अपनी भाषा में शिक्षा और नौकरी : देश को अब आगे और अनीथा का बलिदान नहीं चाहिए
भारत सरकार शिक्षा मंत्रालय ने विगत दिनों एक महत्वाकांक्षी निर्णय लिया है। जिसके अनुसार देश के नामी गिरामी तकनीकी शिक्षा संस्थानों के आने वाले सत्र से ही आईआईटी एवं एनआईटी शिक्षा संस्थानों को हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में इंजीनियरिंग पढ़ाई करने की सुविधा दी जाएगी।
इस निर्णय का महती उद्देश्य यह मान कर किया जा रहा है कि उन विद्यार्थियों को उस भाषा में उच्च तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने का मौका मिले, जिस भाषा माध्यम में उन्होंने प्रारंभिक स्कूली शिक्षा ग्रहण की है। यह निर्णय राष्ट्रीय शिक्षा नीति की प्रमुख संस्तुतियों के आलोक में किया गया है। इस आशा के साथ कि इससे गैर अंग्रेजी भाषी छात्रों को स्वभाषा में अध्ययन सुगम और सुग्राह्य हो जाएगी। अंग्रेजी भाषा में सपने देखने वाले लोगों ने ढेरों दिक्कतें और आपत्तियां व कमियां गिना दी हैं।
उनका कहना है, "इस फैसले से जुड़ी व्यावहारिक दिक्कतें हैं। इसका अमल लगभग नामुमकिन बना दे रही हैं। देश के तमाम इंजीनियरिंग कॉलेजों में तकनीकी शिक्षा अंग्रेजी में ही दी जाती है। ऐसे में एकाएक हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में इंजीनियरिंग के शिक्षक कहां से आयेंगे। आईआईटी संस्थानों के लिए अच्छे टीचर्स पाना, पहले से ही एक चुनौती बनी हुई है। वे इंटरनेशनल फैकल्टी पाने की जद्दोजहद में लगे हैं ताकि अपनी वर्ल्ड रैंकिंग पहले से सुधार सकें। इस बीच हिन्दी और अन्य भाषाओं के शिक्षक ढूंढने की कवायद उनका फोकस बिगाड़ सकती है"।
अंग्रेजी जानना और अंग्रेजी की भक्ति में बहुत फर्क है। अंग्रेजी भक्तों की चिंता उस वक्त एकाएक अंतरराष्ट्रीय हो जाती है, जब हिन्दी भाषा की बात होने लगती है। गनीमत है कि इस बार अंग्रेजीदा लोगों ने अपने हिन्दी विरोध में क्षेत्रीय भाषाओं को वादी नहीं प्रतिवादी बनाया। और यह उस हिन्दी अखबार के तर्क-वितर्क हैं जिसे संपादक राजेंद्र माथुर जैसे दूरदर्शी संपादक - पत्रकार ने आधुनिक एवं बौद्धिक तेवर दिया। जन रूचि को जिज्ञासु एवं जनचेतना को संपन्न और विवेक सम्मत बनाया। इस चेष्टा में सतही खबरों और प्रपंची लेखों के स्थान पर तथ्यपरक खबरों एवं वैज्ञानिक सोच, जनहित दृष्टि से युक्त लेखों को निरंतरता में छापते रहने की परिपाटी डाली। अपने संपादकीय सहयोगी साथियों को अंग्रेजी के प्रति गैर बहिष्कारवादी रवैया अपनाये बगैर अंग्रेजी से सीखते हुए, होड़ करते हुए, अंग्रेजी के समकक्ष हिन्दी में स्तरीय अखबार शाया करने का प्रबुद्ध हौसला और मिशनरी तेवर दिया जो वर्तमान में भी संतोषप्रद ढंग से जारी है।
उसी अखबार का संपादकीय, 'इंजीनियरिंग की भाषा, सीमित दायरे की चीज नहीं है टेक्नोलॉजी ' पढ़ कर घोर चिंता और झुंझलाहट से मन भर आया। मान लेता हूं, हमारा भाषा ज्ञान सीमित है और हमारे लिए अंगूर (अंग्रेजी) खट्टे हैं। हमें जो कुछ थोड़ी बहुत जानकारी है, ज्ञान प्राप्ति हुई है, वह हिन्दी माध्यम से ही संभव हुआ है। विज्ञान एवं अंतरिक्ष संबंधी जो थोड़ा-बहुत ज्ञान-समझ, जानकारी हासिल हुई है, वह गुणाकर मुले की कुछ किताबों से, देवेन मेवाड़ी के लेखों से, नभाटा के साथी चन्द्रभूषण से और कॉलेज अवधि में जब-तब छप कर आने वाली हिन्दी 'विज्ञान' पत्रिका से हुई है। अखबारों के जरिए स्टीफेन हाकिंग के बारे में कुछ जानकारी मिली। पर मन संतुष्ट नहीं हुआ।
एक सम्मेलन में उनकी किताब मिली ' समय का संक्षिप्त इतिहास', (अनुवाद: अश्वपति सक्सेना,)तो स्टीफेन हाकिंग की वह किताब पढ़ पाया। सन् 74 के जयप्रकाश छात्र आंदोलन से किन लोगों को दूसरी आजादी मिली और किस तरह की आजादी मिली यह हमें आजतक समझ में नहीं आया! हां आन्दोलन के कैशोर्य उत्साह में मैं अंग्रेजी विरोधी (बावजूद इसके, सहरसा--बिहार--बोर्डिंग मिशन स्कूल की हमारी अंग्रेजी मैम शिक्षक जिनसे हिन्दी माध्यम में अंग्रेजी पढ़ना, लिखना और बोलना सीखा।) जरूर बन गया।
सन् 74 के आंदोलन का तेजी से व्यापक होना, 25 जून 1975 को आपातकाल लागू हुआ। मार्च और सन् 77 में आम चुनाव की घोषणा हुई। कांग्रेस की चुनाव में भारी हार हुई और जनता पार्टी शासन में आ गयी। इमरजेंसी हटना, कांग्रेस की भारी हार, जनता पार्टी का आना और जाना! 'दूसरी आजादी' से मोहभंग।
जयप्रकाश आंदोलन की स्पिरिट का प्रतिगामी दलों एवं प्रतिक्रियावादी शक्तियों द्वारा दुरूपयोग। आम आदमी जन-मानस का मोहभंग आशा में घोर निराशा से क्षुब्ध जन-गण-मन!!! सन् 77 में कांग्रेस की पराजय और जयप्रकाश के निर्देशन व समर्थन के बूते, जनता का संचित रोष, प्रबल बदलाव की इच्छा ने इस चुनाव परिणाम को जनता ने बड़े परिवर्तन के बतौर भारी उम्मीद के रूप में ग्रहण किया। चुनाव नतीजे को 'दूसरी आजादी' की संज्ञा दिए जाने को जन मानस ने 1947 की आजादी विदेशी अधिनायकों से आजादी पाई थी तो सन् 77 में मतपेटियों के माध्यम से आपातकाल व संवैधानिक अधिनायकत्व के विरुद्ध जन नायकत्व के पक्ष में अपना मत दिया, अपना निर्णय सुनाया, जिसमें समय की लोक चेतना की आकांक्षाएं अभिव्यक्त हुई थी।
