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ख़बरों के आगे-पीछे: त्रिपुरा चुनाव, राज्यपालों की नियुक्ति और ओवैसी का ‘खेल’!

अपने हफ़्ते के कॉलम में वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन बता रहे हैं कि किस तरह राज्यपालों की नियुक्ति में नौकरशाह पिछड़ गए हैं और कैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश को तरजीह मिली है। इसी के साथ वे बता रहे हैं त्रिपुरा चुनाव का हाल और राजस्थान में ओवैसी के खेल के बारे में।
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फ़ोटो साभार: PTI

लोकसभा को आख़िरी साल में मिलेगा उपाध्यक्ष?

सत्रहवीं लोकसभा का अब मात्र सवा साल का कार्यकाल बचा है, लेकिन अभी तक इसके उपाध्यक्ष का चुनाव नहीं हो सका है। आमतौर पर लोकसभा के गठन के तीन महीने के अंदर उपाध्यक्ष का चुनाव हो जाता है लेकिन इस बार बगैर उपाध्यक्ष के ही करीब चार साल निकल गए। परंपरा के मुताबिक यह पद सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को दिया जाता है लेकिन मौजूदा सरकार का मान्य परंपराओं में कोई भरोसा नहीं है। पिछली बार उसने यह पद अपनी सहयोगी पार्टी अन्ना डीएमके को दिया था। एम थंबीदुरै उपाध्यक्ष बने थे। इस बार ज्यादातर सहयोगी दल भाजपा से अलग हो गए और अघोषित सहयोगी बीजू जनता दल तथा वाईएसआर कांग्रेस ने यह पद लेने की सरकार की पेशकश को ठुकरा दिया। बहरहाल अब सरकार को मजबूरी में इस पद पर किसी को बैठाना पड़ सकता है। फिलहाल उसे शिव सेना से अलग हुए धड़े के रूप में एक नया विकल्प उपलब्ध हुआ है। लोकसभा के आखिरी साल में उपाध्यक्ष बनाए जाने की वजह यह है कि मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला राजस्थान में भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार माने जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि अगर राज्य में भाजपा जीतती है तो बिरला को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। अगर ऐसा हुआ तो उस स्थिति में उपाध्यक्ष की जरूरत महसूस होगी। इसीलिए कहा जा रहा है कि राजस्थान में विधानसभा चुनाव से पहले ही लोकसभा को अपने आखिरी साल में उपाध्यक्ष मिल सकता है।

त्रिपुरा को लेकर उदासीन बना रहा कांग्रेस नेतृत्व!

त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हो चुका है। राज्य की 60 सीटों के लिए हुए चुनाव में सत्तारूढ़ भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंकी। संसद का सत्र चालू होने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी त्रिपुरा पहुंचे और चुनावी सभाओं को संबोधित किया। गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी सदन छोड़ कर त्रिपुरा में चुनाव प्रचार करते रहे। दूसरी ओर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व त्रिपुरा के चुनाव को लेकर पूरी तरह उदासीन बना रहा। पार्टी की ओर से प्रदेश प्रभारी अजय कुमार ने ही पूरे समय चुनाव प्रचार की कमान संभाली। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ही नहीं बल्कि पार्टी के दूसरे बड़े नेता भी त्रिपुरा नहीं गए। यह सही है कि कांग्रेस त्रिपुरा में सिर्फ 13 सीटों पर चुनाव लड़ी है लेकिन अभी पूर्वोत्तर के जिन तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें कांग्रेस के लिए संभावना वाला एकमात्र राज्य त्रिपुरा ही है। सीपीएम के साथ तालमेल और टिपरा मोथा के अलग चुनाव लड़ने से संभावना है कि कांग्रेस और सीपीएम का गठबंधन जीत सकता है। लेकिन ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व खुद ही सरेंडर किए हुए है या इस भरोसे में है कि सीपीएम मेहनत कर ही रही है उसी के दम पर सरकार में आ जाएंगे। इससे यह भी जाहिर हो रहा है कि राहुल गांधी की पांच महीने की पदयात्रा के बाद भी कांग्रेस में कुछ नहीं बदला है।

राजस्थान में ओवैसी लग गए काम पर!

