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चिराग को पता होना चाहिए कि नीतीश बिहार की सियासत के आलू हैं

अब जबकि यह लड़ाई बिहार के मुख्यमंत्री की चौखट पर आ गयी है, तो नीतीश कुमार जीत के फ़ासले को कम करने के अनुकूल साबित हो सकते हैं।
नीतीश
नीतीश कुमार, फ़ोटो साभार: विकिपीडिया

यह बहस का विषय है कि लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग़ पासवान ने उस पुराने मुहावरे के बारे में सुना है या नहीं-" अपने ही दांव से चारों खाने चित्त हो जाना ।" इस मुहावरे का इस्तेमाल किसी ऐसे शख़्स का वर्णन करने के लिए किया जाता है, जिसकी योजना दूसरों को मुसीबत में डालने की होती है,लेकिन उसका शिकार वह ख़ुद हो जाता है। चिराग़ महत्वाकांक्षी है और लोजपा को एक ज़बरदस्त ताक़त में बदलना चाहते हैं। लेकिन, भविष्य का उनका खाका असल में नीतीश कुमार के बिहार के मुख्यमंत्री बनने के एक और मौक़े की गुंजाइश को सिफ़र करने को लेकर है। या फिर इसे दूसरे तरीक़े से कहें, तो वह यह साबित करना चाहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के लिए लोजपा की उपयोगिता नीतीश की जनता दल-यूनाइटेड से कहीं ज़्यादा है।

2015 के विधानसभा चुनावों में एलजेपी ने दो सीटें जीती थी और उसे कुल वोटों का 4.83% वोट हासिल हुआ था। हालांकि, पार्टी का वोट शेयर 42 सीटों पर असरदार था,यानी 29.79% था। उस समय लोजपा का गठबंधन भाजपा के साथ था  और जेडी-यू का गठबंधन लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ था। इसका मतलब यह है कि इस दलित पार्टी, लोजपा ने जिन 42 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे,वहां उसे भाजपा के मतदाताओं के बड़े तबके ने वोट दिया था।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) में जेडी-यू की वापसी का मतलब ही है कि 2020 में एलजेपी को 42 सीटों से कम सीटें मिलना । चिराग़ सीटों के इस कम शेयर को स्वीकार नहीं करना चाहते थे और एलजेपी के वोट-शेयर को गिरते हुए भी नहीं देखना चाहते थे,इसके लिए उन्होंने निश्चित रूप से अजीब-ओ-ग़रीब तरीक़े से एनडीए से अलग होने का विकल्प चुना है। वह उन सभी निर्वाचन क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार उतारेंगे, जहां-जहां एनडीए का उम्मीदवार जद-यू से होगा। लेकिन,उनकी पार्टी भाजपा उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ चुनाव नहीं लड़ेगी। यह देखते हुए कि भाजपा को बिहार विधानसभा की 243 सीटों में से आधी सीटें आवंटित की गयी है, एलजेपी 2015 के मुक़ाबले तक़रीबन तीन गुना ज़्यादा उम्मीदवारों को मैदान में उतारेगी।

पटना विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष,नवल किशोर चौधरी कहते हैं कि एनडीए की छत्रछाया के बाहर लड़ने से चिराग़ को चार मायने में फ़ायदा होगा।वह कहते हैं, “वह अपनी पार्टी से जुड़े लोगों की आकांक्षाओं को समायोजित कर सकते हैं, जिससे निश्चित ही रूप से पार्टी के वोट-शेयर में बढ़ोत्तरी होगी। यह उन्हें यह बताने में मददगार साबित होगा कि उन्होंने अपने पिता रामविलास पासवान(केंद्रीय मंत्री) से पदभार संभाल लिया है। और जैसा कि सभी पार्टियों की इस समय की हक़ीक़त है, मुझे लगता है कि एलजेपी को उन उम्मीदवारों से पैसे भी मिलेंगे,जिन्हें टिकट दिये जायेंगे।”  

चिराग़ के इस फ़ैसले का निहितार्थ यह दिखाना भी है कि लोजपा के पास जेडी-यू से बेहतर क्षमता है कि वह इस मामले में बीजेपी या किसी और को अपना वोट ट्रांसफ़र कर सके। एलजेपी के मतदाताओं का मुख्य आधार दुसाध हैं, जिनमें बिहार की 15% दलित आबादी का लगभग एक-तिहाई हिस्सा शामिल है। बिना संगठन वाले ग्रामीण भारत की राजनीति में दुसाधों के बीच यह करना होगा कि वे न सिर्फ़ अपने मताधिकार का प्रयोग करें, बल्कि यह सुनिश्चित करें कि अन्य दलित समुदाय भी ऐसा ही करें, लेकिन,हिंदी पट्टी में इसकी कोई निश्चितता नहीं है।

