कहीं आप जान और जहान के चक्कर में सरकार को खुली छूट तो नहीं दे रहे हैं?
कोरोना वायरस को लेकर एक बड़ा नज़रिया यह है कि हमें इससे बचना है, नहीं तो यह हमें मार डालेगा। इसी सोच की वजह से स्टेट को ऐसी हैसियत मिल जाती है कि कोरोना वायरस से लड़ने के लिए वह कुछ भी करे और नागरिक कोई सवाल न पूछे। इस बात को नागरिक भी स्वीकार करते हैं कि इस समय अपने अधिकारों पर सोचने की बजाय ज्यादा जरूरी यह है कि स्टेट को खुली छूट दी जाए कि वह वायरस से लोगों को बचाने के लिए जो मर्जी सो करे।
लेकिन कोरोना वायरस की प्रकृति का विश्लेषण करें तो यह इस मोटी समझ की तरह बिल्कुल नहीं है कि हमें इससे बचना है नहीं तो हम मर जाएंगे। यह ऐसे है कि हमें इससे बचना है, नहीं तो हम इससे संक्रमित हो जायेंगे।
पहली तालाबंदी के बाद दूसरी तालाबंदी लगाने का मतलब ही है कि कोरोना वायरस को 21 दिनों में नहीं रोका जा सका। इसलिए सबसे बड़ी बात समझने वाली यह कि कोरोना एक तरह का वायरस है जिससे ऐसा नहीं है कि बचने का काम एक या दो महीने के लिए करना है बल्कि एक लम्बे समय तक के लिए तब तक करना है, जब तक इसका इलाज नहीं ढूंढ लिया जाता। यह लम्बा समय कितना होगा किसी को पता नहीं।
ऐसी स्थिति में स्टेट जो मर्जी सो करे वाले भाव से स्टेट को आजादी देने का मतलब होगा कि सब लोग मिलकर जाने-अनजाने एक ऐसे स्टेट को बना रहे हैं जिन्हें नागरिकों के अधिकारों से कोई मतलब नहीं है। लोकहित के नाम पर एक ऐसा स्टेट बन रहा है, जिसे नागरिकों से सहमति मिल रही है कि वह कुछ भी करे।
और ऊपर से तुर्रा ये कि इस बीच आपको कोई नेगेटिव बात नहीं करनी है। ज़्यादा से ज़्यादा पॉजिटिव या सकारात्मक बातें करनी हैं। अब तो ये लगभग निर्देश हैं कि ख़बरें भी पॉजिटिव दिखानी हैं। वास्तव में इसका अर्थ यही है कि आपको कोई असहज सवाल नहीं पूछना है!
जरा सोचिये कि मौजूदा समय में अनैतिकता से भरपूर सरकारों को अगर यह आदत लग गयी तो कैसा होगा?
क्या कोरोना की इस लड़ाई के दौर में कभी कभार आपको ऐसा नहीं लगता कि लोकतंत्र को ही ख़तरा है, कि लोकतंत्र को ही ख़त्म करने का खेल-खेला जा रहा है और कोई आवाज तक नहीं उठा रहा है। चुनावी राजनीति के चक्कर में भले विपक्ष कुछ ज़रूरी सवाल सरकार से न पूछे लेकिन क्या नागरिक समाज को लोकतंत्र के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं निभानी चाहिए। आखिरकर नागरिक समाज क्यों चुपचाप बैठा है?
तो आइये तो कुछ सवालों से रूबरू होते हैं,जिनका इस कठिन दौर में भी उठते रहना लोकतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है।
* लॉकडाउन यानी तालाबंदी करते समय यह सवाल कहीं से भी जोरदार तरीके से नहीं उठा कि सरकार को ऐसा अधिकार कैसे मिल सकता है कि वह अचानक नागरिकों का मूल अधिकार छीनकर उन्हें घर में बंद रहने का आदेश दे सकती है?
* इस पर कोई बहस नहीं हुई कि क्या डिजास्टर मैनजेमेंट एक्ट में महामारी को शामिल करना उचित है ?
* इस पर कोई बहस नहीं हुई कि साल 1897 में अंग्रेजों के जमाने के एपिडेमिक एक्ट हालिया माहौल में कितना सार्थक है? जबकि उस जमाने में भी इस एक्ट का बहुत अधिक विरोध हुआ था। उस समय के दस्तावेज बताते हैं कि अंग्रेज सरकार के अधिकारी रोग फैलने के शक को आधार बनाकर लोगों के घर में घुस जाते थे और बहुत ऊटपटांग हरकत करते थे। हो सकता है अभी भी देश के कई इलाकों में ऐसा हो रहा हो। तो क्या ऐसे कानून की अभी ज़रुरत है? कोरोना वायरस के दौरान अभी तक नागरिक समाज की तरफ से अभी तक इस पर क्यों कोई बहस नहीं छिड़ी कि नए एपिडेमिक एक्ट की ज़रूरत है?
* केवल कोरोना वायरस के परिणाम को ध्यान में रखा गया। क्या लोकतंत्र में केवल परिणाम को ध्यान में रखकर फैसला लिए जाना उचित है? क्या प्रक्रियाओं का कोई महत्व नहीं है? प्रक्रियाओं पर कोई बातचीत क्यों नहीं हुई?
