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विपक्षी एकता और ओवैसी फैक्टर पर बिहार महागठबंधन को पुनर्विचार करने की ज़रूरत

वोटों में बिखराव, विपक्षी एकता का अभाव और जनहित से अधिक अपने दल के हितों को तवज्जों देने का लालच ही भाजपा की जीत का मूलमंत्र है।
nitish tejasvi
फ़ाइल फ़ोटो

“संघ और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जिस तरह जिन्ना को आगे कर इस देश को खतरे में डाला था, आज वैसे ही एक बार फिर भाजपा और संघ, ओवैसी का इस्तेमाल कर देश को खतरे में डालने का का काम कर रहे हैं”।

यह बयान दिया हैं, न्यूज़क्लिक के लिए बात करते हुए बिहार कांग्रेस के प्रवक्ता असित नाथ तिवारी ने। उनका स्पष्ट कहना है कि ओवैसी का राजनैतिक इस्तेमाल भाजपा कर रही है और इससे देश में नफ़रत का माहौल तैयार किया जा रहा है।

असित नाथ तिवारी बिहार कांग्रेस के काफी तेज-तर्रार और स्पष्टवादी प्रवक्ता माने जाते हैं। उनका ये बयान आने वाले समय में क्या रूख लेगा, अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह तो साफ़ तौर पर दिखने लगा है कि लोकतंत्र में मिली आजादी (कोई भी कहीं से भी चुनाव लड़ सकता है) का बड़े ही चतुराई से भाजपा द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा है। गुजरात में जा कर ओवैसी का चुनाव लड़ना, उनका लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन जब कांग्रेस या नीतीश कुमार की तरह ही ओवैसी मोदी विरोध की बात करते-करते बिहार की दो सीटों पर महागठबंधन को हारने में एक ठीकठाक भूमिका निभा जाते है तो इसे महज चुनाव लड़ने की स्वतन्त्रता तक सीमित कर के देखना भूल होगी।

बहरहाल, असित नाथ के इस बयान को हम अतिश्योक्ति भी मान ले, तब भी भिंडरावाले की घटना को नहीं भूलना चाहिए, जिनका इस्तेमाल पहले राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के लिए ही पंजाब में किया गया था, जो आगे चला कर “कुछ और” में तब्दील होता चला गया था।

जनभावना समझने में चूक

गोपालगंज और कुढ़नी परिणाम के बाद, यह सवाल उठना लाजिमी था कि जिस विपक्षी एकता की बात नीतीश कुमार करते हैं, क्या उसके सबसे ज्यादा जरूरत बिहार को ही है और यह भी कि क्या जिस महागठबंधन को कभी अजेय समीकरण माना जाता था, जिस माई समीकरण को राजद का कोर वोट बैंक माना जाता था, उसमें कोई बिखराव आ रहा है?

इन सवालों का जवाब तलाशने के लिए न्यूज़क्लिक के लिए इस लेखक ने सीपीआई (एमएल) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य से बात की तो उनका कहना था, “चुनाव में जीत-हार लगी रहती है। पार्टियों का साथ आना-जाना लगा रहता है। लेकिन, दोनों सीटों पर महागठबंधन की हार बताती है कि टिकट देते समय स्थानीय स्तर पर जनता की भावनाओं को देखने-समझाने में चूक हुई।”

भट्टाचार्य सीधे तौर पर यह नहीं मानते कि किसी दल की वजह से महागठबंधन की हार हुई। अलबत्ता, सरकार टिकट बंटवारे से लेकर जनसमस्याओं को समझने और उन समस्याओं का समाधान देने में चूक गयी लगती है।

गोपालगंज भाजपा की सीट थी, जिसे राजद को दिया गया और कुढ़नी राजद की सीट थी, जिसे जद(यू) को दिया गया। लेकिन, दोनों जगह हार मिली। अब अगर दीपंकर की बात पर गौर करें तो उस वक्त यह समझना थोड़ा मुश्किल हो जाता है कि आखिर महागठबंधन की सरकार कहाँ चूक गयी?

गौरतलब है कि गोपालगंज में महागठबंधन के खाते के 20 हजार वोट साधु यादव और ओवैसी को मिले जबकि कुढ़नी में वीआईपी, ओवैसी और निर्दलीय शेखर सहनी को मिला कर तकरीबन 18 हजार वोट मिले। दोनों जगहों पर महागठबंधन के लिए हार का अंतर 2 से 3 हजार वोट का रहा। यानी, दूसरे शब्दों में कहे तो यह विशुद्ध रूप से जातीय समीकरण में सेंध लगा कर महागठबंधन के वोट बैंक को तोड़ने का नतीजा भी था। फिर चाहे वह गोपालगंज का मामला हो या कुढ़नी का।

