बीएचयूः कड़े संघर्ष के बाद दलित शिक्षिका डॉ. नार्लीकर देश के किसी पत्रकारिता विभाग की पहली अध्यक्ष बनीं
शिक्षकों और छात्रों के साथ डॉ. शोभना नार्लीकर
उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पहली मर्तबा एक दलित महिला डॉ. शोभना नार्लीकर को पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। लंबे संघर्ष और आंदोलन के बाद डॉ. शोभना ने यह मुक़ाम हासिल किया है। बीएचयू के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में इन्हें अध्यक्ष बनाए जाने की अधिसूचना संयुक्त कुल सचिव डॉ. नंदलाल ने जारी की है। उन्हें इस पद पर पहुंचने से रोकने के लिए लगातार साज़िशें रची गईं और दलित होने के कारण इनका जमकर उत्पीड़न भी किया गया। इसके बावजूद डॉ. शोभना नार्लीकर न डरीं और न ही हारीं। अपने उत्पीड़न के ख़िलाफ़ उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी। हालांकि इनका संघर्ष अभी अधूरा है। पत्रकारिता शिक्षण के क्षेत्र में आने से पहले डॉ. शोभना क़रीब पांच वर्ष तक लोकमत समाचार और आईबीएन में बतौर पत्रकार काम कर चुकी हैं।
बीएचयू की शिक्षिका डॉ. शोभना नार्लीकर देश की पहली दलित महिला हैं जिन्होंने किसी विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में अध्यक्ष पद की कुर्सी संभाली है। शिक्षण के दौरान इनका सफ़र हमेशा मुश्किलों से भरा रहा। इसका अंदाज़ा केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि आज़ादी के 74 साल बीतने के बाद वह बीएचयू के प्रतिष्ठापरक पत्रकारिता एवं जनसंपर्क विभाग की अध्यक्ष बनी है। इनका सफ़र हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा। इस मुक़ाम को हासिल करने के लिए डॉ. नार्लीकर ने विश्वविद्यालय में चल रही धांधली के ख़िलाफ़ न सिर्फ़ धरना दिया, बल्कि मनुवादी सोच रखने वालों को बुरी तरह झकझोरा और उनसे मुक़ाबला किया। वह कहती हैं, "साल 2017 से मेरा प्रमोशन रोका गया है। प्रोफ़ेसर बनाने के लिए जब भी इंटरव्यू रखा जाता है तो ऐन वक्त पर कैंसिल कर दिया जाता है। सभी मानकों को पूरा करने के बावजूद हमें आज तक प्रोफ़ैसर नहीं बनाया गया। पत्रकारिता एवं जनसंपर्क विभाग का अध्यक्ष भी तब बनाया गया जब उनके सामने दांव-पेंच खेलने का कोई रास्ता बचा ही नहीं था। हमारी जीत से यह साबित हुआ है कि सत्य परेशान हो सकता है, पर पराजित नहीं हो सकता।"
डॉ. शोभना नार्लीकर
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संयुक्त कुल सचिव डॉ. नंदलाल ने 27 दिसंबर को जो अधिसूचना जारी की है उसके मुताबिक़, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.