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विश्लेषण: सीएए और एनआरसी पर अमल से अब क्यों बच रही है सरकार?

सरकार की ओर से जिस तरह की बहानेबाजी की जा रही है उससे लग रहा है कि सरकार को इसका चुनावी इस्तेमाल तो करना है लेकिन पश्चिम बंगाल और असम में नहीं, बल्कि वह इसके लिए अगले साल 2022 में उत्तर प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों के विधानसभा चुनाव का इंतज़ार करेगी।
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फाइल फोटो। साभार : Hindustan Times

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई का कहना है कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) शुद्ध राजनीतिक खेल के विषय हैं। तमाम तरह के आरोपों और विवादों से घिरे और सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद राज्यसभा के सदस्य मनोनीत कर दिए गए जस्टिस गोगोई ने एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में यह बात भले ही अपने को ऊंचे नैतिक धरातल पर खड़ा दिखाने के मकसद से कही हो, मगर हकीकत यही है कि सीएए और एनआरसी केंद्र सरकार के लिए ध्रुवीकरण की राजनीति का हिस्सा ही है। नागरिकता कानून को लागू करने के संबंध में सरकार और भारतीय जनता पार्टी की ओर से हाल में ही में आए बयान भी जस्टिस गोगोई के कथन की तस्दीक करते हैं।

विपक्षी दलों की तमाम आशंकाओं और आपत्तियों को नजरअंदाज तथा व्यापक जन विरोध का दमन करते हुए केंद्र सरकार ने सितंबर 2019 में सीएए को संसद से पारित कराया था और उसी महीने राष्ट्रपति ने इसे मंजूरी भी दे दी थी। उसके बाद करीब डेढ़ साल में अब तक सरकार इस कानून को लागू करने संबंधी नियम ही नहीं बना पाई है। गौरतलब है कि जून 2020 में अध्यादेश के जरिए लागू किए गए कृषि कानूनों के नियम बिना कोई देरी किए अधिसूचित कर दिए गए थे और कानून भी अमल में आ गया था। बाद में सितंबर महीने में सरकार ने इन कानूनों को संसद से भी किस तरह अफरातफरी के माहौल में पारित कराया था, यह जगजाहिर है। न तो संसद में इन कानूनों पर ठीक से बहस कराई गई थी और राज्यसभा में तो मतदान भी नहीं कराया गया था। स्थापित संसदीय प्रक्रियाओं और मान्य परंपराओं को परे रखते हुए राज्यसभा में उप सभापति ने इन कानूनों से संबंधित विधेयकों को ध्वनि मत से पारित घोषित कर दिया था।

दरअसल, जो कानून सरकार की प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर होते हैं, उन्हें लागू करने के लिए नियम बनने में देर नहीं लगती है। जाहिर है कि कृषि कानूनों को लागू करना सरकार के लिए प्राथमिकता का मामला था, इसलिए उसके लिए तुरत-फुरत नियम भी बन गए और वह अमल में भी आ गया। लेकिन जो मुद्दा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भाजपा के दिल के बेहद करीब रहा है, उस पर कानून बनने के डेढ़ साल बाद भी नियम नहीं बन पाए हैं। इसका सीधा मतलब है कि नागरिकता कानून अभी सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। इससे यह भी जाहिर होता है कि इस कानून को पारित कराने के पीछे सरकार का मकसद सिर्फ देश के एक समुदाय विशेष को चिढ़ाना और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तेज करना था।

सरकार ने संशोधित नागरिकता कानून में पड़ोसी देशों से प्रताड़ित होकर आने वाले गैर मुस्लिमों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान किया है। आरएसएस और भाजपा का दशकों से कहना रहा है कि दुनिया में हिंदुओं का सिर्फ एक ही देश है और अगर कहीं भी हिंदुओं पर अत्याचार होता है तो उसे भारत में आकर बसने का हक मिलना चाहिए। लेकिन वही हक देने वाला कानून बनने के बाद भी डेढ़ साल से लागू नहीं हो पा रहा है।

पिछले साल के अंत में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने संशोधित नागरिकता कानून और एनआरसी का मुद्दा नहीं उठाया तो माना गया था कि नीतीश कुमार के साथ गठबंधन की वजह से पार्टी चुप रही है। तब यह माना जा रहा था कि पश्चिम बंगाल और असम का चुनाव भाजपा इन्हीं दोनों मुद्दों पर लड़ेगी। पर हैरानी की बात है कि उसकी ओर अभी तक इन दोनों मुद्दों का कोई जिक्र नहीं किया जा रहा है। दोनों ही राज्यों में भाजपा के किसी न किसी बड़े नेता की आए दिन रैली हो रही है। लेकिन कोई भी यह मुद्दा नहीं उठा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने यह मुद्दा न असम में उठाया है और न ही पश्चिम बंगाल में। कई केंद्रीय मंत्री भी इन राज्यों में सभाएं कर चुके हैं, लेकिन उन्होंने भी इन मुद्दों को नहीं छुआ है।

