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विश्लेषण: आम आदमी पार्टी की पंजाब जीत के मायने और आगे की चुनौतियां

सत्ता हासिल करने के बाद आम आदमी पार्टी के लिए आगे की राह आसन नहीं है। पंजाब के लोग नई बनी सरकार से काम को ज़मीन पर होते हुए देखना चाहेंगे।
bhagwant mann

पंजाब विधान सभा चुनाव से कुछ दिन पहले ही नये बने मुख्यमंत्री भगवंत मान के विधान सभा क्षेत्र धूरी के एक बज़ुर्ग ने मुझसे कहा, “पुत्तर! सभी पार्टियाँ चोर हैं मेरा तो किसी में विश्वास नहीं रहा, खैर वोट तो डालनी ही है। पहले दो बड़े चोरों को देख लिया अब इन छोटे वालों को भी देख लेते हैं।’’

इसी तरह अमृतसर पूर्वी, जहां नवजोत सिद्धू और बिक्रम सिंह मजीठिया को आप की उम्मीदवार जीवनजोत कौर से हार का मुहं देखना पड़ा, के एक साइकल पंक्चर लगाने वाले ने मुझे अपनी बाहर खुले में लगाई दुकान पर बिठा कर मेरे हाथ में चाय का गिलास पकड़ाते हुए कहा, “सर जी, हमने अकाली, कांग्रेस को बहुत देख लिया इन्होंने हमारे पंजाब और खासकर हम गरीबों के लिए कुछ नहीं किया। इस बार तो हम बदलाव लायेंगे वोट झाड़ू को पाएंगे। मैं नहीं जानता कि `आप` पार्टी की महिला उम्मीदवार का आगा-पीछा क्या है पर इस बार पंजाब के भले के लिए बदलाव लाना है।’’

पंजाब के इन दोनों आम आदमियों की कही बातों की पुष्टि पंजाब के इस बार के विधान सभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में हुई थी। 2019 के लोक सभा चुनाव में लोग आम आदमी पार्टी के अंदरूनी कलह से दुखी थे। उस समय कांग्रेस, अकाली-भाजपा गठबंधन और आम आदमी पार्टी के सिवा एक चौथा ग्रुप भी था जिसका नाम था पी.डी.ए. (पंजाब डेमोक्रेटिक एलाइंस) जो 6 पार्टियों का साँझा मोर्चा था जिसमें ‘आप’ से अलग हो कर सुखपाल खैरा द्वारा बनाई पार्टी पंजाब एकता पार्टी, धर्मवीर गांधी की नवां पंजाब पार्टी, लोक इन्साफ पार्टी, सी.पी.आई., आर.एम.पी और बसपा शामिल थी। इस चुनाव में जहाँ पंजाब के लोगों ने भगवा रथ को रोका वहीं पारम्परिक पार्टियों के प्रति भी नाराजगी ज़ाहिर की। इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 13 में से 8, अकाली-भाजपा गठबंधन को 4 सीटें (अकाली दल को बादल परिवार वाली सिर्फ 2 सीटें मिली सुखबीर बादल और हरसिमरत कौर बादल वाली), ‘आप’ को सिर्फ एक भगवंत मान वाली सीट हासिल हुई थी। लोकसभा के इस चुनाव में नोटा को 154430 वोट पड़ी थी।

पी.डी.ए. भले ही कोई सीट न ले पाया हो पर उस में शामिल पार्टियों ने अपना वोट जरूर बढ़ा लिया था। पी.डी.ए में शामिल बसपा ने आनंदपुर साहिब से 1 लाख 46 हजार वोट, होशियारपुर से 1 लाख 28 हजार वोट और जालंधर से 2 लाख से अधिक वोट लेकर तीसरा स्थान हासिल किया था। लोक इन्साफ पार्टी ने लुधियाना में दूसरे नम्बर और फतेहगढ़ साहिब में तीसरा स्थान हासिल किया था। पटियाला से धर्मवीर गांधी ने 168000 वोट हासिल कर तीसरा स्थान प्राप्त किया था। खडूर साहिब से पंजाब एकता पार्टी से मानव अधिकार कार्यकर्त्ता मरहूम जसवंत सिंह खालरा की पत्नी परमजीत कौर खालरा ने चुनाव लड़ा और 2 लाख से अधिक वोट लेकर तीसरे नम्बर पर रहीं थी। पी.डी.ए. (पंजाब डेमोक्रेटिक एलाइंस) के कारण पारम्परिक पार्टियों के विरोध वाली वोट बंट गयी थी जिसका फायदा कांग्रेस को हुआ। कुछ राजनैतिक विद्वान यह तर्क भी देते है कि उस समय पंजाब में कांग्रेस को सत्ता में आये हुए सिर्फ 2 साल ही हुए थे लोग उसे और समय देना चाहते थे। दूसरा अकाली दल के प्रति लोगों का गुस्सा कम नहीं हुआ था ।