इस साल जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं उनमें से पांच बड़े राज्य भाजपा के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। इन पांच में से एक राज्य असदुद्दीन ओवैसी का गृह प्रदेश तेलंगाना भी है। लेकिन तेलंगाना से ज्यादा दिलचस्पी वे दूसरे राज्यों, खास कर राजस्थान और मध्य प्रदेश में दिखा रहे हैं। भाजपा के लिए बेहद अहम इन दोनों राज्यों में ओवैसी का खेल शुरू हो गया है। हमेशा की तरह उनके ऊपर आरोप है कि उनका खेल कांग्रेस के वोट में सेंध लगाने और अपनी पार्टी को मजबूत करने का है। हालांकि इसका प्रत्यक्ष लाभ भाजपा को मिलता है। ओवैसी यह काम कई राज्यों में कर चुके हैं। बहरहाल, राजस्थान में उनके दो कार्यक्रम हुए हैं। उन्होंने 18 फरवरी को भरतपुर में और 19 फरवरी को टोंक में अपनी पार्टी की रैली की। गौरतलब है कि टोंक कांग्रेस के दिग्गज नेता सचिन पायलट का चुनाव क्षेत्र है। जिस इलाके में ओवैसी का कार्यक्रम हुआ वह पूरा अलवर और भरतपुर का इलाका पायलट के असर वाला है। इस इलाके में कांग्रेस के अच्छा प्रदर्शन करने की संभावना है। सो, पहले वहीं से ओवैसी ने अपना कार्यक्रम शुरू किया। उनकी पार्टी के टोंक के नेता सचिन पायलट को बाहरी नेता बता रहे हैं। ओवैसी भले ही अपने पैर जमाने के लिए काम कर रहे हो लेकिन उनको भी पता है कि अगर वे ताकत लगा कर इस इलाके में चुनाव लड़ेंगे तो कांग्रेस का नुकसान और भाजपा की जीत आसान करेंगे। फिर भी उन्होंने कांग्रेस के सबसे मजबूत असर वाले इलाके को ही अपने कार्यक्रम के लिए चुना।

पांच राज्यपाल पूर्वी उत्तर प्रदेश से

केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 13 राज्यों में नए राज्यपाल तैनात किए है। इनमें से कुछ नए हैं तो कुछ राज्यपालों का तबादला हुआ है। अब राज्यपालों की जो नई सूची है उसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश का दबदबा है। उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से से कुल पांच राज्यपाल या उप राज्यपाल नियुक्त हुए हैं। यह एक बड़ा असंतुलन है। कई राज्यों से कोई राज्यपाल नहीं है तो कई बड़े राज्यों से एक या दो राज्यपाल हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के एक हिस्से से पांच राज्यपाल देश के अलग-अलग राज्यों में हैं। नए राज्यपालों में दो नाम उत्तर प्रदेश से हैं और दोनों पूर्वी उत्तर प्रदेश से हैं। गोरखपुर के भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री शिव प्रताप शुक्ल को हिमाचल प्रदेश का और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी के लक्ष्मण प्रसाद आचार्य को सिक्किम का राज्यपाल बनाया गया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के तीन नेता पहले से राज्यपाल या उप राज्यपाल हैं। मनोज सिन्हा केंद्र शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर के उप राज्यपाल और कलराज मिश्र राजस्थान के राज्यपाल हैं। सिन्हा और मिश्र दोनों गाजीपुर के रहने वाले हैं। आजमगढ़ के रहने वाले फागू चौहान अभी बिहार के राज्यपाल थे, अब उनका तबादला कर मेघालय का राज्यपाल बनाया गया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश हमेशा भाजपा के लिए चुनौती वाला क्षेत्र रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही आते हैं। अगले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रख कर ही पूर्वी उत्तर प्रदेश के भाजपा नेताओं को खास महत्व दिया जा रहा है।

