बिहार: वाम दलों ने विधानसभा चुनाव को बनाया जनमुद्दों वाला!
निस्संदेह इस बार के बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा–जेडीयू के एनडीए गठबंधन ने बहुमत का आंकड़ा जुटाकर विपक्षी महागठबंधन को सरकार बनाने से रोक लिया है लेकिन वाम दलों समेत महागठबंधन के अन्य घटक दल राजद–कांग्रेस द्वारा चुनाव आयोग पर जनादेश के अपहरण खुला आरोप लगाये जाने से सियासी चर्चा काफी सरगर्म है।
महागठबंधन में शामिल भाकपा माले के प्रतिनिधिमंडल द्वारा चुनाव आयोग को लिखित ज्ञापन देकर आरा, दरौंधा व भोरे ( सु.) सीटों पर पुनर्मतदान की मांग पर आश्वासन दिये जाने के बाद भी चुनाव आयोग ने रिकाउंटिंग नहीं कराया है। अब तीनों सीटों के प्रत्याशियों की ओर से चुनाव नियमों के तहत रीटर्निंग ऑफिसर से मतगणना के दौरान के बिना एडिट किये हुए सीसीटीवी फुटेज की मांग की गयी।
दूसरी ओर, महागठबंधन के प्रमुख घटक दल राजद और कॉंग्रेस ने प्रेस वार्ता कर चुनाव आयोग पर सत्ताधारी गठबंधन के पक्ष में ‘जनादेश अपहरण’ का खुला आरोप लगाया है। मीडिया को जारी 119 सीटों का वोटिंग डेटा प्रस्तुत करते हुए कहा है कि इन सभी पर महागठबंधन प्रत्याशियों को रिटर्निंग ऑफिसर द्वारा पहले तो जीत की बधाई देकर बाहर इंतज़ार करने को कहा गया लेकिन बाद में एनडीए उम्मीदवारों को जीत का सर्टिफिकेट थमा दिया गया।
जिन सीटों पर एनडीए ने रिकाउंटिंग की मांग की तो चुनाव अधिकारी ने उनकी मांगें मान ली लेकिन जहां जहां महागठबंधन प्रत्याशियों ने यही मांग की तो उसे खारिज कर दिया गया। चुनाव आयोग ने राजद–कांग्रेस के आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए निष्पक्ष कार्य होने का दावा किया है।
मुख्यधारा की मीडिया और चुनाव विश्लेषक जो अबतक चुनावों के समय वामपंथी दलों की सदैव एक हास्यास्पद और नकारात्मक छवि ही पेश करते रहें हैं, इस बार के बिहार विधान सभा चुनाव में वामपंथी दलों के दमदार प्रदर्शन ने सबों को अपना रुख – रवैया बदलने पर मजबूर कर दिया है।
इस बार के विधान सभा चुनाव में विपक्षी महागठबंधन से वाम दलों को मिले 29 सीटों में से 15 सीटों पर इनके उम्मीदवारों ने जहां जबर्दस्त जीत हासिल की, वहीं 8 सीटों पर भाजपा–जदयू के एनडीए प्रत्याशियों को सीधी कड़ी टक्कर देकर दूसरा स्थान (भाकपा माले– 5, सीपीआई– 3 व सीपीआईएम – 1) हासिल किया है।
सभी मीडिया और चुनाव विश्लेषकों ने इसे काफी लंबे समय बाद वामपंथ का शानदार प्रदर्शन बताते हुए विशेष रूप से यह भी रेखांकित किया है कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने काफी कम चुनावी संसाधन होने के बावजूद अपने सिद्धान्त–संगठन और समर्पित कार्यकर्ताओं के बूते ही डेढ़ दर्जन सीटों पर जीत हासिल कर सबका ध्यान खींच लिया है।
इतना ही नहीं जहां सभी पार्टियों के नेतागण सिर्फ हेलीकॉप्टर से प्रचार कर रहे थे वहीं वामपंथी दलों के सभी नेता पैदल और सड़क मार्गों से ही अपना जोशपूर्ण प्रचार अभियान चलाये।
कई विश्लेषकों ने तो यह भी माना है कि इस बार का पूरा चुनाव यदि जनता के मुद्दों पर ही हुआ है तो इसका मुख्य श्रेय बिहार के वामपंथी दलों को ही दिया जाना चाहिए। इस कारण ही पहली बार दिल्ली में बैठे मीडिया जगत के कई सीनियर पत्रकारों ने वामपंथी दलों के चुनावी अभियान को फोकस करते हुए वाम नेताओं के इंटरव्यू भी प्रसारित किए।
सनद हो कि शुरुआती समयों में तो प्रदेश मीडिया का अधिकांश हिस्सा वाम दलों की चुनावी सक्रियता को काफी हास्यास्पद ढंग से पेश करते हुए यही कह रहा था कि– खिसकते जनाधार को बचाने के लिए ही पहली बार तीनों वामपंथी दल एकजुट होकर महागठबंधन में शामिल हुए हैं।
