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दुनिया भर की: कितनों को लुप्त होने से रोक पाएंगे हम

दुनिया की जैव विविधता को बचाने के लिए मोंट्रियल में तय हो रही हैं प्राथमिकताएं
Biodiversity

मिस्र के शर्म अल-शेख में पिछले महीने हुए जलवायु परिवर्तन पर COP27 शिखर सम्मेलन के कुछ ही हफ्ते बाद तमाम देश इन दिनों कनाडा के मोंट्रियल शहर में जैव-विविधता को बचाने के लिए COP15 बैठक कर रहे हैं। COP से आशय है कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज और यह जैव विविधता पर होने वाले सम्मेलनों की 15वीं कड़ी है। महज कुछ दिनों के अंतराल पर हो रहे इन दोनों सम्मेलनों का मकसद एक ही है- इस धरती को इंसानों के रहने लायक बने रहने देना। बस, दोनों के काम का दायरा अलग-अलग है। 

जैव विविधता सम्मेलन की अहमियत जलवायु परिवर्तन पर हुए सम्मेलन से कमतर नहीं है और, कुछ वैज्ञानिकों ने तो यह तक कहा है कि इस बार की यह संयुक्त राष्ट्र जैवविविधता शिखर बैठक इतनी महत्वपूर्ण है कि समूचे प्राणी जगत का भविष्य इससे तय होगा। इस दावे में काफी हद तक दम भी है। 

जैसे जलवायु परिवर्तन शिखर बैठक में उत्सर्जन को कम करने और धरती के तापमान को कम रखने के बारे में लक्ष्य तय किए जा रहे थे, उसी तरह जैव विविधता बैठक में भी प्रकृति को बचाने के लिए लक्ष्य निर्धारित किए जाने और संसाधन जुटाने पर बातचीत हो रही है। 190 से ज्यादा देशों की यह बैठक 7 दिसंबर को शुरू हुई थी और 19 दिसंबर तक चलेगी।

मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र ने दक्षिण अमेरिका के अटलांटिक जंगलों से लेकर भारत में गंगा नदी तक तमाम इकोसिस्टम (पारिस्थितिकीय तंत्रों) को बचाने के लिए अपनी प्राथमिकताओं का ऐलान किया। संयुक्त राष्ट्र ने 10 पहल तय की हैं जिन्हें फंड व वैज्ञानिक विशेषज्ञता उपलब्ध कराई जाएगी। हालांकि अभी यह खुलासा नहीं किया गया है कि इसके लिए कितना फंड जुटाया जाएगा और यह फंड कहां से आएगा। फिलहाल मकसद सिर्फ यह बताना है कि इन इकोसिस्टम को बर्बादी के रास्ते से लौटाया जा सकता है। यह मुमकिन है।

इस जैव विविधता बैठक के मेजबान संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम यूएनईपी का अनुमान है कि दुनिया की जमीन के 40 फीसदी का क्षय हो चुका है। लिहाजा अब इसका इरादा है कि इस सम्मेलन के निष्कर्ष के तौर पर जो तकरीबन दो दर्जन लक्ष्य निर्धारित होंगे उनमें से एक यह भी हो कि तमाम देश इस क्षत हो चुकी प्रकृति- पर्वत, नम क्षेत्र, रेगिस्तान व तटीय क्षेत्रों के कम से कम 20 से 30 फीसदी को फिर से लौटाएंगे।  फिलहाल जिन 10 जगहों को लेकर ऐलान हुआ है, उन सारी परियोजनाओं का क्षेत्रफल मिलाकर करीब 6.8 करोड़ हेक्टेयर है यानी फ्रांस के कुल क्षेत्रफल से थोड़ा ज्यादा।

संयुक्त राष्ट्र ने साल 2030 तक पूरा की जाने वाली इन 10 परियोजनाओं का चयन कुल 130 आवेदनों में से किया। इन 10 में, अटलांटिक के जंगलों में काट दिए गए इलाकों को फिर से हरा-भरा किए जाने का लक्ष्य है, तो प्रदूषित गंगा को साफ किए जाने का; संयुक्त अरब अमीरात के आसपास फारस की खाड़ी में सीग्रास (समुद्री घास) को फिर से लगाए जाने की योजना है ताकि लुप्तप्राय जीव डुगोंग को बचाया जा सके। अफ्रीका में ग्रेट ग्रीन वाल पर पेड़ व सवन्ना ग्रासलैंड लगाने की एक योजना है और मध्य अमेरिका में समूचे सूखा-प्रभावित इलाकों में पारंपरिक खेती की मदद करने की भी।