हालांकि गृहमंत्री अमित शाह ने यह जरूर कहा है कि कोरोना वायरस को रोकने के लिए चल रहा वैक्सीनेशन अभियान खत्म होने के बाद सीएए को लागू किया जाएगा। यह बात उन्होंने पश्चिम बंगाल के कूच बिहार की एक रैली में कही। इससे पहले संसद के चालू सत्र में उनके मंत्रालय के एक राज्यमंत्री ने लोकसभा में कहा कि सरकार सीएए के नियम बना रही है और चार-पांच महीने में इसके नियम बन जाएंगे। उससे थोड़ा पहले पिछले साल के अंत में भाजपा महासचिव और बंगाल के प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था कि जनवरी से बंगाल में सीएए लागू हो जाएगा। इन तीनों नेताओं के बयानों में न तो कोई अंतरसंबंध है और न ही कोई समानता।

गृहमंत्री ने अब वैक्सीनेशन का हवाला देकर इसे अनिश्चितकाल तक टाल दिया है, क्योंकि कोरोना वायरस को रोकने का वैक्सीनेशन अभियान अनिश्चितकाल तक चलने वाला है। वैक्सीनेशन शुरू होने के बाद सरकार का लक्ष्य रोजाना 10 लाख लोगों को टीका लगाने का था। लेकिन अभी वैक्सीनेशन शुरू हुए करीब एक महीना हुआ है और साढ़े तीन से पौने चार लाख लोगों को हर दिन वैक्सीन लगाई जा रही है। वैक्सीनेशन की अगर यही रफ्तार रही तो देश के हर नागरिक को वैक्सीन लगाने में 10-12 साल लगेंगे। सवाल है कि क्या तब तक सीएए पर अमल का मामला लंबित रहेगा?

सवाल यह भी है कि नागरिकता कानून का वैक्सीनेशन से क्या लेना-देना है? क्या वैक्सीनेशन की वजह से सरकार का कोई और काम रुका है? वैक्सीनेशन के चलते किसी और कानून के अमल पर रोक लगाई गई है? फिर सीएए पर अमल तो बहुत छोटा काम है। यह कानून पडोसी देशों से धार्मिक प्रताड़ना का शिकार होकर भारत आए गैर मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता देने का है। ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत बड़ी नहीं है। ऐसे ज्यादातर लोग पहचाने हुए हैं और शरणार्थी बस्तियों में रह रहे हैं। दिल्ली में भी ऐसे कुछ लोगों की बस्तियां हैं, जो बेहद अमानवीय स्थिति में रहते हैं। सरकार अगर सचमुच उन प्रताड़ित हिंदुओं के हितों को लेकर चिंतित होती तो अब तक यह कानून लागू करके उनको नागरिकता दे दी गई होती। लेकिन सरकार की ओर से जिस तरह की बहानेबाजी की जा रही है उससे लग रहा है कि सरकार को इसका चुनावी इस्तेमाल तो करना है लेकिन पश्चिम बंगाल और असम में नहीं, बल्कि वह इसके लिए अगले साल 2022 में उत्तर प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश आदि राज्यों के विधानसभा चुनाव का इंतजार करेगी।

दरअसल, पश्चिम बंगाल और असम में नागरिकता कानून और एनआरसी का जिक्र करना भाजपा के लिए घाटे का सौदा साबित हो सकता है। यही वजह है कि वह इन दोनों राज्यों में इन मुद्दों का जिक्र करने से भी बच रही है। असम में तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश से एनआरसी का काम हुआ है और एनआरसी बनकर तैयार है लेकिन राज्य की भाजपा सरकार उसे लागू नहीं कर रही है। वहां 19 लाख लोगों के नाम एनआरसी में शामिल नहीं हैं। अगर सरकार उसे मान्यता देती है तो उन 19 लाख लोगों से दस्तावेज मांगे जाएंगे और उनकी जांच होगी। गौरतलब है कि अमित शाह ने अपनी पिछली असम यात्रा के दौरान कहा था कि भाजपा ही घुसपैठियों को बाहर कर सकती है, लेकिन जब घुसपैठियों की पहचान करके एनआरसी बन चुकी है तो अब भाजपा की सरकार ही उसे लागू नहीं कर रही है।

असल में भाजपा को इस बात की चिंता है कि अगर एनआरसी पर अमल किया तो बड़ी संख्या में बांग्लादेश से आए बांग्लाभाषी हिंदुओं को भी बाहर करना पड़ेगा, जिसका नुकसान असम और बंगाल दोनों जगह होगा। इसी तरह अगर संशोधित नागरिकता कानून के तहत पड़ोसी देशों से आए लोगों को नागरिकता देना शुरू कर दिया तो बंगाल में उसका कितना फायदा होगा, यह कहा नहीं जा सकता, मगर असम में उससे भारी नुकसान होगा। असमिया संस्कृति की रक्षा के लिए चल रहे आंदोलन तेज हो जाएंगे। चुनाव के समय पार्टी इसकी जोखिम नहीं ले सकती है। संभवत: इसलिए भाजपा ने चुप्पी साध रखी है और अमित शाह ने वैक्सीनेशन का हवाला देकर इसे अनिश्चितकाल तक के लिए टाल दिया है।

 

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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