अब राजनेता उस थाती को नहीं संभाल पाए तो यह उनकी अक्षमता थी, उनका सामर्थ्य दोष था। सन् 77 का चुनाव व उसके परिणाम 'दूसरी आजादी' ने और भी अहम उम्मीदें जगाईं, जैसे, 'निज भाषा उन्नति आहे'। यानी अपनी भाषा में राज-काज, अपनी भाषा में शिक्षा-दीक्षा। इन जगाई गई उम्मीदों को पूरा किए बगैर यह सरकार आपसी सत्ता संघर्ष, आपसी खींचतान, सिर फुटौव्वल करती हुई सत्ता के मैदान से आउट हो गई। सच और उम्मीद का एक पहलू यह भी रहा है कि जयप्रकाश नारायण द्वारा प्रेरित छात्र आंदोलन में यह आकांक्षा परवान चढ़ी थी कि हिन्दी देश की संपर्क भाषा बने या कम से कम हिन्दी भाषी क्षेत्र में राज-काज एवं प्राथमिक शिक्षा से विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो। और साथ ही यही फार्मूला अन्य स्वभाषा हित में क्षेत्रीय भाषाएं भी अपनी भूमि प्रदेश में अपना सकती हैं, भावनाओं को जगा सकती हैं। आपातकाल की ज्यादतियों, जबरिया नसबंदी और नौकरशाही से उत्पीड़ित जन के आक्रोश से आंदोलन प्रतिक्रिया में तब्दील हो कर कांग्रेस को चुनाव में नकार दिया और सत्ता जनता पार्टी को सौंप दी।
इसे राजनीति की विडंबना ही कही जाएगी। जन आक्रोश पर सवारी गांठ कर अधिक सीटें प्राप्त कर के जनता पार्टी सत्ता में आ गयी, मगर गुटों में बंटी हुई जनता पार्टी का धरातल चटक रहा था। जनता पार्टी का हर धड़ा अपने मन-मुताबिक चल रहा था। कांग्रेस हार कर और आपातकाल लागू करने का कलंक ढोते हुए भी एकजुट एवं संगठित रही और सही अवसर के तलाश में थी। यह मौका राजनारायण को देसाई मंत्रीमंडल से निकाल दिए जाने से कांग्रेस को मिल गया। राजनारायण के अन्दर बदले की आग भड़काते हुए, संजय गांधी ने आगे बढ़ कर राजनारायण से मिलने का प्रस्ताव किया, यह मेल मुलाकात मोरारजी सरकार के पतन का कारण बनी और सरकार गिर गयी। और यहीं से शुरू हुई कांग्रेस की वापसी। "राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने एक नया उदाहरण रचते हुए 28 जुलाई, 1979 को चरण सिंह को कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया"। 1980 में हुए चुनावों में इंदिरा गांधी को स्पष्ट बहुमत हासिल हो गया उन्हें, 525-सीटों में 351 सीटें मिलीं। जनता पार्टी को मात्र 32 सीटें मिल पाईं। यह एक भारी हार थी। जय प्रकाश नारायण आंदोलन के सपनों का राजनीतिक जागरण, 'दूसरी आजादी' राजनेताओं की क्षुद्र महात्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ गयी।
सन् 1964 में भारत की केंद्रीय सरकार ने डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में स्कूली शिक्षा प्रणाली को नया आकार व नयी दिशा देने के उद्देश्य से एक आयोग का गठन किया। जिसे कौठारी आयोग के नाम से जाना जाता है। डा.कोठारी उस समय विश्वविद्यालय आयोग के अध्यक्ष थे। आयोग ने स्कूली शिक्षा की गहन समीक्षा प्रस्तुत की जो भारत के शिक्षा इतिहास में आज भी सर्वाधिक गहन अध्ययन माना जाता है। इंदिरागांधी द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा आयोग बनाने के लिए दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया गया। लोंकप्रिय रूप में इसे 'कोठारी आयोग' (1964-66)कहा गया। जिसके निर्देशन में राष्टीय शिक्षा नीति-1968 आई। जिसमें पहली बार 04 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य और नि: शुल्क शिक्षा देने की व्यवस्था की गई। कक्षा-8 और, ''आगे की शिक्षा कें लिए प्राथमिकता देने" का सुझाव दिया गया है।
रा.शि.नी. 2020 के तहत "भारतीय भाषाओं के संरक्षण और विकास के लिए एक भारतीय अनुवाद और व्याख्या संस्थान (आइआइटी) स्थापित किए जाएं। साथ ही इसी क्रम में, "फारसी, पाली और प्राकृत (ध्यातव्य है कि तीनों इण्डो-इरानी आर्य कुल की प्राचीन भाषाएं हैं) और हिन्दी भाषा के शब्द कोष की वृद्धि में अनुवाद, शब्द चयन खास कर दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी एवं शिल्प आदि में सहायक हो सकती हैं।" उच्च शिक्षण संस्थानों में भाषा विभाग को मजबूत बनाने एवं उच्च शिक्षा संस्थानों में अध्यापन के माध्यम के रूप में मातृभाषा या स्थानीय भाषा को और बढ़ावा दिए जाने का सुझाव दिया गया है। (स्रोत: विकिपीडिया) समझ से परे लगी रही है, हिन्दी के प्रिय प्रतिष्ठित अखबार की प्रतिक्रिया? क्योंकि अंग्रेजी के बारे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की संस्तुति में ऐसा कुछ कहा नहीं गया है कि उसे इस आईआईटी/एनआईटी से बतौर पाठ्यक्रम माध्यम से हटा दिया जाएगा और हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषाओं को ही बतौर पाठ्यक्रम भाषा रखा जाएगा!!