एसके जैन ने डॉ. शोभना राजेश नार्लीकर को एक जनवरी 2023 से अगले तीन साल के लिए पत्रकारिता और जनसंचार विभाग, कला संकाय के विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया है। डॉ. शोभना कहती हैं, "मैं किसान की बेटी हूं। जब से मैंने पढ़ाई में क़दम रखा है तभी से संघर्ष कर रही हूं। ख़ुद को खड़ा करने के लिए मैंने बहुत लंबा संघर्ष किया है। हमें घर के बाहर और घर के अंदर भी संघर्ष करना पड़ा है। दलित जाति के होने की वजह से मुझे बार-बार प्रताड़ित किया गया। जब मेरे साथ कोई नहीं था, तब अकेली लड़ती रही। मेरे संघर्षों के चलते हमें परेशान किया गया। हमारा विरोध सिर्फ़ मनुवादी कर रहे थे। ग़ैर मनुवादी ब्राह्मण-ठाकुर तो पहले भी हमारे साथ थे और आज भी हमारे साथ हैं। इस तबक़े के लोगों ने हर आंदोलन में हमारा समर्थन और सहयोग दिया है। बहुत से लोग हमें बेटी-बहन मानते हैं। इनकी समस्या यह थी कि उन्हें दांव—पेंच खेलने का कई रास्ता ही नहीं बचा था। हमारे विभागाध्यक्ष बनने से पहले जो लोग यहां तैनात थे वो पत्रकारिता विभाग को ख़त्म करके यहां ड्रामा विभाग खोलने में जुटे थे। वो पिछले दो दशक से यहां पत्रकारों को नहीं आने दे रहे थे। मालवीय जी की पत्रकारिता को बचाने के लिए हमें संघर्ष के रास्ते पर उतरना पड़ा।"
मराठी मूल की डॉ. शोभना राजेश नार्लीकर के पति न्यायिक सेवा से जुड़े रहे हैं। इनका समूचा परिवार कबीर और संत रविदास का अनुयायी रहा है। डॉ. शोभना की जाति महार है। डॉ. भीमराव अंबेडकर भी इसी जाति से आते थे। बड़े किसान की बेटी होने के कारण इन्हें पढ़ने का मौका मिला। वह कहती हैं, "हमने बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के उसूलों को अपने जीवन में उतारा है। वह कहा करते थे कि आप पढ़िए और संघर्ष कीजिए। हमारा विरोध मनुवादी सोच के लोग करते रहे हैं।"
एक दशक पुराना शोभना का संघर्ष
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पत्रकारिता व जनसंचार विभाग की प्रोफ़ेसर डॉ. शोभना राजेश नार्लीकर इंसाफ़ के लिए साल 2013 से ही मनुवादी सोच वाले लोगों का विरोध कर रही थीं। न्याय के लिए वह सात बार धरना दे चुकी हैं। हर बात को साफ़गोई से कहने वाली इस शिक्षक को मनुवादियों ने "लड़ाकू महिला" का ख़िताब दे दिया था, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं वो एक समझदार और ईमानदार महिला हैं। इनका दिल ग़रीबों और शोषितों के उत्थान के लिए धड़कता है। वह कहती हैं, "मेरा नेता ग़रीब आदमी है, गांव का आदमी है। गांव में ही मेरी आत्मा बसती है। भूखे नंगे लोगों की आहें, कराहें हमें सोने नहीं देती। जिस दिन यह तबक़ा समाज की मुख्य धारा में शामिल हो जाएगा, समझूंगी कि मेरा संघर्ष पूरा हो गया।"
अकेले धरना दे रहीं डॉ.शोभना नार्लीकर
दलित शिक्षिका डॉ. शोभना अपने साथ हो रहे भेदभाव और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ अकेले दम पर लड़ाई लड़ रही हैं। बीएचयू में जातीय भेदभाव का मुद्दा तब गरमाया जब फरवरी 2021 में डॉ. शोभना सेंट्रल ऑफ़िस के सामने धरने पर बैठ गईं। उनका आरोप था कि साल 2013 में लिए गए उनके मातृत्व अवकाश की आड़ में बीएचयू में मनुवादी प्रवृत्ति के कर्मचारियों ने उनकी सर्विस पुस्तिका में पूरी तरह हेरफेर कर डाली। वरिष्ठता को कनिष्टता में बताने के लिए उनकी हाज़िरी