पटना कॉलेज के संस्कृत विभाग के पूर्व प्रभारी,डॉ.अमित कुमार का कहना हैं, “वे दलित मतदाताओं के इकट्ठा करने वाले घटक के तौर पर कार्य कर सकते हैं। इसके ऊपर,लोजपा अपने दलित वोटों को जिसको चाहे,स्थानांतरित कर सकती है। उन आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों को भूल जाइये, जहां अन्य समुदायों के हाथों में जीत की कुंजी है, लेकिन 30 से 40 निर्वाचन क्षेत्र ऐसे ज़रूर हैं,जहां दलित वोट अहम भूमिका निभा सकते हैं।”

अमित कुमार को लेकर इन तथ्यों को जानना ज़रूरी है कि वह कभी लोजपा के साथ थे और फिर उन्होंने 2015 के विधानसभा चुनाव में लोजपा को छोड़कर अखिल भारतीय मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के टिकट पर लड़ा था। इस तरह, वह जो कुछ कहते हैं, उसका मतलब होगा। जिन सीटों पर भाजपा उम्मीदवार उतारेगी, वहां लोजपा चुनाव नहीं लड़ेगी। यह बात दलितों के  लिए भाजपा को वोट देने का संकेत होगा। और उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहां-जहां जेडी-यू उम्मीदवार उतारेगी, वहां-वहां एलजेपी भी अपना उम्मीदवार उतारेगी। ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में दलित लोजपा का विकल्प चुनेंगे। इन दलित वोटों को निकल जाने से जेडी-यू को जीत के लिए सबसे पिछड़ी जातियों के बीच अपने ख़ुद के समर्थक मतदाताओं पर निर्भर रहना होगा।

ऐसे में  सवाल उठता है कि उच्च जातियों के बीच भाजपा के ज़बरदस्त समर्थन का क्या होगा ? यहीं पर मुहावरा, "अपने ही दांव से चित्त हो जाना" प्रासंगिकता अख़्तियार कर लेता है।

जेडी-यू को नुकसान पहुंचाने को लेकर चिराग़ की इस रणनीति के केंद्र में यह धारणा है कि भाजपा और उसके समर्थक, विशेष रूप से उनके बीच उच्च जातियां अपने ख़ुद का मुख्यमंत्री चाहते हैं - और फिर से नीतीश कुमार के लिए अगली पारी खेलते देखना नहीं देखना चाहते हैं। उनकी धारणा है कि साल 2020 इसके लिए एकदम सटीक है। नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ सत्ता-विरोधी माहौल है। उनकी अपनी कुर्मी जाति की संख्या इतनी बड़ी संख्या भी नहीं है, और निश्चित रूप से यह कह पाना मुश्किल है कि सबसे पिछड़ी जातियों और महिलाओं के बीच उनका आधार इस समय बरक़रार है भी या नहीं।

इस प्रकार, जेडी-यू के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ अपने उम्मीदवार उतारकर चिराग़ उन उच्च जातियों को एलजेपी को वोट करने का संकेत दे रहे हैं, जो भाजपा का खुलेआम समर्थन करने को लेकर मुखर रहे हैं और इसलिए,चुनाव के बाद भी अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार चाहते हैं।

चिराग की अपेक्षायें तभी पूरी हो सकती हैं,जब ऊंची जातियां इस बात पर यक़ीन कर ले कि चिराग़ के इस दांव-पेच को लेकर भाजपा की मौन स्वीकृति है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में यह एक आम धारणा है कि वे एनडीए पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करेंगे और उनकी इस योजना के ख़िलाफ़ जो भी जाता है,उसके लिए एनडीए में कोई गुंज़ाइश नहीं बचती है, कुछ लोगों को लगता है कि चिराग़ उन्हें बिना नाराज़ किये ऐसा कर सकते थे।

प्रतिष्ठित एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज, पटना के पूर्व निदेशक,डीएम दिवाकर कहते हैं, “लोगों को लगता है कि चिराग़ भाजपा के इशारे पर काम कर रहे हैं। उन्होंने इस बात का ऐलान किया था कि वह राजद-कांग्रेस-वाम दलों की तरफ़ से आपस में सीट के बंटवारे के अनुपात की घोषणा के बाद ही जेडी-यू के ख़िलाफ़ अपना उम्मीदवार खड़ा करेंगे। इसलिए, नीतीश तो विकल्प से बाहर ही हो गये।” दिवाकर बताते हैं कि 2015 के चुनाव से भाजपा को जो सबक मिला था, वह यह था कि '' (नीतीश) कुमार जिस गठबंधन का हिस्सा होंगे,सरकार उसी गठबंधन की बनेगी''। लिहाज़ा कुमार को कहीं और जाने से रोक लिया गया।

