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बिहार चुनाव के कड़वे-मीठे सबक: थोड़ी हक़ीक़त,थोड़ा फ़साना

हाल के दिनों में हुए चुनावों के सबसे बड़े विकासक्रमों मे खंडित जनादेश,जातिगत वोट का आंशिक टूटन और वामपंथ का फिर से उठ खड़े होने की आहट है।
बिहार चुनाव
प्रतीकात्मक फ़ोटो: साभार:बीटी

मंगलवार की देर रात (10 नवंबर) बिहार के कांटे की टक्कर वाली कुछ 20 सीटों पर मतगणना को अंतिम रूप दिया जा रहा था, उस दौरान राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) लिबरेशन ने नीतीश कुमार सरकार की तरफ़ से नतीजे के ऐलान को लेकर विभिन्न रिटर्निंग अफ़सरों पर पड़ते दबाव के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किया। उन्होंने आरोप लगाया कि विपक्षी दलों के महागठबंधन (MGB) को जिन सीटों पर जीत हासिल हो रही थी, उन सीटों पर सत्तारूढ़ पार्टियों की जीत का ऐलान कर दिया गया।

इन सीटों पर क्या होगा, यह तो कुछ दिनों में साफ़ हो जायेगा, लेकिन अब तक नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला निवर्तमान सत्तारूढ़ गठबंधन ही विजेता हैं, हालांकि इस गठबंधन को 243 सदस्यीय बिहार विधानसभा में आधी सीट यानी 122 से महज़ तीन सीटें ही ज़्यादा मिली हैं। वहीं महागठबंधन को 110 सीटें मिली हैं, जबकि छोटे-छोटे दलों के एक अन्य मोर्चे को छह सीटों पर जीत हासिल हो पायी है।

खंडित जनादेश- दोनों गठबंधनों के बीच बस 13,000 वोटों का अंतर

ग़ौरतलब है कि दो अहम मोर्चे- भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और महागठबंधन को  क्रमशः 37.3% और 37.2% के साथ तक़रीबन बराबर-बराबर वोट शेयर मिले हैं, और दोनों को मिले वोटों के बीच का यह अंतर सिर्फ़ 13,000 वोट का ही है। (नीचे दिये गये चार्ट में 2020 में गठबंधनों की स्थिति को देखा जा सकता है; 2015 में जेडीयू ने तत्कालीन महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ा था, लेकिन 2017 में जेडीयू ने बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया था।)

दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे,चिराग़ पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) ने 5.7% वोट हासिल किये हैं, जबकि छोटे-छोटे दलों वाले ‘ग्रैंड सेक्युलर डेमोक्रेटिक फ़्रंट’ को तक़रीबन 4.5% वोट मिले हैं। बिहार के लोगों ने एक खंडित जनादेश दिया है, हालांकि सरल बहुमत प्रणाली में इसका मतलब तो यही होता है कि निवर्तमान एनडीए सत्ता में वापस आ जायेगा। साफ़ है कि यह फ़ैसला नीतीश कुमार के उन 15 सालों के शासन पर लगने वाली मुहर तो बिल्कुल नहीं है, जिनमें 13 साल भाजपा के साथ गठबंधन के थे। अगर यह मान लिया जाये कि नतीजों में किसी तरह का कोई हेरफेर नहीं किया गया है,तो लोगों ने महागठबंधन पर भी पर्याप्त भरोसा नहीं जताया है।

जैसा कि हमेशा भारतीय चुनावों में होता है, अभियान के दौरान बनाये गये कई मिथक टूट गये हैं,जबकि कुछ कड़वी हक़ीक़त भी सामने आयी हैं।

कुछ हद तक जाति आधारित मतदान में टूटन

महागठबंधन की बिहार के मतदाताओं से ज़्यादा नौकरियों, औद्योगिकीकरण, खाद्य सुरक्षा, किसानों को बेहतर क़ीमत आदि के समर्थन के लिए की गयी अपील ने उन जातिगत बाधाओं से आगे निकल गयी, जिनके बारे में आमतौर पर सोचा जाता है कि ये ही मतदान की व्यवहार को तय करते हैं और मोटे तौर पर चुनाव को समझने का एकमात्र साधन भी यही होते हैं। बिहार में बेरोज़गारी दर दो साल से दोहरे अंकों में आ गयी है और सूबे के लोग अब भी अप्रैल-मई के महीनों में लॉकडाउन के दौरान नज़र आयी 46% की बेरोज़गारी से उबर नहीं पाये हैं।

