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विश्लेषण: COP29 रहा फ्लॉप, अब आख़िरी मौका है COP30! 

अज़रबैजान के बाकू में हुआ पर्यावरण शिखर सम्मेलन, कॉप29 पूरी तरह से विफल रहा है। और इसके पीछे विकसित देशों की दादागीरी साफ़ तौर पर देखी जा सकती थी।
cop 29
फ़ोटो साभार : Flickr

अज़रबैजान के बाकू में हुए पर्यावरण शिखर सम्मेलन, कॉप 29 (COP 29) ने एक बार फिर दिखा दिया है कि यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेटिक चेंज (UNFCCC) के अंतर्गत वार्ताओं की अंतर्राष्ट्रीय प्रक्रिया पर, अमरीका के नेतृत्व में वैश्विक पूंजीवाद ही हावी बना हुआ है। ये वार्ताएं ग्रीन हाउस गैसों (GHG) और खासतौर पर कार्बन डाइ ऑक्साइड के उत्सर्जनों को नियंत्रित करने और इन उत्सर्जनों के चलते होने वाले जलवायु परिवर्तनों को नियंत्रित करने के उद्देश्य से की जा रही हैं। इन उत्सर्जनों से पहले ही जनगणों तथा पर्यावरणीय सिस्टम्स के लिए बड़े पैमाने पर खतरे पैदा हो रहे हैं और हम अब जलवायु में संभावित रूप से अपरिवर्तनीय बदलावों के कगार पर और आने वाले समय में और बड़े खतरों के मुहाने पर पहुंच गए हैं। इन पर्यावरणीय प्रभावों पर, ऐतिहासिक रूप से संचित तथा वर्तमान उत्सर्जनों के मामले में दुनिया कहां खड़ी है इस पर और इस पर कि अगर वैश्विक ताप वृद्धि को 2 डिग्री सेंटीग्रेड से काफी नीचे-नीचे रखना है तो क्या करना जरूरी है (अब 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की सीमा को व्यापक रूप से जरूरी माना जाने लगा है), इन सब पर इस स्तंभ में पहले हम विस्तार से चर्चा कर चुके हैं और वह सब यहां फिर से दोहराने की जरूरत नहीं है।

एक साल पहले दुबाई में हुए कॉप 28 शिखर सम्मेलन ने तीन वर्षीय ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) के निष्कर्षों का अनुमोदन किया था। इसमें इसकी विस्तृत समीक्षा प्रस्तुत की गयी थी कि  उत्सर्जनों, जलवायु परिवर्तनों तथा प्रभावों की वर्तमान स्थिति क्या है और विकसित देशों से विकासशील देशों के पक्ष में वित्त, प्रौद्योगिकियों तथा सामर्थ्य के कितने हस्तांतरण की जरूरत है, जिससे ये देश कमतर कार्बन उत्सर्जन तथा अंतत: कार्बन न्यूट्रल या शून्य उत्सर्जन विकास की ओर संक्रमण कर सकें। बाकू में  कॉप 29 और ब्राजील में बेलेम में होने जा रहे अगले कॉप 30 को क्रमश: पर्यावरणीय वित्त पर और सभी देशों के लिए अद्यतनीकृत, बढ़े हुए उत्सर्जन कटौती लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित करना था। वित्तीय हस्तांतरण और राष्ट्रीय उत्सर्जन कटौती लक्ष्य, खासतौर पर विकसित देशों के मामले में ऐसे लक्ष्य, गंभीर रूप से अपर्याप्त और जरूरत के मुकाबले बहुत पीछे निकले हैं।

चूंकि कॉप 29 का फोकस पर्यावरणीय वित्त के एक नये सामूहिक परिमाणात्मक लक्ष्य (NCQG) तक पहुंचने पर था, बाकू कॉप को ‘‘फाइनेंस कॉप’’ कहा जाने लगा था। लेकिन, इस तथा अन्य लक्ष्यों की तुलना में, कॉप 29 पूरी तरह से विफल रहा है। और इसके पीछे विकसित देशों की दादागीरी साफ तौर पर देखी जा सकती थी, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय खनिज ईंधन स्वार्थ बखूबी उनकी मदद कर रहे थे।

