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मदद के नाम पर सरकार ने बंद किए कान, तो बिहार में एक गांव डूब गया!

बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग के अधिकारियों से बार-बार कहने पर भी तटबंध नहीं बनाया गया। इस विभाग में अधिकारी नहीं अपराधी काम करते हैं।
मदद के नाम पर सरकार ने बंद किए कान, तो बिहार में एक गांव डूब गया!

सुबह जब टहलने निकला था तो एक नौजवान किसान ने खुशी में मुस्कुराते हुए कहा कि मोबाइल वाले कितने आगे चले गए हैं, जिस दिन बताते हैं, उसी दिन बारिश होती है। विज्ञान की दुनिया से कोसों दूर यह नौजवान शख्स इस बात से खुश था कि उसे पहले से बारिश का पता चल जा रहा है। अपने खेत में सिंचाई करवाने के लिए उसे पैसे नहीं बहाने पड़ेंगे। इसलिए बारिश उसके चेहरे पर मुस्कान बनकर छाई हुई थी।  

लेकिन जैसे ही इस नौजवान किसान से बात करके आगे बढ़ा तो अपने इलाके के एक सामाजिक कार्यकर्ता उज्जवल कुमार ने फोन पर बताया कि उनके गांव के पास का एक गांव बारिश की वजह से डूब गया है। एक तरफ कोई बारिश से खुश था तो दूसरी तरफ कोई बारिश से निराश था। जिंदगी इन्हीं विरोधाभासों के साथ हर वक्त हमारे सामने सवाल खड़े करती है कि हम मीडिया वाले इनमें से किस की दुख तकलीफ और खुशी दिखाएंगे। 

पूरे राज्य में इस समय बारिश की स्थिति यह है कि पश्चिम, मध्य और उत्तरी बिहार के तकरीबन 17 जिलों में मूसलाधार बारिश और बिजली गिरने की संभावना को लेकर अगले 48 घंटे के लिए अलर्ट जारी किया गया है।

किसी समय बारिश इतनी झकझोर से बरसी की मसान नदी के रास्ते में पड़ने वाले जिला पश्चिमी चंपारण के तटबंध के इलाके पर पड़ने वाले शेरहवां खैरा टोला गांव के तकरीबन 40 से 50 घर तटबंध तोड़कर नदी के बहाव में ढह गए। तकरीबन 200 लोगों के घरों में पानी इतना घुस गया है कि घर के अंदर कोई काम नहीं हो सकता है।

कार्यकर्ता उज्जवल कुमार कहते हैं कि उन्हें यहां के लोगों की भयावह स्थिति देखकर मन टूट जाता है। खाने की तकलीफ है। लोग जाएं तो जाएं कहां ... प्रशासन की तरफ से अभी तक कोई नहीं आया। सुबह गांव वालों से बात कर चावल का भुजा बटवाया है। कई घरों से रोटी की व्यवस्था हुई है। लेकिन यह कब तक चलेगा। अब भी कई लोग भूखे इधर-उधर भटक रहे हैं। पता नहीं कब तक भटकेंगे। अगर मैं अदालत में रिट डालूं तो क्या अदालत मेरी बात को सुनेगी?

इतना सब पढ़ने के बाद एक पाठक के तौर पर आप में से कुछ लोग शर्मिंदगी महसूस कर रहे होंगे कि 21वी सदी के हिंदुस्तान में जहां हम आराम से घरों में बैठे हैं वहीं पर एक इलाका ऐसा भी है जहां पर लोग जिंदगी से पूरी तरह से हार चुके हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिनके मन में यह भी ख्याल आता होगा कि बिहार में बाढ़ कौन सी नई बात है? बिहार में बाढ़ तो हमेशा आती रहती है? नेपाल की तरफ से निकलने वाली नदियां बारिश में पूरी तरह से भर जाती हैं। सीमा को तोड़कर उफान में बहने लगती हैं। आसपास के गांव और इलाकों में जलभराव हो जाता है। मसान नदी भी ऐसा ही कर रही है। तो इसमें नई बात क्या है? इसका सबसे अच्छा इलाज तो यही होगा कि नदी के तटबंध के किनारे बसने वाले लोगों का दूसरी जगह पर पुनर्वास कर दिया जाए। 

