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आर्यन ख़ान मामला: बेबुनियाद साज़िश वाले एंगल और ज़बरदस्त मीडिया ट्रायल के ख़तरनाक चलन की नवीनतम मिसाल

यह अभियोजन है या उत्पीड़न?
ARYAN

मीडिया ट्रायल के दौरान आर्यन ख़ान की गिरफ़्तारी के इर्द-गिर्द घूम रहे एक अंतर्राष्ट्रीय साज़िश के आरोपों की रौशनी में तमन्ना पंकज पिछले डेढ़ साल से चल रहे इसी तरह के उन दूसरे मामलों की फिर से समीक्षा कर रही हैं। इस सिलसिले में सरकार की सभी जांच एजेंसियों की तरफ़ से इसी तरह से परेशान करने वाली प्रवृत्ति को आगे बढ़ाते हुए एक 'साज़िश के नज़रिये' से सिद्धांतहीन ख़बरिया मीडिया चैनलों के लिए चुनिंदा रूप से जानकारी लीक की जाती रही है। इस तरह के आरोपों को लेकर कोई सबूत नहीं प्रस्तुत हो पाने के चलते अदालतों की तरफ़ से इन मामलों के बंद किये जाने से पहले ये ख़बरिया चैनल अभियुक्तों को सबसे सख़्त अपराधों का दोषी घोषित करने को लेकर आगे बढ़ चुका होते हैं।  

नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (NCB) ने 13 अक्टूबर को बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख़ ख़ान के बेटे आर्यन ख़ान के ख़िलाफ़ नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 (NDPS एक्ट) की दो सबसे कड़ी धाराओं- धारा 27 ए और धारा 29 को क़ायम किया था।

आर्यन ख़ान और ड्रग पेडलर्स के बीच की कथित बातचीत की बुनियाद पर धारा 27 क़ायम की गयी थी।यह धारा "कोका के पौधे या अफ़ीम की खेती या उत्पादन, तैयार करने, रखने, बिक्री, ख़रीद, लाने-ले जाने, इस्तेमाल या खपत या मादक दवाओं या दिमाग़ पर असर पैदा करने वाले पदार्थों या उन्हें पनाह देने से जुड़े किसी भी कृतय के सौदे में लिप्त होने की किसी भी तरह की गतिविधि के वित्तपोषण से जुड़ी हुई है। इसके अलावे आर्यन ख़ान पर एक अंतर्राष्ट्रीय ड्रग नेटवर्क का हिस्सा होने का आरोप लगाते हुए धारा 29 भी क़ामम की गयी है, जो आपराधिक साज़िश से सम्बन्धित है।

ख़ान की जमानत याचिका पर सुनवाई कर रही विशेष एनडीपीएस अदालत को सम्बोधित करते हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ने कहा, "हम आख़िरकार पता लगायेंगे कि वे सभी एक-दूसरे से कैसे जुड़े हैं और साज़िश के मामला को किस तरह स्थापित करते हैं।" यहां यह साफ़ कर देना ज़रूरी है कि इस समय जांच एजेंसी के पास यह दिखाने के लिए रिकॉर्ड में कुछ भी नहीं है कि ख़ान किसी अंतर्राष्ट्रीय साज़िश के एंगल का हिस्सा भी हैं।

हालांकि, पर्याप्त ठोस सबूतों की कमी के बावजूद एनसीबी ने ज़मानत याचिका के जवाब में ख़ान को एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश का हिस्सा घोषित कर दिया है। इस बीच, समाचार मीडिया गपशप करने वाली जनता की इच्छा को तृप्त करने की कोशिश में लोगों को भड़काने में लगा हुआ है।

हमने पिछले कुछ सालों में बार-बार ऐसे मामले देखे हैं, जिसमें सरकार की जांच एजेंसियों की तरफ़ से एक बड़ी साज़िश की ऐसी-ऐसी कहानियां गढ़ी गयी हैं, जिन्हें आगे बढ़ाते हुए टेलीविज़न के ख़बरिया चैनलों पर प्रसारित किया जाता रहा है, और ये चैनल आरोपियों को बदनाम करने और उन्हें परेशान करने पर आमादा रहे हैं।यह सब तभी रुकता है,जब अदालतें बाद में उन्हें ज़मानत दे देती हैं या उन्हें बरी कर देती हैं और इस तरह के आरोपों और किसी तरह की साज़िश की मौजूदगी को पूरी तरह नकार देती है।

