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बिहार चीनी उद्योग : मीठी यादों और कड़वे सच का लम्बा दौर

1980 के दशक में चीनी उद्योग एक संपन्न उद्योग था, अब यही चीनी क्षेत्र राज्य के ग़ैर-औद्योगीकरण का उदाहरण बन रहा है।
बिहार चीनी उद्योग

पटना: लद गए वे दिन जब बिहार देश के कुल चीनी उत्पादन का 40 प्रतिशत पैदा करता था। अब यह मुश्किल से 4 प्रतिशत रह गया गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली राज्य सरकार की उदासीनता के कारण, पिछले 15 वर्षों में चुनावी लाभ के लिए खोखले दावे करने के अलावा इस उद्योग को पुनर्जीवित करने के लिए कुछ नहीं किया गया है।

आजादी से पहले बिहार में 33 चीनी मिलें थीं। गन्ना विकास विभाग के अनुसार संख्या घटकर 28 पर पहुँच गई थी, जिनमें से अब 11 चालू हैं और बाकी 17 बंद हो चुकी हैं। कुल कार्यात्मक मिलों में से दस को निजी प्रबंधन द्वारा चलाया जा रहा हैं।

1980 के दशक में जो कभी एक संपन्न उद्योग था, अब यह राज्य के गैर-औद्योगीकरण का  उदाहरण बन गया है।

नील से गन्ने तक: एक संक्षिप्त इतिहास 

उत्तर बिहार में नील की खेती से गन्ने की खेती पर आने की व्याख्या करते हुए, सुनील कुमार झा- जिन्होंने राज्य में चीनी उद्योग पर कई शोध-आधारित लेख लिखे हैं- ने कहा कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1792 में भारत में एक प्रतिनिधिमंडल को इस उद्देश्य से भेजा था ताकि विदेशों में चीनी की बढ़ती मांग को संबोधित किया जा सके।

चीनी उत्पादन की संभावनाओं का पता लगाने के लिए, जे॰ पीटरसन के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल भारत आया जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी के तिरहुत क्षेत्र में भूमि न केवल उपयुक्त है, बल्कि सस्ता श्रम और परिवहन सुविधाएं भी सुलभ हैं।

उन दिनों यह क्षेत्र नील की खेती के लिए जाना जाता था। इस रिपोर्ट के बाद, क्षेत्र के किसानों ने गन्ना उगाना शुरू कर दिया क्योंकि नील उत्पादन में लाभ कम था। चूंकि गन्ने की खेती इस क्षेत्र में शुरू हुई थी, इसलिए पहली चीनी मिल 1820 में चंपारण क्षेत्र के बाराह एस्टेट में स्थापित की गई थी।

300 टन चीनी के उत्पादन की क्षमता वाले कारखाने में गन्ने के रस से 8 प्रतिशत तक चीनी का उत्पादन होता था। लेकिन क्षेत्र के लोगों को यहां उत्पादित चीनी देखने को भी नहीं मिलती थी। उन्होंने बताया की यहां की चीनी को पंजाब सहित पश्चिमी भारत में भेजा जाता था।

1877 तक, नील की खेती पश्चिमी तिरहुत क्षेत्र में 5,000 हेक्टेयर से घटकर 1,500 हेक्टेयर तक रह गई और 2,000 हेक्टेयर पर गन्ने का उत्पादन शुरू हो गया था। 1903 तक, किसानों ने हमेशा के लिए नील की खेती या उत्पादन छोड़ दिया था।

चीनी मिल का आना 

झा ने बताया कि तिरहुत को चीनी का स्वाद केवल 20 वीं शताब्दी में मिला, जब यहां कारखाने लगाए गए थे। 1903 के बाद इस क्षेत्र में आधुनिक चीनी मिलों को लगाया गया। 1914 तक आते-आते, दरभंगा जिले के लोहाट और रायम चीनी मिलों और पश्चिम चंपारण के लौरिया चीनी मिल से चीनी का उत्पादन शुरू हो गया था।

सिवान और समस्तीपुर जिलों में चीनी कारखाने क्रमशः 1918 और 1920 में चालू हुए थे।

इस तरह, इस क्षेत्र में चीनी उत्पादन की एक बड़ी इकाई स्थापित की गई थी। लेकिन सरकार की उपेक्षा के चलते इन कारखानों को समय के साथ विकसित या आधुनिक नहीं बनाया जा सका। हालांकि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इन इकाइयों का कुछ हद तक अपग्रेडेशन किया गया लेकिन वह उनके विदेशी प्रतिद्वंद्वियों के समान नहीं था।

1929 तक, उद्योग को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और देश में चीनी मिलों की संख्या घटकर केवल 32 रह गई, जिनमें से पाँच तिरहुत क्षेत्र से थीं।

