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कर्नाटक में आक्रामक प्रचार के बावजूद भाजपा रक्षात्मक मुद्रा में 

पार्टी मोदी फैक्टर पर निर्भर है, जिसने पिछले दो विधानसभा चुनावों में भी काम नहीं किया था। 
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प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

13 मई को राज्य विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित होने के बाद इस बात का अनुमान लगाना कठिन है कि कर्नाटक में कौन सी पार्टी या गठबंधन की सरकार बनेगी। लेकिन प्रमुख चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों में, भारतीय जनता पार्टी जो सत्तारूढ़ दल है, कांग्रेस और जनता दल (सेक्युलर) के मुक़ाबले सबसे अधिक रक्षात्मक मुद्रा में दिखाई दे रही है। ऐसा लगता है कि भाजपा का स्थानीय नेतृत्व कड़ी टक्कर का सामना कर रहा है और अंत में उसने चुनावी लहर को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भरोसा करने का फैसला किया है।

2013 और 2018 में मोदी फैक्टर ने काम नहीं किया था 

सनद रहे कि, प्रधानमंत्री पहले भी कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार कर चुके हैं, लेकिन कर्नाटक में उनका रिकॉर्ड भाजपा के लिए निराशाजनक रहा है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में, मोदी ने 2013 के विधानसभा चुनाव में जोरदार प्रचार किया था, लेकिन उनकी पार्टी को मुश्किल से 40 सीटें मिलीं थी; और कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला था। 2018 में अगले विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान, मोदी की लोकप्रियता अपने चरम पर थी। 2014 की लोकसभा जीत, बीजेपी की पहली ऐसी क्लीन स्वीप थी जिसने उन्हें एक मजबूत राष्ट्रीय राजनीतिक नेता के रूप में स्थापित किया था। लेकिन कर्नाटक में, भाजपा 2018 के विधानसभा चुनाव में (जिसमें बीएस येदियुरप्पा मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार थे) सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, लेकिन उसकी यह जीत भी सशक्त जीत नहीं बनी थी। 

इसलिए, यदि 2018 में मोदी द्वारा लगातार प्रचार करने पर भी भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, तो वह 2023 में उनकी छवि के बल पर उसे सफलता क्यों मिलेगी, खासकर तब-जब बसवराज बोम्मई सरकार जबरदस्त सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रही है?

बीजेपी में संकट

कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के नेता भाजपा पर हावी हैं, और येदियुरप्पा इस समुदाय के प्रमुख नेता हैं। लेकिन, उन्हें बोम्मई को रास्ता देने के लिए मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा था, क्योंकि उन्हे प्रभावी ढंग से शासन करने में असमर्थ माना गया था। हालांकि येदियुरप्पा भाजपा के प्रचार प्रमुख हैं, लेकिन उन्हें भविष्य के मुख्यमंत्री के रूप में पेश नहीं किया जा रहा है, जिससे लिंगायतों का एक बड़ा वर्ग नाराज है। मीडिया रिपोर्ट्स यहां तक इशारा करती हैं कि पार्टी की कर्नाटक इकाई पर न तो मोदी का और न ही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का वश है। पार्टी में अभी भी मुख्य रूप से लिंगायत समुदाय के राज्य नेताओं का वर्चस्व है। इसलिए भाजपा का संकट गहराता जा रहा है। प्रमुख नेता बीएल संतोष को पार्टी में प्रमुखता दी गई है, और उन्होंने कट्टरता के एजेंडे को आगे बढ़ाया है, लेकिन वह भी भाजपा के लिए काम नहीं कर रहा है।

कठोर आर्थिक हालात बाकी सब पर भारी  

2020 में लागू हुए गोवध प्रतिबंध क़ानून के प्रतिकूल आर्थिक परिणामों के कारण न केवल मुस्लिम, बल्कि हिंदू भी कर्नाटक में भाजपा से अप्रभावित हैं। हिंदू किसानों ने अक्सर शिकायत की है कि अनुत्पादक गायों और बैलों का बाजार गायब हो रहा है क्योंकि खरीदार, ज्यादातर मुस्लिम समुदाय के लोग हैं और वे गोरक्षकों के डर से मवेशी बेचने या ख़रीदने से डरते हैं। जब 2020 में गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने वाला कानून पारित किया गया था, तो राज्य के वित्तमंत्रालय ने किसानों और पशुपालकों पर इसके दुष-परिणामों के बारे में सरकार को सचेत किया था। लेकिन भाजपा नेतृत्व ने कोई ध्यान नहीं दिया। अब, चेतावनियाँ हक़ीक़त बन गई हैं और मुसलमानों को निशाना बनाने के भाजपा के एजेंडे को हिंदू हितों के लिए हानिकारक बताने वाले एजेंडे की पोल खुल गई है।

