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दुनिया भर की: पेरु में राजनीतिक उठापटक के बीच पहली महिला राष्ट्रपति

पेरु के दक्षिणपंथियों को यह नहीं समझ लेना चाहिए कि कैस्टिलो के हट जाने से उनका संकट सुलझ गया है। बल्कि स्थिति और विकट ही होती लग रही है।
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पेरु में चल रही राजनीतिक उठापटक में सबसे बड़ी खबर तो यही है कि दीना बोलुआर्ते वहां की पहली महिला राष्ट्रपति चुनी गई हैं। अब उन्हें शासन करने का कितना मौका मिलेगा, और क्या वह राष्ट्रपति पद के 2026 में तय अगले चुनावों तक बाकी बचा कार्यकाल पूरा कर पाएंगी, यह गहरा सवाल है, खास तौर पर पेरु में पिछले छह साल से जारी राजनीतिक अस्थिरता को देखते हुए। पेरु ने पिछले छह साल में छह राष्ट्रपति देख लिए हैं।

यहां यह बता देना जरूरी है कि 60 साल की बोलुआर्ते पिछले साल जून में हुए चुनावों में विजयी रहे पेड्रो कैस्टिलो के साथ उपराष्ट्रपति पद के लिए खड़ी हुई थीं। लिहाजा पिछले हफ्ते जब कैस्टिलो को वहां की कांग्रेस ने महाअभियोग के जरिये हटा दिया तो राष्ट्रपति का पद बोलुआर्ते को मिला।

पेरु की नयी राष्ट्रपति दीना बोलुआर्ते। 

17 महीने पहले जब पेड्रो कैस्टिलो मध्य-वाम गठबंधन के उम्मीदवार के तौर पर दक्षिण अमेरिकी देश पेरु के नए राष्ट्रपति चुने गए थे तो वहां के गरीब, किसान व कामगार वर्ग को लगा था कि उनका एक नुमाइंदा देश के शीर्ष पद पर पहुंचा है। वहां बदलाव की उम्मीदें थीं, कैस्टिलो ने तो संविधान में बदलाव लाने का भी वादा किया था। लोग वहां के लुटेरे तंत्र से परेशान थे। 2020 में तो एक ही हफ्ते में वहां तीन राष्ट्रपति देखने को मिले। इसी पृष्ठभूमि में कैस्टिलो अचानक लोकप्रिय हुए और दो दौर के मुकाबले के बाद राष्ट्रपति बने।

निवर्तमान राष्ट्रपति पेड्रो कैस्टिलो

लेकिन कुछ कैस्टिलो की राजनीतिक अनुभवहीनता की वजह से और कुछ वहां के राजनीतिक कुलीन तबके में पेरु के निम्न वर्ग को लेकर हेय नजरिये की वजह से कैस्टिलो भी उलटफेर का शिकार हुए और उन्हें कांग्रेस ने महाभियोग लगाकर पद से हटा दिया। कांग्रेस में बहुमत विपक्षी दलों का है इसलिए जाहिर था कि तमाम बुनियादी मुद्दों पर कांग्रेस में अड़ंगा लगने की संभावना ज्यादा थी। अब यह कैस्टिलो की राजनीतिक अपरिपक्वता थी कि उन्होंने आसन्न संकट देखकर कांग्रेस को ही भंग करने के आदेश दे डाले। लिहाजा, उलटे कांग्रेस ने उन्हें हटाकर बगावत के आरोप में हिरासत में ले लिया और बोलुआर्ते को राष्ट्रपति नियुक्त कर दिया। इस साल पहले महाभियोग की पहली दो कोशिशों से तो वह बच गए थे, लेकिन तीसरी से आखिरकार नहीं बच पाए। तमाम तटस्थ विश्लेषकों ने भी कैस्टिलो के इस कदम को अलोकतांत्रिक व राजनीतिक आत्महत्या करार दिया।

कैस्टिलो राष्ट्रपति के चुनाव में खड़े होने से पहले देहात में स्कूली अध्यापक थे। उनके पास कोई राजनीतिक अनुभव नहीं था और न ही वह कभी किसी सार्वजनिक पद पर रहे थे। उनके 17 महीने के कार्यकाल में यह अपरिपक्वता हर कदम पर दिखाई दी। उन्होंने चार बार अपनी सरकार का पुनर्गठन कर डाला और उस दौरान 70 मंत्री बना डाले, जिनमें से कई पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे। जिस मार्क्सवादी फ्री पेरु पार्टी से वह राष्ट्रपति पद के लिए चुनकर आए थे, उन्होंने इस साल जून में उसे ही छोड़ दिया और निर्दलीय के तौर पर शासन चलाने लगे।

खास बात यह है कि अब राष्ट्रपति बनी बोलुआर्ते भी पहले फ्री पेरु पार्टी की ही सदस्य थीं। लेकिन इस साल जनवरी में उन्होंने एक साक्षात्कार में यह कह दिया था कि वह कभी फ्री पेरु पार्टी की विचारधारा को अपना नहीं पाईं। जाहिर था, कि इस बात के लिए पार्टी ने उन्हें निकाल बाहर किया। तब से वह भी किसी भी पार्टी से जुड़ी नहीं थी। यानी इस समय न तो कैस्टिलो और न ही बोलुआर्ते उस मार्क्सवादी फ्री पेरु पार्टी के सदस्य रह गए थे, जिसके बैनर से वे पिछले साल चुनाव जीतकर आए थे।

