" बापू इस जन्म में फौजी नहीं बन पाया, अगले जन्म में जरूर बनूंगा।" यह हरियाणा के एक युवा की आत्महत्या के पहले की दिल दहला देने वाली चीत्कार है!
मोदी ने 8 साल में एक से एक misadventures किये हैं, विनाशकारी कदम उठाए हैं, लेकिन समाज के इतने बड़े स्पेक्ट्रम से कभी उसका विरोध नहीं हुआ,
सेवानिवृत्त मेजर जनरल GD बख्शी जैसे उनके धुर समर्थक पूर्व सैन्य अधिकारी से लेकर कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे उनके राजनीतिक सहयोगियों ने भी अग्निपथ योजना की आलोचना की है, गांवों में संघ-भाजपा के सामाजिक आधार के युवाओं में भी जबरदस्त नाराजगी है और वे भी व्यापक युवा समुदाय के साथ सड़क पर उतरे हुए हैं। विपक्षी पार्टियाँ, सारे छात्र-युवा संगठन, लोकतांत्रिक ताकतें सब इसका विरोध कर रहे हैं।
कर्नल जयवीर सिंह पूछते हैं, " ठेके की सेना के बल पर हम अपनी सीमाओं की रक्षा कैसे कर सकते है? अधुनातन सर्वोच्चता हासिल करने के लिए सेना को प्रशिक्षित करने में दशकों लगते हैं। मशीन के पीछे खड़ा इंसान बेहद महत्वपूर्ण है। देश illtrained सैनिक afford नहीं कर सकता।"
कभी मोदी जी के प्रशंसक रहे प्रताप भानु मेहता अग्निपथ योजना को आग से खेलने की संज्ञा देते हुए कहते हैं, " हमारे सशत्र बलों को support और reform की जरूरत है। लेकिन reform के पीछे ठोस समाजशास्त्रीय, प्रोफेशनल, संस्थागत और रणनीतिक तर्क होना चाहिए। अग्निपथ योजना द्वारा रिफार्म इन चारों कसौटियों में से किसी पर खरा नहीं उतरता। इसलिए इस योजना के प्रति संदेहवादी नजरिया बेहतर देशभक्ति है, बजाय इसके कि इसका अंध समर्थन किया जाय। सैनिकों की संख्या कम करने और technology की भूमिका बढ़ाने का लक्ष्य प्रशंसनीय है, लेकिन यह पेंशन बिल कम करने के तर्क से निर्देशित नहीं हो सकता। चीन और महाशक्तियों से प्रतिस्पर्द्धा की बड़ी बड़ी बातें होती हैं, लेकिन हमने फिर यह दिखा दिया कि हम उसके लिए जरूरी वित्तीय संसाधन की व्यवस्था नहीं कर सकते।"
अनेक विश्लेषक इस बात को लेकर भी चिन्तित हैं कि सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त सेना से निष्कासित, असन्तुष्ट युवा जब समाज में वापस लौटेंगे, तो उसके क्या परिणाम होंगे। कुछ लोग मोदी सरकार की इस योजना को RSS की समाज के विशेषकर हिन्दुओं के सैन्यीकरण के दीर्घकालिक प्रोजेक्ट का हिस्सा मानते हैं।
आज लगभग समूची हिंदी-उर्दू पट्टी युवा आक्रोश की चपेट में है। भौगोलिक विस्तार और विरोध की तीव्रता की दृष्टि से नई सेना-भर्ती योजना के खिलाफ प्रतिवाद अभूतपूर्व है जहां भाजपा के कार्यालय तक निशाना बन रहे हैं। गौरतलब है कि रेलवे की भर्ती परीक्षाओं में अनियमितता के खिलाफ पटना से लेकर इलाहाबाद तक रेल पटरियों पर कब्जे के चंद महीनों बाद ही यह फिर हुआ है कि आक्रोशित नौजवान सड़कों पर हैं।
हैरान भक्तगण यह सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर जब मोदी जी रोजगार दे रहे हैं, तब उसका विरोध क्यों हो रहा है!
दरअसल, नौजवानों के गुस्से की तीव्रता बताती है कि युवाओं को लग रहा है कि इस योजना द्वारा उन्हें cheat किया गया है। उनके साथ सरासर धोखा हुआ है। ठेके की 4 साला नौकरी का झुनझुना पकड़ाकर उन्हें अपमानित किया गया है। अग्निपथ योजना उनके साथ क्रूर मजाक है।
सभी sectors में भयावह बेरोजगारी का जो आलम है, उसमें सेना भर्ती आंदोलनरत युवाओं की आखिरी उम्मीद थी, जिसके लिए वे लंबे समय से तैयारी कर रहे थे क्योंकि 2 साल से भर्ती रुकी हुई थी। अब अचानक इस घोषणा से उनकी अंतिम आशा भी टूट गयी। अब कोई और विकल्प नहीं है उनके पास। हरियाणा के नौजवान की चरम निराशा में आत्महत्या आम युवाओं की मनःस्थिति बताने के लिए पर्याप्त है। सड़कों पर उबलता युवा आक्रोश सपनों के टूटने का दर्द है।
दरअसल, यह pent-up anger है युवाओं का, मोदी-राज में रोजगार के चौतरफा विध्वंस के खिलाफ। वैसे तो रोजगारविहीन विकास ( jobless growth ) नवउदारवादी अर्थनीति का अनिवार्य परिणाम है, लेकिन मोदी राज के विनाशकारी कदमों ने पहले से मौजूद रोजगार के अवसरों को भी खत्म कर दिया। न सिर्फ असंगठित क्षेत्र में करोड़ों रोजगार खत्म हो गया बल्कि रेलवे से लेकर बैंक तक तमाम सरकारी विभागों/उपक्रमों में सभी सम्भव उपायों से नौकरियां खत्म की जा रही हैं।
क्या 10 लाख नौकरियों की अचानक घोषणा का एक उद्देश्य अग्निपथ योजना के ख़िलाफ़ सम्भावित आक्रोश की पेशबन्दी थी ?