अंग्रेजी को अभी फिलहाल कोई हटाने वाला नहीं है, क्योंकि उससे प्रभु वर्ग और उनसे सम्बद्ध्य लोगों के निहित स्वार्थ जुड़े हुए हैं। यह प्रभु वर्ग जब हिन्दी पट्टी में बोलता है तो तर्क देता है कि दक्षिण भारतीय और बांग्लाभाषी लोग नहीं चाहते हैं कि हिन्दी को पठन-पाठन और राज-काज की भाषा बनाया जाए। इसलिए देश में एकता एवं शांति बनाए रखने के लिए का हिंदी को राजभाषा या संपर्क भाषा भी नहीं बनाई जा सकती है गैर हिन्दी भाषियों की सहमति व समर्थन के बग़ैर। यही गैर हिन्दी भाषी समुदाय जब अपनी क्षेत्रीय भाषा में उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम, राज्य और केंद्र की प्रतियोगी परीक्षाओं को कराने की मांग करता है तो वहां का प्रभु वर्ग उसकी इस मांग को 'हिन्दी भाषियों द्वारा दक्षिण भारत में घुसपैठ करने का मौका-बहाना प्रचारित कर देगा, इसलिए तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़ सहित अन्य भाषाओं में उच्च शिक्षा में पाठ्यक्रम, केंद्र और राज्य सेवा क्षेत्र (प्रशासनिक) की नौकरियों में प्रभु वर्ग द्वारा अंग्रेजी को ही वरीयता दी जाती है।
इस अंग्रेजी भक्ति या प्रभु वर्ग की चाकरी में चल रही भाषा नीति का दुष्परिणाम लगभग दो साल पहले तमिलनाडु में घटी दिल दहला देने वाली घटना है, जहां एक तमिल भाषी छात्रा ने मेडिकल में प्रवेश के लिए टेस्ट 'एनईईटी' के खिलाफ आवाज उठाने वाली 17 वर्ष की दलित छात्रा अनीथा शानमुगम की खुदकुशी का मामला सर्वोच्च न्यायालय में गया। पांच सितंबर 2017 को सर्वोच्च अदालत में याचिका दायर कर पूरे मामले की न्यायिक जांच की मांग की गई। अपील की गई कि मद्रास उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की निगरानी में पूरे मामले की जांच हो। अनीथा तमिलनाडु के अरियालुर जिले की गरीब दलित परिवार की छात्रा थी। उसके पिता दिहाड़ी मजदूर थे। जब वह युवा अवस्था में थी, उसकी मां की मृत्यु हो गई। उसका पालन-पोषण दादी ने किया। वह ऐसे घर में रहती थी जिसमें शौचालय नहीं था। "तमिल माध्यम में उसकी पढ़ाई हुई थी। वह बारहवीं कक्षा में, पूरे जिले में प्रथम श्रेणी में प्रथम थी, वह अरियालुर जिले की एकलौती छात्रा थी की जिसने भौतिकी और गणित में 100 प्रतिशत अंक प्राप्त किए थे।" अनीथा का हमेशा एक सपना था कि वह खूब पढ़ कर डॉक्टर बनेगी।
वह देख रही थी कि एक डॉक्टर बनने के लिए एक गरीब ग्रामीण छात्रा के लिए संभव नहीं था जो नीट परीक्षा के लिए महंगे कोचिंग में ट्यूशन ले सके। अगर बारहवीं कक्षा में अच्छे नंबर पाये हुए छात्र के लिए वरीयता में सीट हो तो एडमिशन आसान हो जाता। वह कट आफ पाने में असक्षम रही, इसलिए नीट के द्वारा मेडिकल में सुरक्षित सीट पाने में असफल रही। उसके पिता बता रहे थे, "वह कहती थी कि वह डाक्टर बनकर अस्पताल खोलेगी और मुफ्त में लोगों का इलाज करेगी। "अपने इसी लक्ष्य को साधने की धुन में, मद्रास एरोनाटिकल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के एरोनॉटिकल इंजीनियरिंग कोर्स में प्रवेश मिल रही थी। पर वह केवल डॉक्टर ही बनना चाहती थी। लोगों के अनुसार वह अपने गांव की और बिरादरी की एकलौती बेटी थी जो डॉक्टर बनने योग्य सक्षम थी।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने सात लाख मुआवजा को परिवार ने वापस कर दिया। अनीथा ने अपनी जान पैसे के लिए नहीं दी है, डाक्टर बनना चाहती थी, उसके साथ अन्याय हुआ, उसने न्याय के लिए लड़ते हुए जान दी है। आंखों पर नियम-कानून की पट्टी बांधी हुई व्यवस्था किसी की दृश्यमान योग्यता, क्षमता एवं आत्मविश्वासपूर्ण स्वपन लक्षित नहीं कर पाती, वह अपने बनाए हुए कानूनों की बंधक बन जाती है, रूढ़ हो जाती है। मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के ऐरोनाटिकल इंजीनियरिंग कोर्स में उसे सीट मिल रही थी, जिसे उसने अपनी डाक्टर बनने की उत्कट अभिलाषा के कारण एरोनाटिक की सीट छोड़ दी।
वह "डॉक्टर ही" बनना चाहती थी, जो उसे बनने नहीं दिया गया। अनीथा 12वीं कक्षा में 1200 अंक में से 1176 अंक प्राप्त किए थे। उसने इंजीनियरिंग के लिए 200 में से 199.75 अंक और मेडिकल के लिए 196.75 अंक प्राप्त किए थे। जिस कारण उसे बिना एनईईटी के ही किसी भी स्ट्रीम में प्रवेश मिल सकता था। एनईईटी में उसका स्कोर 86 परसेंटाइल था। जिसके बाद उसने एनईईटी लागू करने के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की थी। ध्यातव्य है कि "एनईईटी को मेडिकल और डेंटल कॉलेज में प्रवेश के लिए अनिवार्य कर दिया गया था"। लेकिन "तमिलनाडु सरकार इस फैसले के खिलाफ थी। राज्य सरकार एनईईटी में तमिलनाडु के बच्चों के लिए छूट चाहती थी।
