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आज़ादी@75: निजीकरण से आम आदमी का भला नहीं हो सकता

आज़ादी से लेकर अब तक देश में जिस तरह निजीकरण को अपनाया गया है, उस पूरे सफ़र पर न्यूज़क्लिक ने फ्रंटलाइन के पूर्व संपादक और देश के जाने-माने आर्थिक पत्रकार वी.श्रीधर से बात की। यहां पेश है बातचीत का मुख्य अंशः
Privatisation

ब्रिटिश राज के समाप्त होने के बाद भारतीयों की सरकार बनने का मतलब ही था कि जितनी भी आर्थिक गतिविधियां होंगी उनके केंद्र में आम जन जीवन का कल्याण होगा। देश की शासन व्यवस्था देश के लोगों के लिए होगी। यही हुआ भी। आज़ादी के बाद देश को चलाने वाले लोगों ने आर्थिक विकास के लिए समाजवादी नीतियां अपनाई। बीते75 साल में बदलाव हुआ है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। लेकिन ईमनादार निगाह से देखा जाए तो भयावह ग़रीबी, बेरोज़गारी, गरिमापूर्ण जीवन से बदहाल ज़िंदगी खुलेआम दिख जाएगी। समाजवादी नीतियों की ज़रूरत दिख जायेगी।

मगर सरकार की आर्थिक नीतियों की अवधारणा अब पूरी तरह से बदल गयी है। वह पूंजीवादी क़िस्म की हो गयी है। इन्हीं सब मुद्दों पर आज़ादी से लेकर अब तक देश में जिस तरह निजीकरण को अपनाया गया है, उस पूरे सफर पर मैंने न्यूज़क्लिक की तरफ से फ्रंटलाइन के पूर्व संपादक और देश के जाने-माने आर्थिक पत्रकार वी.श्रीधर से बात की। उसी इंटरव्यू का यहां पर अंश पेश किया जा रहा है।

बातचीत में श्रीधर बताते हैं कि आज़ादी की लड़ाई में केवल वह नेता ही शामिल नहीं थे जिनके बारे में हम ज़्यादातर किताबों में पढ़ते हैं। आज़ादी की लड़ाई में नेताओं के साथ उद्योगपति, किसान और मज़दूर सब शामिल थें। नेता तो समाजवादी रुझान के थे ही साथ में किसानों और मज़दूरों की भागीदारी भी ऐसी थी कि देश केवल चंद पूंजीपतियों के हाथों में क़ैद होकर नहीं रह सकता था। उसे आज़ादी की लड़ाई में आगे ले जाने वाले चाहते थे कि देश के आर्थिक विकास के लिए समाजवादी नीतियां अपनाई जाएं।

देश की आज़ादी से पहले बॉम्बे प्लान बना था। जिसमें टाटा और बिरला जैसे बड़े उद्योगपति भी शामिल थें। इन सबका मानना था कि बिना रेगुलेशन और लाइसेंस के कारोबार नहीं किया जा सकता है। इसकी बड़ी वजह यह थी कि उस समय लोगों के बीच मांग बहुत कम थी। लोगों की जेब में पैसा बहुत कम था। अगर कार बनने वाले दस कारखाने बनते तो ऐसा मुमकिन था कि कोई भी मुनाफ़ा न कमा पाए। कोई भी आगे न बढ़ पाए। ऐसे नियम क़ानून बने जो सबके लिए सभी तरह के काम करने पर प्रतिबंध लगाते थे। इसलिए लाइसेंस सिस्टम आया था। अब उसी वाजिब सिस्टम का मौजूदा सरकार से लेकर उद्योगपति सभी मज़ाक उड़ाते हैं। कहते हैं कि अच्छा हुआ कि लाइसेंस राज चला गया। जबकि थोड़ा भी ईमानदारी से सोचते तो उन्हें पता चलता कि इसकी जरूरत क्यों थी?

सड़क, बंदरगाह, रेलवे जैसी बुनियादी ढांचे का विकास करना न पहले और न ही अब सबके लिए मुमकिन है। यह काम सरकार का ही है। इसे कारोबार नहीं कहना चाहिए। यह जनकल्याण के सबसे ज़रूरी काम थे। भारत जैसे ग़रीब देश में इन्हें कारोबार कहकर सरकार भाग नहीं सकती। इसलिए आजकल जो चलन पैदा हो गया है कि सरकार का काम कारोबार करना नहीं है। यह जायज़ बात नहीं है। भारत जैसे ग़रीब मुल्क में सबके लिए सस्ता परिवहन, सस्ती शिक्षा, सस्ता इलाज, सस्ता घर उपलब्ध करवाना कारोबार नहीं बल्कि यही सरकार का काम है।

