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बिहार चुनाव: कोशी बाढ़ की तबाही के बारह साल बाद भी पीड़ितों को पुनर्वास की उम्मीद नहीं

पिछले दस सालों में नीतीश कुमार लोगों को बार-बार इस बात का भरोसा दिलाते रहे हैं कि वे बाढ़ से तबाह कोशी क्षेत्र को एक समृद्ध क्षेत्र में बदल देंगे।
बिहार चुनाव

बिहारीगंज / मुरलीगंज: 2008 में बिहार में आयी पिछले पचास साल में अबतक की सबसे बुरी आपदाओं में से एक विनाशकारी कोशी बाढ़ की गवाह और पीड़िता फेकनी देवी ने कहा '' बारह सल से आधिक बीत गया, न घर बना,न आजीविका का प्रबंध हुआ। हमलोगों को सरकार ने ठगा है।”  

फेकनी ने सरकार द्वारा संचालित बिहार आपदा पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण सोसाइटी (BAPEPS) के तहत अपने घर के निर्माण के लिए एक दशक से ज़्यादा समय तक बेकार ही इंतजार किया। वह उन हज़ारों बाढ़ पीड़ितों में से एक हैं, जिनके भीतर अब इसे लेकर कोई उम्मीद नहीं बची है। सरकार के अपने आंकड़ों के मुताबिक़, कोशी की बाढ़ में 2,36,632 घर या तो सबके सब या पूरी तरह से ध्वस्त हो गये, लेकिन अब तक उनमें से महज़ 56,758 घरों का ही पुनर्निर्माण किया जा सका है, और यह कुल तबाह हुए घरों का महज़ 24% ही है।

फेकनी एक दलित महिला हैं, और इनका घर बाढ़ से बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था।फेकनी को आसपास के इलाक़ों के मुक़ाबले ऊंची जगह पर स्थित नहर पर खुले आसमान के नीचे कई दिनों तक शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा था। वह और उनके पति, नंद किशोर पासवान, दोनों बतौर खेत मज़दूर काम करते हैं और बिहारीगंज ब्लॉक के तहत आने वाले गांव,बाभनगांवां में रहते हैं, जो मधेपुरा ज़िले के बिहारीगंज विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता है। वे किसी तरह क़र्ज़ लेने के बाद टिन की छत वाला एक घास-फूस और बांस का घर बना पाये। सरकार की तरफ़ से उन्हें किसी तरह की कोई मदद नहीं मिली।

अपने घास-फूस और बांस से बने घर के बाहर खड़ी फेकनी देवी

मधेपुरा, सहरसा, सुपौल, कटिहार, किशनगंज, पूर्णिया और अररिया सहित कोशी और सीमांचल इलाक़े की 78 विधानसभा सीटों में से तक़रीबन 40 पर 7 नवंबर को विधानसभा चुनाव के तीसरे और अंतिम चरण के मतदान हो रहे हैं।

यह बहुप्रचारित राज्य सरकार के विश्व बैंक ऋण से सहायता प्राप्त कोशी पुनर्वास और पुनर्निर्माण परियोजना के पहले चरण की ज़मीनी हक़ीक़त है। कोशी आपदा के दो साल बाद विश्व बैंक ने कोसी बाढ़ बहाली परियोजना के तहत बिहार को 220 मिलियन डॉलर का क़र्ज़ दिया था। इस परियोजना को पूरा करने का लक्ष्य सितंबर 2014 था, लेकिन आख़िरकार यह जून 2018 में पूरा हुआ। 2015 में विश्व बैंक ने बिहार कोसी बेसिन विकास परियोजना के लिए 250 मिलियन डॉलर का क़र्ज़ दिया था। इसका मुख्य लक्ष्य क्षतिग्रस्त घरों और सड़क के बुनियादी ढांचे का पुनर्निर्माण, बाढ़ प्रबंधन क्षमता को मज़बूत करना और प्रभावित लोगों के लिए आजीविका के अवसर पैदा करना था।

तीन दिन पहले मधेपुरा के चार विधानसभा क्षेत्रों और पड़ोसी सुपौल ज़िले के चुनावी रैलियों में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दावा किया कि उन्होंने 2008 में आयी आपदा के बाद एक नये और सुंदर कोशी के पुनर्निर्माण का वादा पूरा कर दिया है।मुख्यमंत्री ने कहा, “कोशी त्रासदी के बाद हमने लोगों से वादा किया था कि हम और भी ख़ूबसूरत कोशी बनायेंगे। हमने विश्व बैंक से क़र्ज़ लिया और इस वादे को पूरा कर दिया।'

