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भानु अथैया: 'गांधी' से लेकर 'स्वदेश' तक में बिखरी है जिनकी कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग की चमकती विरासत

ऑस्कर विजेता भानु अथैया लगभग आधी सदी तक बॉलीवुड और हॉलीवुड की फिल्मों के किरदारों को अपने कॉस्ट्यूम से जीवंत करती रहीं। उनकी यह विरासत अब फिल्म मेकिंग की धरोहर बन चुकी है।
फिल्म गांधी में महात्मा गांधी की भूमिका निभाने वाले बेन किंगस्ले के साथ भानु अथैया। स्रोत: भानु अथैया की किताब ‘आर्ट ऑफ कॉस्ट्यूम डिजाइन’
फिल्म गांधी में महात्मा गांधी की भूमिका निभाने वाले बेन किंगस्ले के साथ भानु अथैया। स्रोत: भानु अथैया की किताब ‘आर्ट ऑफ कॉस्ट्यूम डिजाइन’

हमारे शहर में यह 1983 का शुरुआती वक्त रहा होगा। अक्सर स्कूल से भाग कर फिल्म देखने वालों छात्रों की क्लास में हमारे प्रिंसिपल खुशखबरी लेकर आए। स्कूल की ओर से एक फिल्म के टिकट आधे दाम पर दिए जा रहे थे। फिल्म थी रिचर्ड एटनबोरो की 'गांधी'. तमाम बच्चों ने अपने मां-बाप के साथ वो फिल्म देखी। हिंदी फिल्म देखने के आदी बच्चों ने भले ही फिल्म देख कर ज्यादा कुछ न समझा हो। लेकिन आजादी की लड़ाई लड़ने वाले गांधी पर इतनी भव्य फिल्म से वो अभिभूत थे। इससे पहले उन्होंने इतना भव्य सेट और इस तरह के बड़े कैनवास की फिल्म नहीं देखी थी।

गांधी का रोल निभाने वाले बेन किंगस्ले उस साल भारतीयों के बीच जाना-पहचाना चेहरा हो गए। इसी साल हमने एक और नाम सुना- भानु अथैया। भानु को इस फिल्म में कॉस्टयूम डिजाइन के लिए उस साल का ऑस्कर मिला। वह ऑस्कर जीतने वाली पहली भारतीय बन गईं। इसके बाद हमने वर्षों उनका नाम नौकरियों के लिए ली जाने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रश्न-पत्रों में देखा। उस दौर की परीक्षाओं में एक प्रश्न का होना तय था- पहला ऑस्कर पाने वाला भारतीय कौन है?

दो दिन पहले उनके निधन की खबर आई तो सोचने लगा कि लगभग 50 साल तक भानु न सिर्फ फिल्मों का हिस्सा रहीं, बल्कि जाने-अनजाने हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गई थीं। नौकरी के लिए परीक्षा की तैयारियों के दौरान किसी न किसी किताब, गाइड या पत्रिका में उनके नाम से आमना-सामना होता ही रहा।

सिर्फ़, 15 मिनट की बातचीत और एटनबोरो ने कहा, मुझे ' गांधी' के लिए कॉस्ट्यूम डिजाइनर मिल गया

भानु अथैया ने एक कॉस्टयूम डिजाइनर के तौर पर शुरुआत 1956 में आई गुरुदत्त की फिल्म सीआईडी से की थी। फिल्म में देवानंद मुख्य भूमिका में थे और इसे राज खोसला ने डायरेक्ट किया था। 1983 में 'गांधी' के लिए ऑस्कर जीतने से पहले वह 'प्यासा', 'कागज के फूल', 'गंगा-जमुना' 'साहबी बीवी और गुलाम', 'तीसरी मंजिल', 'आम्रपाली, रेशमा और शेरा', और 'वक्त', कर चुकी थीं। 'नटवरलाल', 'निकाह' और 'प्रेम रोग' जैसी फिल्में भी उनके खाते में थीं। लेकिन तब तक शायद हिंदी फिल्मों में कॉस्टयूम डिजाइनर को तवज्जो देने की परंपरा नहीं था। तब स्क्रीन पर उनका नाम ड्रेस डिजाइनर के तौर पर ही आता था।