पर्यावरण के लिए वित्त

‘पर्यावरण के लिए वित्त’ की संज्ञा शुरूआत से ही परिभाषित होने से बचती आयी है। बहुत ही मोटे तौर पर कहें तो इस संज्ञा में ऐसे फंड आते हैं जिनकी जरूरत बहुत कम या शून्य कार्बन विकास में संक्रमण (मिटीगेशन), पर्यावरणीय प्रभावों से निपटने (एडाप्टेशन) और पर्यावरण परिवर्तन से पहले ही हो चुके नुकसान की भरपाई करने के लिए होगी। इस मामले में दो बड़े मुद्दों पर बहसें उठ खड़ी हुई हैं। ये मुद्दे हैं: इस सब के लिए कितने वित्त की जरूरत होगी और ये फंड आएंगे कहां से? बेशक, पिछले कई वर्षों के दौरान विकसित देशों ने इसकी तमाम कोशिशें की हैं कि इन फंड हस्तांतरणों को कम से कम रखा जाए और ऐसी किसी भी व्याख्या से बचा जाए जिससे कोई जवाबदेही स्वीकार करने का अर्थ लिया जा सकता हो और अनुदान आधारित सार्वजनिक वित्त के प्रवाहों की व्यवस्था से हटकर विकास अनुदानों, मुख्यत: बहुपक्षीय एजेंसियों से ऋणों, परोपकारी सहायता और विकासशील देशों में आवश्यक प्रौद्योगिकियां लाने वाले निजी निवेशों के मिश्रण की ओर बढ़ा जाए। यह सब कुछ कॉप 29 में अपना जोर दिखा रहा था, जहां पर्यावरण-वित्त के मामले में विकसित देशों ने ऐसा समझौता थोप दिया, जो उनके पक्ष में ही बहुत ज्यादा झुका हुआ था और जिसमें विकासशील देशों को और खासतौर पर उनमें भी सबसे ज्यादा वेध्य, सबसे कम विकसित तथा छोटे-छोटे द्वीपीय देशों को छोटे-छोटे दानों पर निर्भर बनाकर और कर्ज के बहुत भारी और अवहनीय चक्र में फंसाकर छोड़ दिया गया।

2009 में कुनकुन में, कोप 10 से शुरू हुई बहसों में, विभिन्न स्रोतों से पर्यावरण वित्त की व्यवस्था के लिए 100 अरब डालर की राशि पर सहमति बनी थी। इस राशि को 2015 के पेरिस के मील का पत्थर माने जाने वाले समझौते में ऐसी राशि के रूप में पुख्ता किया गया, जिसे 2020 तक जुटाया जाना था। विकसित देशों ने और विभिन्न स्रोतों ने दावा किया है कि 2022 तक इस लक्ष्य को हासिल कर लिया गया था। बहरहाल, विभिन्न स्वतंत्र विश्लेषणों में, जिनमें ओईसीडी के विश्लेषण भी शामिल हैं, पता चला था कि इस रकम में हर प्रकार के स्रोतों से आने वाले फंड जोड़ दिए गए थे और इनका अधिकांश हिस्सा ऐसे ऋणों के रूप में दिया गया था, जिनके साथ कर्ज का बहुत भारी बोझ लगा हुआ था। वैश्विक स्टॉकटेक में और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा नियुक्त किए गए तथा स्वतंत्र, दोनों ही प्रकार के विशेषज्ञ ग्रुपों के अध्ययनों में, इसकी सिफारिश की गयी थी कि आवश्यक पर्यावरण वित्त को उल्लेखनीय रूप से बढ़ाकर, करीब 1,300 अरब डालर सालाना या उससे भी ज्यादा किया जाए, तभी इसकी सभी जरूरतों को पूरा किया जा सकेगा और तभी विकासशील दुनिया जलवायु परिवर्तन से निपटने की स्थिति में होगी।

बहरहाल, विकसित देशों के आग्रह से हुए एक ‘‘समझौते’’ में, जिसे कोप 29 वार्ताओं के मूल कार्यक्रम के पूरे दो दिन बाद और भारत जैसे अनेक विकासशील देशों की कड़ी आपत्तियों को दरकिनार  करते हुए थोप दिया गया, बाकू में 2035 तक सिर्फ 300 अरब डालर सालाना की रकम तय की गयी है। अगर मुद्रास्फीति को हिसाब में लिया जाए तो यह राशि तो पेरिस समझौते में स्वीकार की गयी 100 अरब डालर की राशि से भी घटकर ही बैठेगी!

इस आंकड़े पर इसके गोल-मोल वादों का पर्दा डालने की कोशिश की गयी है कि इसे बढ़ाते हुए, 2035 तक सभी स्रोतों से मिलाकर 1.3 ट्रिलियन डालर से ऊपर कर दिया जाएगा। लेकिन, इस शक्कर चढ़ी गोली में से भी कडुए तत्व झांक रहे थे। इसमें विकासशील देशों द्वारा खुद अपने स्रोतों से जुटाए जाने वाले संसाधनों को और दक्षिण-दक्षिण सहयोग की व्यवस्थाओं के जरिए, कुछ विकासशील देशों द्वारा अन्य विकासशील देशों के हक में किए जाने वाले ‘‘स्वैच्छिक अंशदानों’’ को भी जोड़ने की कोशिश की गयी है! चीजें इससे बदतर नहीं हो सकती थीं।