तिरहुत चीनी उद्योग की तबीयत इतनी नहीं बिगड़ी होती अगर 1920 में गठित भारतीय चीनी समिति उद्योग के संरक्षण और अपग्रेडेशन के लिए पर्याप्त सिफारिशें कर देती। कहीं बाद में जाकर, इम्पीरियल कृषि अनुसंधान परिषद ने गन्ना उत्पादकों के हितों की रक्षा में चीनी उद्योग के संरक्षण की सिफारिश की। नतीजतन, उद्योग को 1932 में सात साल के इतिहास में पहली बार हुकूमत का समर्थन मिला था।

तिरहुत ने इस अवसर का पूरा फायदा उठाया, और क्षेत्र में उद्योग का तेजी से विकास इस तथ्य की भरपूर गवाही देता है। चार साल के भीतर, चीनी मिलों की संख्या सात से बढ़कर 17 हो गई थी। परिणामस्वरूप, चीनी उत्पादन में छह गुना की वृद्धि हुई और आयातित उपकरणों के मूल्य में आठ गुना की वृद्धि हुई, "उन्होंने आगे बताया और कहा," हुकूमत के संरक्षण में छह साल के भीतर, चीनी आयात में 8.5 करोड़ रुपये की कमी आई और 25 लाख रुपये की चीनी का आयात भारत में हुआ। चीनी कारखानों ने 1932 में 19.5 प्रतिशत और 1934 में 19.2 प्रतिशत और 1931 के बीच 11.2 प्रतिशत के औसत से 17.2 प्रतिशत का लाभांश दिया।"

इस वृद्धि को देखते हुए, झा ने बताया कि, 1937 में सुगर टैरिफ बोर्ड ने दो साल के लिए उद्योग को हुकूमत का समर्थन करने की सिफारिश की। बोर्ड की सिफारिश मंजूर होने के बाद तिरहुत में चीनी की बढ़ती उत्पादकता के साथ, भारत न केवल 1938-39 के दौरान चीनी उत्पादन में आत्मनिर्भर हो गया बल्कि उसने अतिरिक्त उत्पादन भी शुरू कर दिया था। इसका मुख्य कारण उद्योग को हुकूमत का संरक्षण था।

झा के अनुसार, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कच्चे माल और उपकरणों की लागत में भारी कमी आ गई, इससे चीनी उद्योग क्षेत्र में विकास मददगार साबित हुआ। लेकिन 1937 में दुनिया के 21 प्रमुख चीनी उत्पादक देशों के बीच एक अंतरराष्ट्रीय समझौते ने उद्योग को प्रभावित किया। इस समझौते के अनुसार, प्रत्येक देश का एक निर्यात कोटा तय किया गया और भारत को किसी अन्य देश को चीनी निर्यात करने से पांच साल के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था। परिणामस्वरूप, 1942 तक, बिहार सहित पूरे देश में अति-उत्पादकता की समस्या उत्पन्न हो गई। इसके चलते कई चीनी मिलें बंद हो गईं।

हुकूमत द्वारा चीनी मिलों का अधिग्रहण 

अत्यधिक उत्पादन से पैदा हुए हालात का मुकाबला करने के लिए, चीनी उत्पादकों ने उत्पाद मूल्य में कमी को रोकने के लिए एक यूनियन/एसोसिएशन बनाई। इस एसोसिएशन ने अपने सदस्य कारखानों के माध्यम से चीनी की बिक्री सुनिश्चित करना शुरू किया। “1966-67 तक, बिहार के निजी मिल मालिकों ने पूरी तरह से चीनी उद्योग पर नियंत्रण कर लिया था और इस तरह की नीति अपनानी शुरू कर दी ताकि सरकार पूरी तरह से इस उधयोग पर अपना नियंत्रण खो दे। इससे चीनी मिल मालिकों और सरकार के बीच बड़ा टकराव हुआ, ”ऐसा झा ने बताया।

1972 में, केंद्र सरकार ने एक चीनी निगरानी समिति का गठन किया, जिसने 1972 के अंतिम सप्ताह में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें उद्योग की स्थिति और समस्याओं का जायजा लिया गया। उसने सुझाव दिया कि सरकार चीनी कारखानों का अधिग्रहण करे।

