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नदी की धारा मोड़ने से पहले आर्कियोलोजिस्ट की तो व्यवस्था कीजिये नीतीश जी

पर्यावरणविद तो इस फ़ैसले का विरोध कर ही रहे हैं यह भी विडंबना है कि जो राज्य पुरातात्विक उत्खनन के इतने बड़े अभियान की तैयारी कर रहा है, उसके पुरातत्व निदेशालय में न पूर्णकालिक निदेशक है, न ही कोई उत्खनन पदाधिकारी।
बाँका में चांदन नदी के किनारे मिले पुरावशेषों का निरीक्षण करने पहुँचे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार
बाँका में चांदन नदी के किनारे मिले पुरावशेषों का निरीक्षण करने पहुँचे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

बिहार में हाल के दिनों में पुरातत्व को लेकर बड़ी दिलचस्प घटनाएं हुई हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद बांका और भागलपुर जिले के कुछ पुरातात्विक महत्व के स्थलों का निरीक्षण कर घोषणा की है कि यहां 26सौ साल पुराने अवशेष मिले हैं। उन्होंने इन दोनों जगह पर खुदाई करने की घोषणा की है, साथ ही इन पुरातात्विक महत्व के स्थल की खुदाई के लिए राज्य की दो प्रमुख नदियों कोसी और चांदन नदी की धारा मोड़ने की भी बात कही है, जो नदियां इन स्थलों की खुदाई में बाधक बन रहे हैं। पहले से ही राज्य में नदियों के बहाव को नियंत्रित करने के काफी प्रयास होते रहे हैं, इसलिए राज्य के पर्यावरणविदों ने सरकार के इस फैसले का विरोध करना शुरू कर दिया है। मगर इस बीच सबसे विडंबनापूर्ण जानकारी यह निकलकर बाहर आ रही है कि जो राज्य पुरातात्विक उत्खनन के इतने बड़े अभियान की तैयारी कर रहा है, उसके पुरातत्व निदेशालय में न पूर्णकालिक निदेशक है, न ही कोई उत्खनन पदाधिकारी। इतना ही नहीं राज्य में जो 40 से अधिक पुरातात्विक साइटें पहले से हैं, उनकी सुरक्षा और देखरेख की भी बहुत बदहाल व्यवस्था है।

इन मामलों की शुरुआत तब हुई जब इसी दिसंबर महीने के दूसरे सप्ताह में मुख्यमंत्री बांका जिले के भदरिया और आसपास के गांवों की यात्रा पर गये थे। उस यात्रा में जो पुरातात्विक अवशेष मिले उन्हें कुछ जानकारों ने बुद्ध से संबंधित और 26सौ साल पुराना बताया था। हालांकि अब तक के तथ्य यही बताते हैं कि खुद बुद्ध के जन्म के अभी 26सौ साल पूरे नहीं हुए हैं। वहां जो प्रतिमा मिली उसे कई जानकार गुप्तकालीन बता रहे हैं। मगर मुख्यमंत्री ने वहां आनन-फानन में पुरातात्विक उत्खनन की घोषणा करते हुए यह भी कह दिया कि इसके लिए चांदन नदी की धारा को मोड़ा जायेगा।

अगले हफ्ते जब वे भागलपुर जिले के बिहपुर के पास स्थित गुवारीडीह की यात्रा पर गये, जहां कुछ और अवशेष मिले थे। वहां भी उन्होंने स्थानीय जानकारों के अनुमान के आधार पर उसे प्राचीन अंग नगरी का हिस्सा बताया और उत्खनन के लिए कोसी नदी की धारा को मोड़ने की घोषणा कर दी।

महज एक हफ्ते के अंतराल पर दो महत्वपूर्ण नदियों की धारा मोड़ने की घोषणा से राज्य के पर्यावरणविद सतर्क हो गये और उन्होंने इसका विरोध शुरू कर दिया है। पर्यावरणविद और आंदोलनकारी अनिल प्रकाश ने इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि सुना है हमारे सीएम नदी की धारा को मोड़ना चाहते हैं। नदियों के गुस्से का अंदाज नहीं है शायद। इस फैसले से नदियों की सन्तानें भी नाराज हैं। एक राजा ने तो चमड़े का सिक्का ही चला दिया था, यह भी उन्हें याद ही होगा।

वे आगे कहते हैं, पाटलिपुत्र (पटना) का गौरवशाली इतिहास है। आर्कियोलॉजिकल एविडेन्स के लिए क्या राजधानी की भी खुदाई करवाएंगे नीतीश जी? या सिर्फ ग्रामीणों को उजाड़कर कोसी की धारा को मोड़ने की भूल करेंगे। वहीं एक अन्य पर्यावरणविद और कोसी के विशेषज्ञ रंजीव ने भी इस फैसले का विरोध करते हुए अनिल प्रकाश जी से सहमति जतायी है।