तक घटा दी गई। मनुवादी सोच वाले लोगों को इस बात का ख़ौफ़ था कि पदोन्नति होने पर वह विभागाध्यक्ष के पद की दावेदार हो जाएंगी। दलित शिक्षिका का प्रोफ़ेसर और पत्रकारिता विभाग का अध्यक्ष बनना कुछ लोगों के दिलों में सूल की तरह चुभ रहा था। मनुवादी सोच वाले शिक्षकों और कर्मचारियों की गहरी साज़िशों का नतीजा यह रहा कि विश्वविद्यालय प्रशासन कोई न कोई आपत्ति लगाकर उनकी वरिष्ठता को प्रभावित करता रहा।
डॉ. शोभना नार्लीकर आज भी कहती हैं कि दलित होने के नाते बीएचयू में उनका मानसिक शोषण किया जाता रहा है। मौजूदा कुलपति प्रो. एसके जैन ने उनकी योग्यता और उनके हालात को सही मायने में समझा और पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग का अध्यक्ष बनाया। प्रो. शोभना के मुताबिक़, "बीएचयू में मनुवादी प्रवृत्ति के प्रशासनिक अफ़सर साल 2013 से हमारा मानसिक उत्पीड़न सिर्फ़ इस वजह से कर रहे थे क्योंकि हम उसी समुदाय से आते हैं, जिस जाति के डॉ. भीम राव अंबेडकर हैं। रेगुलर काम करने के बावजूद लीव विदाउट पे दिखाकर हमारी सीनियारिटी को प्रभावित किया गया। इस बाबत हमने विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार से लेकर कई अफ़सरों को अपना दुखड़ा सुनाया। अपनी फरियाद दर्ज कराई, लेकिन हमारी शिकायतों को किसी ने सुना ही नहीं। ग़ैरक़ानूनी ढंग से लगातार हमारी वरिष्ठता को प्रभावित किया जाता रहा। मनुवादी ताक़तों से लड़ने के लिए हमने आंदोलन का सहारा लिया। एक मार्च 2021 को पहले केंद्रीय कार्यालय में और उसके बाद उसके सामने धरने पर बैठी रही। इसके बावजूद हमारी वरिष्ठता की पेंचीदगियों का समाधान नहीं किया गया। दो मार्च को हमने दोबारा केंद्रीय कार्यालय के सामने धरना शुरू किया। तब कई स्टूडेंट्स और शिक्षक भी हमें न्याय दिलाने के लिए हमारे साथ आए।"
डॉ. शोभना नेर्लीकर कहती हैं, "बीएचयू के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में हमने 19 अगस्त 2002 को असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यभार संभाला था। उस समय भी हमारे पास पत्रकारिता में पीएचडी की उपाधि थी। बीएचयू में जिस रोज़ हमने कार्यभार संभाला, उसके दो दिन बाद ब्राह्मण समुदाय के डॉ. अनुराग दवे ने पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर ज्वाइन किया। उनके पास पीएचडी की उपाधि तक नहीं थी। इसी दौरान ब्राह्मण समुदाय के शिशिर बासु ने भी यहां प्रोफेसर पद पर कार्यभार संभाला। विभागाध्यक्ष प्रो. बलदेव राज गुप्ता के रिटायर होने के बाद साल 2003 में वह विभागाध्यक्ष बने। प्रो.शिशिर ने तभी से हमारा मानसिक उत्पीड़न शुरू कर दिया।"
मनमानी का चला लंबा दौर
