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क्या यह नव-उदारवादी युग के अंत की शुरुआत तो नहीं है ?

देशवासियों को कोई राहत नहीं मुहैया कर पाने में अपनी नाकामी के असली मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए सरकार ज़्यादा से ज़्यादा सत्तावाद का राग अलापे जा रही है और सत्ता  में बने रहने को तर्कसंगत ठहराने कोे लिए सांप्रदायिक वायरस फ़ैला रही है।
नव-उदारवादी युग के अंत की शुरुआत
प्रतीकात्मक तस्वीर

मौजूदा कोविड-19 महामारी के दौरान दुनिया भर के लोग कई विचारों से जूझ रहे हैं। उनकी कुछ प्रमुख चिंतायें हैं: महामारी ख़त्म हो जाने के बाद क्या होगा ? क्या चीज़ें फिर से सामान्य हो जायेंगी ? क्या जैसा कि महामारी से पहले व्यवस्था चल रही थी,वैसी ही व्यवस्था चलती रहेगी या सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों की बहस में कोई क्रांतिकारी बदलाव आयेगा ? इन सभी चिंताओं को लेकर अलग-अलग लोगों की अलग-अलग राय है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि जिन अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से हम सभी आते हैं, वह हमें अलग-अलग तरीक़े से सोचने के लिए प्रेरित करती है।

"द नीओ-लिबरल एरा इज़ एंडिंग,व्हाट कम्स नेक्स्ट” शीर्षक से एक दिलचस्प लेख में रटगर ब्रेगमैन लिखते हैं: “कुछ ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि इस महामारी का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा करना आत्म-निष्ठता में मज़ा लेने की तरह है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है,जैसे कि धार्मिक कट्टरपंथी का इसे भगवान का कोप का हंगामा बना देना, या "चीनी वायरस" को लेकर लोकलुभावन डर का कारोबार बना देना, या धारा को पहचान लेने वालों का यह भविष्यवाणी करना कि हम आखिरकार प्यार, चौकसी, और सभी के लिए मुफ़्त धन के एक नये युग में प्रवेश कर रहे हैं। ऐसे लोग भी हैं,जिनका मानना है कि यह बोलने का एकदम सही वक्त है। इस समय जो फ़सैले लिये जा रहे हैं,उसके आने वाले दिनों में दूर-दूर तक जटिल प्रभाव होंगे। या फिर जैसा कि ओबामा के चीफ़ ऑफ स्टाफ़ ने 2008 में लेहमैन ब्रदर्स के पतन के बाद कहा था: आप कभी नहीं चाहते कि एक गंभीर संकट यूं ही बेकार चला जाये।”

लेकिन, उम्मीद की किरण यही है कि बदलाव स्थायी और बिल्कुल सामने दिखायी दे रहे हैं। संकट चाहे 2008 की वित्तीय मंदी वाला आर्थिक हो, या मौजूदा महामारी वाला संकट हो, जो स्वास्थ्य और अर्थशास्त्र को समेटते हुए एक एकीकृत संकट में बदल रहा है, और यह संकट व्यवस्था के भीतर एक नयी शुरुआत का अंकुर बन रहा है। हमें इंतज़ार करना होगा और नज़र रखना होगा कि मौजूदा महामारी इस तरह की शुरुआत को कैसे प्रेरित करती है, और यह हमारे सभी प्रयासों के साथ किस तरह मुमकिन होता है।

जिस आर्थिक प्रतिमान को दुनिया भर के संघीय सरकारों से लेकर प्रांतीय और यहां तक कि शहरी सरकारों तक ने स्वीकार किया है और जिसकी वकालत की है, वह नव-उदारवादी अहस्तक्षेप की नीति वाला यही मॉडल था। इस मॉडल में न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन का शासनादेश था। भारतीय नौकरशाही के नौकरशाहों का एक पूरे के पूरे झुंड को इस मॉडल के उत्साही समर्थक बनने के लिए दुनिया भर के ऐसे वैचारिक संस्थाओं में भेजा जाता था।

