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दक्षिण भारत में भाजपा का अभियान पटरी से उतरा

दक्षिण भारत के किसी भी राज्य में भाजपा के लिए सुकूनदायक स्थिति नहीं है। इसलिए लोकसभा चुनाव में उसे उत्तर भारत में होने वाले सीटों के घाटे की भरपाई दक्षिण भारत से करने का अपना मंसूबा पूरा होता नहीं दिख रहा है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

भारतीय जनता पार्टी ने आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर दक्षिण भारतीय राज्यों के लिए कई दिनों पहले जो खास योजना बनाई थी वह अब पटरी से लगभग उतर चुकी है। तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और केरल में अब वह बैकफुट पर है और पार्टी नेतृत्व समझ नहीं पा रहा है कि कैसे उस योजना को फिर से पटरी पर लाया जाए। कई स्तर पर उसने डैमेज कंट्रोल भी शुरू किया है लेकिन उसके मनचाहे नतीजे नहीं मिल रहे हैं।

दरअसल जनता दल (यू), शिव सेना और शिरोमणि अकाली दल जैसे पुराने और महत्वपूर्ण सहयोगी दलों के एनडीए से अलग हो जाने और कई उपचुनावों में मिली हार के बाद भाजपा को यह अच्छी तरह अहसास हो गया है कि आगामी लोकसभा चुनाव में उसे बिहार, महाराष्ट्र और उत्तर भारत के अन्य राज्यों में वैसी सफलता अब नहीं मिलने वाली है जैसी 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में मिली थी। इस संभावित नुकसान की भरपाई के लिए उसने दक्षिण भारत के पांच राज्यों पर ध्यान केंद्रित कर विशेष अभियान चला रखा था।

विशेष अभियान के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और तमाम केंद्रीय मंत्री लगातार दक्षिण भारतीय राज्यों के दौरे कर रहे थे। इन दौरों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी जहां अरबों रुपए की केंद्रीय योजनाओं के शिलान्यास और उद्घाटन करते हुए इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों और उनकी पार्टी पर तीखे हमले कर रहे थे वहीं अमित शाह और जेपी नड्डा अपने पार्टी संगठन को चुस्त-दुरुस्त करने की कवायद करते हुए नए सहयोगी तलाश रहे थे।

भाजपा के इस अभियान को पहला झटका कर्नाटक में इस साल पांच महीने पहले उस समय लगा जब वह विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार कर सत्ता से बाहर हो गई। कर्नाटक दक्षिण भारत में भाजपा के लिए प्रवेश द्वार है। वहां उसने दोबारा सत्ता में आने के लिए सरकार और संगठन के स्तर पर कई प्रयोग किए थे। पार्टी ने पूरा चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर लड़ा था। इसके बावजूद पार्टी को करारी शिकस्त मिली। यह हार पार्टी से ज्यादा मोदी को सदमा पहुंचाने वाली रही क्योंकि इस चुनाव में उन्होंने खुद को पूरी तरह झोंक दिया था और अपने नाम पर वोट मांगे थे। इस हार ने कर्नाटक में भाजपा की संगठनात्मक कमजोरियों और उसके प्रादेशिक नेताओं के आपसी झगड़ों को सतह पर ला दिया। केंद्रीय नेतृत्व तो चुनाव नतीजों से इतना निराश हो गया कि वह चुनाव के पांच महीने बाद भी न तो पार्टी के नए प्रदेश अध्यक्ष की और न ही विधायक दल के नेता की नियुक्ति कर पाया है।

बहरहाल, उस हार के सदमे से उबरने की कोशिश करते हुए भाजपा ने पिछले दिनों पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल (सेक्यूलर) के साथ गठबंधन किया तो मीडिया ने उसे भाजपा के मास्टर स्ट्रोक के तौर प्रचारित किया। कहा गया कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस इस गठबंधन का मुकाबला नहीं कर पाएगी। लेकिन यह गठबंधन भाजपा और जनता दल (एस) दोनों के लिए ही उलटा पड़ गया है।

इस गठबंधन की घोषणा के बाद दोनों पार्टियों के भीतर विवाद खड़ा हो गया है। जनता दल (एस) के प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीएम इब्राहिम ने इस गठबंधन का विरोध करते हुए ऐलान किया है कि उनकी पार्टी विपक्षी गठबंधन 'इंडिया’ का हिस्सा बनेगी। उनका यह ऐलान सीधे-सीधे देवगौड़ा परिवार को चुनौती है। माना जा रहा है कि इब्राहिम को जल्द ही पार्टी से निकाल दिया जाएगा। अगर ऐसा होता है तो मुस्लिम समुदाय में जनता दल (एस) का बचा-खुचा जनाधार भी खत्म हो जाएगा। दूसरी ओर भाजपा में भी वोक्कालिगा समुदाय के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री डीवी सदानंद गौड़ा इस गठबंधन को लेकर नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। दोनों पार्टियों में उठ रही विरोध की आवाजों के अलावा लोकसभा सीटों के बंटवारे के लेकर भी दोनों पार्टियों में मतभेद हैं। जनता दल (एस) जहां कम से कम पांच सीटें लेने पर अड़ा हुआ है वहीं भाजपा उसे तीन सीट से ज्यादा देने के लिए तैयार नहीं है। देखने वाली बात होगी कि दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन चल पाता है या नहीं।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने तेलंगाना के लिए भी बड़ी महत्वाकांक्षी योजना बनाई थी। हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में अमित शाह समेत पार्टी के बड़े नेताओं ने प्रचार किया था और भाजपा के अच्छे प्रदर्शन के बाद अमित शाह ने राज्य में सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति और मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) के खिलाफ बड़ी मुहिम छेड़ी थी। प्रधानमंत्री मोदी ने भी राज्य के कई दौरे कर केंद्रीय योजनाओं का शिलान्यास किया था। इससे सत्ता विरोधी माहौल बना था और ऐसा लगने लगा था कि विधानसभा का चुनाव केसीआर की भारत राष्ट्र समिति बनाम भाजपा होगा और कांग्रेस तीसरे नंबर की पार्टी हो जाएगी। लेकिन अचानक तस्वीर बदल गई।