डॉ. शोभना कहती हैं, "शिशिर बासु 2003-2009 तक लगातार दो बार विभागाध्यक्ष रहे, लेकिन उन्होंने शोध कराने के लिए हमें एक भी शोधार्थी आवंटित नहीं की। सवर्ण शिक्षकों की जातीय गोलबंदी के चलते अनुराग दवे पीएचडी कराने लगे। साल 2009 में मैं मातृत्व अवकाश पर चली गई। एसोसिएट प्रोफ़ेसर की योग्यता रखने के बावजूद जातीय भेदभाव के चलते हमें न प्रोन्नति नहीं दी गई और न ही कोई शोधार्थी आवंटित किया गया। प्रो. बासु का कार्यकाल समाप्त होने पर पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में सबसे वरिष्ठ शिक्षक होने के बावजूद हमें विभागाध्यक्ष नहीं बनाया गया। साल 2009 से 2011 तक पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष का प्रभार हमें सौंपने के बजाय संकाय के अध्यक्ष ने अपने पास रखा।"
"साल 2011 से 2013 तक के लिए फिर प्रो. शिशिर बासु को विभागाध्यक्ष बना दिया गया। जब उन्हें दोबारा यह कुर्सी मिली तो उन्होंने हमें शोधार्थी आवंटित करने बंद कर दिए। साथ ही जातीय आधार पर भेदभाव और मानसिक प्रताड़ना दी जाने लगी। इस दौरान डॉ. अनुराग दवे को पीएचडी की उपाधि मिल गई। साल 2013 से 2017 तक फिर विभागाध्यक्ष का प्रभार संकायाध्यक्ष के पास चला गया। इस दौरान डॉ. अनुराग दवे को एसोसिएट प्रोफ़ेसर बना दिया गया, लेकिन उनकी प्रोन्नति एसोसिएट प्रोफ़ेसर के पद पर नहीं की गई।"
प्रो.शोभना नेरलीकर कहती हैं, "साल 2013 में लिए गए उनके मातृत्व अवकाश की आड़ में बीएचयू प्रशासन ने हमारी सर्विस में हेरफेर कर हमारी वरिष्ठता को घटा दिया। मैं जब भी प्रोन्नति के लिए दावेदारी करती तो विश्वविद्यालय प्रशासन कोई न कोई नई अड़चन खड़ा कर देता था। एन-केन-प्रकारेण फ़र्ज़ी आरोप और आपत्तियां लगाकर हमारी वरिष्ठता को प्रभावित किया जाता रहा, ताकि हम कभी विभागाध्यक्ष अथवा प्रोफ़ेसर ही न बन सकें। हालांकि जांच कमेटी के सामने हमने दृढ़ता के साथ अपना पक्ष रखा। इसके बाद कुलसचिव दफ़्तर की ओर से 04-5 सिंतबर 2017 को जारी पत्र संख्या-AB/5-L-721/24811 और 27 अप्रैल 2019 को जारी पत्र संख्या-एबी/5-एल-721(एल)/5009 के ज़रिए हमें बताया गया कि हमारे ऊपर लगाए गए सभी इलिगेशन झूठे हैं। इसके बावजूद वो एक नई आपत्ति लगाकर हमारे वरिष्ठता क्रम को प्रभावित किए हुए थे।"
"बीएचयू प्रशासन ने हमारे वरिष्ठता क्रम को दरकिनार करते हुए साल 2017 में हमसे दो दिन जूनियर ब्राह्मण समुदाय के डॉ. अनुराग दवे को पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग का विभागाध्यक्ष बना दिया। साथ ही उन्हें प्रोफेसर पद पर प्रोन्नति भी दे दी गई। सभी शिक्षकों से ज़्यादा शिक्षित और सीनियर होने के बावजूद हमारी प्रोन्नति को लटकाया गया और विभागाध्यक्ष बनने से रोका जाता रहा। अनुराग दवे का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद वही विभागाध्यक्ष पद के दावेदार थे, लेकिन सिर्फ़ दलित होने की वजह से हमें विभागाध्यक्ष नहीं बनाया गया। अलबत्ता विभागाध्यक्ष का प्रभार एक बार फिर संकायाध्यक्ष को दे दिया गया। बीएचयू प्रशासन के अनुभाग अधिकारी को बार-बार आपत्तियों का जवाब और सबूत देने के बाद भी मेरे अवकाश और सेवा अवधि के विवाद को नहीं सुलझाया गया।"