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नतीजतन, 1977 से 1985 के बीच बिहार सरकार ने करीब 15 से अधिक चीनी मिलों का अधिग्रहण कर लिया था, जिसमें समस्तीपुर में समस्तीपुर सेंट्रल शुगर कोऑपरेटिव लिमिटेड, दरभंगा जिले के रायम में तिरहुत कोऑपरेटिव शुगर कंपनी लिमिटेड, वैशाली जिले के गोरौल में शीतल शुगर वर्क्स लिमिटेड, सीवान जिले में एसकेजी शुगर लिमिटेड, गया जिले के फनफार में गुरारू शुगर मिल, न्यू सिवान शुगर एंड गुड रिफाइनिंग कंपनी, मधुबनी जिले के लोहट में दरभंगा शुगर कंपनी लिमिटेड, पटना जिले के बिहटा में साउथ बिहार शुगर मिल लिमिटेड, पूर्वी चंपारण जिले के सुगौली में सुगौली शुगर वर्क्स लिमिटेड, गोपालगंज जिले के हथुआ में एसकेजी शुगर लिमिटेड, पश्चिम चंपारण जिले के लौरिया में एसकेजी शुगर लिमिटेड, मुजफ्फरपुर जिले के मोतीपुर में मोतीपुर चीनी कारखाना, मधुबनी जिले के सकरी में दरभंगा शुगर लिमिटेड, पूर्णिया सहकारी चीनी कारखाने लिमिटेड, पूर्णिया जिले में बनमनखी, और नवादा जिले के वारिसलीगंज में वारिसलीगंज सहकारी चीनी मिल लिमिटेड शामिल है।

बिहार चीनी उधयोग का धव्स्त होना 

इन चीनी मिलों को चलाने के उद्देश्य से, 1974 में बिहार राज्य चीनी निगम लिमिटेड की स्थापना की गई थी- जिसका उद्देश्य चीनी मिलों के घाटे को नियंत्रित करना और उन्हें सुचारू रूप से प्रबंधित करना था। लेकिन इनमें से अधिकांश कारखाने गिरती कीमतों और इनपुट लागत में वृद्धि का सामना नहीं कर सके। परिणामस्वरूप, ये इकाइयाँ एक के बाद एक बंद होने लगीं।

“1996-97 के पेराई के सीजन के बाद, इन कारखानों को बंद कर दिया गया था। घाटे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन कारखानों का किसानों पर 8.84 करोड़ रुपये और अपने कर्मचारियों का 300 करोड़ रुपये बकाया था। 1990 तक, तिरहुत, मिथिला और चंपारण क्षेत्रों में गन्ने की खेती कुछ ही जिलों में रह गई थी। इस खेती की जगह अब गेहूं उत्पादन ने ले ली थी, और इन क्षेत्रों से नकदी की फसल के रूप में गन्ने की खेती को अंतिम विदाई दे दी थी, ”जैसा कि उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया।

सरकार ने हाथ उठाए और बहाली से किया इंकार 

बंद मिलों को फिर से जीवनदान देने के लिए, सरकार ने 2005 में गन्ना उद्योग विकास आयुक्त की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय बैठक बुलाई थी। इस बैठक में समिति ने कहा कि बिहार राज्य चीनी विकास निगम (BSSDC) के तहत बंद चीनी कारखानों की बहाली तैयार करने के लिए एक वित्तीय सलाहकार नियुक्त किया जाना चाहिए।

एसबीआई कैपिटल को यह काम सौंपा गया था। इसने राज्य सरकार को परिसंपत्ति मूल्यांकन, परिचालन और वित्तीय मापदंडों के आधार पर रायम, मोतीपुर और लोहाट में चीनी के उत्पादन के प्रस्ताव पर एक संक्षिप्त रिपोर्ट दी। बाकी बंद मिलों को चीनी के अलावा अन्य किसी लायक खाद्य उद्योग या डेयरी उद्योग या सकरी में डिस्टिलरी कारखाने, बिहटा में एक लॉजिस्टिक पार्क और समस्तीपुर में एक जूट मिल में विकसित करने का प्रस्ताव दिया था।

1933 में लोहट चीनी मिल के लाभ से अर्जित पूंजी की मदद से स्थापित किए गए सकरी में चीनी कारखाने को बंद कर दिया गया, जैसा कि वित्तीय सलाहकार ने सुझाव दिया था। इस तरह, सकरी बिहार के चीनी कारखानों के इतिहास में ऐसी पहली इकाई बनी जिसे शांत कर दिया गया। 

इसके अनुसार, उद्योग विभाग ने 2008 में एक निविदा यानि टेंडर निकाला और हिंदुस्तान पेट्रो केमिकल्स लिमिटेड (एचपीसीएल), जो कि एक केंद्र सरकार का उपक्रम है, ने 95 करोड़ रुपये की बोली लगाई और भुगतान करने के बाद लौरिया और सुगौली की दो चीनी मिलों को ले लिया। इनमें मेथनॉल, बिजली और चीनी के उत्पादन हेतु 700 करोड़ रुपये निवेश की परियोजना का प्रस्ताव पेश किया।