भानु ने एक इंटरव्यू में कहा था,  “ कॉस्ट्यूम डिजाइन के नाम पर डायरेक्टर और सेट डिजाइनर किसी टेलर को लेकर बैठ जाते थे या फिर स्टोर में मिलने वाले कपड़े ले आते थे। लेकिन मेरी वजह से उनका काम आसान हो गया। मैं डायरेक्टरों की बात सुनती, उनके हिसाब से स्केच बनाती। उसके बाद एक्टर-एक्ट्रेस से मिलती और फिल्म में पहने जाने वाली उनकी ड्रेस तैयार करती। यहां तक कि 'गांधी' के लिए अवॉर्ड जीत कर आने के बाद भी बॉलीवुड के लोग मुझसे पूछते फिल्म में सब कुछ सहज दिख रहा था। आपने ऐसा क्या किया कि पुरस्कार मिल गया। उन्हें पता नहीं था कि सब कुछ सहज दिखाना ही मेरा काम था। मुझे अवॉर्ड इसलिए मिला था।"

भानु को 'गांधी' के लिए पूरी दुनिया में शोहरत मिली। उन्होंने इस फिल्म के बारे में अपनी किताब 'द आर्ट ऑफ कॉस्ट्यूम डिजाइन' में दिलचस्प ब्योरे दिए हैं। वह लिखती हैं, " गांधी बनाने के लिए रिचर्ड एटेनबोरो ने 17 साल तक लगातार भारत की यात्रा की थी। आखिरकार 1980 में उन्होंने इस फिल्म को बनाने का फैसला किया। एटनबोरो को अहसास था भारत एक जटिल देश है और इसकी संस्कृति, जाति व्यवस्था, धर्म और यहां लोगों की वजह से इसे लेकर फिल्म बनाना कोई आसान काम नहीं है। इसका प्रोडक्शन बेहद मुश्किल साबित होने वाला था और वह यह भी अच्छी तरह से जानते थे कि इसके लिए उन्हें एक बेहतरीन भारतीय कॉस्टयूम डिजाइनर की जरूरत होगी।

उन्होंने अपने प्रोडक्शन ऑफिस से भारत के कुछ बेहतरीन कॉस्टयूम डिजाइनर से मिलाने के लिए कहा। तब तक मुझे हिंदी फिल्मों के लिए काम करते हुए 25 साल हो चुके थे। इसके कुछ साल पहले मैं एक इंटरनेशनल फिल्म कर चुकी थी। फिल्म थी 'सिद्धार्थ' और इसे डायरेक्ट किया था कोनराड रूक्स ने। फिल्म में सिमी ग्रेवाल ने मुख्य भूमिका निभाई थी। मेरी उनसे अच्छी दोस्ती हो गई थी और हम लगातार संपर्क में रहते थे। मुंबई में गांधी की कास्ट डायरेक्टर थीं डॉली ठाकौर। उन्होंने सिमी से कहा- मुझे भानु से मिलवाओ। सिमी ने कहा यह बेहद अहम असाइनमेंट है। खैर, रिचर्ड एटनबोरो ने मुंबई (बॉम्बे) की सी-रॉक होटल में मेरा ऑडिशन लिया। पंद्रह मिनट की बातचीत के बाद यह तय हो गया कि मैं उनकी फिल्म कर रही हूं। एटनबोरो ने ऐलान किया- उन्हें अपनी फिल्म की कॉस्ट्यूम डिजाइनर मिल गया।

'वक़्त के साथ गांधी के कपड़ों में बदलाव को दिखाना सबसे मुश्किल काम'

भानु के साथ इस फिल्म के एक और कॉस्ट्यूम डिजाइनर थे, जॉन मोलो। मोलो ने इस फिल्म में ब्रिटिश कॉस्ट्यूम को डिजइन करने का जिम्मा संभाला था। मोलो इससे पहले ऑस्कर जीत चुकी फिल्म स्टार वॉर्स कर चुके थे। दोनों को गांधी के लिए साझा अवॉर्ड मिला था। अपनी किताब में भानु लिखती हैं, "मुझे तैयारी के लिए सिर्फ तीन महीने का वक्त मिला था इसलिए मैं भूत की तरह काम पर लग गई। मैंने दिल्ली के म्यूजियम और लाइब्रेरियों को छान मारा। जहां कहीं से मुझे रेफरेंस मैटेरियल मिला, मैंने जुटाया। सबसे मुश्किल काम था बदलते वक्त के साथ गांधी और कस्तूरबा गांधी के कपड़ों में परिवर्तन दिखाने का। रिचर्ड एटनबोरो गांधी को उनके दर्शन के मुताबिक ही धोती और शॉल में दिखाना चाहते थे। बहरहाल, जैसे-जैसे दूसरे कलाकार आते गए मैं उनके कपड़े के डिजाइन तैयार करती रही। फिल्म को भारत समेत पूरी दुनिया में जबरदस्त रेस्पॉन्स मिला। दुनिया ने देखा भारत क्या था और गांधी कौन थे। पूरी दुनिया में इससे गांधी और भारत के बारे में दिलचस्पी और बढ़ी।