इस बार पी.डी.ए. जैसा कोई सियासी दल मौजूद नहीं था लोगों के अंदर अकाली और कांग्रेस दोनों पारम्परिक पार्टियों के प्रति बहुत गुस्सा था। इन पार्टियों की अगुवाई में पिछले तीन दशक से पंजाब रसातल की तरफ गया। अकाली दल और कांग्रेस की सरकारों के चलते पंजाब में सेहत और शिक्षा का ढांचा पूरी तरह चरमरा गया। लोग सरकारी दफ्तरों और पुलिस थानों में परेशान हुए, सरकारी अधिकारियों का लोगों के प्रति रवैया अपमानजनक रहा। भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, नशे का बोलबाला होता गया, नशा माफिया, रेत माफिया को सरकार की पूरी शह मिली। इसी समय नौजवानों ने बड़ी गिनती में विदेशों की तरफ प्रवास किया। 2017 में बनी कांग्रेस सरकार के राज में भी वही सब कुछ चलता रहा। कांग्रेस ने सत्ता में आने से पहले जो लोगों के साथ वायदे किये थे वो पूरे न किये जिस कारण लोगों ने दोनों पारम्परिक पार्टियों को सबक सिखाने की ठान ली।

दूसरा पंजाब से शुरू हुए किसान आंदोलन ने भी पंजाबियों को सुचेत करने में अपना बड़ा रोल अदा किया। यह आंदोलन पंजाब के लोगों के लिए सिर्फ कृषि कानूनों के विरुद्ध लड़ा जाने वाला आंदोलन न हो कर उनके लिए एक विश्वविद्यालय बन गया था। लोगों ने इस आंदोलन से सवाल करना सीखा।  इसीलिए पंजाब के कई गावों में लगभग सभी पार्टियों का विरोध हुआ। कई गावों से पारम्परिक राजनैतिक पार्टियों को सबक सिखाने की बात भी उभरी। पारम्परिक पार्टियों के प्रति अवाम का गुस्सा ही आम आदमी पार्टी के लिए वरदान सिद्ध हुआ। 

पंजाब के सामाजिक चिंतक प्रोफेसर बावा सिंह का मानना है, “पंजाब में ‘आप’ की सफलता का श्रेय किसान आन्दोलन को भी जाता है क्योंकि किसान आन्दोलन के दौरान हजारों भाषणों में यही दोहराया गया कि पारम्परिक पार्टियों से पीछा छुड़ाओ। बड़े किसान संगठन चुनाव में नहीं थे। ‘आप’ ने भी यही प्रचार किया कि हम तो नये हैं एक मौका हमें भी दो। इस तरह केजरीवाल और उसकी टोली को बैठे बिठाये ही अलादीन का चिराग हाथ लगा है।”

इसके सिवा पंजाब के लोगों में ‘दिल्ली माडल’ का भी खूब प्रचार किया गया । इन बातों का असर हम पंजाब विधान सभा के आये चुनावी नतीजों से देख सकते हैं। आप आदमी पार्टी ने 92 सीटें लेकर जबर्दस्त बहुमत हासिल किया है। अकाली दल की ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा और महज़ 3 सीटें ही नसीब हुई। कांग्रेस भी 18 सीटों से ज़्यादा न ले पाई। इन चुनावों में बड़े बड़े दिग्गजों जैसे प्रकाश सिंह बादल, सुखबीर बादल, मनप्रीत बादल, आदेश प्रताप सिंह कैरों, नवजोत सिद्धू, कैप्टन अमरिंदर सिंह, चरनजीत चन्नी, राजिंदर कौर भठ्टल और बिक्रमजीत मजीठिया को करारी हार का सामना करना पड़ा वो भी आप आदमी पार्टी के ‘साधारण से’ उम्मीदवारों से। पारम्परिक पार्टियों ने लोगों में जाति और धर्म का पत्ता चलाने की भी कोशिश की पर लोगों ने सब बातों को रद्द कर दिया।