पांच महीने पहले हुए कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस की धमाकेदार जीत और उसके बाद इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव अलायंस यानी इंडिया के नाम से विपक्षी दलों के एकजुट होने की घटना ने तेलंगाना का राजनीतिक परिदृश्य बदल दिया है। इन दोनों महत्वपूर्ण घटनाओं ने तेलंगाना में सत्तारूढ़ बीआरएस के सुप्रीमो और मुख्यमंत्री केसीआर के साथ-साथ भाजपा की भी चिंता बढा दी है। तेलंगाना में अगले महीने विधानसभा का चुनाव होना है। मुख्यमंत्री केसीआर को जहां अपना किला बचाने की चिंता है वहीं भाजपा की फौरी चिंता कांग्रेस को रोकने को लेकर है। भाजपा चाहती है कि कांग्रेस किसी भी सूरत में कर्नाटक जैसा प्रदर्शन तेलंगाना में न दोहरा सके। इसलिए उसने मुख्यमंत्री केसीआर और उनकी पार्टी के खिलाफ अपना रूख नरम कर लिया है। लेकिन इस वजह से भाजपा ने अपने आक्रामक अभियान से राज्य में जो सत्ता विरोधी माहौल बनाया था उसका भी फायदा अब कांग्रेस को मिलता दिख रहा है।

जहां तक पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश की बात है वहां भाजपा तय नहीं कर पा रही है कि वह मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की पार्टी के साथ परोक्ष तालमेल जारी रखे या चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी और पवन कल्याण की जन सेना पार्टी के साथ गठबंधन करे। असल में भाजपा यह आकलन करने में लगी है कि अगले चुनाव में किसका पलड़ा भारी रहना है। चंद्रबाबू नायडू उसके पुराने सहयोगी रहे हैं लेकिन उसे जगन मोहन रेड्डी से भी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि वे केंद्र में भाजपा की सरकार को समर्थन देते रहते हैं। इसलिए भाजपा उन्हें भी नाराज करना नहीं चाहती है। इसी ऊहापोह की वजह से राज्य में उसकी राजनीति आगे नहीं बढ़ पा रही है।

तमिलनाडु में भाजपा का अपनी पुरानी सहयोगी अन्ना डीएमके से गठबंधन खत्म हो गया है। असल में डीएमके नेता उदयनिधि स्टालिन और ए. राजा ने सनातन को लेकर विवादित बयान दिया था जिसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूरी भाजपा उन पर और समूचे विपक्षी गठबंधन पर टूट पड़ी थी। इससे अन्ना डीएमके को बैकफुट पर आना पड़ा। इसीलिए उसने अपने नेताओं के खिलाफ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के. अन्नामलाई के बयानों को मुद्दा बना कर गठबंधन तोड़ लिया। अब भाजपा के नेता एक तरफ अन्ना डीएमके को मनाने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी ओर अकेले लड़ने की तैयारी भी कर रहे हैं।

दक्षिण भारत में केरल एकमात्र ऐसा प्रदेश रहा है जहां भाजपा लोकसभा चुनाव में आज तक अपना खाता नहीं खोल सकी है। 2014 और 2019 में चुनाव में चली मोदी लहर से भी यह सूबा अछूता रहा था। कोई आठ साल पहले भाजपा ने जब इस प्रदेश में आक्रामक तरीके से अपना अभियान शुरू किया तो सुरेश गोपी उसके ट्रम्प कार्ड थे। मलयालम फिल्मों के बड़े सितारे सुरेश गोपी को भाजपा ने राज्यसभा में मनोनीत कराया था। वे बहुत थोड़े समय भाजपा से जुड़े रहे और फिर अलग हो गए। वे अभी भी भाजपा से दूरी बनाए हुए हैं। पार्टी ने 2021 का विधानसभा चुनाव मेट्रो मैन के रूप में मशहूर रहे नौकरशाह ई. श्रीधरन के चेहरे पर लड़ा था लेकिन उसे नाकामी ही हाथ लगी। 89 वर्षीय श्रीधरन खुद भी चुनाव नहीं जीत सके। भाजपा अब एक बार फिर सुरेश गोपी को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रही है।

कुल मिला कर दक्षिण भारत के किसी भी राज्य में भाजपा के लिए सुकूनदायक स्थिति नहीं है। इसलिए लोकसभा चुनाव में उसे उत्तर भारत में होने वाले सीटों के घाटे की भरपाई दक्षिण भारत से करने का अपना मंसूबा पूरा होता नहीं दिख रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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