पिछले दस सालों में नीतीश कुमार ने लोगों को बार-बार भरोसा दिलाया है कि वह बाढ़ से तबाह कोशी क्षेत्र को एक समृद्ध क्षेत्र में बदल देंगे। हालांकि,फेकनी को ऐसा होते हुए नहीं दिख रहा है। फेकनी ने बताया, “उन्होंने नये और सुंदर कोशी का पुनर्निर्माण कहां किया है ? हमने तो इसे नहीं देखा है। नीतीश झूठ बोल रहे हैं। मुझे ही देख लीजिए और इस गांव के ख़ास तौर पर उन ग़रीबों के पास ही चले जाइये, उन्होंने किसी तरह अपने पैसों से ही घर बनाया है,इसमें सरकार की तरफ़ से कोई मदद नहीं मिली है।”  

वह अब भी उस अंधेरी रात को याद करके परेशान हो जाती हैं,जब उनका घर तबाह हो गया था और उनकी जान पर आफ़त आ गयी थी।

मधेपुरा के ग्वालपारा ब्लॉक के तहत आने वाले कल्याणपट्टी गांव के रहने वाले मोहम्मद अनवर अली की कहानी भी कुछ-कुछ ऐसी ही है।अली ने बताया, “मेरा घर तो बह गया था, लेकिन मुझे अभी तक इसे दोबारा बनाने के लिए कुछ भी नहीं मिला है। मेरा दर्द यह है कि मेरे गांव में किसी भी तरह का पुनर्वास और पुनर्निर्माण का कार्य नहीं हुआ है।”

मुख्यमंत्री के दावों को '' ग़लत '' क़रार देते हुए उन्होंने कहा कि यह '' सिर्फ़ काग़ज़ पर'' है; सच्चाई यह है कि वह हमारे घरों को फिर से बनाने में नाकाम रहे।” पड़ोस के गांव,परोकिया के रहने वाले सुभास ने एक छोटी सी फूस की झोपड़ी की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह अपने थोड़े से संसाधनों से अपने घर बना पाये।

उस बाढ़ से सबसे ज़्यादा प्रभावित क्षेत्र-मुरलीगंज प्रखंड के तहत आने वाले रघुनाथपुर गांव के रहने वाले, डॉ.शशि  ने कहा: “एक बेहतर या फिर ज़्यादा सुंदर कोशी तो दूर की बात है,हक़ीक़त तो यह है कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। हम अब भी मुख्य सड़क के उस पुल के फिर से बनने का इंतज़ार कर रहे हैं जो हमारे गांव को जोड़ता है और 2008 में वह पुल बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था।”

डॉ. शशी

सरकारी स्वास्थ्य एजेंसी के साथ काम करने वाले शशि ने कहा कि उस इलाक़े के ध्वस्त हो चुके कई पुल फिर से बनाये जाने का इंतज़ार कर रहे हैं। ऐसा इस हक़ीक़त के बावजूद है कि राज्य सरकार ने इसके लिए विश्व बैंक से दो बार क़र्ज़ लिया है।वह आगे बताते हैं, “हम न सिर्फ़ उस विनाशकारी बाढ़ के शिकार हैं, बल्कि उदासीनता और अनदेखी के भी शिकार हैं।”

2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, कोशी क्षेत्र में 2,390 किलोमीटर क्षतिग्रस्त सड़कों में से 259.30 किलोमीटर का ही पुनर्निर्माण किया जा सका है। इसी तरह, बाढ़ में ढह चुके 90 में से सिर्फ़ 69 पुल ही दुबारा बनाये जा सके हैं।

मधेपुरा के मुरलीगंज ब्लॉक के तहत आने वाले कोल्हाई पट्टी डुमरिया के रहने वाले संजय साह ने कहा कि उन्हें अपनी ज़िंदगी को दुबारा से पटरी पर लाने में पांच साल से ज़्यादा का वक़्त लग गया।संजय साह ने बताया, “इस हक़ीक़त के बावजूद कि ज़मीन ही मेरी आजीविका का एकमात्र स्रोत है, मगर शायद ही कोई सरकारी मदद मिल पायी। मेरी ज़मीन नदी के 15 फीट से ज़्यादा गहरे पानी वाले एक जल निकाय में बदल गयी थी। यह मेरी ज़िंदगी का एक बुरा दौर था। मैंने उस आपदा से उबरने के लिए कड़ी मेहनत की और धीरे-धीरे अपने घर को फिर से बनाया। मैंने ज़िंदा रहने के लिए एक छोटा सा कारोबार शुरू कर लिया।”