सत्ता हासिल करने के बाद आम आदमी पार्टी के लिए आगे की राह आसन नहीं है। पंजाब के लोग नई बनी सरकार से काम को जमीन पर होते हुए देखना चाहेंगे। नई बनी भगवंत मान सरकार ने कुछ लोक लुभावने ऐलान तो किये है, जैसे  ‘अब राजधानी की जगह गांवों और शहरों से सरकार चलेगी’, विधायकों को कहा गया है कि चंडीगढ़ रहने की जगह ज्यादा समय अपने विधान सभा क्षेत्र में रहें। एक भ्रष्टाचार विरोधी हेल्प लाइन नंबर जारी किया गया है। जहाँ लोग किसी भी भ्रष्ट अधिकारी की शिकायत कर सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण काम एक क़ानून पास कर यह कर दिया गया कि पूर्व विधायक अब सिर्फ एक कार्यकाल की ही पेन्शन ले सकेंगे। इसी तरह मान सरकार ने 35 हजार कच्चे कर्मचारियों को पक्का करने का ऐलान किया है, जिसके बारे कांग्रेस का दावा है कि यह काम तो पहले चन्नी सरकार कर चुकी थी ।

कई ऐसे मुद्दे भी हैं जिस पर भगवंत मान सरकार की अभी से आलोचना भी शुरू हो गयी है। जैसे अपने चन्द मिनटों के शपथ ग्रहण समारोह पर 3 करोड़ रुपए खर्च करना और मीडिया में खासकर बाहर के राज्यों के अख़बारों में मोटा पैसा इश्तिहारों पर खर्च करना। राज्य सभा मेंबरों के चुनाव में राघव चड्डा और संदीप पाठक जैसे पंजाब से बाहर के लोगों का चयन और अशोक मित्तल जैसे पूंजीपति, संजीव अरोड़ा जैसे भाजपा से सम्बन्ध रखने वाले अमीर व्यापारी और किसान आन्दोलन की सपोर्ट न करने वाले हरभजन सिंह को राज्य सभा में भेजने के विरुद्ध आवाज़ उठने लगी है।

इसी तरह गत 23 मार्च के दैनिक पंजाबी अखबार ‘अजीत’ में छपी खबर के मुताबिक मुख्यमंत्री की तरफ से अब सरकार के अहम फैसले या मंत्रिमंडल के अहम फैसले पत्रकार सम्मेलनों में बताने की बजाए मुख्यमंत्री सचिवालय में ही एक स्टूडियो तैयार कर लिया गया है। यहाँ मुख्यमंत्री पत्रकारों के सवालों के जवाब नहीं देंगे सिर्फ अपना एक सन्देश रिकार्ड करवा कर मीडिया में जारी कर देंगे। पंजाब के कई विद्वान् इसे ‘मोदी की राह पर चलना’ कह कर संबोधन कर रहे हैं।

प्रोफेसर बावा सिंह का मानना है, “लोगों ने ‘आप’ को जो बहुमत दिया है उस पर खरे उतरना पार्टी के लिए एक परीक्षा है। इस पार्टी के लिए सब से बड़ी चुनौती यह है कि इसका जन्म ‘स्वराज’ और ‘अंदरूनी लोकतन्त्र’ जैसे नारों से हुआ था पर इनके बड़े नेताओं का रवैया तानाशाहों जैसा है। यह पार्टी बहुत मुद्दों पर बहुसंख्यकवाद की राजनीति करती है, वो राजनीति भाजपा जैसी है। पंजाब में भी इन्होने हिन्दू बहुल इलाकों में तिरंगा यात्राएँ निकाली। पंजाब के संवेदनशील मुद्दों पर अभी भी पार्टी की स्पष्ट समझ नहीं है। ऐसी सोच पंजाब जैसे राज्य में ज्यादा समय नहीं चल सकती। पंजाब में कोई भी पार्टी ‘साझीवालता वाली सोच’ के साथ ही चल सकती है। पंजाबी जिसको तख्त पर बिठाना जानते हैं उसे उतारना भी अच्छी तरह से जानते हैं। यह बात सभी नेताओं को याद रखनी जरूरी है।” 

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