अन्य पांच योजनाओं में चीन में विविध पारिस्थितिकी तंत्रों को फिर से जीवित करना, इंडोनेशिया के मुख्य जावा द्वीप में निचले तटीय इलाकों को तूफानों व मिट्टी के क्षरण से बचाना, यूरोप व अफ्रीका में पर्वतीय समुदायों को ज्यादा मजबूत बनाना, तीन द्वीपीय देशों में कोरल (मूंगा), जंगलों व समुदायों की हिफाजत करना, और कजाखस्तान में ग्रासलैंड फिर से खड़े करना शामिल है।

संयुक्त राष्ट्र की योजना है कि इन दस परियोजनाओं की प्रगति के काम पर उपग्रहों की मदद से निरंतर निगरानी की जाए। 

प्रकृति संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ (आईयूसीएन) ने दो दन पहले एक रिपोर्ट जारी करके बताया था कि इस समय 18 देशों में करीब 26 अरब डॉलर की फंडिंग से 1.4 करोड़ हेक्टेयर इलाके में प्रकृति को पुनर्जीवित करने का काम चल रहा है।

लेकिन इतनी सारी कवायद के बावजूद लोगों के मन में सवाल यही है कि क्या हम लाखों प्रजातियों को लुप्त होने से बचा पाएंगे। शोधकर्ताओं का मानना है कि जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण जैसे कारकों के चलते सभी वनस्पति व प्राणी प्रजातियों में करीब एक-चौथाई के विलुप्त होने का खतरा है। ज्यादातर लोग मानते हैं कि वक्त बहुत तेजी से हाथ से निकल रहा है। अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विकास क्रम यानी इवोल्यूशन के जरिये नई प्रजातियों के बनने की रफ्तार से एक हजार गुना तेजी से हम मौजूदा प्रजातियों को विलुप्त होने के रास्ते पर भेज रहे हैं। ऐसी रफ्तार इस पृथ्वी पर पिछले 1 करोड़ सालों से नहीं देखी गई है। 

वैज्ञानिक लगातार इस बात पर भी अध्ययन कर रहे हैं कि किन प्रजातियों के लिए खतरा सबसे ज्यादा व तात्कालिक है। जैसे एक अनुमान है कि उभयचरों (एम्फिबियंस- मेढक इत्यादि) व रीफ बनाने वाले कोरल या मूंगा सबसे ज्यादा खतरे में हैं। एक वैश्विक मूल्यांकन बताता है कि उभयचरों में 40 फीसदी पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है।

इसी तरह से समुद्र का बढ़ता तापमान मूंगा चट्टानों को नष्ट कर रहा है। साल 2018 तक करीब 9 साल की अवधि में दुनिया के कोरल में से 14 फीसदी नष्ट हो गए। यह कितना बड़ा नुकसान है इसका जायदा इस बात से लग सकता है कि दुनिया की जलीय प्रजातियों में से करीब एक-चौथाई अपने जीवन के लिए कोरल रीफ पर निर्भर रहती हैं।

हालांकि तमाम शोध कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन जैव विविधता के लिए बड़ा खतरा बनकर उभर रहा है, लेकिन फिर भी इस समय सबसे विनाशक ताकत है कृषि के मकसद से जमीन व पानी के इस्तेमाल में बदलाव और इंसानों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का जरूरत से ज्यादा दोहन। करीब 75 फीसदी जमीनी इलाकों और 66 फीसदी समुद्री इलाकों में तब्दीली आ गई है, आम तौर पर भोजन के उत्पादन के लिए। 

जैव विविधता का मामला खासा जटिल है- हम जिस कदर तेजी से विनाश कर रहे हैं, हमें तमाम प्रजातियों के बारे में तो यह पता ही नहीं है कि वे हमारी प्रकृति की किस कदर मदद कर रही थीं, या उनकी हमारे लिए कितनी उपयोगिता थी। यह मापना जितना मुश्किल है, उतना ही मुश्किल खोते हुए को बचाना भी है, और बचाने की कवायद में तालमेल लाना व धन जुटाना भी।

चार दिन और इस मंथन में लगेंगे। लेकिन उसके बाद भी क्या कोई रास्ता निकलेगा! क्या यह बुनियादी लक्ष्य भी तय हो पाएगा कि साल 2030 में हमारे पास आज की तुलना में थोड़ी सी ज्यादा प्रकृति हो!

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