इस मॉडल के सबसे अहम नतीजों में से एक, व्यवस्था की पूर्ण अस्थिरता है। 2008 के संकट ने सतत विकास लक्ष्यों के विचारों को जन्म दिया था। 17 एसडीजी यानी सतत विकास लक्ष्यों में से नौ लक्ष्य बड़े पैमाने पर सीधे-सीधे व्यवस्था और समाज में ग़ैर-बराबरी से जुड़े हुए हैं, मुख्य मुद्दों से इनका कोई लेना-देना नहीं हैं। सतत विकास लक्ष्यों पर क्विटो में आयोजित आवास और सतत शहरी विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन,हैबिटैट III में एक चर्चा के दौरान हैबिटेट के कार्यकारी निदेशक जॉन क्लॉस इस विचार पर ज़ोर देते रहे कि योजना की मूल बातें पर वापस आना चाहिए। अन्य विचारों के बीच मुक्त बाज़ार वाली अर्थव्यवस्था, व्यवस्था को अधिक टिकाऊ नहीं बना सकेगी, बल्कि इससे शहरों और वहां रहने वाले लोगों के संकट ही बढ़ेंगे।

इस मौजूदा महामारी ने व्यवस्था के अस्थायित्व को और उजागर कर दिया है। सीएमआईई के आंकड़ों के मुताबिक़, भारत में 20-30 वर्ष के बीच के आयु वर्ग के 27 मिलियन युवाओं की नौकरियां चली गयी हैं और बेरोज़गारी दर लगभग 27% है। ब्रिटिश सेंट्रल बैंक के मुताबिक़, यूनाइटेड किंगडम में इंग्लैंड वर्ष 1709 के बाद से सबसे बड़ी मंदी के कगार पर है। अमेरिका में तीन सप्ताह के भीतर 17 मिलियन लोगों ने आर्थिक प्रभाव भुगतान के लिए आवेदन किया है। 2008 की वित्तीय मंदी में अमेरिका को इस संख्या के आधे तक पहुंचने में पूरे दो साल लग गये थे। यह उस व्यापक प्रभाव की व्याख्या करता है,जो दुनिया भर में महामारी के चलते लोगों, अर्थव्यवस्थाओं और उनकी आजीविका पर पड़ रहा है।

मौजूदा महामारी के दौरान निजीकरण को लेकर चलाये जा रहे अभियान की असलियत सामने आ गयी है। कोविड-19 के कारण आये इस संकट को कम करने की भूमिका निभाते हुए दुनिया भर के निजी स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे को शायद ही देखा गया हो। स्पेन और कुछ अन्य देशों को अपनी स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का राष्ट्रीयकरण करना पड़ा। भारत में भी सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थान और सरकारी संस्थान,जिन पर ज़्यादा भरोसा किया जाता है, फिलहाल ये संस्थान ही इस संकट से निपटने में सक्षम दिखायी दे रहे हैं। वाइब्रेंट गुजरात मॉडल, जिसमें स्वास्थ्य व्यवस्था ढह गयी थी, वह बुरी तरह लड़खड़ा गया है। ऐसे परिदृश्य में दुनिया भर में जहां-जहां सरकारों को निवेशकों के रूप में नहीं देखा गया था,वहां-वहां राष्ट्र राज्यों द्वारा अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं में जान फूंकने के लिए आर्थिक प्रोत्साहन दिया जा रहा है।

सबसे बड़े कोविड-19 प्रोत्साहन कार्यक्रमों वाले पांच G-20 देश हैं:

1. संयुक्त राज्य अमेरिका: 2.3 ट्रिलियन डॉलर (GDP का 11%)

2. जर्मनी: 189.3 बिलियन डॉलर (GDP का 4.9%)

3. चीन: 169.7 बिलियन डॉलर (GDP का 1.2%)

4. कनाडा: 145.4 बिलियन डॉलर (GDP का 8.4%)

5. ऑस्ट्रेलिया:  133.5 बिलियन डॉलर (जीडीपी का 9.7%)

क्या इसका मतलब यह तो नहीं कि एक मुख्य निवेशक के रूप में राष्ट्र राज्य की भूमिका को एक बार फिर से मज़बूत हो गयी है और नव-उदारवादी युग अपने अंत की शुरुआत में है ?

