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विश्लेषण: भाजपा का नया 'गुजरात’ बन गया है मध्य प्रदेश

दरअसल मध्य प्रदेश भाजपा का नया 'गुजरात’ है। जिस तरह गुजरात में 25 साल से ज़्यादा समय से भाजपा की सरकार चल रही है, उसी तरह की स्थिति मध्य प्रदेश में बन गई है।
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पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। वैसे तो पांचों राज्यों के नतीजे चौंकाने वाले रहे हैं लेकिन सबसे ज्यादा मध्य प्रदेश के चुनाव नतीजों ने चौंकाया है।

राजस्थान में कांग्रेस का हार कर सत्ता से बाहर होना तो समझा जा सकता है, क्योंकि वहां पिछले करीब तीन दशक से हर पांच साल में सत्ता बदलने का रिवाज है, सो वहां भाजपा जीत गई। छत्तीसगढ़ में हालांकि ऐसा कोई रिवाज नहीं है। वहां लगातार 15 साल तक राज करने के बाद 2018 में करारी शिकस्त खाकर भाजपा सत्ता से बाहर हुई थी। इसलिए अभी कांग्रेस के हारने पर यह माना जा सकता है कि वहां एंटी इन्कम्बेंसी यानी सत्ता विरोधी माहौल बहुत जबर्दस्त था, जिसका सामना कांग्रेस नहीं कर सकी। लेकिन सवाल है कि मध्य प्रदेश में तो कांग्रेस क्यों हार गई? वहां तो कांग्रेस पिछले दो दशक से सत्ता से बाहर है।

मध्य प्रदेश में सरकार के कृपापात्र अखबारों में प्रचारित यह बात आंशिक तौर पर ही सच है कि 'लाडली बहना’ योजना गेम चेंजर साबित हुई और उसने भाजपा को जिता दिया। अगर ऐसा होता तो इससे कहीं ज्यादा आम लोगों को राहत देने वाली प्रभावी सरकारी योजनाएं राजस्थान और छत्तीसगढ़ में चल रही हैं, इसलिए वहां कांग्रेस को ही जीतना चाहिए था, लेकिन लोगों ने वहां भी उसे खारिज कर दिया। वैसे भाजपा में भी कोई नेता खुल कर यह दावा नहीं कर रहा है कि 'लाडली बहना’ ने भाजपा को जिता दिया। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने तो मीडिया से बातचीत के दौरान साफ कहा कि तीनों प्रदेशों में भाजपा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर जीत मिली है। उन्होंने लाडली बहना के बारे में पूछे जाने पर कुछ पत्रकारों को डपट देने के अंदाज में कहा कि आप लोग बेवजह 'लाडली बहना’ का राग अलाप रहे हैं। उन्होंने कहा कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी भाजपा जीती है, जबकि वहां 'लाडली बहना’ नहीं थी।

दरअसल मध्य प्रदेश भाजपा का नया 'गुजरात’ है। जिस तरह गुजरात में 25 साल से ज्यादा समय से भाजपा की सरकार चल रही है, उसी तरह की स्थिति मध्य प्रदेश में बन गई है। पिछले 20 साल में से कमलनाथ (कांग्रेस) के 15 महीने के कार्यकाल को हटा दें तो पिछले करीब 19 साल से भाजपा सत्ता में है और अगले पांच साल के लिए उसे फिर जनादेश मिल गया है। जनादेश भी उसे ऐसा-वैसा नहीं, ऐतिहासिक जनादेश मिला है। सूबे की 230 सदस्यों वाली विधानसभा में भाजपा ने 163 सीटें हासिल की है, यानी दो तिहाई से ज्यादा और तीन चौथाई से कुछ कम।

असल में मध्य प्रदेश बहुत पहले से भाजपा की प्रयोगशाला रहा है। आजादी से पहले की छोटी-छोटी रियासतों से मिल कर बने इस सूबे में सामंतवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं और इसी वजह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की जमीन भी बहुत मजबूत है, जिस पर पहले जनसंघ की राजनीति चलती थी और पिछले चार दशक से भाजपा की चल रही है। दो दशक पहले कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के बाद तो भाजपा को यहां खुल कर खेलने का मौका मिला है और उसने अपनी हिंदुत्व की राजनीति के सारे प्रयोगों को यहां अंजाम दिया है।

