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असम: नफ़रत की इंतिहा

साम्प्रदायिक सोच वाली भाजपा, बांग्लाभाषी प्रवासी मुसलमानों को 'विदेशी' मानती है जबकि तथ्य यह है कि असम में बंगाली मुसलमानों के बसने का बहुत पुराना इतिहास है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: नवजीवन

असम के सिपहझार में हाल में हुई घटना, हम सब ऐसे लोगों के लिए आंखें खोलने वाली है जो मानवता और बंधुत्व के मूल्यों में आस्था रखते हैं। वहां बीजोय बेपारी नाम का एक फोटोग्राफर, पुलिस की मौजूदगी में एक मरते हुए लड़के के शरीर पर कूदता हुआ देखा जा सकता है। यह लड़का, जिसका नाम शेख फरीद था, पुलिस की गोली से घायल था। यह घटना हमारे समाज को आईना दिखाने वाली है।

असम के ढ़ालपुर इलाके के किराकारा गांव का निवासी यह लड़का उन दो व्यक्तियों में से एक था जो तब मारे गए जब पुलिस ने गोरोखुटी गांव से लोगों को विस्थापित किए जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोली चला दी।

यह गांव असम के दरांग जिले के सिपाझार इलाके में है। सोशल मीडिया पर दरांग में हुए इस विरोध प्रदर्शन का जो वीडियो डाला गया है उसमें मेनाल हक नामक एक व्यक्ति, लाठी लेकर पुलिस वालों की तरफ दौड़ता हुआ नजर आ रहा है।

भाजपा की हिमंत बिस्वा सरमा की राज्य सरकार ने वहां कई दशकों से रह रहे लोगों को हटाने का निर्देश दिया था। बिस्वा ने अपनी सरकार के सत्ता में आने के तुरंत बाद यह घोषणा की थी कि वे इन 'अतिक्रमणकारियों' को निकाल बाहर करेंगे। उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि केवल वे इलाके इस कार्यवाही के लिए क्यों चुने गए हैं जहां मुख्यतः बंगाली मुसलमान रहते हैं। सरकार ने यह तय किया है कि उन इलाकों से बंगाली मुसलमानों को बेदखल कर वहां स्थानीय लोगों को बसाया जाएगा। जिन लोगों को बेदखल किया जा रहा है वे मुख्यतः वे लोग हैं जो नियमित अंतराल से उनके विरूद्ध होने वाली हिंसा और नदियों के किनारे भूमि के क्षरण के कारण अपने मूल रहवास के स्थानों को छोड़कर दूसरे स्थानों पर बसने पर मजबूर हुए।

साम्प्रदायिक सोच वाली भाजपा, बांग्लाभाषी प्रवासी मुसलमानों को 'विदेशी' मानती है जबकि तथ्य यह है कि असम में बंगाली मुसलमानों के बसने का बहुत पुराना इतिहास है। यह सिलसिला तब शुरू हुआ था जब अंग्रेजों ने बंगाल में आबादी के दबाव को कम करने के लिए असम के खाली पड़े विस्तृत भूभाग में लोगों को बसाना शुरू किया था।

यह साफ है कि असम सरकार जो कुछ कर रही है वह मुसलमानों के प्रति उसके पूर्वाग्रह से प्रेरित है। निश्चित रूप से राज्य में ऐसे अन्य इलाके भी होंगे जहां 'स्थानीय रहवासियों' को बसाया जा सके। यही पूर्वाग्रह सीएए के निर्माण की भारी-भरकम और अनावश्यक कवायद के पीछे था। इस कवायद में 19.5 लाख असम निवासी अपनी नागरिकता को साबित करने के लिए दस्तावेज प्रस्तुत नहीं कर सके। यह दिलचस्प है कि उनमें से 12 लाख हिन्दू थे।

नागरिकता के सवाल पर असम में जो अफरातफरी मची हुई है उसमें सभी धर्मों के लोगों की मदद करने के लिए सिटीजन्स फॉर जस्टिस एंड पीस व अन्य मानवाधिकार संगठन लंबे समय से सक्रिय हैं। उनका कहना है कि असम में बांग्लाभाषी अल्पसंख्यक, हिंसा, पूर्वाग्रहों और नफरत के सबसे अधिक शिकार हैं क्योंकि उनमें से अनेक को यह सरकार विदेशी और बांग्लादेशी मानती है।