राज्य सरकार द्वारा छूट के लिए दो बार अध्यादेश लाई जिसे कानून और मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने पास कर दिया। "लेकिन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसे निरस्त कर दिया"। तमिलनाडु ने उसी साल राष्ट्रीय पात्रता प्रवेश परीक्षा( 'नीट' में जिस साल में अनीथा ने में भाग लिया था) से बाहर रखने की अधिसूचना जारी की थी। तत्पश्चात केन्द्र ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया था कि "तमिलनाडु द्वारा हाल ही में अधिसूचना का वह समर्थन नहीं करता है"। केन्द्र की इसी सूचना के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य को नीट के आधार पर काउंसिलिंग करने का आदेश दे दिया। अनीथा ने नीट के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े पर दस्तक दी। गुहार लगाई। उसने अपने बारे में बताया, "उसे बारहवीं कक्षा में 1200 अंक में से 1176 अंक स्कोर किया है। उसने अपनी याचिका में कहा था कि नीट का प्रश्न काफी कठिन और पूरी तरह सीबीएसई मॉडेल पर आधारित था।
अपनी याचिका में अनीथा ने इस बात का जिक्र किया था कि नीट का परीक्षा प्रारूप राज्य के पाठ्यक्रम को 'सपोर्ट नहीं करता। तामिलनाडु के छात्रों के साथ न्याय नहीं करता। इसलिए सम्पूर्ण तमिलनाडु में नम्बर एक का स्थान हासिल करने वाली अनीथा सात सौ अंकों में से महज 86 अंक स्कोर कर पाई थी। अब आते हैं नीट के भाषाई रुख और रवैये पर। नीट के अधिकांश परीक्षार्थियों का कहना था कि अंग्रेजी भाषा के अलावा अन्य भाषाओं में जो पेपर आए अंग्रेजी मीडियम से अलग और कठिन थे। एक छात्र का कहना था कि हमारा सिस्टम अन्य भाषाओं को बाहर कर देता है। तीन हजार लोग अंग्रेजी माध्यम से थे। मात्र 82 छात्र गैर अंग्रेजी भाषी थे। दूरदराज गांव में रहने वालों के लिए प्राइवेट कोचिंग करने की हैसियत नहीं थी। ग्रामीण इलाकों में अच्छे कोचिंग नहीं होते हैं।
तमिलनाडु के छात्रों की शिकायत है कि निर्मला सीतारमण ने अपना वादा पूरा नहीं किया। छात्र हरिकिशन का एनडीटीवी से कहाना है कि "उसकी मूल भावना के विरुद्ध यूज किया गया। कहा गया पूरे भारत में एक समान सिलेबस होगा, हमने सीबीएसई का सिलेबस पढ़ा ही नहीं है।" "वादा किया गया 85 प्रतिशत सीट तमिलनाडु के छात्रों के लिए, रिजर्व राखी जाएगी, यह वादा पूरा नहीं हुआ। केंद्र सरकार ने वादा खिलाफी की।" "अनीथा का रिएक्शन वाजिब था, पहले वादा था कि नीट की पूरी परीक्षा एक सी होगी। तो सिलेबस भी एक होना चाहिए।" एनसीईआरटी का जो रट्टा मार रखा हो वह अच्छे अंक लाते हैं।"
हरिकिशन का कहना था कि, "नीट लाना है तो सारे सिलेबस एक करो, परीक्षा एक होगी, ऐसा हुआ नहीं, सिलेबस अलग था, सवाल अलग थे। अनीथा, एक सम्पूर्ण तमिलनाडु की टॉपर छात्र को नीट परीक्षा में 700 अंक में से मात्र 86 अंक कैसे मिल सकते हैं। हरिकिशन ने कहा, "सरकारों की उदासीनता ने ही अनीथा को मारा था।" एक अन्य छात्र आनन्द राय का कहना था, "जो 3000 छात्र 600 अंक पाए थे वे सब अंग्रेजी के थे। एक समान पेपर तो एक समान सिलेबस भी होना चाहिए। एनसीईआरटी का रट्टा मार रखा है। केवल एक छात्र गैर अंग्रेजी भाषी था। यदि दिल साफ हो और इरादे नेक हों, तो लिया गया कोई भी नियत कार्य पूरा करने में आने वाली बाधा से पार पाया जा सकता है।
इंजीनियरिंग डिप्लोमा (पालीटेक्निक) में हिन्दी माध्यम में पढ़ाई बाई-लिंगग्वल (द्विभाषिक) में होती रही है। स्वतंत्रता पश्चात पंचवर्षीय विकास योजना काल में इन्हीं द्विय भाषी डिप्लोमा इंजीनियर्स ने तत्कालीन विकास प्रक्रिया में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। कार्य दक्षता में इनकी कार्य अनुभव की निपुणता को उत्तरदायित्व निर्वाहन हेतु प्रशिक्षित किया गया। जो बाद में पदोन्नति हासिल करते हुए जिम्मेदार प्रशासक एवं विभागीय प्रमुख पद तक पहुंचे। यह प्रक्रिया ब्रितानी हुकूमत के दौरान से शुरू हुई जो वर्नाक्यूलर मिडिल, एफ ए, आईए पास करके, सरकारी नौकरी मिल जाया करती थी। चहारुम (चौथी) पास करके बेसिक शिक्षा प्राप्त लोग पटवारी, मुंशी, और किरानी आदि की सरकारी, गैर सरकारी कम्पनी-मिल आदि में आसानी से नौकरी पा लेते थे।