महागठबंधन ने सरकार के लिए चुने जाने के बाद 10 लाख सरकारी नौकरी देने का वादा किया था और इस वादे ने लोगों को जोश से भर दिया था और इस वादे ने सभी जातियों के लोगों, ख़ासकर नौजवानों को आकर्षित करने में अहम भूमिका निभायी थी। सभी जातियों के बीच आधार वाले वामपंथियों ने भी इस प्रक्रिया में मदद की।

हालांकि, महागठबंधन की यह अपील जाति-आधारित उस राजनीतिक गोलबंदी को पूरी तरह से नहीं तोड़ पाया, जिसे भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन में संस्थागत रूप दिया गया था, जिसमें मल्लाह या निषाद (नाविक) जाति या दलितों में भी सबसे ज़्यादा दलित जाति यानी मुसहरों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल थे।

इन जातियों के नेताओं को सत्ता और संरक्षण के लालच ने राजनीतिक गठजोड़ बनाने के लिए प्रेरित करता रहा है, हालांकि अतीत हमें बताता है कि उस जाति के आम लोगों को शायद ही कभी कोई आर्थिक फ़ायदा पहुंचता है। बिहार में हुए इस चुनाव में जाति आधारित मतदान का आंशिक तौर पर तो विघटन ज़रूर हुआ है, लेकिन एनडीए को हराने के लिए इतना काफ़ी नहीं था।

वामपंथ का उदय

बिहार में कई दशकों से उग्र और वामपंथी आंदोलनों का एक इतिहास रहा है। लेकिन,वैचारिक मतभेद और मंडल की राजनीति के उद्भव ने वामपंथियों को हाशिये पर धकेल दिया था। पिछले कई सालों में ज़मीन, ट्रेड यूनियन अधिकारों को लेकर और छात्रों के बीच वामपंथी आंदोलन हुए हैं, साथ ही धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों और आदिवासियों जैसे उत्पीड़ित वर्गों के बचाव को लेकर हुए आंदोलनों से इनके बीच एक नहीं दिखायी देने वाली लामबंदी हो रही थी।

इस चुनाव में यह उभरता हुआ समर्थन ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आया है, हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि महागठबंधन का हिस्सा होने से वोटों के मामले में मदद ज़रूर मिली है। तीन मुख्य वामपंथी पार्टियां-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, सीपीआई (मार्क्सवादी) और सीपीआई (एमएल)-लिबरेशन को एक अहम ताक़त के तौर पर स्वीकार किया गया और इन्हें महागठबंधन में शामिल किया गया। उन्होंने 29 सीटों पर चुनाव लड़ा और उनमें से 18 सीटें जीतीं।

पिछली बार के 3.5% के मुक़ाबले इस बार उन्हें 4.5% वोट मिले हैं। उनके कुछ उम्मीदवार तो बहुत ही मामूली वोटों के अंतर से हार गये हैं। इस अहम चुनाव में ये 18 सीटें भाजपा और उसके सहयोगियों के ख़िलाफ़ एक मज़बूत दीवार बनाती हैं। उन दूसरे सीटों पर भी वामपंथियों का योगदान अहम था, जहां उनके बेहद उत्साहित कैडरों ने सहयोगी दलों के उम्मीदवारों के लिए काम किया, और समाज के उन वर्गों को कामयाबी के साथ एकजुट किया, जिन्होंने अन्यथा गठबंधन का समर्थन नहीं किया होता।

आने वाले महीनों में विधानसभा में एक ठोस वामपंथी गुट की मौजूदगी विपक्ष को एक धर्मनिरपेक्ष और जनसरोकार की तरफ़ मोड़ने में बहुत मददगार होगी,क्योंकि इसका सामना सत्तारूढ़ भाजपा-जदयू गठबंधन से है।