इस फैसले और इन दोनों स्थलों में पुरातात्विक खुदाई के बारे में विशेष जानकारी के लिए जब हमने विभाग के कुछ लोगों से संपर्क किया तो चौंकाने वाली सूचनाएं सामने आयीं। जानकारी मिली कि भले ही सीएम ने दो-दो नदियों की धारा मोड़ने और दो साइटों पर नदियों के नीचे से खुदाई करने की घोषणा कर दी है, मगर राज्य के पुरातत्व विभाग के पास न अधिकारी है, न विशेषज्ञ और न ही कोई स्टॉफ। ऐसे में यह पूरी योजना हवा-हवाई ही लगती है।

राज्य के पुरातत्व निदेशालय में पूर्णकालिक निदेशक नहीं है, किसी अन्य विभाग के अधिकारी को इसका प्रभार मिला हुआ है। इसके अलावा आर्कियोलॉजिस्ट और कंजर्वेसनिस्ट के सभी पद खाली हैं। सहायकों के भी पद खाली हैं। एक तरह से देखा जाये तो निदेशालय में उत्खनन और संरक्षण से संबंधित एक भी पूर्णकालिक स्टाफ इस वक्त कार्यरत नहीं है। पूरा निदेशालय सिर्फ तीन एडहॉक कर्मियों के भरोसे चल रहा है। ऐसे में यह सहज ही समझा जा सकता है कि दो-दो नदियों को मोड़कर इतने बड़े उत्खनन कार्य को यह सरकार कैसे अंजाम देगी।

जानकारी यह भी मिली कि इन दिनों बिहार सरकार अपना पूरा उत्खन्न अभियान किसी विश्वविद्यालय के साथ साझेदारी करके चलाती है। जमुई जिले में चल रहा एक ऐसा ही उत्खनन अभियान विश्वभारती विश्वविद्यालय शांतिनिकेतन के सहयोग से चल रहा है। कुल मिलाकर सारा काम वही कर रहे हैं। क्योंकि राज्य सरकार के पास कोई स्टाफ ही नहीं है। इसके अलावा विभाग का काफी काम बिहार विरासत विकास समिति के जरिये भी करने की कोशिश की जा रही है।

स्टाफ की कमी का खामियाजा राज्य सरकार द्वारा संरक्षित पुरातात्विक अवशेषों पर भी पड़ रहा है। बिहार सरकार द्वारा संरक्षित 42 पुरातात्विक साइटों की देखरेख के लिए विभाग का कोई स्टाफ नहीं है। इनकी देख-रेख पूरी तरह होमगार्डों और निजी सुरक्षा एजेंसी के भरोसे चल रही है। इनमें भी ऐसी सूचना है कि निजी सुरक्षा प्रहरियों को चार साल से और होमगार्डों का मार्च, 2020 से वेतन नहीं मिला है।

राज्य के 24 संग्रहालयों की स्थिति थोड़ी बेहतर है, मगर इसे अपेक्षाकृत ही बेहतर कहा जा सकता है। क्योंकि इन 24 संग्रहालयों को सात अधिकारी मिल कर देखते हैं। एक-एक अधिकारी तीन-तीन, चार-चार संग्रहालयों के प्रभारी हैं। वे महीने में एक बार ही किसी संग्रहालय को देखने जा पाते हैं। इस विभाग में स्टाफ की स्थिति भी ऐसी ही है। एक-एक लिपिक के पास कई संग्रहालयों का जिम्मा है। स्टाफ की कमी की स्थिति ऐसी है कि सहरसा जिले का कारू खिरहर संग्रहालय स्टाफ के अभाव में दो साल से बंद है।

कुल मिलाकर जो जानकारी सामने आ रही है, उसके हिसाब से राज्य के पुरातत्व विभाग में 80 से 90 फीसदी पद खाली हैं। इससे जाहिर है कि राज्य सरकार पुरातात्विक धरोहरों के प्रति कितना गंभीर है। स्थिति यह है कि बिहार रिसर्च सोसाइटी में जहां राहुल सांकृत्यायन द्वारा खच्चरों पर ढोकर तिब्बत से लायी प्राचीन पांडुलिपियां संरक्षित है, वहां भी उसकी देखरेख के लिए पूर्णकालिक स्टाफ का घोर अभाव है।

इस सम्बंध में जब हमने पुराविद परिषद के अध्यक्ष एवं केपी जायसवाल इंस्टीटयूट के पूर्व निदेशक सीपी सिन्हा कहते हैं कि किसी भी खुदाई के लिए कई तरह के टेक्नीकल स्टाफ की जरूरत होती है। खुदाई के बाद उसकी रिपोर्ट बनाने के लिए भी एक्सपर्ट की जरूरत होती है। इनके बिना किसी खुदाई की बात करना बेमानी है।

उन्होंने यह भी कहा राज्य में पुरातत्व से सम्बंधित एक प्रयोगशाला की भी जरूरत है। हमलोग इसकी लगातार मांग करते रहे हैं। मगर जब पुरातत्व निदेशालय में एक भी फुलटाइम स्टाफ नहीं है तो प्रयोगशाला की बात तो बहुत दूर है।

(पटना स्थित पुष्यमित्र स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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