कहने का तात्पर्य यह है कि अंग्रेजी सरकार ने अपने औपनिवेशिक जरूरतों के अनुसार, शासन पर पैनी नजर और मजबूत पकड़ बनाए रखने के लिए एक चुस्त-दुरूस्त प्रशासन की जरूरत थी। उन्होनें एक लचीली भाषा नीति अपनाई जिसमें स्थानीयता लक्षित हो, झलके और दिखे जिससे भारत में चली आ रही, पहले से उपयोग में व्यवहृत हो रही 'राज-काज' की भाषा को हीं लोकोपयोगी लोक संवाद हेतु लोगों तक हुकूमत की पकड़ बनाए रखने के लिए अपनाए रखा गया। शेरशाह के समय 'भू राजस्व का 'सूरी कैलेण्डर' अंग्रेजों के समय में भी चल रहा था और स्वतंत्र भारत की सरकार में भी चल रहा है। वर्तमान में एक प्रकार की हिन्दुस्तानी जुबान अरबी, फारसी और अंग्रेजी मिश्रित जिला अदालतों में प्रयोग होती आ रही है। अखबार का संपादकीय 'नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020' को लेकर इतना अधीर हो गया, उन्हें यह प्रतीत हुआ कि, मौजूदा सरकार अपने राष्ट्रवादी भावनाओं के सहारे शीघ्रताशीघ्र अंग्रेजी को दफनाने में लगी है। जब कि वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है।
ज्यां पॉल सात्र ने एक उक्ति में कहा है, "सांप मर जाता है लेकिन अपनी केंचुल छोड़ जाता है और हम अपनी लाठी पीटते रहते हैं।" अंग्रेज चले गए और अपनी केंचुल 'अंग्रेजी भाषा' हमारे लिए छोड़ गए। भाजपा क्या, शासक वर्ग का कोई भी राजनीतिक दल अंग्रेजी के मोह से मुक्त नहीं है। क्योंकि प्रभावशाली अभिजात्य वर्ग को भूतपूर्व ही सही शासक वर्ग की भाषा में हकलाना आनन्ददायक और गरिमामय अनुभूति से लबरेज रखता है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, में 'शैक्षणिक भाषा संबंधी सुधार', स्पष्टत: लिखा है," इस नीति में भारतीय भाषाओं में पढ़ाने को रेखांकित किया गया है। इसमें तीन भाषा फार्मूला यानी कि हिन्दी, अंग्रेजी और स्थानीय भाषाओं में पढ़ाई करवाई जाएगी।"
न.रा.शि.-2020 में कक्षा-5, तक की पढ़ाई मातृभाषा/स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में करवाई जाएगी जिससे अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता (मैकाले पद्धति) समाप्त होगी। इसलिए अंग्रेजी भक्तों को निराश नहीं होना चाहिए कि उनकी प्यारी अंग्रेजी बेदखल कर दी गई है। केवल शिशु कक्षा से पांचवी कक्षा तक के मासूम बच्चों के कंधों को , अनायास लादी गई मैकाले पद्धति के बोझ से मुक्त कर दिया गया है। प्रतिष्ठित अखबार ने चिन्ता जाहिर की है... ''कोर्स की बुक्स भी अंग्रेजी में ही हैं, यही नहीं इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स को बहुत से रेफरेंस मटीरियल भी देखने होते हैं, जो अंग्रेजी में होते हैं। इन सब का ट्रांसलेशन कैसे उपलब्ध कराया जा सकेगा? सवाल ये भी है कि जैसे-तैसे नाम मात्र के लिए ये औपचारिकताएं कर भी लीं गईं, तो इन स्टूडेंट्स का भविष्य क्या होगा? कौन सी मल्टिनेशनल कम्पनी इन्हें नौकरी देगी? सितंबर 1915 में एक अंग्रेज महिला श्रीमती एनी बेसेंट ने होमरूल लीग की स्थापना की घोषणा की और वयोवृद्ध दादा भाई नौरोजी उसके अध्यक्ष बने। सन् 1892 में श्रीमती एनी बेसेंट ने बनारस में एक स्कूल प्रारंभ किया था और 1916 में इस संस्था ने मालवीय जी के मार्ग-दर्शन में बढ़ते-बढ़ते, हिन्दू विश्वविद्यालय सेण्ट्रल कालेज का रूप ले लिया था।
फ़रवरी 1916 में इसके तीन दिवसीय उद्घाटन समारोह में अनेक उल्लेखनीय व सुविख्यात व्यक्तियों ने हिस्सा लिया। महात्मा गांधी ने 4 फरवरी को इस सभा में भाषण दिया। गांधीजी ने कहा,--"अगर आप विद्यार्थी जगत के लोग, जिनके लिए आज का मेरा भाषण रखा गया है, क्षण भर के लिए भी आध्यात्मिक जीवन को समझते हों, जिसके लिए यह देश विख्यात है तो यह देश अतुलनीय है। गांधीजी ने आगे कहा, ''हमारे लिए यह घोर अपमान और लज्जा की बात है कि आज मुझे इस महान कालेज की छाया में और इस पुनीत नगर में अपने देशवासियों को ऐसी भाषा में संबोधित करना पड़ रहा है जो मेरे लिए विदेशी है।"