बाफ्टा में इस फिल्म को कई नॉमिनेशन मिले और पुरस्कार भी। भानु बताती हैं, " कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग के नॉमिनेशन में होने की वजह से मुझे कोलंबिया (अब सोनी पिक्चर्स) पिक्चर्स की ओर से अवार्ड समारोह में भेजा गया। एकेडेमी अवॉर्ड सेरेमनी में जाते वक्त मैं लिमोजिन में गांधी के स्क्रिप्टराइटर जॉन ब्राइली भी थे। वह मेरी ओर मुड़े और बोले मुझे आभास हो रहा है कि अवॉर्ड आप ही को मिलेगा। आप पूरी तरह इसकी काबिल हैं। ऑडिटोरियम मैं अपनी कैटेगरी की चार और नॉमिनी के साथ बैठे थे। सब मुझसे कहने लगे, हमारे जीतने की कोई संभावना नहीं दिखती। ऑस्कर आप ही का है। जब मैंने पूछा क्यों? तो उन्होंने कहा, आपका कैनवास बहुत बड़ा है। अवॉर्ड के लिए जैसे ही मेरे नाम का ऐलान हुआ, मैं तालियों की गड़गड़ाहट के साथ मंच पर पहुंची।" अवॉर्ड जीतने वालों को कुछ कहना होता है, मैं इतना ही कह पाई- मुझे इस सच  पर यकीन नहीं हो रहा। भारत की ओर ध्यान खींचने के लिए सर रिचर्डबोरो आपका धन्यवाद। थैंक्यू एकेडेमी।" मैं जब स्टेज से उतर रही थी तो देखा रिचर्ड मुझे फ्लाइंग किस दे रहे थे।" 

जब भानु के डिजाइन किए कपड़े ट्रेंड बन जाते थे

भानु को भले ही भारत और इसके बाहर 'गांधी' से पहचान मिली। लेकिन इससे पहले की कई भारतीय फिल्मों में वह अपना जलवा दिखा चुकी थीं। फिल्म ब्रह्मचारी (1969)  में मुमताज ने 'आज कल तेरे-मेरे प्यार के चर्चे हर जुबां पे' में ऑरेंज-कैंडी कलर की घुटनों तक प्री-प्लेटेड साड़ी पहनी थी। भानु ने इस साड़ी को ऐसे डिजाइन किया था कि मुमताज को भारी कोरियोग्राफी वाले गाने में स्टेप उठाने में कोई दिक्कत नहीं हो और शम्मी कपूर के स्टेप से स्टेप मिला सकें।

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फिल्म ब्रह्मचारी के एक दृश्य में मुमताज। फोटो साभार : सिप्पी फिल्म्स

भानु कहती हैं, " मैं इस डिजाइन से मुमताज के बिंदास और खिलंदड़ अंदाज के साथ पूरा न्याय करना चाहती थी। इस ड्रेस में मुमताज की शोख अदाओं ने कहर बरपाया और यह हिंदी फिल्मों का एक आइकानिक गाना बन गया। इस ड्रेस में दोनों ओर जिप लगी थी और इसे बाद में मुमताज साड़ी कहा गया।

भानु ने फिल्म 'वक़्त' में साधना के लिए एक और मशहूर ड्रेस डिजाइन की। यश चोपड़ा की इस फिल्म में साधना ने जो ड्रेस पहनी थी वह बेहद पॉपुलर हुई। घुटनों तक ट्यूनिक और लाइक्रा-लैगिंग स्टाइल वाली चूड़ीदार पाजामा बेहद पॉपुलर हुई। कॉलेज की लड़कियों के लिए यह पसंदीदा ड्रेस बन गई। आज भी आपको मॉल में बिकने वाली इस तरह की ड्रेस मिल जाएगी। इसका काफी कुछ श्रेय भानु को ही जाता है।