प्रथम चरण मतदान के चुनाव प्रचार के शुरुआती दौर में ही इस बार के चुनाव में किसी दल विशेष की लहर नहीं होने और मतदाताओं में व्यापक उदासीनता होने जैसे मीडिया दावों का चुनाव प्रचार का दौर शुरू होते ही सुर बदलने लगा था। क्योंकि वामपंथी दलों के कॉडरों द्वारा डोर–टू–डोर का जोरदार जन संपर्क अभियान और गाँव–मुहल्ले– कस्बों में भारी उपस्थिति वाली जन सभाओं के तूफानी कार्यकमों ने देखते ही देखते पूरा चुनावी नज़ारा बदल दिया।
रोजगार और प्रवासी मजदूरों की लॉकडाउन जनित त्रासदियों जैसे जलते हुए अहम सवालों पर गरीब किसानों–मजदूरों और व्यापक नौजवानों की बड़ी– बड़ी जन गोलबंदियों की खबरें ही प्रमुख बनतीं गईं। जिसने बिहार चुनाव को महज सोशल इंजीयरिंग और जातीय ध्रुवीकरण आधारित होने का मिथक भी तोड़ डाला।
मीडिया को चुनाव विश्लेषणों में यह लिखना पड़ गया कि– वामपंथ की राजनीति सिर्फ चुनावी लड़ाई मात्र के लिए नहीं बल्कि खेत खलिहानों– सड़कों पर मेहनतकशों और आम जन के सवालों पर केन्द्रित रहती है।
वामपंथी दलों के चुनावी अभियानों में भाकपा माले महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य, पोलित ब्यूरो सदस्य कविता कृष्णन, मोहम्मद सलीम, झारखंड विधायक विनोद सिंह व किसान नेता राजराम सिंह इत्यादि ने सैकड़ों जन सभाएं कीं। जबकि सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, वृंदा करात समेत कई अन्य राष्ट्रीय नेताओं ने अपने सभी उम्मीदवारों के लिए दर्जनों सभाएं कीं।
सीपीआई महासचिव डी राजा , चर्चित छात्र नेता कन्हैया कुमार , अतुल कुमार अंजान व अमरजीत कौर समेत कई राष्ट्रीय पार्टी नेताओं ने भी अपने प्रत्याशियों के लिए सघन प्रचार कार्य किए। महागठबंधन धर्म निभाते हुए राजद नेता तेजस्वी यादव ने सभी वाम दलों के प्रत्याशियों की रैलियों को जाकर संबोधित किया।
यह चर्चा भी ज़ोरों पर है कि महागठबंधन ने यदि कॉंग्रेस की बजाय वाम दलों को और अधिक सीटें दीं होती तो नज़ारा दूसरा होता क्योंकि वाम दलों के कई महत्वपूर्ण प्रभाव क्षेत्रों में उन्हें सीट नहीं मिल सका।
माले महासचिव दीपांकर के अनुसार वाम दल सिर्फ बिहार ही नहीं वरन देश के संविधान – लोकतन्त्र पर बढ़ते हमलों के खिलाफ इस चुनाव को एक आंदोलन का रूप देकर लड़े। विकास के नाम पर एनडीए के डबल बुलडोजर की सरकार के खिलाफ जनता के मुद्दों को केंद्र में लाते हुए पूरे चुनाव को एक मजबूत राजनीतिक दिशा देने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने यह भी बताया कि किस प्रकार से खुद प्रधान मंत्री ने चुनाव के अंतिम चरण के प्रचार के दौरान रोजगार जैसे सभी मुद्दों पर जातीय – सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को हावी बनाया।
फ़िलहाल सभी जीते हुए वामपंथी उम्मीदवार अपने इलाकों में जा जाकर शहीदों की वेदियों पर पुष्प अर्पितकर संकल्प– दिवस अभियान चला रहें हैं । साथ ही ‘धन्यवाद यात्रा’ निकालकर लोगों से उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप उनके सभी सवालों पर सदन व सड़कों के संघर्षों में पूरी मजबूती से सक्रिय रहने का संकल्प दुहरा रहें हैं।
एक बात और, गौरतलब है कि इस चुनाव में सबसे अधिक मतों के अंतर से जीतनेवाले उम्मीदवार वामपंथी दल के ही प्रत्याशी हैं। माले के पूर्व विधायक दल नेता महबूब आलम ने बलरामपुर सीट पर 53,597 मतों से तथा इनौस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनोज मंज़िल ने भोजपुर के अगीयांव सीट पर 48,550 मतों से एनडीए प्रत्याशियों को पराजित कर शानदार जीत का लाल परचम लहराया है।
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