बोम्मई सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का सबसे गंभीर कारण यह धारणा है कि यह एक भ्रष्ट सरकार है। पिछले साल बीजेपी के एक मंत्री पर 40 फीसदी कमीशन मांगने का आरोप लगाने के बाद एक ठेकेदार ने आत्महत्या कर ली थी। सरकारी विभागों से रिश्वत की मांग की शिकायत करते हुए एक स्कूल संस्था ने प्रधानमंत्री को पत्र भी लिखा था। गडग में ऐतिहासिक फकीरेश्वर मठ के डिंगलेश्वर स्वामी द्वारा लगाए गए आरोप भी लोगों के दिमाग में ताजा हैं- उन्होंने कहा था कि धार्मिक संस्थानों को भी रिश्वत की मांग से नहीं बख्शा गया, जो कि सरकार द्वारा जारी धन का 30 प्रतिशत है।

सरकारी नौकरी चाहने वाले उम्मीदवारों से पैसे की मांग किए जाने के आरोपों पर व्यापक असंतोष को देखने के लिए सोशल मीडिया का दौरा करना काफी होगा। इन सभी घटनाक्रमों ने एक सार्वजनिक धारणा बना दी है कि शासन के हर क्षेत्र में उच्च स्तर का भ्रष्टाचार व्याप्त है, और धार्मिक संस्थान भी बख्शे नहीं जा रहे हैं।

हिंदुओं से हलाल मांस का इस्तेमाल न करने और मुसलमानों का सामाजिक और आर्थिक रूप से बहिष्कार करने की अपील करके मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के भाजपा के प्रयास अब काम नहीं कर रहे हैं। हिजाब का मुद्दा सार्वजनिक चर्चा में फीका पड़ गया है और भाजपा को वह चुनावी लाभ मिलने की संभावना नहीं है जो वह चाहती है। टीपू सुल्तान की विरासत के खिलाफ भाजपा नेताओं का सुनियोजित अभियान और उन्हें हिंदू विरोधी के रूप में पेश करने के प्रयास भी काम नहीं आ रहे हैं। बोम्मई ने खुद को हिजाब और हलाल मुद्दों से दूर कर लिया है, जो इनके प्रति कम होते समर्थन को दर्शाता है।

बीजेपी से पलायन

कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार सहित कई भाजपा नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है और कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। यह भी एक संभावित संकेत है कि चुनावी हवा किस दिशा में बह रही है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी ने कर्नाटक के नेतृत्व में बढ़ते खालीपन का लाभ उठाने का फैसला किया है और सभी घरों को प्रति माह 200 यूनिट मुफ्त बिजली, घर की प्रत्येक महिला मुखिया को 2,000 रुपए प्रति माह, परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए 'अन्ना भाग्य' योजना के तहत 10 किलो चावल और बेरोजगार युवाओं को 3,000 रुपए मासिक भत्ते की घोषणा की है। 

कांग्रेस ने आश्वासन दिया है कि कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद पहली कैबिनेट बैठक में ही इन घोषणाओं को मंजूरी दी जाएगी। उच्च मुद्रास्फीति/महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी और घटती आय, विशेष रूप से कृषि में, भाजपा द्वारा कांग्रेस और उसके नेतृत्व को निशाना बनाने लगातार प्रयासों को नुकसान पहुंचाएगी। अब यह धारणा बढ़ती जा रही है कि भाजपा के  चुनावी नुकसान की क़ीमत उसके दक्षिणी गढ़ को चुकानी पड़ेगी। अगर ऐसा होता है तो पार्टी को 2024 के लोकसभा चुनाव से कुछ महीनों पहले एक बड़ा झटका लगेगा।

लेखक, भारत के राष्ट्रपति के॰आर॰ नारायणन के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटि थे। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी मे प्रकाशित इस मूल रिपोर्ट को पढने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

BJP Defensive in Karnataka Despite Aggressive Campaign

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