इससे पहले फिल्म आम्रपाली में उन्होंने वैजयंती माला के लिए अद्भुत कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग की थी। भानु ने अपनी किताब में बताया है कि इसके लिए उन्होंने अजंता की गुफाओं में बनी पेंटिंग्स से प्रेरणा ली। बौद्ध भिक्षुओं के लिए पहने जाने वाले हल्के गेरुए रंग के कपड़ों की डिजाइनिंग आसान नहीं थी। उस दौरान इन कपड़ों को पारिजात के फूलों के रंग में रंगा जाता था। फिल्म में आम्रपाली का किरदार निभाने वाली वैजयंती माला ने चोली पहनी हुई है, ऊपर का पूरा शरीर खुला दिखता है। लेकिन यह भानु का ही कमाल था कि उन्होंने ऐसी स्किन फिट ड्रेस डिजाइन की, दर्शकों को यह अंदाजा ही नहीं लगा कि वैजयंती माला के शरीर पर स्किन फिटेड ड्रेस है।

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फिल्म 'आम्रपाली' में आम्रपाली की भूमिका में वैजयंती माला। फोटो साभार: ईगल फिल्म्स

फिल्म में सुनील दत्त ने मगध सम्राट का किरदार निभाया था। उन्हें क्लासिक धोती पहनाई गई थी और सिर्फ कमरबंद के जरिये यह जाहिर कर दिया गया था वह राजा हैं। आम्रपाली एक नामी नगरवधू थीं, जिन्होंने बुद्ध के प्रभाव में सांसारिक जीवन छोड़ कर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। 'रेशमा और शेरा', 'लेकिन', 'लगान' और 'स्वदेश' जैसी फिल्मों के किरदारों के कपड़ों उनकी रिसर्च और काबिलियत साफ दिखती है। 'लेकिन' और 'लगान' के लिए उन्हें नेशनल फिल्म अवॉर्ड मिला।

'लगान' उनके करियर की एक और बेहतरीन फिल्म थी। अपनी किताब में वह कहती हैं, "मैंने इस पूरी फिल्म के परिवेश की परिकल्पना कर ली थी। चांपानेर के ग्रामीणों से लेकर ब्रिटिश रेजिमेंट के लोगों तक के किरदार मेरे दिमाग में फिट थे। इस फिल्म में ड्रेस के मामले में काफी विवधिता थी- मुझे क्रिकेट खिलाड़ियों के कपड़ों से लेकर बल्ले, गेंद, पैड, ब्रिटिश आर्मी की यूनिफॉर्म, चमकदार लाल जैकेट और ब्रिटिश महिलाओं की सौम्य पोशाकें, तक सब कुछ डिजाइन करना था। इसके साथ ही यह देखना था कि ग्रामीण किरदार कैसे कपड़े पहनेंगे। इस फिल्म के किरदार कपड़ों के मामले में बेहद प्रामाणिक दिखें इसके लिए उन्होंने सीधे भुज जाकर रिसर्च की। लेकिन शूटिंग के दो महीने पहले एक सुबह जब वह सो कर उठीं तो पता चला कि उनके चेहरे और एक हिस्से में लकवा पड़ चुका है. इसके बावजूद उन्होंने काम नहीं रोका। पूरी शूटिंग के दौरान वह चेहरे को दुपट्टे से ढक कर काम करती रहीं।

भानु ने जब्बार पटेल की फिल्म डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर और फिर आशुतोष गोवारिकर की फिल्म स्वदेश (2004) में भी कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग की। स्वदेश में शाहरुख के कैरेक्टर को उन्होंने डैपर शर्ट और जींस पहनाई और उसे एक आदर्शवादी युवा का लुक दिया। उनका आखिरी प्रोजेक्ट 2013 में टेलीविजन पर प्रसारित होने वाली सीरियल महाभारत था।

...और आखिर में जिस ऑस्कर से वह पूरे देश-दुनिया में चर्चित हुईं उसकी ट्रॉफी 2012 में एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंस को लौटा दिया। वह इस ट्रॉफी को सुरक्षित रखवाना चाहती थीं। इससे पहले भी वह एकेडमी को फिल्म गांधी के निर्माण से जुड़े कई दस्तावेज, फोटोग्राफ, नोट्स और चिट्ठियां एकेडमी को दे चुकी थीं। भानु अथैया लगभग आधी सदी तक बॉलीवुड और हॉलीवुड की फिल्मों के किरदारों को अपने कॉस्ट्यूम से जीवंत करती रहीं।  उनकी यह विरासत अब फिल्म मेकिंग की धरोहर बन चुकी है। भारत को इस विरासत पर नाज है। उन्होंने एक ऐसे वक्त में दुनिया में भारत का नाम रोशन किया, जब दुनिया को थर्ड वर्ल्ड के इस फिल्म प्रेमी देश में बहुत कम दिलचस्पी थी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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