बिखराव: बिहार से गुजरात तक

बिहार में भाजपा की जीत हो या गुजरात में, तमाम कारणों के बीच एक सबसे बड़ा कारण रहा, वोटों में बिखराव। गुजरात में सभी कारणों को एक तरफ रख दें तो आम आदमी पार्टी को मिले 13 फीसदी वोट भाजपा को मिले 156 सीटों के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार माने जा सकते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे गोपालगंज और कुढ़नी में ओवैसी फैक्टर भाजपा की जीत के लिए अहम् माना जा सकता है।

यह सर्वविदित तथ्य है कि भाजपा हर उस लड़ाई में बेहतर प्रदर्शन करती है, जहां मुकाबला आमने-सामने का न हो कर त्रिकोणीय हो। हिमाचल में सामने सिर्फ कांग्रेस थी, तो भाजपा हारी, गुजरात से ले कर बिहार में सामने कई दल थे, तो भाजपा जीती। जबकि हिमाचल में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोट शेयर का अंतर सिर्फ 0.90 फीसदी का ही रहा लेकिन सीटों में भरी अन्तर आ गया। तो सवाल है कि यह बिखराव क्यों और किसके लिए?

क्या आम आदमी पार्टी मोदी सरकार के समर्थन में है? क्या ओवैसी मोदी सरकार के समर्थन में है? क्या वीआईपी मोदी सरकार के समर्थन में है? नहीं। कोई भी दल यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकता कि हम मोदी सरकार के समर्थन में है। तब भी वोटों में यह बिखराव क्यों है? तब भी विपक्ष बिखरा क्यों है? ये वो सवाल है, जिसका जवाब जद (यू) को तलाशना चाहिए। क्योंकि नीतीश कुमार ने जब विपक्षी एकता की बात और महागठबंधन में शामिल हो कर इसकी शुरुआत की तब कथित तौर पर मोदी विरोध में दिखने वाली पार्टियां आखिर क्यों अपनी डफली-अपना राग में व्यस्त हैं।

मसलन, कुढ़नी परिणाम को ही देखें तो महागठबंधन में वीआईपी, ओवैसी, निर्दलीय (शेखर सहनी) आदि के वोट शेयर मिला दिए जाए तो यह करीब 50 फीसदी हो जाता है। जीत के इसी फार्मूले को 2015 में लालू प्रसाद यादव ने समझा था और नीतीश कुमार समेत विपक्ष के कई दलों को साथ ले कर भाजपा को करारी शिकस्त दी थी।

जद(यू) के राष्ट्रीय परिषद् के सदस्य रामपुकार सिन्हा ने न्यूज़क्लिक के लिए बातचीत में यह माना कि हां, बिहार में वैचारिक स्तर पर सामान दलों को साथ आने की जरूरत है। उनका कहना है, "वीआईपी भी मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ है और हम भी समाजवादी विचारों के समर्थक हैं। मुकेश सहनी जी को भी चाहिए कि वे विपक्षी एकता को और अधिक मजबूती देने के लिए नीतीश कुमार जी से बातचीत करें और इस तरह से विपक्षी एकता को मजबूत बनाने में सहयोग दें।”

बोंचहा हो या कुढ़नी, मुकेश सहनी की पार्टी ने दोनों जगहों पर ठीकठाक वोट जुटाए है, लेकिन बोंचाहा में जहां वे अपने लक्ष्य (भाजपा को हराना) में सफल हुए वहीं कुढ़नी में असफलता हाथ लगी। इससे यह भी साबित होता है कि वोटों का बिखराव हमेशा फ़ायदा ही दें, जरूरी नहीं। यह अक्सर विपक्ष के लिए नुकसानदेह ही साबित होता आया है। उदाहरण बिहार से गुजरात तक देखे जा सकते हैं।

आगे क्या...?

आम आदमी पार्टी इस बात से खुश है कि वह राष्ट्रीय पार्टी बन गयी। कांग्रेस इस बात से खुश है कि हिमाचल में उसे जीत मिल गयी। भाजपा गुजरात पा कर खुश है। मुकेश सहनी कुढ़नी में 10 हजार वोटों से संतुष्ट हो सकते हैं। ओवैसी, बिहार की दोनों सीटें भाजपा को जीतवा कर खुश हो सकते हैं। लेकिन, इस सब के बीच, भाजपा सरकार की नीतियों, ख़ास कर आर्थिक नीतियों के कारण जो जनता त्रस्त है, जिन 35 करोड़ लोगों के एक शाम भूखे सोने को ले कर सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका पर महीनों से सुनवाई जारी है, उनकी आवाज कौन बनेगा? क्या किसी विपक्षी दल की तरफ से इन मुद्दों पर आवाज उठाते किसी ने सुना है? यह भी छोड़िये। क्या विपक्षी एकता की बात करने वाले नीतीश कुमार वाकई विपक्षी एकता चाहते है? तो फिर विपक्षी एकता का अर्थ क्या बिहार और बिहार में राजद+ जद(यू) भर ही है?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार-विश्लेषण व्यक्तिगत हैं।)

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