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भक्षक: भूमि पेडनेकर की फ़िल्म सिस्टम और समाज पर एक करारा तमाचा है!

इस फ़िल्म में जो सबसे ज़रूरी बात दिखाने की कोशिश की गई है, वो ये है कि इसमें सिस्टम ही अपराधियों से मिला होता है। यानी रक्षक ही भक्षक बनने की ओर है।
Bhakshak

"दूसरों के दुख में दुखी होना भूल गए हैं क्या। क्या आप अब भी अपनी गिनती इंसानों में करते हैं क्या। या अपने आप को भक्षक मान चुके हैं।”

फिल्म भक्षक का ये डायलॉग आपको एक बार में ही पूरी फिल्म का सार समझा देता है। जैसा कि पहले से ही खबरों में है कि नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही इस फिल्म की कहानी सच्ची घटनाओं पर आधारित बिहार के मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड से प्रेरित है। तो वास्तव में भी फिल्म आपको उस कांड की काहानी को पर्दे पर उकेरती नज़र आती है।

फिल्म में हमारे सिस्टम के खोखलेपन और सो कॉल्ड सभ्य समाज की सच्चाई को बयां किया गया है। एक ऐसा समाज जो दूसरों के साथ गलत होने पर चुप रहता है, वीडियो बनाता है और फिर ट्विटर पर ट्रेंड करवाने के बाद उसे भूल जाता है। उसे किसी के साथ हो रहे गलत-सही से कोई मतलब नहीं। उसे बस अपने आराम की परवाह है।

सच दिखाने का साहस

फिल्म की कहानी में एक छोटी पत्रकार, जो सच दिखाने का साहस दिखाती है, इसे हर मोड़ पर चुनौती का सामना करते हुए दिखाया गया है। उस महिला पत्रकार का करियर उसके परिवार और रिश्तेदारों तक को उसके खिलाफ कर देता है। उसे एक मोड़ पर खुद के अकेले होने का एहसास भी होता है। लेकिन वो हार नहीं मानती और बालिका गृह की बच्चियों को बचाने का अपना संघर्ष जारी रखती है।

इस फिल्म में जो सबसे जरूरी बात दिखाने की कोशिश की गई है, वो ये है कि इसमें सिस्टम ही अपराधियों से मिला होता है। यानी रक्षक ही भक्षक बनने की ओर है। एक मंत्रालय जो समाज कल्याण के लिए बना है, वो अपने ही लालच में अपराधियों को पनाह दे रहा है। कल्याण तो छोड़िए, वो बालिका गृह की स्थिति और बच्चियों के शोषण में भी लिप्त है। ये कहानी सिर्फ मनोरंजन के लिहाज से नहीं बल्कि सामाजिक जागरूकता के लिए बहुत जरूरी है।

कहानी में एक बालिका गृह है, जो अनाथ और बेसहारा बच्चियों को सुरक्षा देने का दावा करता है। लेकिन असल मायनों में ये बच्चियों के शोषण का अड्डा होता है, जहां लड़कियों के साथ बलात्कार, शोषण, उत्पीड़न जैसे तमाम जघन्य अपराधों को अंजाम दिया जाता है। और तो और लड़कियों की हत्या तक कर दी जाती है।

भूमि कोई बड़ी पत्रकार नहीं होतीं। लेकिन हर कीमत पर सच को सामने लाना चाहती हैं। यहां उनकी मदद करने एक बड़ी पुलिस अफसर आती हैं, जो ऑफिस से इतर भूमि को सलाह देती हैं। भूमि अपने साहस के दम पर अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए सच को बाहर लाने की जोरदार कोशिश करती हैं।

अपराधियों की पहुंच ऊपर तक

फिल्म के अंत में बुराई का नाश दिखाया गया है। जहां महिला पुलिस अफसर बालिका गृह के संचालक को भरी भीड़ में गिरफ्तार करके ले जाती हैं। लेकिन ये इतना आसान नहीं होता। पूरा सिस्टम और सरकार इस मामले में उस अपराधी के साथ होती है। ये कहने को फिल्म है लेकिन इसकी सच्चाई हमारे इसी समाज की है, जिसमें अपराधियों की पहुंच ऊपर तक यानी सरकार के मंत्रियों तक होती है।

ये सिर्फ अपराधी के गिरफ्तार होने का संघर्ष है, जो फिल्म में दिखाया गया है। आप जानते ही हैं, गिरफ्तारी से आगे सज़ा तक का सफर और भी मुश्किल होता है। क्योंकि सिस्टम के खुद की पोल खुलने लगती है, इसलिए कई मामलों को वहीं जैसे-तैसे दबा दिया जाता है या कई बार अपराधी सबूतों के अभाव में भी बरी हो जाते हैं। आपको याद ही होगा कि मुजफ्फरपुर बालिका सुधार गृह कांड में सुप्रीम कोर्ट तक को हस्तक्षेप करना पड़ा था। तब सुप्रीम कोर्ट ने अदालत में मौजूद मुख्य सचिव को आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 377 और पॉक्सो एक्ट के तहत मामला दर्ज नहीं करने पर फटकार तक लगाई थी।

बहरहाल, महिलाओं के खिलाफ अपराध को लेकर हर सरकार खुद को गंभीर बताती है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इन सरकारों के नेता और मंत्री कहीं न कहीं इसे बढ़ावा देने के जिम्मेदार भी देखे जाते हैं। ऐसे में इन नेताओं पर क्या कार्रवाई होती है, ये भी किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में किससे क्या उम्मीद की जाए ये एक बड़ा सवाल है।

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