राज्यपालों की तैनाती में नौकरशाह पिछड़ गए

राष्ट्रपति ने केंद्र सरकार की सिफारिश पर 12 राज्यों में राज्यपाल और एक केंद्र शासित प्रदेश में उप राज्यपाल की तैनाती की है। इस बार राज्यपालों की तैनाती में खास बात यह रही कि इसमें किसी भी रिटायर नौकरशाह को मौका नहीं मिला। राज्यपालों के तबादलों को छोड़ दे तो छह नए चेहरे राजभवनों में भेजे गए और सब भाजपा की सक्रिय राजनीति से जुड़े हैं। इससे पहले भी दिल्ली में उप राज्यपाल की तैनाती हुई थी तो किसी रिटायर नौकरशाह को नियुक्त करने की परंपरा को तोड़ते हुए केंद्र सरकार ने गैर सरकारी संगठन यानी एनजीओ और भाजपा से जुड़े विनय कुमार सक्सेना को उप राज्यपाल बनाया था। अब पूरे देश में राजभवनों में बहुत गिने चुने पूर्व नौकरशाह ही बच गए हैं। अगर उप राज्यपालों और प्रशासकों को छोड़ दें तो देश के 28 राज्यों में से सिर्फ दो राज्यों में पूर्व नौकरशाह राज्यपाल हैं। तमिलनाडु में आरएन रवि पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंदा बोस पूर्व आईएएस हैं। इनके अलावा बाकी सारे सभी राज्यपाल राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले हैं। इस बार जो नई नियुक्तियां हुई हैं उनमें सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज जस्टिस एस अब्दुल नजीर और पूर्व सैन्य अधिकारी कैवल्य त्रिविक्रम पारनाइक को छोड़ कर बाकी सभी भाजपा की राजनीति से जुड़े रहे हैं। तमिलनाडु प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष सीपी राधाकृष्णन को झारखंड, पूर्व केंद्रीय मंत्री शिवप्रताप शुक्ल को हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में नेता विपक्ष रहे भाजपा नेता गुलाब चंद कटारिया को असम के राजभवन में भेजा गया है।

विपक्ष को एकजुट कर रहे हैं खरगे

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को दो पदों पर बनाए रखने का कांग्रेस का फैसला सही साबित हुआ है। पार्टी ने एक व्यक्ति, एक पद के सिद्धांत का अपवाद खरगे के लिए बनाया। वे पार्टी के अध्यक्ष हैं और साथ ही राज्यसभा में नेता विपक्ष भी हैं। संसद के बजट सत्र के पहले चरण में एक बार फिर प्रमाणित हुआ है कि खरगे विपक्ष को एकजुट करने में कामयाब हैं। उन्होंने बजट सत्र की शुरुआत से लेकर पहले चरण के आखिरी दिन तक लगातार विपक्षी पार्टियों के साथ बैठक करके अपनी रणनीति बनाई। गुलाम नबी आजाद के बाद जब खरगे को नेता बनाया गया था तब से ही वे विपक्ष को बेहतर तरीके से एकजुट कर रहे हैं लेकिन पार्टी का अध्यक्ष बनने के बाद उनका कद और बढ़ा है। वे ज्यादा ऑथोरिटी के साथ अब विपक्ष की राजनीति कर रहे हैं। उनकी ही कोशिशों का नतीजा है कि उनकी हर बैठक में 15 विपक्षी पार्टियां जुटीं। यहां तक कि आम आदमी पार्टी और भारत राष्ट्र समिति के संसदीय नेता भी उनकी बैठक में शामिल हुए। अडानी के मसले पर चर्चा में भाग लेने के मसले पर भले ही आम आदमी पार्टी, भारत राष्ट्र समिति और शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट ने अलग स्टैंड लिया लेकिन संसद में सरकार को घेरने और संसद भवन परिसर में प्रदर्शन करने में ये तीनों पार्टियां भी कांग्रेस के साथ रहीं। कांग्रेस के इर्द-गिर्द विपक्ष की एकजुटता बनने से कांग्रेस की मजबूती का मैसेज बन रहा है। खरगे भी इसका फायदा उठा रहे हैं और उन्होंने सरकार के साथ टकराव बढ़ाया है।

त्रिपुरा में भाजपा जीती तो महिला मुख्यमंत्री!