बोलुआर्ते भी पेरु के शासक वर्ग से तो नहीं आतीं, लेकिन कैस्टिलो की तुलना में उन्हें थोड़ा राजनीतिक अनुभव है। वह वकील हैं और 2007 से सरकारी पदों पर भी रही हैं। 2018 में वह राजधानी लीमा के एक जिले में मेयर पद का और 2020 में कांग्रेस का चुनाव फ्री पेरु पार्टी की तरफ से लड़कर हार चुकी हैं। और, अब तो 17 महीने से वह उपराष्ट्रपति थी हीं। उन्होंने अपनी सरकार में शामिल 17 मंत्रियों से भ्रष्टाचारण में लिप्त न रहने की शपथ दिलवाई है। लेकिन उनकी सरकार अब मध्य-वाम न होकर पूरी तरह मध्यमार्गी रह गई है। इसमें तमाम लोग ऐसे हैं जो पहले भी पिछली सरकारों में मंत्री पद पर रह चुके हैं।

पेरु में प्रदर्शन

लेकिन उनकी सरकार बन जाने मात्र से हालात काबू में नहीं आएंगे। इस समय तो कैस्टिलो के समर्थक हजारों की तादाद में देश में कई जगह, खास तौर पर एंडीज पहाड़ों से लगे इलाकों में प्रदर्शन कर रहे हैं। मांग यह भी उठ रही हैं कि बोलुआर्ते को भी इस्तीफा दे देना चाहिए और फिर से आम चुनाव कराए जाने चाहिए। ये लोग बोलुआर्ते को गद्दार मान रहे हैं। प्रदर्शनों के दौरान कुछ जगहों पर तोड़-फोड़ व हिंसा भी हुई, कई राजमार्गों की नाकाबंदी कर दी गई।

दुनिया में तांबे के दूसरे सबसे बड़ा उत्पादक देश पेरु में छोटे किसान आधी सदी के सबसे भीषण सूखे का सामना कर रहे हैं। फसलें व मवेशियों की जानें संकट में हैं। कामगार, किसान व मूल निवासी वहां तमाम आर्थिक बहसों से बाहर रहे हैं। लोग यहां भी बदहाल अर्थव्यवस्था से परेशान हैं। कैस्टिलो आए तो इन लोगों को लगा था कि उनकी आवाज सुनी जाएगी।

तमाम बुर्जुआ व्यवस्थाओं की ही तरह पेरु में भी शासन पर हमेशा से एक खास वर्ग का दबदबा रहा है। अभी तक तो वह वर्ग अपनी ही विसंगतियों में उलझा था और उसी के बीच सत्ता की उठापटक चल रही थी। लेकिन पिछले साल मध्य-वाम गठबंधन के चुनाव जीत जाने से यह वर्ग खासा असहज हो चला था।

कैस्टिलो को 17 महीने के शासनकाल में जबरदस्त नस्लवादी हमले का शिकार होना पड़ा, ठीक उसी तरह के जिस तरह के भेद का शिकार लोगों को आम दिनचर्या में होना पड़ता है। उन्हें पारंपरिक हैट व पोंछो पहनने पर कोसा जाता था, उनके लहजे व बोली का मजाक उड़ाया गया। उनके विरोधी उन्हें ‘आतंकवादी’ कहकर बुलाते रहे, उसी तर्ज पर जिस तरह से तमाम देशों में दक्षिणपंथी ताकतें वामपंथियों को संबोधित करती रही हैं (अर्बन नक्सल!)।

दरअसल कैस्टिलो के राष्ट्रपति होने के बावजूद उनको लेकर वहां के अभिजात्य वर्ग में इस कदर नस्लवादी रवैया था कि ऑर्गनाइजेशन ऑफ अमेरिकन स्टेटस (ओएएस) के प्रेक्षकों के एक दल ने वहां की हाल की एक यात्रा के दौरान इस पूरे मसले के बारे में विस्तार से लिखा। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने लिखा कि पेरु में एक बड़ा तबका है जो नस्लवाद व भेदभाव को बढ़ावा देता है और जिसे यह पसंद नहीं कि पारंपरिक शासक वर्ग से बाहर का कोई व्यक्ति शीर्ष पर पहुंचे। इस मायने में तो बोलुआर्ते भी इस वर्ग के लिए बाहरी ही हैं।

पेरु के दक्षिणपंथियों को यह नहीं समझ लेना चाहिए कि कैस्टिलो के हट जाने से उनका संकट सुलझ गया है। बल्कि स्थिति और विकट ही होती लग रही है। अभी के हालात में लगता नहीं कि जल्द चुनाव बगैर कोई और रास्ता वहां निकलेगा। बोलुआर्ते जल्द चुनावों पर तो चर्चा करने के लिए तैयार हैं लेकिन उन संवैधानिक बदलावों को फिलहाल उन्होंने ठंडे बस्ते में डाल दिया है, जो वाम पार्टियों के मुख्य एजेंडे में शामिल रहे हैं।

पेरु में राष्ट्रपति पद के चुनाव साढ़े तीन साल बाद 2026 में होने तय हैं। देखना यही है कि वहां राजनीतिक अस्थिरता का दौर अब खत्म होगा या फिर फिलहाल यही वहां की नियति रहेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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