आरुषि तलवार और रिया चक्रवर्ती मामलों से लेकर सुनंदा पुष्कर और दिल्ली दंगे मामलों तक, और अब ख़ान के मामले में हम देखते रहे हैं कि मीडिया को ऐसी-ऐसी जानकारियां दी जाती रही हैं, जिनका इस्तेमाल कथित आरोपी को पकड़ने और सताने और मामले को जनता के भीतर सनसनी पैदा करने के लिए किया जाता रहा है।

जबतक कि अभी कोई और नयी साज़िश की कहानी सामने आये, आइये कुछ इसी तरह के हालिया मामलों पर फिर से विचार करना उचित होगा, जिनमें इसी तरह की साज़िश के सिद्धांत और ख़ास तरह के क़ानून को क़ायम किये जाने की मांग को शामिल किया गया,जिसके चलते मीडिया ट्रायल और जनता की अदालत में तो दोष को साबित कर दिया गया, लेकिन क़ानून की अदालतों में ऐसा नहीं हो पाया।

रिया चक्रवर्ती का मामला

बॉलीवुड अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती को एनसीबी ने पिछले साल सितंबर में अपने साथी अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद गिरफ़्तार कर लिया था। शव की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आने के बाद इस मामले में नशीली दवाओं के सेवन के सिलिसिले में मुकदमा क़ायम कर लिया गया।

चक्रवर्ती को इस आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया था कि वह एक बड़े ड्रग्स सिंडिकेट का हिस्सा थीं, और ड्रग डीलरों से ड्रग्स ख़रीदने और उन्हें राजपूत तक पहुंचाने में उन्होंने भूमिका निभायी थी।

जैसे ही एनसीबी ने अपनी जांच को आगे बढ़ाया, वैसे ही चक्रवर्ती एक ऐसी शातिर नफ़रती अभियान का विषय बन गयीं, जिसमें उनके निजी जीवन का हर वास्तविक या काल्पनिक छोटे-बड़े ब्योरे राष्ट्रीय मीडिया में फ़्लैश होने लगे। रिया चक्रवर्ती ने महीनों तक घोर स्त्री-विरोधी दुर्व्यवहार झेला, क्योंकि पत्रकारों ने उन्हें एक "जोड़-तोड़ करने वाली एक ऐसी महिला" के तौर पर दिखाया, जिसने "काला जादू" किया और राजपूत को आत्महत्या के लिए उकसाया। उन्हें क़ातिल और धन की ख़ातिर अमीर मर्दों से सम्बन्ध गांठने वाली तक कहा गया, और किसी भी अपराध या उसकी किसी भी संलिप्तता को स्थापित करने से पहले उन्हें बड़े ही बेरहमी से ट्रोल किया किया गया।

7 अक्टूबर को चक्रवर्ती को गिरफ़्तारी से ज़मानत देते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि वह "ड्रग डीलरों का हिस्सा नहीं थीं। उन्होंने कथित तौर पर ख़रीदी गयी दवाओं को किसी और को अपने वित्तीय या दूसरी तरह के फ़ायदे के लिए नहीं दिया।”

जहां एक तरफ़ जांच एजेंसी ने इस साल चक्रवर्ती और 33 दूसरे लोगों के ख़िलाफ़ 12,000 पृष्ठों की चार्जशीट दाखिल की, वहीं जांच एजेंसी अब भी साजिश के एक कोण और उस बड़े ड्रग सिंडिकेट को स्थापित नहीं कर सकी, जिसके साथ वह कथित रूप से जुड़ी हुई थीं, जैसा कि समाचार मीडिया के ज़्यादातर तबकों की तरफ़ से बार-बार प्रचार किया गया था।

दिशा रवि मामला

इस साल की शुरुआत में 22 साल की जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 153, 153 ए और 124 ए के तहत दिल्ली पुलिस के एक विशेष प्रकोष्ठ की ओर से बैंगलोर में उनके आवास से गिरफ़्तार कर लिया गया था।

उन पर यह आरोप लगाया गया था कि रवि उस साज़िश का हिस्सा थीं, जिसके चलते दिल्ली में 26 जनवरी, 2021 को लाल क़िले में हिंसा हुई थी। यह आरोप भी लगाया गया कि रवि ने 6 दिसंबर, 2020 को अपने मोबाइल नंबर का इस्तेमाल करते हुए "इंटेल फ़ार्मर्स स्ट्राइक" नाम से एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया था, जिसमें कनाडा के एक कथित अलगाववादी संगठन के सदस्य शामिल थे, जो ख़ालिस्तान नाम से एक स्वतंत्र और अलग पंजाब देश के निर्माण की वक़ालत कर रहे थे।