कार्बन के बाज़ार

बहुतों को हैरान करते हुए, मेजबानों ने सम्मेलन के पहले ही दिन यह एलान कर दिया था कि पेरिस समझौते की धारा-6 के अनुसार, कार्बन की खरीद-फरोख्त के लिए मानक तय करने के लिए एक समझौता हो गया था। याद रहे कि तब तक इस पर समझौता नहीं हो पाया था और ऐसा होने के पर्याप्त कारण भी थे। जहां मेजबानों ने इसका दावा किया था कि इससे कार्बन क्रेडिट्स के बदले में, जिनका बाजार-निर्धारित कीमतों पर व्यापार संभव होगा, विकसित देशों द्वारा उत्सर्जन कटौतियों के बदले में कार्बन क्रेडिट खरीदे जाने से, विकसित देशों में 250 अरब डालर तक निवेश की संभावनाएं खुल सकती हैं, वहीं विशेषज्ञों ने चेताया था कि इस समझौते में आयी भाषा तथा इसमें प्रस्तुत किए गए तौर-तरीकों के ढीले-ढाले पन को देखते हुए, इस तरह का कार्बन का व्यापार, वास्तव में उत्सर्जनों में कमी करने की जगह, बढ़ोतरी तक भी ले जा सकता है। क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म (सीडीएम) का भी पहले का अनुभव यही रहा था कि इसके चलते काफी पैसा तो इधर से उधर हुआ था, लेकिन उत्सर्जनों में कटौतियों या उत्सर्जन से बचे जाने के रूप में, इसके नतीजे बहुत ही अनिश्चित रहे थे।

कार्बन के व्यापार सिलसिले में बाकू में जो तौर-तरीके तय किए गए हैं, जिन्हें इस योजना पर अमल के आगे बढऩे के साथ व्यवहारगत रूप से अभी भी परिभाषित करना होगा, उनमें बहुत से छेद हैं। मिसाल के तौर पर यह देशों से इसका तकाजा करता है कि इंटरनेशनली ट्रांसफर्ड मिटीगेशन आउटकम्स (आइटीएमओ) या कार्बन क्रेडिट्स को उन्हे बड़ी सख्ती से परिभाषित करना होगा, लेकिन बढ़ा-चढ़ाकर दिखाए जाने की और मिटीगेशन परिणामों के संबंध में अन्य अनिश्चितताओं की, पुरानी समस्याएं तो बनी ही हुई हैं। इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह है कि जहां आइटीएमओ को यूएनएफसीसीसी द्वारा दर्ज किया जाता है और उसके द्वारा ही सौदे के समय पर ये कार्बन क्रेडिट्स लिए-दिए जाते हैं, इस मामले में सत्यापन तथा दुरुस्ती के लिए काफी समय दे दिया गया है और इस संबंध में स्पष्टता का अभाव है कि एक बार सौदा हो जाने के बाद, दुरुस्ती कैसे की जाएगी।

इसके अलावा खुद कार्बन बाजार से जुड़े बुनियादी मुद्दे भी हैं। कार्बन क्रेडिट्स की कीमतों की एक कहीं ज्यादा यथार्थवादी खोज तो तभी हो सकती है, जब जलवायुगत कार्बन की एक अंतर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत अधिकतम सीमा तय हो जाए, जो सभी खिलाड़ियों को इसके लिए मजबूर करेगी कि अपने  कार्बन उत्सर्जनों को अधिकतम सीमा से नीचे रखें और इसी हिसाब से कार्बन का व्यापार हो। लेकिन, यही तो पेरिस समझौते का अभिशाप है कि जलवायुगत कार्बन की कोई तयशुदा सीमा नहीं है, कि राष्ट्रीय उत्सर्जन कटौती लक्ष्य स्वैच्छिक हैं और इसीलिए कार्बन के दाम ढीले-ढाले तरीके से निर्धारित होते हैं और कार्बन क्रेडिट्स यथार्थवादी तरीके से, कार्बन उत्सर्जनों में कटौती या उत्सर्जनों की बचत के वास्तविक मूल्य के तुल्य नहीं होते हैं।