शोभना नेर्लीकर कहती हैं, "पत्रकारिता विभाग में जब मैं क्लासेस लेती थी तो विभाग के अन्य प्रोफ़ेसर हमें अधिक क्लासेस लेने से रोकते थे। बार-बार हमें एहसास कराने की कोशिश करते थे कि हम दलित हैं। हमारे साथ लगातार भेदभाव चलता रहा। विश्वविद्यालय के सेंट्रल ऑफ़िस के सामने धरना शुरू किया तो तब मनुवादी सोच वाले अफ़सरों के होश फ़ाख़्ता हुए। हमें लगता है कि हमारे ख़िलाफ़ आगे भी साज़िशें जारी रह सकती हैं, क्योंकि मनुवादी सोच वाले लोगों का एक बड़ा गिरोह बीएचयू में सिर उठा रहा है।"
माहौल को बदलने के लिए डॉ. शोभना ने कुल सात मर्तबा धरना दिया और न जाने कितनी दफ़ा जनसरोकार के लिए होने वाले आंदोलनों में शरीक हुईं। अपने लिए तो सिर्फ़ धरना दिया, जिसे हर तबक़े के प्रगतिशील लोगों ने समर्थन दिया। पिछले साल अपने हक़ के लिए धरने पर बैठी तो उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन के सामने सात मांगें रखी, जिसमें पहली मांग थी कि उनके सर्विस रिकॉर्ड में 31-1-2013 से 12-2-2013 तक के लीव-विदाउट-पे को रेगुलर सर्विस के रूप में जोड़ा जाए, क्योंकि वह इस दौरान विभाग में उपस्थित रही हैं और अपनी सेवा दी हैं। दूसरी मांग यह थी कि पत्रकारिता एवं जन संप्रेषण विभाग में कार्यरत डॉ. अनुराग दवे की ग़ैर-क़ानूनी प्रोन्नति की जांच उच्च न्यायालय के कार्यरत न्यायमूर्तियों की निगरानी में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से कराई जाए, क्योंकि इसमें कुल-सचिव डॉ. नीरज त्रिपाठी समेत कई प्रशासनिक अधिकारी, शिक्षक और कर्मचारी शामिल हैं।
तीसरी मांग यह थी कि अनुराग दवे के प्रोमोशन को तुरंत निरस्त किया जाए। हमारी चौथी मांग यह थी कि इस मामले की जांच होने तक प्रो. शिशिर बासु और डॉ. अनुराग दवे को विभाग के किसी भी प्रशासनिक कमेटी में न रखा जाए। पांचवीं मांग थी बीएचयू प्रशासन की आंतरिक जांच कमेटी में एससी, एसटी, ओबीसी और महिला प्रतिनिधि को शामिल किया जाए। छठी मांग के तौर पर हमने कहा था कि विभाग की वरिष्ठ फ़ैकल्टी होने की वजह से सभी विभागीय कमेटियों में हमें शामिल किया जाए। उनकी अंतिम और सातवीं मांग यह थी कि उनके कोटे में रिक्त पदों पर शोधार्थियों को आवंटित किया जाए।
सुर्खियों में रहा पत्रकारिता विभाग
दलित महिला शिक्षिका डॉ. शोभना के उत्पीड़न के चलते बीएचयू का पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग कई मर्तबा सुर्खियों में रहा। बीएचयू के कला संकाय के डीन, पत्रकारिता विभाग के प्रभारी और हिंदी के वरिष्ठ अध्यापक डॉ. कुमार पंकज ने डॉ. शोभना के साथ बदसलूकी की तो उन्होंने लंका थाने में उनके ख़िलाफ़ आईपीसी की धारा 504, 506 और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (नृशंसता निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(डी) के तहत रिपोर्ट दर्ज करा दी। डॉ. नर्लिकर का आरोप था कि डॉ. कुमार पंकज ने उनके साथ अपशब्दों का इस्तेमाल किया, जातिसूचक गालियां दी और जान से मारने की धमकी भी दी।
