। वहां खाना-पीना वो देते हैं और महीने के 12 हजार रुपये चार्ज करते हैं। हालांकि पेरेंट्स को ये महंगा पड़ता है लेकिन फिर भी वो करते हैं कि हमारा बच्चा सफल हो जाए। मैं तो ऐसे पेरेंट्स से बात करता हूँ तो वो बताते हैं कि हमारा बेटा आर्मी की तैयारी कर रहा है।

अभी सरकार जो अग्निपथ योजना लाई है जिसमे अग्निवीरों चार साल के लिए रखेंगे और उसके बाद 75 प्रतिशत को निकाल देंगे। उनकी कोई पेंशन नहीं। कुछ नहीं। ऐसे में युवाओं को और उनके माता-पिता को सदमा जैसा लगा है।

पहले जब उनका बच्चा फ़ौज में भर्ती हो जाता था तो माता-पिता को भी उन पर गर्व होता था। समाज में भी उनका रुतबा बढ़ जाता था। उनके बच्चे का फ्यूचर सेफ हो जाता था। शादी विवाह में उसकी शादी भी अच्छी पढी-लिखी सुयोग्य लड़की से हो जाती थी। जब 24 साल की उम्र में वे रिटायर होकर आयेंगे वो उनकी शादी की उम्र भी होगी। तब शादी करेंगे और अपने बच्चों को क्या खिलायेगे। कैसे उनको पढ़ाएंगे लिखाएंगे। कैसे उनका पालन-पोषण करेंगे।

अब वो सदमे हैं कि चार साल के बाद कहाँ जाएंगे। सरकार उन्हें 20 हजार रुपये महीना देगी। जिसमे वो घर से बाहर रहेंगे। चौबीस घंटे बॉर्डर पर रहेंगे। जान-जोखिम में डालेंगे। जब हमारे युवा का खुद का भविष्य सुरक्षित नहीं होगा तो उसमे देशभक्ति का जज्बा भी कहाँ से आएगा। उसे खुद अपनी चिंता रहेगी कि उसका भविष्य क्या होगा। वो अपने और अपने परिवार के बारे में सोच-सोच कर मेंटली डिस्टर्ब होंगे। इसलिए मेरा कहना है कि देश की सुरक्षा का सवाल है। फौजियों को रिटायरमेंट के बाद पेंशन मिलनी चाहिए। सरकार की ये (अग्निपथ) योजना बंद होनी चाहिए।”

सरकार आर्मी को भी कॉन्ट्रैक्ट पर देना चाहती है

पंजाब के सुभाष दिसावर कहते हैं- “देखिये सोल्जर के कंधे पर देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है। अगर उसे सिर्फ चार साल के लिए रखा जाएगा। तो ये उन सोल्जरों और देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ है। ये भी देखने वाली बात है कि इसके पीछे सरकार की मंशा क्या है? बैक डोर से किन्हीं खास लोगों को भर्ती करने की योजना तो नहीं है।

दूसरी बात है कि इसमें जो सफाई कर्मचारी युवा हैं क्या उनके लिए कुछ प्रावधान हैं? ऐसा इसमें कुछ भी स्पष्ट नहीं है। ये योजना इतनी जल्दबाजी में क्यों शुरू की जा रही है? इसके बारे में विस्तृत रूप में कोई जानकारी लोगों को नहीं है। इससे तो युवाओं का भविष्य अंधकारमय है। चार साल में क्या होता है। मुझे तो लगता है कि ये सरकार आर्मी को भी कॉन्ट्रैक्ट पर देना चाहती है। ये चार साल का कॉन्ट्रैक्ट है। उसके बाद आप घर बैठो। इसमें देश भक्ति का जज्बा तो उसमें रहेगा ही नहीं।

दलितों और गरीबों के हित में नहीं अग्निपथ!

लखनऊ की डॉ. रिनिका प्रिया का कहना है कि “मेरे अनुसार तो सरकार की अग्निपथ योजना बिल्कुल बेकार है। ये दलितों और गरीब युवाओं के हित में नहीं है। एक दलित युवा ने तो इस योजना के बारे में सुनकर आत्महत्या कर ली। हरियाणा के जींद जिले के लिजवाना कलां गाँव के 23 साल का सचिन दो साल से आर्मी की भर्ती खुलने का इंतजार कर रहा था और सुबह-शाम दौड़ रहा था। भर्ती तो खुली लेकिन अग्निवीरों के अग्निपथ पर वह चाह कर भी परेड नहीं कर सका। वह फांसी के फंदे पर झूल गया। क्योंकि वह ओवर ऐज हो गया था। दो दिन बाद सरकार की यह घोषणा हुई कि अग्निवीरों की भर्ती में दो साल विशेष छूट दी जाएगी। टीवी पर मैं न्यूज़ देख रही थी। उसके पिता कह रहे थे कि मेरा बेटा कई साल से आर्मी में जाने के लिए तैयारी कर रहा था पर जब उसने सरकार की ये योजना के बारे में जाना तो वो सदमे में चला गया और उसने आत्महत्या कर ली। सरकार मेरे बेटे की मौत के लिए जिम्मेदार है।

हमारे दलित युवाओं की तो बहुत दयनीय स्थिति है। हमारे युवा तो आर्मी तक पहुँच ही नहीं पाते हैं। दूसरी बात है कि हमारे युवा अगर चार साल के लिए सोल्जर बनेंगे तो उनका भविष्य क्या होगा। तो हमारे जो लोग फ़ौज में जाना भी चाहते थे अब वो ये सोचेंगे कि आर्मी में जाने का क्या फायदा। इस योजना ने युवाओं का दिल तोड़ दिया है।