गांधी जी बोल रहे थे,-- "कल्पना कीजिए कि पिछले पचास वर्षों में हमको अपनी-अपनी मातृभाषा में शिक्षा दी गई होती। ऐसी अवस्था में आज हम क्या होते? आज हमारा भारत आजाद होता, हमारे शिक्षित लोग अपने ही देश में विदेशियों की तरह नहीं होते, बल्कि राष्ट्र के हृदय से बातें करते हुए जान पड़ते, वे लोग दीन से दीन जनों के लिए काम करते हुए दिखाई देते और गत पचास वर्षों में उन्होंने जो कुछ पर्याप्त किया होता वह राष्ट्र की विरासत होता। (-लुई फिशर: गांधी के बाद) अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा ने अंग्रेजी बाबुओं (क्लर्क) और अफसर-नौकरशाहों को पैदा किया जो अंग्रजी हुकूमत के सहायक बने जिन्होंने अंग्रेजों की खिदमत की और उनके पांव मजबूत किए, जो भारत भूमि पर अंगद के पांव की तरह अडिग हो जम गये हैं।
"ऐतिहासिक काल में लम्बे समय के बाद हिन्दी जहां पहुंची थी उसे पत्रकारिता ने ही विकसित किया था। तब की पत्रकारिता में अपने देश और समाज को रचने-गढ़ने का साहस था, संकल्प था, समझ और स्वपन भी था। वह जख्मी कलम के साथ बारूद और बंदूक की बर्बरता के खिलाफ लड़ी थी। इस कारण वह भाषा के मसले को गहरे ऐतिहासिक विवेक के साथ देख रही थी। आजादी की घोषणा के बाद जब बी.बी.सी ने गांधी को बुलाया तो उन्होंने प्रस्ताव को ठुकराते हुए कहा, "संसार से कह दो गांधी को अंग्रेजी नहीं आती। गांधी अंग्रेजी भूल गया है। उन्हें एहसास था कि अपनी भाषा के अभाव में राष्ट्र फिर से गुलामी के नीचे चला जाएगा।(श्रीधर करुणानिधि: वैश्वीकरण और हिंदी का बदलता स्वरूप) हिन्दी भाषा आज जिस रूप में हमारे सामने खड़ी है, इसे इस स्वरूप में संवारने के लिए लेखकों, बुद्धिजीवियों और विचारकों ने कठोर परिश्रम किया है। उन्हें दीर्घकालीन लड़ाई लड़नी पड़ी।
जनसमुदाय में एवं राजसत्ता से भी। आज यह हिन्दी छियालिस बोलियों का परिवार है और संसार में 50 करोड़ लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। राजभाषा के सवाल पर हिंदी या अंग्रेजी में विवाद हुआ। परिणाम अभी तक हिन्दी राजभाषा बने इस सवाल पर अब तक सहमति नहीं बन पाई है। कुछ हिन्दी भाषी राज्यों ने ही अपने-अपने प्रदेश में हिन्दी को राजभाषा का सम्मान दिया। फिर भी आशा बनी है कुछ प्रदेशों में राजभाषा के रूप में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रेरक अभियान चला रहे हैं। केंद्र स्तर से राज्यों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। आज के दौर में भूमंडलीकरण, बाजारवाद एवं संचार युग आ गया है। हिन्दी के समक्ष नई चुनौती पेश हुई हैं। हिन्दी मात्र भारत के नौ प्रान्तों की भाषा नहीं है बल्कि इस वक्त वह एक विश्व भाषा है। भारतीय बन्धू जहां भी गए, वहां वे लोग अपनी भाषा, अपनी स्मृति अपनी गाथा व कथा भी ले कर गए। मारीशश, फिजी, सूरीनाम, गयाना, टोबेगो, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों के निवासी हैं एवं हिन्दी बोल-चाल, व्यवहार में अपनाते हैं।
वहां का प्रबुद्ध जन हिंदी भाषा में साहित्य सृजन भी कर रहे हैं। दुनिया के अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी का अध्ययन- अध्यापन होता है। प्रो. रामवंक्ष जाटों, (वैश्वीकरण, मीडिया और हिन्दी-आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन में आलेख व प्रतिवेदन में।) भारत आज ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था का मजबूत केंद्र बनने की ओर बढ़ चला है। भूमंडलीकरण की शुरूआत के पश्चात् भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के विस्तार में निरंतर वृद्धि हो रही थी। भारत में रेडियों दस लाख लोगों तक पहुंचाने में 43 वर्ष लम्बा समय लगा। आम जनता के बीच टेलीविजन को पहुंचाने में 28 साल लगे हैं। दर्ज करने लायक तथ्य यह है कि पर्सनल कम्प्यूटर (पीसी) को आने में मात्र 11 साल लगे एवं इण्टरनेट को केवल 17 माह लगे। सन् 1947 में आजादी मिली तो देश के पास केवल 80 हजार फोन थे। 34 साल बाद, सन् 1995 संचार क्षेत्र में हुए भारी परिवर्तन से मुल्क में फोन की संख्या 20.05 लाख हो गये। संचार क्रांति का सूचना तकनीकी क्रांति से घनिष्ठ संबंध है। 'साफ्टवेयर के साथ सूचना प्रौद्योगिकी का एक महत्वपूर्ण संचार नेटवर्क भी है।' इंटरनेट के आने से विश्व भर के कम्प्यूटर को जोड़ने में आसानी हो गई है। वर्तमान में सूचनाओं को प्रेषित करने की लागत घट रही है। 'देश के कोने-कोने से जोड़ने के लिए निकनेट, इंडोनेट, ऐरनेट, आईनेट जैसे देशव्यापी कम्प्यूटर नेटवर्क कायम किए गए हैं। इंटरनेट के इस्तेमाल में भी भारत तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है।