डॉ. नर्लिकर कहती हैं कि कला संकाय के डीन कुमार पंकज ने मेरे साथ कई मर्तबा अभद्रता की। हमने अपने साथ हुई ज़्यादती की शिकायत चीफ़ प्रॉक्टर से लिखित तौर पर की, लेकिन उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की। उसके बाद मैं लंका थाना गईं जहां हमारी रिपोर्ट दर्ज करने से पुलिस ने मना कर दिया। बीएचयू प्रशासन ने पुलिस पर दबाव डाला और हमारी रपट दर्ज करने से रोक दिया। तीन दिन तक भटकने के बाद किसी तरह डॉ. शोभना ने वाराणसी के एसएसपी को फ़ोन पर अपनी व्यथा सुनाई, जिसके बाद हमारी रिपोर्ट थाने में दर्ज हुई।
रिपोर्ट के मुताबिक़, छह जुलाई को डॉ. शोभना को कला संकाय प्रमुख ने दोपहर दो बजे अपने कक्ष में बुलाया और उनसे कहा कि विगत 14 वर्षों से विभाग का माहौल तुमने गंदा कर रखा है। डॉ. शोभना ने जब "हाथ जोड़कर" उनसे कहा कि उनके मुंह से ऐसे शब्द ठीक नहीं लगते, तो डॉ. कुमार पंकज ने जातिसूचक शब्द का प्रयोग करते हुए भद्दी-भद्दी गालियां दी और कहा कि औक़ात में रहो, नहीं तो जान से मरवा दूंगा। रिपोर्ट में तीन शिक्षको डॉ. ज्ञान प्रकाश मिश्र, स्वर्ण सुमन और अमिता के नाम दर्ज थे जो घटना के चश्मदीद गवाह थे। उस समय तीनों ने संकाय प्रमुख के इस व्यवहार पर आपत्ति जताई थी। डॉ. शोभना ने पुलिस से सुरक्षा की मांग करते हुए कहा था कि हमें डर है कि हमारे साथ कोई हादसा न हो जाए।
"न्यूज़क्लिक" से बातचीत में डॉ. शोभना आज भी साफ़-साफ़ कहती हैं, "दलित होने के नाते हमारे साथ बहुत लंबे समय से दुर्व्यवहार होता रहा है। 23 मई से लगातार डॉ. कुमार पंकज हमारी हाज़िरी नहीं लगा रहे थे और रिकॉर्ड में अनुपस्थित दर्शा रहे थे। छह जुलाई को अपने कक्ष में बुलाकर उन्होंने पहले हमारी अनुपस्थिति की बात उठाई, जबकि 23 मई को ख़ुद पंकज ने ही उनकी परीक्षा ड्यूटी लगाई थी, जबकि उस दिन हमने दिन भर ड्यूटी की थी। परीक्षा के समय भी मौजूद थी। हमने अपनी ड्यूटी के साक्ष्य जैसे ही कुमार पंकज को दिखाए, वो भड़क गए और जाति संबोधक गंदी-गंदी गालियां देते रहे। मेरी उपस्थिति का साक्ष्य देखकर वो चिढ़ गए। बोले, "तुम्हें तो मार ही डालूंगा, ज़िंदा नहीं रहने दूंगा।"
वह बताती हैं, "दलित होने के कारण हमारा प्रमोशन रोक दिया गया, अन्यथा कई साल पहले मैं पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की अध्यक्ष और साल 2011 में ही मैं रीडर बन गई होती। साल 2014 में हमारा प्रमोशन लंबित था, जिसे रोक दिया गया। जातीय आधार पर हमारा उत्पीड़न किया जाता रहा।"
छेड़खानी केस से प्रो. बसु बरी
गवाहों के पक्षद्रोही होने के कारण पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के हेड प्रो. शिशिर बसु को कोर्ट ने नवबंर 2022 में छेड़खानी और एससी-एसटी एक्ट सहित अन्य आरोपों से बाइज़्ज़त बरी कर दिया है। विशेष न्यायाधीश (एससी-एसटी एक्ट) संजीव कुमार सिन्हा की अदालत ने अपने आदेश में कहा है कि प्रो. शिशिर बसु को दोषमुक्त करते हुए उनका ज़मानत पत्र और निजी बंधपत्र निरस्त किए जाते हैं। डॉ. शोभना