इस लिहाज से भारतीय के हालात पर नज़र डालिये। बाजार में तरलता को प्रोत्साहित करने और लोगों को सामान ख़रीदने के लिए नक़दी देने की प्रवृत्ति का अनुसरण करने के बजाय, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जिस प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की है,वह प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री की तरफ़ से हुई किसी बड़ी धोखाधड़ी के अलावा कुछ भी नहीं है,जिसके ज़रिये उन्होंने अपनी नाकामी को स्वीकार करने के बजाय अपनी बड़ी भूल को छुपाया है।

लॉकडाउन के चलते अर्थव्यवस्था में मांग में बड़े पैमाने पर गिरावट आयी है। दैनिक वेतनभोगी और यहां तक कि वेतनभोगी कर्मचारी,जिन्हें काम से निकाल दिया गया है, वे ख़रीदारी करने की हालत में नहीं हैं। मध्य वर्ग भी अपने घरों तक ही सीमित हैं और शराब और भोजन के अलावा कोई वस्तु नहीं ख़रीद रहे हैं। आतिथ्य, मनोरंजन और परिवहन क्षेत्र बंद हैं।

उद्यमियों और अन्य वर्गों को ऋण देने के ‘प्रोत्साहन’ के मूल आधार में कमी आयी है, इसका सरल कारण यह है कि अर्थव्यवस्था में कोई सुरक्षा का भाव नहीं है। अगर ऋण ले भी लिया जाता है, तो भी इसकी कोई गारंटी नहीं है कि उन्हें वापस भुगतान किया ही जायेगा। इसके अलावा, ख़रीदारों की हालत नाज़ुक है और इस हालत को ठीक करने के लिए ख़रीदारों की क्रय शक्ति को बढ़ाया जाना चाहिए। लेकिन, इसके बजाय सरकार ऋण की सुविधा का राग अलाप रही है, जिन्हें कोई नहीं लेने जा रहा है।

कई अर्थशास्त्री, जिनमें वामपंथी शामिल नहीं हैं, उन्होंने अर्थव्यवस्था में कींस के पैसे उड़ले जाने वाले सिद्धांत की वक़ालत की है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मांग पैदा हो। हालांकि, सरकार ने एक अलग रास्ता चुना है। मगर सवाल है कि सरकार ने ये अलग रास्ता क्यों चुना है  ? उनमें से कुछ की राय है कि इस सरकार के नेतृत्व की वही सड़ी-गली मानसिकता है, जिसे पहले ही नोटबंदी के दौरान महसूस किया गया था, और इस तरह का एक और दौर लॉकडाउन के दौरान आया है, जिसके बाद ‘प्रोत्साहन’ पैकेज की घोषणा की गयी है। हालांकि, प्रभात पटनायक इन दोनों फ़ैसलों के बीच फ़र्क़ बताते हैं। हो सकता है नोटबंदी एक मूर्खतापूर्ण विचार रहा हो, लेकिन वर्तमान पैकेज,जो मांग पैदा करने के लिए बाज़ार में पैसों को नहीं डाल रहा है, इससे राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है, और यह वास्तव में वैश्विक वित्तीय पूंजी द्वारा क्रेडिट रेटिंग से जुड़ा हुआ है। मोदी सरकार इस डर में राजकोषीय घाटे को बढ़ाकर विदेशी पूंजी को नाराज़ नहीं करना चाहती कि वह कहीं यहां से बोरिया-बिस्तर न समेट ले। हालांकि, वास्तविकता यही है कि वैश्विक वित्तीय पूंजी बाहर जा रही है और जो ज़रूरत है, वह है-और ज़्यादा विनियमन की।

ऐसे परिदृश्य में, जहां सरकार श्रम क़ानूनों को कमज़ोर करने की अनुमति देकर भी कॉर्पोरेटों को ख़ुश करने के लिए प्रतिबद्ध है, ऐसे में इसकी वैधता सवालों के घेरे में आ जाती है। देशवासियों को कोई राहत नहीं मुहैया कर पाने में अपनी नाकामी के असली मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए सरकार अधिक से अधिक सत्तावाद का राग अलाप रही है और स्त्ता में बने रहने को तर्कसंगत ठहराने को लेकर सांप्रदायिक वायरस फ़ैला रही है।

तो,ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह नवउदारवादी युग के अंत की शुरुआत तो नहीं है, कम से कम भारतीय संदर्भ में ऐसा कहना जल्दबाज़ी होगा !

लेखक शिमला के पूर्व डिप्टी मेयर हैं। उनके विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखी गई इस मूल स्टोरी को आप नीचे दिए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-  

Is it the Beginning of the End for the Neo-Liberal Era?

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