दिल्ली पुलिस की उस कहानी के मुताबिक़, रवि और उसके साथ साज़िश रचने वालों ने गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में हिंसा का षड्यंत्र रचा, और रवि ने स्वीडिश जलवायु कार्यकर्ता ग्रेटा थुनबर्ग के साथ भारतीय सरकार के ख़िलाफ़ असंतोष को बढ़ावा देने के अपने उद्देश्य के तहत एक कथित टूलकिट साझा किया।

रवि के गिरफ़्तार होने और पुलिस हिरासत में भेजे जाने के तुरंत बाद टीआरपी के भूखे ख़बरिया चैनलों ने राष्ट्रीय मीडिया चैनलों पर इस नौजवान महिला की निजी तस्वीरें और निजी व्हाट्सएप चैट दिखाने शुरू कर दिये, और बिना देर किये उसे अपने ही देश के ख़िलाफ़ साज़िश करने का दोषी ठहराया जाने लगा।

दिल्ली की एक अदालत ने 23 फ़रवरी को रवि को ज़मानत देते हुए कुछ कड़ी टिप्पणियां कीं, जिसमें कहा गया :

“किसी भी लोकतांत्रिक देश के नागरिक सरकार के विवेक पर नज़र रखते हैं। उन्हें केवल इसलिए सलाखों के पीछे नहीं डाला जा सकता, क्योंकि वे राज्य की नीतियों से असहमत हैं... भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में वैश्विक स्तर पर समर्थन की तलाश का अधिकार भी शामिल है…व्हाट्सएप ग्रुप का बनाया जाना या एक नुक़सान नहीं पहुंचाये जाने वाले टूलकिट का संपादन करना कोई अपराध नहीं है... प्रार्थी/अभियुक्त ने सुश्री ग्रेटा थनबर्ग को वह टूलकिट फॉरवर्ड किया था,इस बात के अलावे अभियोजन पक्ष यह बता पाने में नाकाम रहा कि कैसे प्रार्थी/अभियुक्त ने 'अलगाववादी तत्वों' को वैश्विक समर्थन संदर्भ दिया... उन्हें अनुकूल प्रत्याशाओं के आधार पर किसी नागरिक की स्वतंत्रता को और सीमित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।"

रवि की गिरफ़्तारी के आठ महीने बीत जाने के बाद भी इतनी गंभीर प्रकृति वाले इन आरोपों के साथ दिल्ली पुलिस इस मामले में चार्जशीट तक दाखिल नहीं कर पायी है।

दिल्ली दंगों की साजिश के मामले

पिछले साल दिल्ली में दंगे हुए थे।इसमें राष्ट्रीय राजधानी में 54 से ज़्यादा लोगों की जानें चली गयी थीं और बड़े पैमाने पर संपत्ति का नुक़सान हुआ था। पीड़ितों के भीतर ज़िंदगी भर का ख़ौफ़ समा गया था और राजधानी मे सामुदायिक रिश्तों में एक अभूतपूर्व खाई पैदा हो गयी थी।लेकिन, टेलीविज़न चैनल जल्द ही इस सिलसिले में एक एक लम्बी धारावाहित की तरह इसमें पिल पड़े। दिल्ली पुलिस समय-समय पर समाचार चैनलों को संवेदनशील जानकारियां लीक करती थी, और मीडिया खोजी पत्रकारिता के नाम पर अदालतों से पहले अपना फ़ैसला सुना रहा था।

पिछले एक या दो साल में अदालतों को कई बार मीडिया चैनलों पर दंगों के आरोपियों की सूचना और कथित ख़ुलासे वाले ब्योरों के लीक होने के सम्बन्ध में कड़ी टिप्पणी करने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

सख़्त ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत और दंगों में कथित संलिप्तता के सिलसिले में पिछले साल से गिरफ़्तार छात्र कार्यकर्ता उमर ख़ालिद ने एक प्रार्थना-पत्र दिया था। इस प्रार्थना-पत्र पर फ़ैसला सुनाते हुए इस साल जनवरी में दिल्ली पुलिस की ओर से आरोपपत्र की प्रति आरोपी को दिये जाने से बहुत पहले मीडिया को लीक किये जाने पर दिल्ली की एक अदालत ने टिप्पणी की:

“अगर प्रेस और मीडिया अपने कर्तव्य को लेकर सावधानी बरतने में नाकाम रहते हैं, तो पूर्वाग्रह का ख़तरा बना रहता है। ऐसे ही ख़तरों में से एक है- 'मीडिया ट्रायल'। आपराधिक न्यायशास्त्र के मूल सिद्धांतों में से एक है- बेगुनाही की पूर्वधारणा... इसे मीडिया ट्रायल की प्रक्रिया के ज़रिये एकदम मौक़े पर ध्वस्त नहीं किया जाना चाहिए। न्यायालयों की गरिमा को बनाये रखने के लिए ऐसी धारणा को बचाये रखना ज़रूरी है।”