ने 16 मार्च 2013 को चीफ़ प्रॉक्टर को एक शिकायती पत्र दिया था। उनका आरोप था कि विभाग के छह स्टूडेंट्स उन्हें जातिसूचक गालियां देते हैं। साथ ही उनकी अश्लील फोटो निकाल कर उन्हें प्रताड़ित करते हैं। चारों छात्रों पर तत्काल कार्रवाई की जाए। यह सब करने के लिए छात्रों को प्रो. शिशिर बसु उत्तेजित करते हैं। प्रो. शिशिर बसु के साथ ही सभी पर तत्काल क़ानूनी कार्रवाई नहीं की गई तो वह आमरण अनशन शुरू करेंगी।
यूनिवर्सिटी के प्रॉक्टोरियल बोर्ड ने असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के शिकायती पत्र को लंका थाने फॉरवर्ड कर दिया था। उसके आधार पर लंका थाने में प्रो. बसु के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज हुआ। पुलिस द्वारा दाख़िल की गई चार्जशीट पर कोर्ट ने 19 जून 2013 को संज्ञान लिया। प्रो. शिशिर बसु के ख़िलाफ़ लंका थाने में मार्च 2013 में मुक़दमा दर्ज कराया गया था।
अदालत ने अपने आदेश में कहा कि पीड़िता का कहना है कि अभियुक्त उसे वर्ष 2003 से ही प्रताड़ित कर रहा था। लेकिन, उन्होंने 10 वर्ष तक थाने में शिकायत नहीं दर्ज कराई। इससे पीड़िता के आरोप पर संशय उत्पन्न होता है। बीएचयू द्वारा गठित की गई जांच कमेटियों में भी सेक्सुअल हरैसमेंट जैसी कोई बात सामने नहीं आई है। दस्तावेज़ी साक्ष्यों को देखने पर यह प्रतीत होता है कि पीड़िता की शिकायत बीएचयू के अधिकारियों से शैक्षणिक विवाद से संबंधित है। अभियुक्त के ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप के तहत अपराध, दिन, समय, घटना और घटना किए जाने के तरीक़े को साबित करने में अभियोजन पूरी तरह से असफल रहा है। इसलिए अभियुक्त प्रो. शिशिर बसु सभी आरोपों से दोषमुक्त किए जाने योग्य है। डॉ.शोभना के आरोपों पर प्रो. शिशिर बसु से बात करने की कोशिश की गई, पर उन्होंने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया।
महिलाओं की स्थिति ज़्यादा जटिल
भाषागत दिक्कतों और क़ानूनी पेंचीदगियों की पुख़्ता जानकारी न होने की वजह से डॉ. शोभना अपने मुक़दमे को कोर्ट में खड़ा नहीं कर सकीं। जो लोग उनके साथ खड़े थे, बयान देने की बात आई तो वो मुकर गए और अदालत से उन्हें न्याय नहीं मिल सका। बनारस की जानी-मानी एक्टिविस्ट श्रुति नागवंशी कहती हैं, "सिर्फ़ बीएचयू ही नहीं, समूचे देश में जो हिंदुत्व की राजनीति चली है, उसमें जातिगत पहचान की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। इस जातिगत पहचान को हर वक्त नहीं उभारा जाता। इसे कुछ चुने हुए मौक़ों पर उभारा जाता है। मुझे लगता है कि आज भी दलित और पिछड़ी जाति का सवाल हिंदुत्व की राजनीति के लिए केंद्रीय चुनौती है। मेरी ख़ुद की अस्मिता इस बात पर निर्भर रहती है कि कौन मुझसे सामाजिक स्तर पर ऊपर है और कौन मुझसे नीचे है? मेरा 'स्व' इस पर निर्भर करता है कि मैं अपने से जिनको कमतर मानता हूं वो मुझसे कितनी दूरी पर हैं- सामाजिक स्तर पर, हैसियत की स्तर पर, परिस्थिति के स्तर पर। अगर ये दूरी घटने लगती है तो मेरी अस्मिता डगमगाने लगती है।"