अब निजीकरण को ही देख लीजिये। हमें अचानक दिखता है कि किसी सरकारी कंपनी को निजीकरण किया जा रहा है। लेकिन उसे निजीकरण करने की प्रक्रिया बहुत लंबे समय से चल रही होती है। भले कोई सरकार रही हो लेकिन साल 1980 के बाद की आर्थिक नीतियां पूरी तरह से निजीकरण वाली रही हैं। एक उदाहरण से इसे समझिये। भारत की घरेलू विमान सेवा इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया थी। इन दोनों को आपस में मिलाकर एयर इंडिया बनी। एक ही साथ क़र्ज़ पर 111 विमान ख़रीद लिए गए। जबकि इतने विमान की ज़रूरत नहीं थी। इतनी मांग नहीं थी। विदेशी विमान को भारत के एयर रूट पर खुली छूट दी गयी। जबकि भारतीय विमानों को विदेशों में खुली छूट नहीं दी जाती है। उन रास्तों में जहां पर एयर इंडिया की कमाई होती थी, उन्हें भी विदेशी सेवा को दे दिया गया। कमाई का रास्ता रोक दिया गया। किस तरह का रेगुलेशन नहीं किया गया। इसका मतलब क्या था? इसका मतलब यह था कि एयर इंडिया की मालिक यानी सरकार ने ही एयर इंडिया को बर्बाद कर दिया। इन सबका परिणाम यह हुआ कि टाटा ने एयर इंडिया को तक़रीबन 18 हज़ार करोड़ रुपये में ख़रीदा। इसमें से सरकार को केवल 2 हज़ार करोड़ रूपये मिले। बाक़ी एयर इंडिया का 16 हज़ार करोड़ रूपये क़र्ज़ अपने पर ले लिया।

इस तरह के तमाम उदाहरण हैं जो यह बताते हैं कि भारत में निजीकरण किस तरह से किया गया है। संचार सेवाओं को देखिये। साल 1990 तक पोस्टल एंड टेलीग्राफ़ डिपार्टमेंट के अंदर टेलीकॉम नेटवर्क बड़े धूमधाम से चली। टेलीफ़ोन सेवाएं तार से जुड़ी हुई थीं। लेकिन जैसे ही मोबाइल सेवाएं आईं तो बीएसएनएल और एमटीएनएल को ज़बरदस्ती बाहर रखा गया। 2G स्पेक्ट्रम एलोकेशन के समय बीएसएनएल को सरकार की तरफ़ से ज़बरदस्ती पीछे रखा गया। फिर भी बीएसएनएल ने सबसे शानदार काम किया क्योंकि उसके पास पहले से ग्राहक थे। इसे अपनी नेटवर्क कैपेसिटी बढ़ानी थी। मगर बीएसएनएल की तरफ से नेटवर्क बढ़ाने के लिए जो भी आवेदन किया गया उसका सरकार की तरफ़ से जल्दी से निपटारा नहीं किया गया। धीरे- धीरे बीएसएनएल के ग्राहक कम होते चले गए। कॉल ड्राप होने लगा। बीएसएनएल पिछड़ने लगा। उसके बाद धीरे -धीरे इसे भी बर्बादी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया गया। यही हाल बीएचईएल, जीएआईएल, पावर जेनेरेशन जैसे क्षेत्रों में भी दिखेगा। एयरपोर्ट, बंदरगाह, खनन, संचार हर जगह पर यही हुआ है। सरकार ने अपना पल्ला झाड़ लिया है और सरकार से गलबहियां करने वाले कुछ पूंजीपतियों ने इस पर क़ब्ज़ा कर लिया है।

टेलीकॉम और पावर सेक्टर की तरह ही सरकार ने रेलवे का पूरा नेटवर्क बनाया है। मगर जब अब इसे ढंग से संचालित करने की बारी आयी है तो सरकार इसके हिस्से को प्राइवेट सेक्टर को दे रही है। रेलवे में ही केटरिंग प्राइवेट सेक्टर को दे दिया गया है। प्लेटफ़ॉर्म प्राइवेट सेक्टर को दिए जा रहे हैं। कई जगहों पर प्राइवेट ट्रेनें चलाई जा रही है। कई जगह से ऐसी ख़बर आती है कि प्राइवेट ट्रेनों का रूट क्लियर रखने के लिए कई घंटों तक उस पर दूसरी ट्रेनों की आवाजाही नहीं होती है।

अभी तक भारत सरकार की किसी तरह की इंडस्ट्रियल पॉलिसी नहीं है। जिन सरकारों को अपने लिए जिस तरीक़े से मुनाफ़ा दिखता है, वह वैसा काम करती हैं। इंडस्ट्रियल पॉलिसी न होने का मतलब है कि सरकार नहीं चाहती कि वह औद्योगिक विकास के लिए किसी तरह की पॉलिसी बनाए। अगर पॉलिसी बनेगी तो पता चलेगा कि सरकार किस तरह से रेगुलेशन की नीति बना रही है? अकूत मुनाफ़े और श्रमिकों के कल्याण के लिए क्या चाहती है? मगर इन सबकी कमी है। ऐसे में देश में ज़ोरदार तरीक़े से किया जा रहा निजीकरण उसे जनकल्याण से बहुत दूर ले जा रहा है। एक ऐसे रास्ते पर ले जा रहा है, जिस पर चलकर आम आदमी का भला नहीं हो सकता है।

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