देश में मोबाइल फ़ोन उपभोक्ताओं की संख्या 20 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। सूचना प्रौद्योगिकी का विस्तार अपने आप में जितना महत्वपूर्ण है, सूचना प्रौद्योगिकी की भाषा का प्रश्न भी उससे कम महत्वपूर्ण नहीं है। "वैश्वीकरण के इस स्थापित दौर में आज अंग्रेजी का व्यवहार ही ज्ञान-विज्ञान, सूचना और संचार माध्यमों की भाषा के रूप में सर्वाधिक हो रहा है।" इसका औपनिवेशिक भावानुवाद, कृतज्ञ पाठ, इस भावना से करना अंग्रेजियत और अंग्रेजी के प्रति सच्ची श्रद्धा भक्ति की अभिव्यक्ति होगी; "ब्रितानी साम्राज्य का सूर्य पूरी दुनिया में चमकता रहा है, उसनेे अंग्रेजी शिक्षा सूर्य से पूरी दुनिया को आलोकित ज्ञान दिया है, अंग्रेजी है तो ज्ञान है, विज्ञान है, तकनीकी है, इंजीनियरिंग है। अंग्रेजी नहीं रही तो हम बैलगाड़ी व ढिबरी युग में चले जाएंगे। "कोई भी वैज्ञानिक आविष्कार या नई प्रौद्योगिकी का प्रादुर्भाव तथा विकास किसी भी भाषा की प्रगति में बाधक नहीं अपितु साधक होता है।” (श्रीधर करुणानिधि: वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप) 'इसलिए नई तकनीक की भाषा के रूप में हिन्दी के विकास के रूप में कोई प्रश्नचिह्न नहीं है।
इसके लिए लगातार अच्छे प्रयास की आवश्यकता है।"(श्रीधर करुणानिधि) हिन्दी भाषा को प्रौद्योगिकी के अनुरूप कुशल प्रयोग भाषा बनाने हेतु निरंतरता में प्रयत्न चल रहे हैं। सभी भारतीय भाषाओं में ध्वानिक समानता और परिवर्धित देवनागरी के आधार पर आई आई टी कानपुर के वैज्ञानिकों ने 1983 में एक समन्वित देवनागरी टर्मिनृल का विकास किया जिसे 1986 के हिन्दी सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया। बाद में में 'इस्की ' अर्थात ‘इंडियन स्टैंडर्ड कोड फार इनफार्मेशन इंटरचेंज कोडिंग' पद्धति विकसित की गई जिसमें भारतीय लिपियों के साथ -साथ रोमन लिपि को भी शामिल किया गया और इसके लिए 'इंस्क्राप्ट' (इंडियन स्क्रिप्ट) कुंजी पटल बनाया गया।
सन् 1991 में 'भारतीय मानक ब्यूरो' 1513194 :199 के रूप में, 'इस्की'- 91 की कोडिंग पद्धति के मानक के रूप में मंजूर कर लिया गया। (सूचना प्रौद्योगिकी के संदर्भ में हिन्दी तथा भारतीय भाषाएं :सतीशचंद्र सक्सेना, योजना,2007) विंडोज 2000 के विमोचन के बाद यूनीकोड पद्धति विश्व में लोकप्रिय हो गयी। हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार में यूनीकोड की विश्व क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकती है। आज विश्व की सभी लिखित भाषाओं के लिए यूनिकोड नामक विश्वव्यापी कोड का उपयोग माइक्रोसॉफ्ट, आई .बी .एम. लाइनेक्स, ओरेकल जैसी विश्व की लगभग सभी कम्प्यूटर कंपनियों द्वारा किया जा रहा है। यह कोडिंग सिस्टम, फाण्टमुक्त, प्लेटफॉर्म मुक्त, और ब्राउजर मुक्त हैं। (कम्प्यूटर पर हिन्दी भाषा संसाधन के लिए यूनिकोड का महत्व, डा.विजय कुमार मल्होत्रा, आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन: आलेख और प्रतिवेदन -पृ-145)।
भारत में कम्प्यूटर का उपयोग दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इसलिए अमरीकी कंपनियां भारत में अपना व्यापार बढ़ाने की पुरजोर कोशिश में लगी हैं। अपने व्यवसाय में वृद्धि व तेजी लाने के लिए हिन्दी भाषा को कम्प्यूटर इंटरनेट की भाषा के रूप में अपनाने और प्रश्रय देने के लिए मजबूर हो रही हैं। गूगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने करीब दस साल पहले कहा था, "आने वाले पांच से दस सालों के भीतर भारत दुनिया का सबसे बड़ा इणटरनेट बाजार बन जाएगा। उन्होंने कहा था “इण्टरनेट पर जिन तीन भाषाओं का दबदबा होगा वे हैं-- हिन्दी, मंदारिन और अंग्रेजी।” साफ्टवेयर की कंपनियां नये बाजार की खोज में हैं। अंग्रेजी का बाजार लगभग स्थिरता के मुकाम पर हैं। अंग्रेजी के लोग सक्षम हैं, और कम्प्यूटर, मोबाइल, इंटरनेट आदि चीजें खरीद चुके हैं। अब उनको नये कंप्यूटर की जरूरत नहीं है। ''पिछले दस-बारह साल पहले तक किसी अंतरराष्ट्रीय आईटी कंपनी ने हिन्दी इण्टरनेट के बारे में दिलचस्पी नहीं दिखाई। परन्तु जब आर्थिक लाभ दिखाई पड़ा तो अचानक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हिन्दी के बाजार में कूद पड़ीं।” वह चाहे गूगल हो याहू हो या एम.एस.एन.हो सब हिन्दी के बाजार में पहुंच चुके हैं।