गुजरात और मध्य प्रदेश में समानता सिर्फ यही नहीं है कि गुजरात में भाजपा पिछले 25 साल से और मध्य प्रदेश में पिछले 20 साल से सत्ता में काबिज है। दोनों राज्यों में समानता कई स्तर पर देखी जा सकती है। मसलन जैसे गुजरात में सवर्ण कहे जाने वाले लगभग सारे जातीय समूह पूरी तरह सांप्रदायिक हो चुके हैं और इसके लिए वे गर्व भी करते हैं, कमोबेश यही स्थिति मध्य प्रदेश में भी बन चुकी है। गुजरात की तरह मध्य प्रदेश में भी अल्पसंख्यक तबके खास कर मुसलमान बेहद डरे-सहमे रहते हैं। इसके बावजूद अक्सर सांप्रदायिक और प्रशासनिक उत्पीड़न का सामना करते हैं। गांवों में दलितों और आदिवासियों के उत्पीड़न के मामले में तो मध्य प्रदेश ने गुजरात को भी पीछे छोड़ दिया है। पीड़ित लोगों की पुलिस भी सुनवाई नहीं करती है इसलिए मामले अदालत तक पहुंचते ही नहीं हैं।

गुजरात की तरह मध्य प्रदेश में भी पुलिस और प्रशासन का पूरी तरह राजनीतिकरण और संप्रदायीकरण हो चुका है। जिला स्तर पर तैनात प्रशासनिक अधिकारी खुलेआम भाजपा की ओर से होने वाले धार्मिक कार्यक्रमों में शिरकत करते देखे जा सकते हैं। मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार तो पिछले 20 साल से है लेकिन पुलिस और प्रशासन का यह राजनीतिकरण व संप्रदायीकरण शुरुआती दस सालों में उतना नहीं हुआ था जितना पिछले दस सालों में हुआ है, जो किसी भी चुनाव के समय खासतौर पर दिखाई देता है। इस बार विधानसभा चुनाव में आदर्श आचार संहिता की धज्जियां उड़ाते हुए भाजपा की ओर से खुलेआम धार्मिक नारों का इस्तेमाल हुआ, धार्मिक पोस्टर लगाए गए, नफरत फैलाने वाले भड़काऊ भाषण दिए गए लेकिन पुलिस प्रशासन मूकदर्शक बना रहा। शिकायत करने पर भी कोई कार्रवाई नहीं की गई। मतदान के दौरान भी पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों का भाजपा की ओर झुकाव साफ नजर आया। जहां कहीं भाजपा और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच टकराव और झड़प की घटनाएं हुईं, पुलिस ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के खिलाफ ही मुकदमे दर्ज किए।

सरकारी दबाव और लालच के चलते मध्य प्रदेश के मीडिया की स्थिति भी गुजरात से कतई अलग नहीं है। लगभग सारे अखबार सरकारी प्रचार तंत्र का हिस्सा बन चुके हैं। किसी अखबार में अगर सरकार के खिलाफ एक खबर भी आ जाती है तो उसे राज्य सरकार के जनसंपर्क विभाग की ओर से तत्काल चेतावनी मिल जाती है या उसे मिलने वाले सरकारी विज्ञापन रूक जाते हैं। इसके अलावा पूरे सूबे में स्वास्थ्य, शिक्षा सहित तमाम सरकारी सेवाओं की हालत भी गुजरात जैसी ही दयनीय है, लेकिन मीडिया सब हरा ही हरा दिखाता है।