मोदी सरकार ने अचानक रोजगार सम्बन्धी घोषणाओं से पूरे देश को चौंका दिया। उन्होंने अगले डेढ़ साल में केंद्र सरकार में 10 लाख नौकरियां देने का एलान किया।
इन घोषणाओं की timing और भर्ती के लिए डेढ़ साल का जो time-frame दिया गया है, उससे बिल्कुल साफ है कि यह सब पौने दो साल बाद होने जा रहे 2024 के लिये चुनावी घोषणा है।
जब देश में भावनात्मक मुद्दों पर ध्रुवीकरण का खेल पूरे शबाब पर है, उस समय रोजगार सम्बन्धी इन वायदों और घोषणाओं से यह साफ है कि चरम ध्रुवीकरण के बावजूद सरकार रोजगार के प्रश्न के विस्फोटक राजनीतिक potential को बखूबी समझ रही है। अर्थव्यवस्था की आम तबाही और महंगाई के साथ मिलकर बेरोजगारी का अभूतपूर्व संकट संघ-भाजपा के सारे calculations को उलट-पुलट कर सकता है।
क्या सरकार इन वायदों से बाजी पलटने में सफल हो पाएगी ?
रोजगार के सवाल पर सरकार के वायदों और हकीकत, कथनी और करनी में पिछले 8 साल में इतनी बड़ी खाई रही है कि 10 लाख भर्ती की घोषणा सचमुच लागू होगी, अव्वलन तो इसे लेकर ही लोगों के मन में गहरा संशय है- कहीं यह भी तो जुमला नहीं है!
अनुभव यह बताता है कि पिछले दिनों जहां भर्तियां शुरू करने की घोषणा भी हुईं, बहुस्तरीय परीक्षाओं और पेपर लीक से लेकर अनगिनत अन्य कारणों से फाइनल भर्ती सालों-साल लटकी रही और प्रतियोगी छात्र एक अदद नौकरी पाने की बाट जोहते रह गए। केन्द्र सरकार की ही रेलवे भर्ती इसका सबसे ठोस उदाहरण है, जिसे लेकर युवाओं को भारी सरकारी दमन का भी सामना करना पड़ा। बहुतों का तो यह मानना है कि भर्ती करने की सरकार की मंशा ही नहीं है, इसीलिए तमाम बहाने बनाकर भर्ती प्रक्रिया को लटकाया जाता है।
बहरहाल, अगर यह मान भी लिया जाय कि चुनावों के मद्देनजर अबकी बार अपनी घोषणाओं को अमली जामा पहनाने के प्रति सरकार गम्भीर होगी, तब भी असली सवाल तो यह है कि बेरोजगारी के मौजूदा अभूतपूर्व संकट को हल करने में यह कितना कारगर होगा। इन वायदों को बेरोजगारों की मौजूदा तादाद, सरकारी नौकरियों में खाली पड़े पदों की संख्या तथा स्वयं मोदी जी की अतीत में की गई घोषणाओं की कसौटी पर भी परखा जाना चाहिए।
उससे बड़ा सवाल यह है कि जो 1.2 करोड़ नए युवा हर साल जॉब की तलाश में आ रहे हैं, उनका क्या होगा ? जो पहले से बैकलॉग है उसका क्या होगा ? मोदी ने जो हर साल 2 करोड़ रोजगार की बात की थी उसका क्या हुआ? कोई नया झुनझुना पकड़ाने के पहले प्रधानमंत्री को अपने पुराने वायदों पर स्थिति साफ करनी चाहिए। सरकार क्यों नहीं श्वेत पत्र ले आती जिससे रोजगार संकट की तस्वीर साफ हो सके। यह भी बताना चाहिए कि ये पद 8 साल से खाली क्यों रखे गए थे?
सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, " बढ़ती हुई बेरोजगारी पर लगाम लगाने के लिए आज हमें 9.5 करोड़ नियमित रोजगार पैदा करना होगा और हर साल 1 करोड़ नया रोजगार सृजन करना होगा। जाहिर है 10.5 लाख नौकरियों से समस्या हल होने वाली नहीं है।"
देश एक जबरदस्त उथल पुथल के दौर में प्रवेश कर गया है। लोग पूरे सिस्टम से निराश हैं, न्यायपालिका समेत सारी संस्थाएं जनाकांक्षाओं के अनुरूप खड़ी होने में विफल होती जा रही हैं। आज हम जगह जगह इसी निराशा, बेचैनी और गुस्से का विस्फोट देख रहे हैं।स्वाभाविक रूप से युवा जिनका पूरा भविष्य दांव पर लगा हुआ है खास तौर से बेचैन हैं, वे चाहे जिस जाति-सम्प्रदाय के हों। मोदी के शब्दों में भारत का बहुचर्चित डेमोग्राफिक डिविडेंड डेमोग्राफिक डिजास्टर में तब्दील होता जा रहा है।
युवाओं के आक्रोश को संगठित लोकतांत्रिक आंदोलन और राजनीतिक दिशा की ओर बढ़ना होगा।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)