माइक्रोसॉफ्ट के उत्पाद हिन्दी में आ गये हैं, आई.बी.एम. से लेकर सन माइक्रोसिस्टम्स और ओरेकल तक ने हिन्दी को अपनाना शुरू कर दिया है। लिनक्स और मैकिनटोश पर भी हिन्दी आ गई है। इंटरनेट एक्सप्लोरर, नेटस्कोप, मोज़िला, ओपेरा जैसे इंटरनेट ब्राउज़र हिन्दी को समर्थन देने लगे हैं।"( बालेन्दु दाधीच: हिन्दी का विकास और सूचना प्रौद्योगिकी) तमिलनाडु की मेधावी छात्रा का अनीथा शानमुगम की त्रासदपूर्ण घटना ने देश की भाषा नीति और केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों तक का देसी 'भाषाराग' का 'देशगान' कितना बेसुरा, बेरहम, असहिष्णु है, और सत्ता रागदरबारी के सुर में, सुरापान में मदमस्त है। अनीथा की त्रासदी ने पूरे देश के सामने फैलाए गये सच जैसा महाझूठ को तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक फैली यह धारणा कि साउथ की वजह से, उसमें भी विशेष कर तमिलनाडु के कारण अंग्रेजी को हटाया नहीं जा सकता है! हिन्दी वालों को भी यही संदेश दे कर भ्रमित किया गया कि मद्रासियों के कारण हिन्दी राष्ट्रभाषा, राजभाषा या संपर्क भाषा (लिंक लैंग्वेज) नहीं बन पा रही है। जबकि लेखक बकलमखुद का अनुभव है हिन्दी भाषी का प्रभु वर्ग ही जोर-शोर से तमिल भाषियों को अंग्रेजीदा बताकर केंद्र सरकार की नौकरी पर कब्जा कर रहा है और यू पी-बिहार वाले लोगों को हिन्दी बचाओ की जिम्मेदारी दे दी गई है।
प्रभु वर्ग ललकार रहा है। केंद्र से लेकर राज्य सरकार में, अमरीका से लेकर आस्ट्रेलिया तक नौकरी पाना है तो अंग्रेजी पढ़ो, और अंग्रेजी में हकलाओ। वह यह प्रचारित कर यह बता रहा है, ऊंची नौकरी, बड़ी नौकरी, कारपोरेट सेक्टर की नौकरी, मल्टीनेशनल कंपनियों की नौकरी के अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई करने पर ही मिल सकती है। देश का बड़का अखबार लेकिन गंभीर हिन्दी अखबार ने भी सरकार को चेताया है कि जैसे- तैसे हिन्दी और क्षेत्रीय भाषा माध्यम में आईं आई टी और एन आई टी कर भी लिया तो कौन सी मल्टिनेशनल कम्पनी इन्हें नौकरी देगी।
उनके लिखने का फोकस इस बात पर था कि पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी हो। पास हो पाये तो ठीक है। फेल हो जाए तो कहीं जा कर छोटी-मोटी नौकरी कर लेगा। लेकिन हिन्दी में, तमिल में, तेलगु मलयालम में, मराठी में, गुजराती में, कोंकणी में बांग्ला में, उड़िया में, असमिया में, पंजाबी में, आईआईटी, एनआईटी पढ़ कर अंग्रेजी स्पीकिंग साहब लोगों के बीच में लोकल लैंग्वेज की लिमिट में रहने वाले मैन के माफिक इंटरनेशनल लैंग्वेज इंस्टीट्यूट का एक टेक्नोक्रेट्स, लोकल लैंग्वेज की लिमिट के पर्सन से कैसे बात करने से अपने को मेंटली सेटअप करेगा।
इसलिए हिन्दी समेत रीजनल लैंग्वेज के लोगों को आई आई टी एवं एनआईटी एजूकेशन की अनुमति ही नहीं होनी चाहिए। वे यदि आना ही चाहते हैं तो अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई करने के लिए आएं। यह अंग्रेजों की छोड़ी हुई केंचुल है जो हिप्पोक्रेट है और स्नाब्री से भरा हुआ है। जो भारतीय हो कर भी अंग्रेजी के प्रभुत्व को बनाए हुए है। हिन्दी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के विरुद्ध निषेध और नकारात्मक रुख अपनाते हुए अपने निजी हित साधने के लिए अंग्रेजी से चिपका हुआ है, जबकि वास्तविक हित हिन्दी और देश की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के हितों के साथ खड़ा होने में है। जरूरत है देश को दृढ़ इच्छाशक्ति से संपन्न भारतीय "कमालपाशा" की, जो हिन्दी सहित भारत में समवर्ती सूची की सभी राष्ट्रीय/क्षेत्रीय भाषाओं को तत्काल प्रभाव से राजभाषा घोषित कर दें। यदि ऐसा होता है, अंग्रेजी में सपने देखने व सोचने वाले अभिजात्य वर्ग को छोड़कर किसी अन्य भाषा समूह के लोगों को कोई आपत्ति नहीं होगी। भारतीय भाषाओं के बीच में कोई बड़ा अंतर्विरोध नहीं है। वह परस्पर एक ही परिवार समूह से जुड़ी हुई, कुछ क्षेत्रीय विभिन्नता और सामाजिक-सांस्कृतिक समानता उन्हें सदियों से एक-दूसरे के प्रति निकटवर्ती बनाये हुए हैं।
आवश्यकता भारतीय भाषाओं की आपसी समझदारी की है। हिन्दी भाषी लोगों को उत्तरदायित्व एवं सहयोगी की भूमिका निभानी होगी। बड़े भाईसाहब की भावना त्यागनी होगी। विनम्र, बड़प्पन, स्वभावत: दिलेर होना होगा। देश को आगे अब और अनीथा शानमुगम का बलिदान नहीं चाहिए। देश की प्रतिभाओं को अपनी भाषा में शिक्षा लेने, परीक्षा देने, नौकरी पाने का अधिकार चाहिए।
(लेखक एक कवि-संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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