मन में आ रहा यह ख्याल एक हद तक जायज लग सकता है। लेकिन जैसे ही नदियों के तटबंध के इलाके की जमीन पर खड़े होकर इसके बारे में सोचा जाता है तो यह सब कुछ गलत लगने लगता है।

बिहार के बाढ़ पर काम करने वाले जानकार कहते हैं कि जब यह बात पता है कि बिहार में नेपाल से निकलने वाली नदियां जैसे कि कोसी, बागमती, कमला, गंडक बाढ़ लाती हैं, तो इसके साथ यह भी समझना चाहिए इन नदियों के किनारे पर ही बिहार की सभ्यता विकसित हुई है। इन नदियों के किनारे पर ही पश्चिमी मध्य उत्तर पूर्व बिहार की बहुत बड़ी आबादी सदियों से रहते आ रही है। 

अगर बाढ़ से बचने के लिए भारत और बिहार सरकार बिहार के क्षेत्रफल के 60 हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में रहने वाली जनता को दूसरी जगह बसा दें तब यह अच्छी बात कही जा सकती है। लेकिन सोचने वाली बात यह होगी कि क्या इतनी बड़ी आबादी को उसके पूरी पृष्ठभूमि से काट कर दूसरी जगह पर बसाया जा सकता है? क्या यह लोग अपनी खेती-बाड़ी, रिश्ते-नाते परिवार सब कुछ छोड़कर दूसरे जगह पर बसेंगे? इसका जवाब कोई भी समझदार इंसान यही कहेगा कि यह मुमकिन नहीं है। 

बिहार के कद्दावर रिपोर्टर उमेश कुमार राय कहते हैं कि बिहार में बाढ़ हर साल भीषण तबाही मचा कर जाती है। जब यह पता है कि मानसून में बारिश होगी, तटबंध के इलाके डूबने के कगार पर पहुंचेंगे, तो प्रशासन पहले से ही इन्हें ठीक करने का काम क्यों नहीं करता है। इसका जवाब हमें आज तक नहीं मिल पाया है। प्रशासनिक कमियों की वजह से लोगों को ज्यादा परेशानी उठानी पड़ती है। मैंने अपने रिपोर्टिंग के दौरान बिहार में बाढ़ की वजह से होने वाली भीषण तबाही देखी है। घरों में बोरे में रखे हुए मक्का, गेहूं के अनाज सड़ जाते हैं। जीवन गुजारने के लिए सड़क ही सहारे के तौर पर मौजूद रहती है। इन सभी परेशानियों से बिहार का कोई न कोई इलाका हर साल जूझता है। लेकिन अब तक इनके लिए कोई पुख्ता इंतजाम नहीं किया गया है। मुआवजे का लॉलीपॉप सरकार खूब फेंकती है, लेकिन हकीकत यह है कि दस साल बीत जाने पर भी मुआवजा नहीं मिलता।

इन सारी बातों का इशारा इसी तरह है कि नदियों को खतरनाक बनने से पहले उन को नियंत्रित करने के जितने तरीके हैं, उन सब को अपनाया जाए, तभी जाकर लोगों को सुरक्षा मुहैया कराई जा सकती है। और इसमें स्थानीय जनता और प्रशासन का पूरा सहयोग चाहिए। 

शेरहवा गांव के स्थानीय जनता की बात करें तो उनका कहना है कि हमारे गांव के साथ जो हो रहा है वह सिर्फ अधिकारियों के लापरवाही से हो रहा है। हमने किसे चिट्ठी नहीं लिखी। किस के सामने हाथ नहीं जोड़े। जिला अधिकारी से लेकर चीफ इंजीनियर तक और चीफ इंजीनियर से लेकर मुख्यमंत्री तक। सब तक हमने अपनी बात पहुंचाई कि हमारे गांव के तटबंध को ढंग से व्यवस्थित किया जाए, नहीं तो बरसात का पानी नदी को इतना अधिक बेकाबू कर देगा कि हम सब डूब जाएंगे। यह निवेदन आवेदन हम पिछले महीने से करते आ रहे हैं।

उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा, “बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग के अधिकारियों से बार-बार कहने पर भी तटबंध नहीं बनाया गया। इस विभाग में अधिकारी नहीं अपराधी काम करते हैं। इन लोगों को बार-बार सूचना देने पर भी इन्होंने बांध नहीं बनवाया। जान-बूझ कर इन लोगों ने आपदा को न्योता दिया है। बाढ़ नियंत्रण के लिए बनाई गई नियमावली के हरेक पॉइंट का इन लोगों ने उलंघन किया है। आपदा प्रबंध एक्ट का धज्जियां उड़ाई गई हैं।”

दर्द भरी आवाज में वहां की जनता अपनी परेशानियों को बयान करते हुए आगे कहती हैं कि शेरहवा गांव के कई घरों में पानी घुस गया है। एक समय का भोजन भी किस तरह बनेगा यह भी बहुत बड़ा सवाल है। हम इस मामले को लेकर लगातार अधिकारियों से बात कर रहे थें, फिर ये लोग कान में तेल डाल कर सोए रहे। जो घटना घटी है वो प्राकृतिक प्रकोप बिल्कुल नहीं है यह सरकारी अधिकारी द्वारा लाई गई आपदा है।

लोगों की इन दर्द भरी आवाज से एक निष्कर्ष तो साफ निकाला जा सकता है कि नागरिकों ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है। समय रहते हुए प्रशासन को बार-बार आगाह किया है कि वह तटबंध को ठीक करने का काम करें। लेकिन प्रशासन ने इसे बिल्कुल अनसुना कर दिया। 

अच्छी-खासी तनख्वाह पर पलने वाले भारत और बिहार सरकार के सरकारी अफसरों ने एक बार भी नहीं सोचा कि अगर यहां के तटबंध टूट गए तो इन गरीब लोगों का क्या होगा? इन अफसरों को स्वत संज्ञान लेते हुए यह काम करना चाहिए था। लेकिन इन्होंने बार-बार जनता की गुहार लगाने के बाद भी कोई संवेदना नहीं दिखाई। अगर सरकारी आलाकमान के अफसर ऐसे हैं तो कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंचा जाए कि तटबंध के किनारे रहने वाले लोग सरकार पर भरोसा करते हुए अपने घर बार को छोड़कर किसी दूसरी जगह पर जाकर बस जाएं।

क्या ऐसी सरकारें आम लोगों के साथ किसी तरह का इंसाफ करेंगी? इसका जवाब आप खुद वहां की भुक्तभोगी जनता के बीच खुद को रख कर सोच सकते हैं।

 इस बारिस में शेरवा खैरया टोला की स्थिति बहुत खराब है। जो लोग खुद बाढ़ के पानी में डूबे हुए हैं वह एक दूसरे की मदद कब तक करेंगे। अगर कोई बीमार हो गया तो वह मरने के हालात तक पहुंच सकता है। सरकार इसलिए बनाई जाती है कि वह लोगों के दुख-दर्द में मदद करे। प्रशासन का यही काम है कि परेशानी को घाव बनने से पहले दूर किया जाए। तो इस समय इन लोगों को न प्रशासन की मदद मिल रही है और न सरकार का मलहम। पूरे गांव में चिल्लाती हुई नदी की धार के साथ लोगों के अपने शरण खो देने की पुकार सुनाई दे रही है। कोई बूढ़ा कह रहा है कि कुछ भी नहीं बचा, नदी ने सब लील लिया। तो किसी बच्चें की आंखें कहीं कह रही हैं कि बहुत तेज भूख लगी है। दूर-दूर तक दिखते इस पानी के बीच कोई आकर उसे रोटी दे दे।

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