बहरहाल पिछले दो दशक के दौरान लगातार कमजोर होती गई कांग्रेस को एक मौका पांच साल पहले 2018 में मिला था, जब वह जैसे-तैसे 15 साल से सत्ता पर काबिज भाजपा से सत्ता छीनने में कामयाब हो गई थी। लगातार 15 साल के भाजपा शासन से लोग ऊबे हुए थे। हालांकि तब भी लोग भाजपा या शिवराज सिंह चौहान से नाराज नहीं थे। इसीलिए भाजपा को 41.02 फीसदी वोट मिले थे, जबकि 40.89 फीसदी वोट पाकर कांग्रेस उससे पीछे रही थी। लेकिन भाजपा के मुकाबले पांच सीट ज्यादा होने की वजह से कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका मिल गया था, जिसे वह ज्यादा समय संभाल नहीं सकी। लंबे समय केंद्र की राजनीति और सत्ता में रहे कमलनाथ मुख्यमंत्री बने थे और उनके अहंकारी रवैये के चलते कांग्रेस में बगावत हो गई, जिसकी वजह से भाजपा उनकी सरकार गिराने ने सफल हो गई। महज 15 महीने बाद ही भाजपा फिर सत्ता पर काबिज हो गई। वह आखिरी मौका था कांग्रेस के पास। अगर उसने ठीक से काम करते हुए पांच साल सरकार चला ली होती तो संभव था कि हालात बदलते। लेकिन उसने मौका गंवा दिया।

गुजरात में भी कांग्रेस ने 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को कड़ी टक्कर दी थी और जीत से थोड़ी ही दूर रही थी। उस समय भाजपा ने जैसे-तैसे ही अपनी सरकार बनाई थी लेकिन उसके बाद उसने हर जायज-नाजायज तरीके अपने को मजबूत और कांग्रेस को कमजोर किया, जिसका नतीजा 2022 के चुनाव में देखने को मिला जब भाजपा ने 182 सदस्यों की विधानसभा में 156 सीटें हासिल कर ऐतिहासिक जीत हासिल की। 2017 के चुनाव में 77 सीटें जीतने वाली कांग्रेस महज 17 सीटों पर सिमट गई। कहा जा सकता है कि 2017 गुजरात में और 2018 मध्य प्रदेश में कांग्रेस के लिए मौके के साल थे। अब उसकी मुश्किलें बढ़ गई हैं। मध्य प्रदेश में इस बार भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले आठ फीसदी वोट ज्यादा मिले हैं। जाहिर है कि कांग्रेस ने सवा साल के अपने शासन में लोगों को उम्मीद बंधाने जैसा कुछ नहीं किया।

दरअसल कांग्रेस ने अपने सवा साल के शासन में किसानों की कर्ज माफी के अलावा ऐसा कुछ नहीं किया और न करने का संकेत दिया कि वह भाजपा से बेहतर शासन चला सकती है। इस अल्पावधि में भ्रष्टाचार के मामले में भी उसका रिकॉर्ड भाजपा की सरकार से जुदा नहीं रह पाया। इसी वजह से व्यापमं जैसे महाघोटाले व अन्य कई बडे घोटालों को लेकर भी उसने कोई कार्रवाई नहीं की। यही नहीं, अपनी सरकार गिरने के बाद विपक्ष की भूमिका में भी उसने लोगों को बुरी तरह निराश ही किया। सूबे में भ्रष्टाचार चरम पर था। विकास कार्यों के नाम पर लूट मची हुई थी। कानून व्यवस्था के मोर्चे पर भाजपा सरकार बुरी तरह नाकाम साबित हो रही थी। आए दिन बलात्कार, हत्या और अन्य संगीन आपराधिक वारदातों की खबरें आ रही थीं। दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के उत्पीडन की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा था। महंगाई और बेरोजगारी जैसी समस्याएं तो अपनी जगह थीं ही। लेकिन इनमें से किसी भी मुद्दे पर भी विपक्ष के नाते कांग्रेस ने कभी सरकार के खिलाफ कोई आंदोलनात्मक पहल नहीं की।