* मामला एक या दो दिन का तो नहीं है फिर अभी भी प्रक्रियाओं पर फिर से बातचीत क्यों नहीं हो रही है? यह बातचीत क्यों नहीं हो रही है कि प्रशासन के अधिकार कहाँ पर जाकर खत्म हो जायेंगे? प्रशासकों की सीमाएं क्या होंगी? लॉकडाउन के नाम पर प्रशासक क्या कर सकते है और क्या नहीं? इस पर बहस क्यों नहीं चल रही है?
राजनीतिक विश्लेषक सुहास पलिश्कर कहते हैं कि जिस तरह से पुलिस और नौकरशाही इस समय लोगों को घरों के अंदर रखने का काम कर रही है वह भविष्य के तानशाह के लिए मॉडल हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका डाली गयी है कि तालाबंदी के लिए मिल्ट्री का भी इस्तेमाल किया जाए।
* महामारी के दौरान लोकहित का दायरा क्या होगा? राष्ट्रीय हित का दायरा क्या होगा? क्या लोकहित और राष्ट्रिय हित के नाम पर सारे लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए जायेंगे? जैसे कि अगर यह बात साबित हो चुकी है कि तालाबंदी की वजह से कोरोना संक्रमण में केवल देरी हो रही है उसे रोकना मुमकिन नहीं है तो प्रवासी मजदूरों को कब तक शहरों में बंद रखा जाएगा? या कब तक उन लोगों को कामों से दूर रखा जाएगा जो वर्क फ्रॉम होम नहीं कर सकते? इन सारे सवालों पर बहस क्यों नहीं हो रही है?
* कोरोना से लड़ने के लिए सरकर द्वारा सुझाए आरोग्य सेतु का इस्तेमाल अब तक छह करोड़ भारतीय कर रहे हैं। सेतु एप का इस्तेमाल सरकार क्यों कर रही है? इस एप के लिए लोगों से ऐसी जानकारियां ली जा रही हैं तो लोगों की प्राइवेसी के साथ छेड़छाड़ हो सकती है? कोरोना के बाद इस एप के लिए ली गयी जानकारियों का इस्तेमाल कैसे किया जाएगा? इन जानकरियों को कैसे नियंत्रित किया जाएगा? क्या यह एप कोरोना के बाद काम करना बंद कर देगा?
दार्शनिक हेरारी फाइनेंसियल टाइम्स में लिखते हैं, “यह इमरजेंसी की फ़ितरत है, वह ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को फ़ास्ट फॉर्वर्ड कर देती है। ऐसे फ़ैसले जिन पर आम तौर पर वर्षों तक विचार-विमर्श चलता है, इमरजेंसी में वे फ़ैसले कुछ घंटों में हो जाते हैं। अगर हम सचेत नहीं हुए तो यह महामारी सरकारी निगरानी के मामले में एक मील का पत्थर साबित होगी। उन देशों में ऐसी व्यापक निगरानी व्यवस्था को लागू करना आसान हो जाएगा जो अब तक इससे इनकार करते रहे हैं। यही नहीं, यह 'ओवर द स्किन' निगरानी की जगह 'अंडर द स्किन' निगरानी में बदल जाएगा। आप कह सकते हैं कि बायोमेट्रिक सर्विलेंस इमरजेंसी से निबटने की एक अस्थायी व्यवस्था होगी। जब इमरजेंसी खत्म हो जाएगी तो इसे हटा दिया जाएगा, लेकिन अस्थायी व्यवस्थाओं की एक गंदी आदत होती है कि वे इमरजेंसी के बाद भी बनी रहती हैं, वैसे भी नई इमरजेंसी का ख़तरा बना रहता है।”
ऐसे सवाल उठाने का मकसद यह नहीं है कि फिजिकल डिस्टैन्सिंग के लिए मजबूत नियम-कानून नहीं बनाया जाए लेकिन मकसद यह जरूर है कि जो कानून और नियम तालाबंदी के लिए लागू किये जा रहे हैं उन्हें सही तरीके से जरूर परखा जाए। उनके असर को जरूर समझा जाए। हम ऐसे नागरिक में न तब्दील हो जाए जिसने अपने जान और जहान बचाने के लिए सरकारों को पूरी छूट दे दी है। इसलिए जरूरी है कि नागरिकों का व्यवहार ऐसा हो कि वह कोरोना के संक्रमण और जीविका के बीच संतुलन बिठाते हुए अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को पूरी तरह से त्याग न दें। क्योंकि आने वाले दिनों में जो इस समय नार्मल है वही न्यू नार्मल बन जाएगा। लोकहित और राष्ट्रहित के नाम पर सरकार कुछ भी करेगी और आप कुछ भी नहीं कर पायेंगे। जरा सोचकर देखिये कि कोरोना के बाद सरकार एनपीआर-एनआरसी लागू कर दे तो क्या आप उसका विरोध कर पाएंगे? क्या शाहीन बाग़ में फिर से भीड़ इकठ्ठा हो पायेगी।
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