संजय साह

2008 की बाढ़ के बाद कोशी क्षेत्र को विकसित करने को लेकर नीतीश कुमार के बार-बार प्रयास के बावजूद मधेपुरा, सहरसा और सुपौल ज़िले सहित कोशी क्षेत्र के हजारों बाढ़ पीड़ित वर्षों से बुनियादी सुविधाओं के बिना ही संघर्ष कर रहे हैं। नेपाल सीमा पर कुशहा में तटबंध के टूटने से कोशी के अचानक रास्ता बदल जाने से तीन इलाक़े सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए।

मुरलीगंज नगर पंचायत के पूर्व वार्ड सदस्य,विजय यादव ने कहा कि मुरलीगंज शहर सबसे बुरी तरह से प्रभावित है। सैकड़ों घर ढह गये और  बह गये। दुकानों के भीतर के सामान क्षतिग्रस्त हो गये, लेकिन कोई मुआवजा नहीं दिया गया। उन्होंने कहा, “हमें दुख इस बात का है कि मुरलीगंज नगर पंचायत को पुनर्वास और पुनर्निर्माण क्षेत्र से बाहर रखा गया।”  

विजय यादव

विजय ने बताया कि सभी तरह के काम-काज करने वाले लोगों को अपनी ज़िंदगी को पटरी पर लाने के लिए संघर्ष करना पड़ा है। उन्होंने कहा, “नीतीश के नये और बेहतर कोशी के पुनर्निर्माण का दावा यहां के लोगों के लिए एक बड़ा मज़ाक है।”

बाढ़ पीड़ितों के लिए काम करने वाले स्थानीय संगठन,कोशी नवनिर्माण मंच के संस्थापक,महेंद्र यादव का कहना है कि सीएम के दावे झूठे हैं।उन्होंने कहा, “सरकार पुनर्वास और पुनर्निर्माण परियोजना के तहत  उन 76% घरों का पुनर्निर्माण करने में नाकाम रही है, जिसके लिए उन्होंने  470 मिलियन डॉलर का क़र्ज़ लिया है।”

महेन्द्र यादव

महेन्द्र यादव ने बताया,“इतने सालों बाद भी बाढ़ पीड़ितों को मुश्किलों का सामना इसलिए करना पड़ रहा है, क्योंकि सैकड़ों एकड़ खेती के लायक़ ज़मीन,जो बाढ़ के हवाले हो गयी थी, अब भी उन ज़मीन रेत पड़ी हुई है और खेती के लायक़ नहीं हो पायी है। नीतीश कुमार ने किसानों से इस बात का भी वादा किया था कि उपजाऊ खेतों से रेत निकाली जायेगी और पर्याप्त मुआवज़ा दिया जायेगा। सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया। हज़ारों किसानों ने ख़ुद ही अपनी जमीन से रेत निकाली और खेती शुरू की।”

कोशी और इससे सटा हुआ इलाक़ा सीमांचल क्षेत्र मक्के का इलाक़ा है, लेकिन किसानों को मक्के के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) नहीं मिल पा रहा है, जिससे वे इसकी बिकवाली को लेकर परेशान हैं। उन्होंने कहा, “यहां अब भी ग़रीबी दर बहुत ज़्यादा है, इस वजह से लोग आजीविका की तलाश में बाहर की ओर पलायन कर रहे हैं। यही नीतीश कुमार के मुताबिक़ नया कोशी है।”

कोशी तटबंध के भीतर भारत की तरफ़ 380  गांव हैं और नेपाल की तरफ़ 34 गांव हैं। इन तटबंधों पर उनका पुनर्वास किया गया था,लेकिन उनके लिए 'ज़मीन के बदले ज़मीन' की नीति नहीं अपनाई गयी थी। यह मानकर चला गया कि उन्हें पुनर्वास स्थलों में रहना था और तटबंधों के भीतर स्थित अपनी ज़मीन पर खेती करना था। कोशी नवनिर्माण मंच (KNNM) ने हाल ही में उन किसानों को लामबंद करने के लिए कोशी क्षेत्र में एक लंबा मार्च निकाला है,जो सालों से तटबंध के भीतर रहने के लिए मजबूर हैं और साल-दर-साल बाढ़ के शिकार बने हुए हैं।

उन्होंने बताया, “दो तटबंधों के बीच की ये ज़मीन गाद से भरी हुई है, जिससे खेती नामुमकिन हो गयी है। किसान सरकार की तरफ़ से वसूले जा रहे कर और उपकर से मुक्ति की मांग करते रहे हैं।” उनके मुताबिक़, जब बाढ़ नहीं आती है,तभी साल के सिर्फ़ छह महीनों ही ये ज़मीन खेती लायक़ रह पाती है।

सभी फ़ोटो: साभार:मोहम्मद इमरान ख़ान

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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