एक दूसरे प्रार्थना पत्र की सुनवाई में दिल्ली की एक अन्य अदालत ने इससे पहले कि अदालत ने उनका संज्ञान लिया और उन आरोप-पत्रों को अभियुक्तों के हवाले किया गया, दिल्ली दंगों मामले में दायर आरोप-पत्रों की सटीक जानकारी वाली मीडिया रिपोर्टों पर अपनी नाराज़गी जताते हुए मार्च में टिप्पणी की:

“इसका संज्ञान लेने से पहले या अभियुक्तों के वकीलों को इसकी प्रतियां दिये जाने से पहले इन आरोप पत्रों की सटीक सामग्री की रिपोर्टिंग को लेकर एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति रही है। चार्जशीट के बारे में आम तौर पर रिपोर्ट करना एक बात है, लेकिन इसे हू-ब-हू प्रस्तुत कर देना बिल्कुल दूसरी बात है और इस तरह, ज़ाहिर है कि लीकेज का सवाल तो उठेगा। यह पूरी तरह से अनुचित और ग़ैर-मुनासिब है और अदालत को उम्मीद है कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा”.

दिल्ली दंगों के एक अन्य आरोपी, छात्र कार्यकर्ता आसिफ़ इक़बाल तन्हा, जिन पर यूएपीए और आईपीसी की सख़्त धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है। चल रही इस आपराधिक जांच के सिलसिले में बेहद संवेदनशील / गोपनीय जानकारियों के विभिन्न समाचार घरानों की ओर से छापे जाने और प्रसारण किये जाने के मामले में भी यही परेशानी है। जहां समाचार घरानों ने तन्हा की ओर से दिये गये कथित ख़ुलासे वाले बयानों के आधार पर कई दावे किये हैं, और इस तरह के ख़ुलासे का एकमात्र मक़सद अभियुक्त के निष्पक्ष मुकदमे के अधिकार की राह में बाधा पैदा करना और गंभीर रूप से पूर्वाग्रह पैदा करना दिखता है।वहीं इस मीडिया ट्रायल के ख़िलाफ़ इस साल की शुरुआत में दिल्ली हाई कोर्ट में तन्हा की ओर से एक याचिका दायर की गयी थी।

दिल्ली हाई कोर्ट ने मार्च में मीडिया में सूचना के लीक होने को लेकर दिल्ली पुलिस की सतर्कता शाखा की आलोचना की थी, और लीक करने वाले स्रोत को चिह्नित करने में इसकी विफलता के सिलसिले में फटकार लगाते हुए कहा था: “यह सतर्कता जांच तो उनकी तरफ़ से छोटी-मोटी चोरी के मामले में की जा रही जांच कार्यों से भी बदतर है।"

अधिकारियों को इस लिहाज़ से सख़्त आदेश दिये जाने की चेतावनी देते हुए हाई कोर्ट ने तन्हा की तरफ़ से सामने रखी गयी शिकायत के जवाब में दिल्ली पुलिस की ओर से अख़्तियार किये जा रहे टालमटोल के रुख पर भी नाराज़गी जतायी; दिल्ली पुलिस का दावा था कि लीक के आरोप "बेबुनियाद" हैं।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एम.फिल.कर रही 31 साल की छात्रा देवांगना कलिता को भी पिछले साल दिल्ली पुलिस ने दंगों के पीछे एक पूर्व नियोजित साज़िश का हिस्सा होने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया था। कलिता पर आख़िरकार आतंकवाद, देशद्रोह, आपराधिक साज़िश, हत्या, डकैती और दंगों के आरोपों के शिकंजे कस दिये गये।

कलिता और 15 अन्य के ख़िलाफ़ दायर 17,000 पेज की चार्जशीट में दिल्ली पुलिस कलिता के ख़िलाफ़ यही मामला बना सकती थी कि वह उत्तर-पूर्वी दिल्ली में एक महिला धरना का हिस्सा थीं, उन्होंने स्पष्ट रूप से महिला प्रदर्शनकारियों को चक्का जाम के लिए उकसाया था, जिससे उत्तर-पूर्वी दिल्ली में दंगे हुए थे, और वह अन्य साज़िश करने वालों के संपर्क में थीं।

इस साल की शुरुआत में कलिता को ज़मानत देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था:

“इस चार्जशीट में निजी और ख़ास आरोप के तौर पर ऐसा कुछ भी नहीं है, जो यूएपीए की धारा 15 में बताये गये मायने के भीतर एक "आतंकवादी अधिनियम" के संभावित कृत्य को दर्शाता हो; या धारा 17 के तहत आतंकवादी कृत्य करने के लिए "धन जुटाने" का कार्य; या धारा 18 यूएपीए के अर्थ के भीतर एक आतंकवादी कृत्य करने की "साज़िश" या कृत्य को अंजाम दिये जाने की किसी 'तैयारी' को दिखाता हो।”

हाई कोर्ट  ने यह भी कहा कि "अभियोजन के आरोप विशिष्ट तथ्यात्मक आरोप नहीं हैं और अनुमानों पर आधारित हैं और इस आरोप-पत्र में जो "ख़तरनाक़ शब्द और अतिशयोक्तिपूर्ण शब्दडंबर" शब्द इस्तेमाल किया गया है,वह अदालत को आश्वस्त नहीं कर पायेगा।

आर्यन ख़ान मामले में हालिया घटनाक्रम हमें इस सवाल पर फिर से वापस ले आते हैं: क्या सरकार की जांच एजेंसियों की ओर से हाई-प्रोफ़ाइल मामलों में साज़िश के कोण लाने का चलन एक नया चलन है ?

सभी आरोपी व्यक्तियों को एक ही तरीक़े से दिखाये जाने का यह दुष्चक्र उन मामलों के पीछे की एक बड़ी कहानी की ओर इशारा कर रहा है। दर्शकों की बड़ी संख्या की तलाश में समानांतर ट्रायल चलाने वाले विवेकहीन ख़बरिया चैनलों को जानकारी लीक कर देने से आरोपी परेशान होते हैं और उन्हें तंग किया जाता है , और अदालतों में उनके ख़िलाफ़ कुछ भी साबित होने से पहले उनकी छवि को ख़राब कर देना हमारे देश में दुर्भाग्य से एक नियमित स्थिति बन गयी है। न्यायोचित, निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ तरीक़े से मामलों की जांच के उलट जांच एजेंसियों को ख़ास तौर पर  रसीले साज़िशों को गढ़ने में दिलचस्पी दिखायी देती है और इससे अनुमानों से लैस मीडिया ट्रायल चलाने वाले मीडिया चैनलों को खुराक मिलती है।

यह ख़तरनाक प्रवृत्ति इतनी व्यापक होने की ओर बढ़ती दिख रही है कि यह अदालत में नहीं चलने वाली एक नयी अभियोजन रणनीति की शुरुआत भी हो सकती है, जो उन सैकड़ों निर्दोष लोगों को अपने जाल में फ़ंसा ले जायेगी, जो अपनी बेगुनाही की दलील देने से भी वंचित रह जायेंगे। इस बात का ख़तरा है कि आपराधिक जांच का नया उद्देश्य ‘अभियोजन नहीं,उत्पीड़न’ न बन जाये।

उम्मीद की जानी चाहिए कि भारतीय मीडिया दिल्ली हाई कोर्ट की उन बातों पर ध्यान देगा, जिन बातों का दिल्ली पुलिस की ओर से मीडिया लीक के सम्बन्ध में कलिता के एक प्रार्थना-पत्र के जवाब में हाई कोर्ट ने अपने फैसले में उल्लेख किया था:

“कुछ चुनी हुई जानकारियों के ख़ुलासे का इस्तेमाल आम लोगों की राय को इस तरह तैयार करने में किया जाता है कि कोई आरोपी कथित अपराध का दोषी है; इस लिहाज़ से सम्बन्धित व्यक्ति की प्रतिष्ठा या विश्वसनीयता को धूमिल करने को लेकर अभियान चलाने वाले इलेक्ट्रॉनिक या अन्य मीडिया का उपयोग करने, और मामलों को सुलझाने और जांच के शुरुआती चरण में दोषियों को पकड़ने का संदिग्ध दावा करने को साफ़ तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसा महज़ इसलिए नहीं कि इस तरह की कार्रवाइयां निष्पक्ष सुनवाई को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकती हैं, बल्कि इसलिए भी कि यह किसी मामले में शामिल व्यक्ति को उसकी गरिमा से वंचित करती है या उसकी टाले जा सकने वाली बदनामी  से उसे प्रभावित कर सकती है।

(तमन्ना पंकज दिल्ली स्थित वकील हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Aryan Khan’s Case the Latest in Dangerous Trend of Unfounded Conspiracy Angles and Blatant Media Trials

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