अपनी सरकार गिरने के बाद भी कमलनाथ ही प्रदेश में कांग्रेस के मुखिया थे और लंबे समय विधानसभा में विपक्ष के नेता भी वे ही बने रहे लेकिन दोनों ही भूमिका में वे कारगर साबित नहीं हुए। उन्होंने जनता की समस्याओं को लेकर लोगों के बीच जाने के बजाय भाजपा की तर्ज पर धार्मिक कर्मकांडों में ज्यादा रूचि दिखाई। उनकी पार्टी के दूसरे नेताओं और कार्यकर्ताओं ने भी उनका ही अनुसरण किया। जिस तरह भाजपा के नेता-विधायक अपने-अपने क्षेत्र में भागवत कथा, शिवपुराण, रामकथा, शिवलिंग और रुद्राक्ष वितरण, भंडारे जैसे आयोजनों कराते रहते हैं, उसी तरह कांग्रेस के नेताओं में भी ऐसे आयोजन कराने की होड़ लगी रही।

पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में कमलनाथ की कार्यशैली ऐसी थी कि मानो वे पार्टी नहीं, कोई प्राइवेट लिमिटेड कंपनी चला रहे हो। पार्टी कार्यकर्ताओं की बात तो दूर पार्टी के पदाधिकारियों, विधायकों और वरिष्ठ नेताओं तक को वे मिलने का समय नहीं देते थे। प्रदेश के केंद्रीय प्रभारियों की सलाह का उनके लिए कोई महत्व नहीं था। उनकी इसी कार्यशैली से त्रस्त होकर पांच साल में तीन केंद्रीय प्रदेश प्रभारी- दीपक बाबरिया, मुकुल वासनिक और जेपी अग्रवाल वापस लौट गए। कमलनाथ ने किसी भी प्रभारी को कोई तवज्जो नहीं दी और तीनों से अपमानजनक व्यवहार कर उन्हें प्रदेश छोड़ने पर मजबूर किया। चुनाव के ऐन पहले रणदीप सुरजेवाला को प्रभारी बनाया गया, जो पूरी तरह कमलनाथ के 'यस मैन’ बन कर रहे।

दरअसल कमलनाथ इतने अधिक अहंकार और अति आत्मविश्वास के शिकार थे कि उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस की सहयोगी पार्टियों के नेताओं को अपमानित करने में भी कोई संकोच नहीं किया। यही नहीं, कई मामलों में तो उन्होंने अपने पार्टी आलाकमान की इच्छाओं और निर्देशों को भी सिरे से नजरअंदाज किया। टीवी चैनलों के जो पत्रकार या एंकर दिन-रात सांप्रदायिक नफरत फैलाने और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ दुष्प्रचार में जुटे रहते हैं, कमलनाथ उन्हें इंटरव्यू देने के लिए सहज उपलब्ध थे, उन्हें अपने साथ हेलीकॉप्टर में यात्रा करा रहे थे।

इस सबके बावजूद चुनाव के तीन-चार महीने पहले तक प्रदेश का माहौल भाजपा के खिलाफ था। तमाम ओपिनियन पोल्स में भाजपा के सत्ता से बाहर होने के आसार बताए जा रहे थे। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते गए, हालात बदलते गए। लेकिन कमलनाथ मीडिया में आ रहे ओपिनियन पोल्स, अपनी हायर की हुई सर्वे एजेंसी की रिपोर्ट, अपने ज्योतिषियों की भविष्यवाणी और अपने धार्मिक कर्मकांडों व कथित सॉफ्ट हिंदुत्व पर भरोसा कर इसी मुगालते में डूबे रहे कि जीत कांग्रेस की ही होने वाली है और उन्हें मुख्यमंत्री बनना है।

कुल मिला कर मध्य प्रदेश के चुनाव नतीजों का निष्कर्ष यही है कि लोगों ने असली को पसंद किया और नकली माल को खारिज कर दिया। हिंदुत्व की राजनीति करने वाली असली ताकत भाजपा है इसलिए उसको छोड़ कर उसकी तरह राजनीति करने वाली या उसका क्लोन बनने की कोशिश करने वाली कांग्रेस को मध्य प्रदेश की जनता के बहुमत ने खारिज कर दिया। हां, एक आरोप यह भी है कि भाजपा की इस जीत में इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में हमेशा की तरह हुई गड़बड़ियों और चुनाव आयोग की मदद को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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