पटना विश्वविद्यालय के राजनीतिक विज्ञान के एसोसिएट प्रोफ़ेसर और बिहार में चुनाव सर्वेक्षण कराने वाले दिल्ली स्थित सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज के सहयोगी राकेश रंजन कहते हैं, “मैं भाजपा कार्यकर्ताओं से बात करता रहा हूं, और वे तो वास्तव में यही कहते हैं कि चिराग़ के इस फ़ैसले को भाजपा की महत्वाकांक्षाओं के लिए उपयुक्त माना जा रहा है।” लेकिन अभी तो ये शुरुआती दिन हैं। बिहार चुनाव के आख़िरी चरण में 7 नवंबर तक मतदाता निहित संदेशों की तलाश करेंगे।

रंजन कहते हैं, "लोग यह देखने का इंतज़ार करेंगे कि क्या मोदी सिर्फ़ बीजेपी के प्रभुत्व वाले इलाक़ों में ही रैलियां करते हैं या फिर वे परंपरागत रूप से जेडी-यू के मैदान के तौर पर माने जाने वाले क्षेत्रों में भी उसी तरह की रैलियां करेंगे।" वे कहते हैं,“ लेकिन,इस तरह के संकेतों के आधार पर वोटिंग के फ़ैसले से मतदाताओं के बीच भ्रम भी पैदा हो सकता है। मामूली फ़ासले वाले अप्रत्याशित जीत भी हो सकती हैं।”

अंतत: नीतीश और चिराग़ की क़िस्मत उच्च जातियों की धारणा और मतदान के व्यवहार पर निर्भर करेगी। अमित कुमार कहते हैं,“उच्च जाति / उच्च वर्ग के मतदाता सभी सामाजिक समूहों से सबसे ज़्यादा जागरूक हैं। वे उनलोगों में से हैं, जो हर तरह से खेलना चाहते हैं। जेडी-यू और एलजेपी के उम्मीदवारों बीच वे इस बात पर नज़र रखेंगे कि एक-एक क्षेत्र में किसके उम्मीदवार उनके सबसे ज़्यादा अनुकूल हैं।”

इस तरह, अगर जेडी-यू मैदान में किसी अति पिछड़ी जाति के उम्मीदवार को उतारती है और लोजपा किसी मज़बूत सवर्ण उम्मीदवार को उतारती है,तो फिर सवर्ण मतदाता लोजपा के पीछे चल देंगे। अगर दोनों ही पार्टियां उच्च जाति के उम्मीदवारों को मैदान में उतारते हैं, तो यह इस बात पर निर्भर करेगा कि दोनों में से कौन बेहतर माना जा रहा है। अमित कुमार कहते हैं, "यह याद रखना ज़रूरी कि ऐसा नहीं कि राज्य के हर हिस्से में उच्च जातियों का ही वर्चस्व है। इस चुनाव में 40,000 मतदान वाला कोई भी उम्मीदवार एक मामूली फ़ासले के साथ विजेता बन सकता है।"

जीत के इस मामूली फ़ासले का मतलब यही है कि चिराग़ अपने ही दांव से चारों खाने चित्त हो सकते हैं। नवल किशोर चौधरी ज़ोर  देकर कहते हैं, "चिराग़ एनडीए की उस जड़ पर ही मट्ठा डालने का काम  करेंगे, जो कि भाजपा-जद (यू) से बनी है। मेरे शब्दों को लिख लीजिए, “एक बार फिर नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बनेंगे।” मगर,सवाल है कि अगर जेडी-यू की सीटें बीजेपी से कम आती हैं, तो फिर क्या होगा ? चौधरी कहते हैं, “अगर कांग्रेस शिवसेना के साथ गठबंधन कर सकती है, तो उसे नीतीश कुमार का समर्थन करने में समस्या क्यों होगी ? यहां तक कि वामदलों को भी उनका समर्थन करने में कोई समस्या नहीं होगी और राजद को तो किसी भी समय इस बात के लिए राज़ी किया जा सकता है।”

दूसरे शब्दों में, जब तक जेडी-यू का आकार उस हद तक कम नहीं हो जाता है, जहां इसे आसानी से तोड़ा जा सकता है, तबतक नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में बने रहेंगे। नीतीश कुमार की इस परिघटना की व्याख्या करने के लिए राकेश रंजन एक गंभीर बिंब का इस्तेमाल करते हैं, “आलू को शाकाहारी और मटन दोनों ही तरह के खाने में डाला जा सकता है। नीतीश कुमार दरअस्ल बिहार की राजनीति के आलू हैं।” वह तब तक मायने रखेंगे,जब तक राजद-कांग्रेस-वाम अपने दम पर बहुमत के निशान को पार नहीं कर लेते।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं,इनके विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Chirag Should Know: Nitish is a Potato in Bihar Politics

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