"इन ढेर सारी साज़िशों की शिकार बीएचयू की शिक्षिका डॉ.शोभना भी हुई हैं। वह दलित समुदाय से आती हैं। 'पहचान की राजनीति' में महिलाओं की स्थिति और ज़्यादा जटिल है। महिलाओं का अपना अलग समाज नहीं बन पाता क्योंकि जो अलग-अलग समाज पहले से हमारे देश में हैं। उनका अपना अलग-अलग वर्चस्व है और वो उस वर्चस्व को बनाए रखना चाहता है। जिन मानकों पर दलित और ओबीसी के पिछड़ेपन को मापा जाता था, उन्हीं मानकों पर हमें उनकी ख़ुशहाली को आंकना पड़ेगा, तभी पता चल पाएगा कि दलित, महिला या आदिवासी के किसी महत्वपूर्ण कुर्सी पर बैठने से क्या कुछ फ़र्क़ आया? "
पत्रकार शिवदास कहते हैं, "किसी महिला शिक्षिका का महाराष्ट्र से बनारस आना और अपने ख़िलाफ़ होने वाले ज़ुल्म-ज़्यादतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष कोई आसान काम नहीं है। जातीय आधार पर उत्पीड़न नहीं किया गया होता तो वह आंदोलन का रास्ता भला क्यों चुनतीं। जब ज़ुल्म की इंतहा हो गई तब उन्होंने आंदोलन का सहारा लिया। डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों में गहरी आस्था रखने वाली डॉ. शोभना का मूल मंत्र है-डरो मत। इसी मंत्र के भरोसे वह संघर्ष करती आ रहीं हैं। डॉ. शोभना नार्लीकर जिस समुदाय से आती हैं उन समुदायों के हक़-अधिकार ज़्यादातर छीने जाते हैं और सबसे ज़्यादा उनकी समस्याएं होती है। बीएचयू के पत्रकारिता विभाग की अध्यक्ष बनने के बाद वंचित तबक़े से आने वाले स्टूडेंट्स को राहत मिलेगी। वह किसी के दबाव में न रहकर अपनी कार्यशैली को क़ायम रखेंगी। हालांकि उनके ख़िलाफ़ फिर से साज़िशें शुरू हो गई हैं। देखना यह है कि मनुवादी सोच वाले लोगों का मुक़ाबला वह कैसे करती हैं?
डॉ. निर्लीकर महामना मदन मोहन मालवीय की घोर प्रशंसक है और उनकी मुहिम व आदर्शों को आगे बढ़ाने में यक़ीन और जज़्बा रखती हैं। वह कहती हैं, "बीएचयू में मेरा विरोध वो लोग कर रहे थे जो ख़ुद मालवीय जी के कट्टर विरोधी थे। उनकी मूर्तियां तोड़ने और उन्हें गालियां देने वाले लोग साज़िश पर साज़िश कर कुर्सी पर क़ाबिज़ होते आ रहे थे। बचपन से ही संघर्ष कर रही हूं। कई सालों से विकलांगों, दलितों, आदिवासियों और पिछड़े तबक़े के शिक्षकों के आरक्षण के लिए लड़ रही हूं। इसके लिए हमने कई बार धरना दिया। सिर्फ़ आख़िरी धरना हमने अपने लिए दिया। बाक़ी सभी आंदोलनों में मैं ओबीसी, दलित और विकलांगों के संघर्ष करती रही। मेरे संघर्षों के चलते ओबीसी और दलित वर्ग के तमाम शिक्षकों व कर्मचारियों को नियुक्तियां मिलीं। हालांकि मेरा संघर्ष अभी भी अधूरा है। समाज में जब तक वंचित तबक़े के लोगों के पैरों में पड़ी बेड़ियों में लगी ग़ुलामी की बेड़ियां नहीं टूटेंगी, तब तक हमारा संघर्ष जारी रहेगा। शायद आखिरी सांस तक...। "
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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