इसके बाद, विभाग ने तीन अलग-अलग निविदाएं जारी की, जो छह अन्य चीनी मिलों के मामले में इच्छुक निवेशकों की बोली के माधायम से पैसे को सुरक्षित करने में कामयाब रहीं। रायम और सकरी संयंत्रों की बोली का पैसा लगभग 27.36 करोड़ रुपये था था और 200 करोड़ रुपये की परियोजना का प्रस्ताव था। बिहटा और मोतीपुर के लिए, यह 79.40 करोड़ रुपये था और 350 करोड़ रुपये का निवेश का प्रस्ताव था। लोहट और समस्तीपुर में, बोली राशि 58.71 करोड़ रुपये थी।

लेकिन इन पट्टों ने अभी तक चीनी कारखानों की बहाली का वांछित परिणाम हासिल नहीं किया है। श्री तिरहुत इंडस्ट्रीज लिमिटेड, जिसे लीज़ पर राईम चीनी मिल मिली है, ने नई मशीनों को स्थापित करने के बजाय मिल की पुरानी संपत्ति बेच दी है। हालांकि, कंपनी ने 2009 में दावा किया था कि यह 200 करोड़ रुपये के निवेश से 2010 तक इकाई को कार्यात्मक बना देगा।'

कुल 13 चीनी मिलों में से, जिन्हे निजी खिलाड़ियों को लीज पर दिया गया हैं, जिनमें 11 फैक्ट्रियां शामिल हैं, उनमें सुगौली, लौरिया, बाघा, हरिनगर, नरकटियागंज, मंझौलिया, सासामुसा, गोपालगंज, सिधवलिया, रीगा, और हसनपुर को चालू किया गया है, जबकि रायम, मोतीपुर और लोहाट का भविष्य निजी हाथों में दिए जाने के बावजूद धुंधला दिखाई दे रहा हैं।

अंत में तो ऐसा ज़ाहिर होता है कि सरकार ने अब आत्मसमर्पण कर दिया है और मान लिया है कि वह बंद मिलों को पुनर्जीवित करने में असमर्थ है। घाटे को नियंत्रित करने और इसे सुचारू रूप से प्रबंधित करने का सरकार का दावा सपाट और गलत साबित हुआ।

इथेनॉल बना मुख्य धुरी 

निवेशक चीनी उत्पादन में कम रुचि रखते थे, वे इथेनॉल के उत्पादन के लिए चीनी मिलें हासिल करना चाहते थे क्योंकि राज्य सरकार की परिकल्पना थी कि संभावित बोली लगाने वाली कंपनियाँ इथेनॉल के स्वतंत्र उत्पादन को बढ़ावा देंगे। फिर, एथेनॉल के स्वतंत्र उत्पादन का रास्ता खोलने के लिए बिहार राज्य चीनी मिल अधिनियम 2007 में संशोधन किया गया था।

इससे पहले कि संशोधन पर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल सहमति देती, तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने खाद्य फसलों की खेती से नकदी फसलों की तरफ बड़े पैमाने पर बदलाव की आशंका को देखते हुए, चीनी मिलों में इथेनॉल के स्वतंत्र उत्पादन पर रोक लगाने वाले गन्ना नियंत्रण आदेश को जारी किया। नतीजतन, चीनी निवेशकों को यह स्वाद कड़वा लगा।

सब चंगा जी 

बिहार के गन्ना आयुक्त उदय कुमार सिंह टिप्पणी के लिए मौजूद नहीं थे, लेकिन गन्ना उद्योग विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, कि सरकार उद्योग की बहाली के लिए हर संभव कोशिश कर रही है।

हालात सुधर रहे हैं। रायम, मोतीपुर और लोहाट चीनी मिलें जो पहले ही लीज पर दी जा चुकी हैं, आने वाले दिनों में वे अपना काम करना शुरू कर देंगी। चीजों को क्रम में लाने में समय लगता है। निवेशकों की उदासीनता को देखते हुए, हर बंद चीनी मिल की बहाली संभव नहीं है। निवेशकों को समस्तीपुर, बिहटा और सकरी में चीनी के अलावा किसी अन्य उद्योग में विकसित करने का विकल्प दिया अगया हैं क्योंकि सरकार को यह कालभ्रमित नहीं लगता है, ”ऐसा उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया।

राज्य की 17 चीनी मिलों को बंद करने के बारे में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि अक्सर उधयोग की उम्मीद को नजरअंदाज कर दिया जाता है। केवल 11 मिलें चल रही हैं, 2019-20 में दैनिक गन्ना पेराई या रस निकालने की क्षमता बढ़कर 81.50 लाख टन हो गई है। यह उन दिनों की तुलना में बहुत अधिक है जब सभी 28 मिलें काम करती थी। 2019-20 में चीनी उत्पादन में भी 8.56 लाख टन की संतोषजनक वृद्धि देखी गई। राज्य में गन्ने का उत्पादन 2019-20 में पिछले वर्ष के 183 लाख टन से 221 लाख मीट्रिक टन की जबरदस्त वृद्धि हुई है।

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