लोग इस योजना के समर्थन में नहीं हैं। ये योजना होनी तो नहीं चाहिए पर बीजेपी आजकल देश चलाती है तो उनको जो करना होता है वही करती है। वैसे तो ये योजना वापस होनी चाहिए। क्योंकि ये न केवल दलित बल्कि पूरे देश के युवाओं और देश की सुरक्षा से खिलवाड़ है।

ये काली नीति है युवाओं के लिए

बिहार के रनबीर कुमार राम कहते हैं– “अभी सरकार जिस तरह के सिस्टम बना रही है वह दलित आदिवासी और पिछड़े युवाओं के रोजगारों पर हमले हैं। इस सिस्टम के खिलाफ युवाओं में आक्रोश है। सरकार जो चार साल का प्रावधान कर रही है। वो युवाओं के हित में बिलकुल नहीं है। हर चीज में जो प्राइवेटाईजेशन किया जा रहा है। ये रोजगार पर बहुत बड़ा हमला है। रोजगार ख़त्म करने की सरकार की मंशा है। प्राइवेटाईजेशन जब होता है तो उसका कॉन्ट्रैक्ट बड़े लोगों को मिलता है। और वो कांट्रेक्टर या ठेकेदार अपनी मनमर्जी से लोगों को रखता है। वह दलित आदिवासी और पिछड़ों का शोषण करता है। सरकार आर्मी में भी ये कॉन्ट्रैक्ट सिस्टम लाने जा रही है। सरकार की इस मानसिकता के खिलाफ ये युवाओं का एक जनांदोलन है, जनआक्रोश है।

सरकार की जो प्राइवेटाईजेशन की मंशा है वह दलित आदिवासी पिछड़े युवाओं के भविष्य के साथ, उनके परिवारों के साथ, ये सरकार का बहुत बड़ा विश्वासघात है। क्योंकि आर्मी से रिटायर होने पर बुढ़ापे के लिए पेंशन का सहारा होता था। अब ये सरकार नए-नए कानून ला रही है, उससे युवाओं का भविष्य अंधकारमय बना रही है। ये उनके साथ नाइंसाफी हो रहा है। उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है।

हमारी वर्तमान सरकार तानाशाही सरकार है। हिटलरशाही सरकार है। कोई अगर अपने मौलिक अधिकारों की मांग रखता है तो ये उसे कुचलने के लिए तैयार रहती है। हमें लगता है अगर सरकार युवाओं की मांग नहीं मानेगी तो युवाओं का ये आक्रोश निरंतर जारी रहेगा।

ये सरकार का दमन नीति है। जिस तरह से ये किसानों के लिए तीन काले कानून लेकर आए थे उसी तरह ये काला नीति है युवाओं के लिए। हमें लगता है कि सरकार को इस अग्निपथ योजना को वापस लेना चाहिए। तभी देश बचेगा और युवाओं के भविष्य भी।

युवाओं के साथ छलावा है अग्निपथ

उत्तराखंड के अमर बेनिबाल कहते हैं –“इस योजना में एक तरफ तो ऐसा लगता है कि दलित युवाओं को मौका मिलेगा लेकिन दूसरी तरफ छलावा भी है। पहले आर्मी के सोल्जरों को जो बेनिफिट मिलते थे इस योजना में वो नहीं है। इसमें युवा 17 या साढ़े सत्रह की उम्र में भर्ती होगा और 22 साल की उम्र में वो रिटायर हो जाएगा। जिसे आर्मी के काम आते हों वह दूसरी जगह कैसे फिट हो पाएगा। दूसरी बात ये है कि यह देश हित में नहीं है। सेना के कुछ सीक्रेट हैं। वह भी डिस्क्लोज हो सकते हैं।

जहां तक दलित युवाओं की बात है तो हमारे लिए तो पहले से ही आर्मी में स्पेस न के बराबर रहा है। उनके टर्म्स एंड कंडीसंस वही होंगे जो पहले रहे हैं। सबसे पहले वे अपने लोगों को चांस देंगे। भाई-भतीजावाद चलता ही है। कोई जाट रेजिमेंट से है। राजपूत रेजिमेंट है। कोई गोरखा रेजिमेंट से है तो कहीं न कहीं फिर उन्हें ही एंट्री मिल जाएगी। यहां खुलेआम जातिवाद है। रेजिमेंट के नाम जाति के नाम पर क्यों हैं? ये सोचने की बात है। सेना में लोग आपस में “राम-राम साहब” का अभिवादन ही क्यों करते हैं? वे जय हिंद या जय भारत बोल सकते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। और अगर राम-राम का संबोधन है तो फिर “जय भीम” या “जय वाल्मीकि” का संबोधन क्यों नहीं होने चाहिए?

निष्कर्ष यह कि दलितों आदिवासियों और पिछड़े युवाओं के लिए सेना में पहले भी स्पेस नहीं रहा है और अब भी कम ही है। जो युवा पहले किसी तरह पहुँच भी जाते थे तो कम से कम उनकी नौकरी तो पक्की हो जाती थी। रिटायर होने पर पेंशन मिलती थी। इस बार यह भी नहीं है। इसलिए इन युवाओं के लिए सेना में भर्ती का रास्ता एक अग्निपथ बन गया है।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। व्यक्त विचार निजी हैं)

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