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यमुना की सफ़ाई में 'आधिकारिक उदासीनता' बड़ी चुनौती, हटाया जाय मिलेनियम बस डिपो

राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) द्वारा गठित एक समिति ने कहा कि यमुना की सफ़ाई की निगरानी में सबसे बड़ी चुनौती “आधिकारिक उदासीनता” है क्योंकि वैधानिक प्रावधानों और काफी उपदेशों के बावजूद जल प्रदूषण प्राथमिकता नहीं है।
यमुना की सफ़ाई
image courtesy : New Indian Express

दिल्ली: यमुना की सफाई की निगरानी करने के लिए राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) की तरफ से नियुक्त समिति ने दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) से अनुशंसा की कि मिलेनियम बस डिपो को यमुना किनारे से स्थानांतरित किया जाए। समिति ने यह भी कहा कि पर्यावरण के लिहाज से यह असुरक्षित है।

यमुना निगरानी समिति में एनजीटी के सेवानिवृत्त विशेषज्ञ सदस्य बी एस सजवान और दिल्ली के पूर्व मुख्य सचिव शैलजा चंद्रा शामिल हैं। समिति ने एनजीटी को बताया कि डीटीसी बिना आवश्यक अनुमति हासिल किए इसका संचालन कर रहा है और अपशिष्ट जल को नदी में छोड़ रहा है। समिति ने कहा कि 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों के समय डीटीसी को बस डिपो बनाने के लिए अस्थायी जगह दी गई थी ताकि वह लो फ्लोर बसों का संचालन और उनकी देखभाल कर सके। समिति ने कहा कि डिपो में कई बसों की सफाई की जाती है और अपशिष्ट जल को नदी किनारे खुले में बहाया जाता है।

दो सदस्यीय समिति ने कहा कि जांच में डीटीसी के एक प्रतिनिधि ने बताया कि डिपो में निगम बसों की मरम्मत और देखभाल का काम भी करता है। इसने कहा कि डीटीसी बिना सहमति के इसका संचालन कर रहा है। एनजीटी को सौंपी गई रिपोर्ट में समिति ने कहा, ‘दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति ने यह भी कहा है कि इस्तेमाल किए गए इंजन ऑयल और अन्य ऑयल, ग्रीज जैसे खतरनाक पदार्थ यहां से निकलते हैं और इसे किसी के संज्ञान में नहीं लाया गया है और ऐसा पिछले नौ वर्षों से चल रहा है।’

अधिकरण ने इससे पहले एक पर्यावरण कार्यकर्ता को निर्देश दिया था कि मिलेनियम बस डिपो को स्थानांतरित करने की अपनी याचिका लेकर वह समिति से संपर्क करे। कार्यकर्ता ने यमुना के किनारे डिपो होने पर आपत्ति जताई थी। हरित पैनल ने यमुना नदी की सफाई की रोजाना आधार पर निगरानी के लिए एक समिति बनाई थी। यह मामला पिछले वर्ष अप्रैल में उच्चतम न्यायालय ने इस आधार पर हरित पैनल के पास भेज दिया था कि एक ही मुद्दे पर ‘समानांतर कार्यवाही’ नहीं चल सकती है।

सबसे बड़ी चुनौती आधिकारिक उदासीनता

समिति ने कहा कि यमुना की सफाई की निगरानी में सबसे बड़ी चुनौती “आधिकारिक उदासीनता” है क्योंकि वैधानिक प्रावधानों और काफी उपदेशों के बावजूद जल प्रदूषण प्राथमिकता नहीं है। एनजीटी के विशेषज्ञ सदस्य बी एस साजवान और दिल्ली की पूर्व मुख्य सचिव शैलजा चंद्रा की दो सदस्यीय यमुना निगरानी समिति ने एनजीटी को सौंपी अपनी अंतिम रिपोर्ट में बीते 23 महीनों के दौरान अपने इस अनुभव के बारे में जिक्र किया।

समिति ने कहा, “आधिकारिक उदासीनता पर काबू पाना सबसे बड़ी चुनौती है। यह एनजीटी के निर्देशों को पूरा करने या यमुना निगरानी समिति के प्रयासों को विफल करने के लिये किसी अवज्ञा या अनिच्छा की वजह से नहीं बल्कि इसलिये है क्योंकि जल प्रदूषण तमाम वैधानिक प्रावधानों और उपदेशों के बावजूद प्राथमिकता नहीं है।”