पुन:, कार्बन क्रेडिट्स का दावा करने वाले निवेशों को, पहले ही रोजमर्रा की कारोबारी गतिविधि के तौर पर होने वाले निवेशों से, मिसाल के तौर पर सौर ऊर्जा या ग्रीन हाइड्रोजन के क्षेत्रों में निवेशों से, अलग करना मुश्किल होगा। याद रहे कि अतिरिक्तता यानी सामान्य कारोबारी गतिविधियों या निवेशों से हासिल होने वाले परिणामों के ऊपर से जोड़े जाने को, लंबे अर्से से जलवायु गत नीति का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत माना जाता रहा है। कार्बन व्यापार में इसका कुख्यात तरीके से दुरुपयोग किया जाता रहा है और यह ऐसे निवेशों को ‘हरित बनाकर दिखाने’ या उनकी ग्रीनवाशिंग की संभावनाओं के द्वार खुले छोड़ देता है। यह भी कि विकसित देशों से आने वाले निवेशों की प्रकृति, जो बड़े पैमाने तथा प्रौद्योगिकियों को पचाने की क्षमताओं का तकाजा करते हैं, जिससे निवेशकर्ताओं को इच्छित कमाइयां हासिल हो सकें, इन निवेशों के प्रवाहों को अपेक्षाकृत बड़ी, कहीं उन्नत या उदीयमान अर्थव्यवस्थाओं की ओर प्रवाहित करेगी और संभावित रूप से यह इस तरह के निवेशों तक सबसे कम विकसित देशों, छोटे द्वीप देशों और अपेक्षाकृत छोटे देशों की पहुंच को घटा देगा। यह पैटर्न सीडीएम्स के मामले में साफ तौर पर देखा जा सकता है।

इसलिए, कार्बन बाजारों और कार्बन व्यापार से, सामान्य कारोबार के ऊपर, कार्बन उत्सर्जनों में महज आभासी कटौतियां ही होने की संभावना है, जबकि इससे निवेशकर्ताओं और निवेश हासिल करने वाली कंपनियों को राजस्व बटोरने का मौका मिलेगा और जलवायु वित्तपोषण के नाम पर, इस तरह के निवेशों की हरी-रंगाई की जा रही होगी।

एक विशेषज्ञ ने बाकू में हुए कार्बन व्यापार समझौते के लिए कहा है कि यह तो, ‘कार्बन बाजारों के काउबॉय को उस समय बढ़ावा देना है, जब दुनिया को जरूरत पुलिसवाले की है।’

कॉप पर ही सवाल

विकसित देश इस तरह की तमाम हाथ की सफाई दिखा रहे हैं तथा ताकतवर खिलाड़ी पर्दे के पीछे तिकड़मों में लगे हुए हैं, जबकि जलवायुगत प्रभाव अविराम तीखे हो रहे हैं और उत्सर्जन लक्ष्य हाथ से और ज्यादा फिसलकर खतरनाक भविष्य की ओर ले जा रहे हैं। इस सबको देखते हुए हैरानी की बात नहीं है कि सिर्फ बदहवास वेध्य देशों ने ही नहीं बल्कि प्रभावशाली ताकतों ने भी यूएनएफसीसीसी की प्रक्रिया और कॉप सम्मेलनों पर भी सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं।

बाकू का झगड़ालू कॉप अभी करीब आधे रास्ते ही पहुंचा था, तभी 20 बहुत ही प्रभावशाली वैश्विक हस्तियों ने, जिनमें संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व-महासचिव बान की मून और यूएनएफसीसीसी की पूर्व-प्रमुख क्रिस्टीना फिगरेस शामिल थीं, एक बहुत ही ध्वस्त करने वाला बयान जारी कर इसका एलान किया था कि कॉप सम्मेलन, ‘अपने उद्देश्य के लिए उपयुक्त नहीं हैं’। उन्होंने इन सम्मेलनों की प्रक्रिया को ओवरहॉल करने की मांग की थी। जाहिर है कि दबाव के चलते, बाद में उन्होंने अपने बयान को यह कहते हुए वापस ले लिया कि उनकी बात का गलत अर्थ लिया गया था।

इसी बीच वनुआतू ने, जो दक्षिण प्रशांत में स्थित है और सबसे वेध्य (vulnerable) छोटे द्वीप देशों में से एक है, इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस में एक वाद दायर उससे जलवायुगत न्याय के तकाजे पूरे करने के लिए, विकसित देशों की कानूनी जवाबदारियों के संंबंध में एक ‘परामर्शात्मक राय’ देने की प्रार्थना की है। यह कानूनी याचिका इससे पहले के एक प्रस्ताव पर आधारित है, जो 130 राष्ट्रीय सरकारों तथा गैर-सरकारी पक्षकारों की ओर से पेश किया गया था और 2023 के मार्च में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा स्वीकार किया गया था। इस मामले में सुनवाइयां, चंद रोज ही पहले, 2 दिसंबर को शुरू हुई हैं। बाकू में वनुआतू के एक प्रतिनिधि ने कॉप में अपने देश के पूरी से असहाय महसूस करने तथा निराश होने को स्वर दिया था। उसने अपने देश की नियति यह हो जाने की शिकायत की कि या तो मजबूरी में कॉप में शामिल हो और खाने की मेज पर बैठे या फिर उसे ही खाने की जगह चट कर लिया जाए!

आखिरी मौका है: कॉप 30! 

(लेखक दिल्ली साइंस फोरम और ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–

COP29: Betrayal at Baku

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