लोजपा-भाजपा का एक मोहरा

इन चुनावों में एक ऐसा ग़ज़ब और पेचीदा खेल खेला गया, जिससे भाजपा की कुटिल महत्वाकांक्षा का पता चलता है। केंद्र में बीजेपी के सहयोगी,एलजेपी ने ऐलान कर दिया था कि वह नीतीश कुमार के जद (यू) के उम्मीदवारों का समर्थन नहीं करेगी और पूरे चुनाव अभियान के दौरान उस पर हमला करती रही।

इस बात की पूरी संभावना है कि यह भाजपा द्वार प्रेरित और समर्थित यह एक ऐसी चाल थी, जिससे कि जदयू के मुक़ाबले भाजपा बड़ी पार्टी बन सके, हालांकि बाद के चरणों में सभी बड़े भाजपा नेताओं ने इस बात से इनकार कर दिया कि लोजपा उनका मोहरा है। उनका यह इनकार इसलिए सामने आ पाया, क्योंकि बाद में उन्हें महसूस हुआ कि एलजेपी,एनडीए को वहां नुकसान पहुंचा रहा था, जहां साफ़ तौर पर कड़ी टक्कर थी।

जैसा कि नतीजे दिखाते हैं कि एलजेपी कम से कम 33 जेडी (यू) उम्मीदवारों की हार की वजह बनी है, क्योंकि इन सीटों पर एलजेपी के उम्मीदवारों को मिले वोट उन अंतर से कहीं ज़्यादा हैं, जिन अंतर के साथ जेडी (यू) के उम्मीदवार हार गये हैं। इससे यह बात निश्चित रूप से साफ़ हो जाती है कि अगर लोजपा, जद (यू) को समर्थन दे रही होती, तो उसी संख्या में ये वोट जद (यू) को हस्तांतरित हो गये होते।

यह ज़रूरी नहीं है, लेकिन फिर भी,इससे यह बात तो सामने आती ही है कि जद (यू) को उसके अपने ही सहयोगी, बीजेपी की वजह से नुकसान उठाना पड़ा है। यह हक़ीक़त उन तमाम दलों के लिए भी एक चेतावनी है,जो चुनावों में भाजपा के सहयोगी हैं। उन्हें समय के साथ कभी न कभी निगल जाया जायेगा।

कांग्रेस के चलते महागठबंधन को नुकसान

महागठबंधन के सहयोगी के तौर पर कांग्रेस की जीत की दर सबसे ख़राब रही,वह 70 में से महज़ 19 सीटें ही जीतने में कामयाब हो सकी। हालांकि काग़ज़ पर तो इसने 2015 में मिले अपने वोट शेयर 6.7% को बढ़ाते हुए इस बार 9.5% कर लिया है, लेकिन यह बहुत हद तक बेहद सक्रिय महागठबंधन का असर है। वोटों को जुटाने के मामले में कांग्रेस मामूली आधार या संरचना वाला एक ऐसी मरणासन्न संगठन रह गयी है, जो चुनावों को छोड़कर बाक़ी समय बड़े पैमाने पर ज़मीन पर मौजूद ही नहीं होती है।

अभी भी कुछ वर्गों के बीच इसकी कुछ साख बची हुई है, और आख़िरी उपाय का विकल्प बन सकती है, लेकिन एक व्यवहारिक विकल्प के तौर पर यह तेजी से गर्त में जा रही है। जैसा कि वामपंथी नेताओं ने बाद में कहा था कि अगर कांग्रेस को 70 सीटें देने के बजाय,वाम दलों को ज़्यादा सीटें दी गयी होती,तो नतीजे अलग होते।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि बिहार चुनाव के कई कड़वे-मीठी सबक हैं: वैकल्पिक नीतियों के साथ एक जनोन्मुख मोर्चे की ज़रूरत है, लेकिन सिर्फ़ चुनावों के लिए नहीं, बल्कि लोगों के लिए लगातार काम करने और लड़ने की ज़रूरत है। चुनाव प्रचार में आप केवल इतना ही फ़ायदा उठा सकते हैं, जितना कि महागठबंधन को मिला है। अगर यह गठबंधन पिछले पांच सालों से आगे बढ़कर काम कर रहा होता, जैसा कि इसका वाम घटक कर रहा था,तो नतीजे निर्णायक रूप से अनुकूल होते।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Bitter-Sweet Lessons from Bihar: Some Myths, Some Truths

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