समिति ने कहा, “दूसरी बात यह कि रखरखाव के काम को राजनीतिक स्तर पर नई आधारभूत परियोजनाओं या योजनाओं के मुकाबले कम महत्व दिया जाता है। यह अधिकारियों और अभियंताओं के दिमाग में बैठ गया है कि जिस मानक पर उनके प्रदर्शन को आंका जाएगा वह मुख्य रूप से अधिकारी की नई परियोजनाओं को मंजूरी दिलाने, उसके लिये कोष हासिल करने और समय पर सामान व सेवाएं हासिल करने की उसकी क्षमता पर निर्भर करता है।”

यमुना निगरानी समिति ने अधिकरण को बताया कि नागरिकों को प्रभावित करने वाले जीवन की गुणवत्ता संबंधी मुद्दे अक्सर पृष्ठभूमि में चले जाते हैं और दैनिक रखरखाव के मामलों को निपटाने के लिये कनिष्ठ लोगों पर छोड़ दिया जाता है। समिति ने कहा कि स्वच्छ यमुना के लिये ज्यादा बड़े स्तर पर जनता की भागीदारी जरूरी है और इसे हासिल करने के लिये नागरिकों को सक्रिय भूमिका निभानी होगी।

कहा गया, “नदी को साफ करने को सरकार के चुनावी वादों की सूची में इस साल शामिल किया गया था और समिति को बताया गया था कि राजनीतिक स्तर पर भी इस पर ध्यान दिया जाना शुरू हो चुका है। लेकिन मौजूदा स्वास्थ्य संकट की वजह से यह एक बार फिर पीछे छूट गया है।”

954 एकड़ ज़मीन पर अब भी खेती

समिति ने बताया है कि इस नदी के बाढ़ की आशंका वाले मैदान के साथ लगती 954 एकड़ जमीन पर अब भी खेती हो रही है और उसने उसे उसके कब्जेदारों से मुक्त कराने की मांग की है।

यमुना निगरानी समिति (वाईएमसी) ने अधिकरण को बताया कि अतिक्रमण करने वाले लोगों की अवैध खेती को हटाने का अभियान चलाया गया था और सात जनवरी तक 352.36 हेक्टेयर जमीन खाली करायी गयी थी।

समिति ने कहा, ‘954 एकड़ जमीन अतिक्रमण और खेती के अधीन है। वाईएमसी इस पर अनथक काम कर रही है लेकिन 20 महीने में खाली कराने की योजना नहीं दी गयी है।’ समिति ने कहा कि एनजीटी यह निर्देश देने पर विचार कर सकता है कि कब्जे में ली गयी जमीन और जहां अदालत का स्थगन नहीं है, वहां से जमीन खाली करने की योजना तैयार की जाए।

एनजीटी का रुख़ सख़्त

गौरतलब है कि यमुना की सफाई के लिए राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने सख्त रुख अख्तियार किया है। इससे पहले पिछली साल अगस्त महीने में एनजीटी ने साफ कहा था कि यमुना साफ करने के लिए एक निश्चित समयसीमा तय करें। बार-बार समयसीमा टालते हुए आदेश का पालन नहीं किया गया है। 30 साल बाद भी यमुना में प्रदू्षण है।  

एनजीटी के अध्यक्ष जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की अगुवाई वाली पीठ ने साफ किया था कि यह समयावधि आखिरी होगी। एनजीटी ने सख्त लहजे में कहा कि अधिकरण नई समयसीमा तय करेगा। इसका उल्लंघन करने वालों को गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। पर्यावरण और जन स्वास्थ्य की रक्षा के लिए यमुना का साफ होना बेहद जरूरी है। एनजीटी ने सभी प्राधिकरणों को उसके आदेशों के संबंध में उठाए गए कदमों की जानकारी देने को कहा था।

आपको बता दें कि इससे पहले 2018 में सरकार ने लोकसभा में जानकारी दी थी कि यमुना नदी की सफाई एवं संरक्षण पर पिछले 25 वर्षों के दौरान 1514 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए गए हैं।

लोकसभा में पीके कुनहालिकुट्टी के प्रश्न के लिखित उत्तर में जल संसाधन राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा था कि 'यमुना कार्य योजना’ (वाईएपी) के तहत वर्ष 1993 से चरणबद्ध ढंग से हरियाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश राज्यों को वित्तीय सहायता देकर गंगा की सहायक नदी यमुना में बढ़ते प्रदूषण के स्तर को रोकने के लिए राज्य के प्रयासों को सहायता दी जा रही है। मंत्री ने कहा कि वाईएपी के चरण-1 एवं चरण-2 के तहत कुल 1514.70 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। हालांकि इसके बावजूद भी यमुना नदी का प्रदूषण कम होने का नाम नहीं ले रहा है।

(समाचार एजेंसी भाषा के इनपुट के साथ) 

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