त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी अगर चुनाव जीती तो राज्य को पहली महिला मुख्यमंत्री मिल सकती है। इस बात के आसार इसलिए हैं, क्योंकि भाजपा ने केंद्रीय मंत्री प्रतिमा भौमिक को विधानसभा चुनाव में उतारा है। हालांकि यह पहला मौका नहीं है, जब भाजपा ने किसी केंद्रीय मंत्री को विधानसभा का चुनाव लड़ाया है। पश्चिम बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो को विधानसभा का चुनाव लड़ाया था। हालांकि वे चुनाव हार गए थे। पार्टी ने दो और सांसदों को भी विधानसभा का चुनाव लड़ाया था और वे दोनों जीत गए थे लेकिन बाद में दोनों ने विधानसभा सीट से इस्तीफा दे दिया था। बहरहाल, प्रतिमा भौमिक त्रिपुरा के आज तक के इतिहास की दूसरी नेता और पहली महिला नेता हैं, जो केंद्र में मंत्री बनी हैं। उनका विधानसभा चुनाव लड़ना अपने आप में बड़ी बात है। इसके अलावा भाजपा पूर्वोत्तर में महिला कार्ड भी खेल रही है। अभी मेघालय के विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी ने घोषणापत्र जारी किया तो सरकारी नौकरियों में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का वादा किया है। इसलिए ऐसा माना जा रहा है कि त्रिपुरा में पार्टी अगर जीतती है तो महिला मुख्यमंत्री बन सकती है। अगर गठबंधन करके सरकार बनाने की स्थिति आती है तब दूसरा समीकरण होगा।

महाराष्ट्र के उपचुनाव बेहद अहम

देश की वित्तीय राजधानी मुंबई के साथ-साथ पुणे और ठाणे में नगर निगम का चुनाव होना है। इन चुनावों का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक महीने में दो बार मुंबई की यात्रा की है और हजारों करोड़ रुपए की परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया है। बताया जा रहा है कि नगर निगम चुनावों की घोषणा राज्य में विधानसभा की दो सीटों पर हो रहे उपचुनावों के बाद होगी। दोनों उपचुनाव का महत्व सिर्फ इतना नहीं है, बल्कि इससे एनसीपी, कांग्रेस और उद्धव ठाकरे गुट की शिव सेना के गठबंधन और भाजपा-एकनाथ शिंदे गुट की भी परीक्षा होगी। जब से राज्य में महाविकास अघाड़ी की सरकार गिरी है तब से एक अंधेरी ईस्ट सीट का चुनाव हुआ है लेकिन वहां भाजपा ने उम्मीदवार नहीं दिया था इसलिए उद्धव ठाकरे की पार्टी के लिए मुकाबला एकतरफा रहा था। परंतु कसबा पेठ और चिंचवाड़ सीट पर दोनों गठबंधन लड़ रहे हैं। दोनों सीटें भाजपा विधायकों के निधन से खाली हुई हैं। चिंचवाड़ सीट पर भाजपा के मुकाबले महाविकास अघाड़ी की ओर से एनसीपी का उम्मीदवार मैदान में है जबकि कसबा पेठ सीट भाजपा के मुकाबले अघाड़ी की ओर से कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार उतारा है। अगर भाजपा इनमें से एक भी सीट हारती है तो राज्य की राजनीति में बहुत कुछ बदलेगा। भाजपा को राज ठाकरे की मनसे और एकनाथ शिंदे की शिव सेना का समर्थन प्राप्त है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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