सिपहझार से बेदखल परिवारों का दावा है कि उन्हें केवल 12 घंटे का नोटिस दिया गया था। उन्हें रात में यह बताया गया कि उन्हें उनका गांव छोड़ना होगा। और अगले दिन सुबह से ही उनके घरों को ढहाने और जो थोड़ा बहुत सामान उनके घरों में था उसे जलाने का सिलसिला शुरू कर दिया गया। शुरूआत में इसका कोई विरोध नहीं हुआ परंतु बाद में कुछ लोग इसके खिलाफ खड़े हुए। सरकार प्रदर्शनों और विरोध के लिए पीएफआई नामक संगठन को दोषी ठहरा रही है। उसका कहना है कि इस संगठन ने उन लोगों को भड़काया जिनके घर गिराए गए। सवाल यह है कि अगर लोगों को भड़काया भी गया था तब भी क्या वहां मौजूद भारी-भरकम पुलिस बल, लाठी लिए हुए एक आदमी को भी संभालने में सक्षम नहीं था। क्या भीड़ पर गोली चलाना जरूरी था? और वह भी कमर के ऊपर जो कि तभी किया जाता है जब स्थिति बेकाबू हो गई हो। भीड़ में लाठी लिए हुए एक आदमी के आक्रामक तेवर दिखाने मात्र से क्या पुलिस को यह हक मिल जाता है कि वह लोगों पर गोलियां चलाए और वह भी उन्हें जान से मारने के लिए।

और उस बारह साल के लड़के का क्या जो पोस्ट ऑफिस से अपना आधार कार्ड लेकर लौट रहा था? क्या उसे भी 'नियंत्रित' करने के लिए गोली मारना आवश्यक था? यह संपूर्ण घटनाक्रम दिल दहलाने वाला है। पुलिस को लोगों के प्रति मैत्रीपूर्ण व्यवहार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। उसका काम अपराधों पर नियंत्रण करना है निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाना नहीं। ऐसा लग रहा है कि पुलिस प्रदर्शनकारियों को शत्रु मान रही थी जिनके साथ क्रूरतम व्यवहार भी जायज था। पुलिस बल के व्यवहार और मानसिकता में सुधार लाने के उपाय सुझाने के लिए कई आयोग नियुक्त किए जा चुके हैं परंतु लगता है कि पुलिसकर्मियों में लेशमात्र भी मानवता नहीं बची है और वे समाज के गरीब और हाशियाकृत लोगों के साथ नितांत क्रूर व्यवहार करने के आदी हैं।

सरकार जनता की संरक्षक होती है। इस इलाके में जो लोग रह रहे थे वे प्राकृतिक विपदाओं के शिकार थे और छोटे-मोटे काम करके किसी तरह अपना जीवनयापन कर रहे थे। ब्रम्हपुत्र नदी के बार-बार अपना रास्ता बदलने के कारण ये लोग अपने घरबार छोड़कर अन्य स्थानों पर शरण लेने के लिए मजबूर हैं। ऐसा नहीं है कि पहले की सरकारें इन लोगों के प्रति अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण और मानवीय दृष्टिकोण रखती थीं। परंतु साम्प्रदायिक राष्ट्रवादियों के सत्ता में आने के बाद से इन गरीब और असहाय लोगों के साथ अत्यंत क्रूर और भयावह व्यवहार किया जा रहा है।

जो फोटोग्राफर 12 साल के मरते हुए बच्चे के शरीर पर कूद रहा हो उसके बारे में क्या कहा जा सकता है? कोई भी मनुष्य भला कैसे किसी दूसरे मनुष्य के साथ ऐसा व्यवहार करने के बारे में सोच भी सकता है? दरअसल यह सब उस नफरत का नतीजा है जो कॉर्पोरेट मीडिया, सोशल मीडिया और कुख्यात आईटी सेलों द्वारा लोगों के दिलो-दिमाग में भरी जा रही है। इन सेलों को फेक न्यूज और छेड़छाड़ किए गए चित्रों और वीडियो के जरिए झूठ फैलाने और मुसलमानों व अन्य अल्पसंख्यकों को दानव के रूप में प्रस्तुत करने में महारत हासिल है।

पिछले कुछ वर्षों से हमारे समाज में नफरत का भाव गहरा होता जा रहा है। केन्द्र और असम की सत्तारूढ़ पार्टी बंगाली मुसलमानों को विदेशी मानती है। वह मानती है कि वे लोग हमारे देश के संसाधनों पर जी रहे हैं और इसलिए उनके साथ वही व्यवहार किया जाना जायज है जो उन लोगों के साथ किया गया जो लव जिहाद और गौमांस के बहाने लिंचिंग के शिकार हुए। यह सब हमारे देश की बहुवाद और विविधता पर आधारित गौरवशाली परंपरा पर बदनुमा दाग है।

(लेखक प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद अमरीश हरदेनिया ने किया है।)

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