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कम मज़दूरी के कारण विश्व प्रसिद्ध कानी शॉल की बुनाई छोड़ने पर विचार कर रहे कारीगर

‘‘हम कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं। दो दशक पहले हमें एक शॉल के बदले 60 हज़ार रुपये मिल जाया करते थे, लेकिन अब यह रक़म घटकर प्रति शॉल 25 हज़ार रुपये रह गई है।"
Kani shawls
फ़ोटो साभार: Greater Kashmir

कम मजदूरी के कारण निकट भविष्य में विश्व प्रसिद्ध कानी पश्मीना शॉल बुनने वाले कारीगरों का अभाव हो सकता है, क्योंकि कई कारीगर अपने बच्चों को शिल्प की इस विधा को न अपनाने देने का निर्णय कर रहे हैं।

कश्मीरी ऊन से बनी कानी शॉल को स्थानीय रूप से पश्मीना शॉल के रूप में जाना जाता है। इसकी कताई लकड़ी की सुइयों का उपयोग करके हथकरघे पर की जाती है।

एक कानी शॉल को पूरा होने में तीन महीने से लेकर तीन साल तक का समय लग सकता है, जो उसकी डिजाइन की जटिलता और गहनता पर निर्भर करता है।

कारीगर अर्शीद अहमद ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘हम कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं। दो दशक पहले हमें एक शॉल के बदले 60 हजार रुपये मिल जाया करते थे, लेकिन अब यह रकम घटकर प्रति शॉल 25 हजार रुपये रह गई है। मेरे जैसे कारीगरों को औसत रूप से बेहद मामूली रकम मिल रही है और हम प्रतिदिन 200 से 300 रुपये कमाते हैं।’’

हालांकि, कश्मीर में अकुशल श्रमिकों की प्रतिदिन की कमाई 650 रुपये है। कारीगर जब देखते हैं कि सेलेब्रिटी उनके कठिन कार्य का प्रदर्शन कैमरों के सामने कर रहे हैं, तो उनके बीच नाराजगी का पनपना कोई असामान्य बात नहीं है, क्योंकि वे इस शॉल को मामूली मजदूरी पर बनाने के लिए मजबूर हैं।

एक अन्य कारीगर जहूर अहमद कहते हैं, ‘‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी, अमिताभ बच्चन और अभिनेता शाहरुख खान समेत अन्य मशहूर हस्तियां इस शॉल का उपयोग करती हैं। दो कारीगर लगातार काम करके एक शॉल को दो महीने में बनाते हैं और उन्हें इसके बदले 40 हजार रुपये मिलते हैं।’’

जहूर ने कहा कि कानी शॉल बनाने में बहुत से लोग शामिल थे, लेकिन अब कम मजदूरी के कारण केवल कुछ ही कामगार रह गये हैं। जहूर और अर्शीद, दोनों ही नहीं चाहते कि उनके बच्चे गुजर-बसर के लिए कानी शॉल की बुनाई करें।

एक हथकरघा के मालिक मुस्ताक ने कानी शॉल की गिरती मांग पर अलग राय व्यक्त की। उन्होंने कहा कि वर्तमान में कश्मीर में 50,000 हथकरघे हैं, जबकि इसके पहले इनकी संख्या केवल 5000 थी, ऐसे में आप कानी शॉल की मांग का अंदाजा लगा सकते हैं।

अहमद ने कहा कि शॉल की कीमत और कारीगर की मजदूरी डिजाइन के आधार पर तय होती है। हस्तशिल्प विभाग के निदेशक महमूद शाह ने कहा कि भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग की शुरुआत के साथ कारीगरों की आर्थिक स्थिति अच्छी होगी।

(समाचार एजेंसी भाषा इनपुट के साथ)

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