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किताब: कीड़ाजड़ी; पिंडर घाटी की पीड़ा और वहां के जीवन से उपजी आह है

अनिल यादव की ये किताब महज कीड़ाजड़ी की बात करने के लिए नहीं लिखी गयी है। पिंडर घाटी का जनजीवन और वहाँ के लोगों की हिम्मत और संघर्ष की बात करने के लिए लिखी गयी है।
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"जब हमें दुःख कहना होगा तो दुःख का परिचय पूछा जाएगा तब हमें दुःख का इतिहास भूगोल सब दर्ज करना होगा”।

अनिल यादव के यात्रा वृत्तांत की इस किताब का नाम कीड़ाजड़ी है। कीड़ाजड़ी आधी वनस्पति और आधी कीड़ा होती है जो थियरॉड्स प्रजाति के एक सफेद शलभ और फफूंद या मशरूम के जटिल मिलन से उगती है। कीड़ाजड़ी जाड़े में कीड़ा और गर्मी में घास होती है।  दुनिया भर में ये एक कामशक्तिवर्धक औषधि के रूप में जानी जाती है। 

संसार में  कीड़ाजड़ी कई अलग-अलग नाम से भी जानी जाती है और कामशक्ति की बहुत महँगी और असरदार दवाओं में शुमार है। किताब की शुरुआत में तिब्बती पद्धति के चिकित्सक और लामा नामनई दोरजे की एक लम्बी कविता का अनुवाद है जिसमें कीड़ाजड़ी की महिमा को बताया गया है। 

लेखक जब खाती गाँव में पढ़ाने जाता है जो तिब्बत की तरफ से देश का आखिरी गाँव है तो देखता है कि गाँव के गाँव खाली हैं। पता करने पर पता चलता है कि स्त्री, पुरुष और बच्चे भी सब देवभूमि गये हैं कीड़ाजड़ी निकालने। वहाँ ग्लेशियर के नीचे वाले इलाके को देवभूमि माना है और वहीं उगती है कीड़ाजड़ी। पिंडर घाटी के लोगों का मानना है कि देवभूमि में स्त्रियाँ नहीं जा सकती हैं देवता स्त्रियों के जाने से नाराज होते हैं क्योंकि स्त्रियों को पीरियड्स आते हैं जिससे देवभूमि अपवित्र हो जाती है और भी इसीतरह के उनके मिथक हैं देवभूमि के लिए कि वहाँ कोई जोर से हँस नहीं सकता गाना गाना या शोर शराबा बिल्कुल नहीं देवता नाराज होते हैं। देवभूमि पर आई आपदाओं के लिए भी वो इन्हीं चीजों को जिम्मेदार मानते हैं कि स्त्रियाँ चली जाती हैं उनको पीरियड्स आते हैं और वो छुपा लेती हैं और इसतरह वो देवभूमि को अपवित्र कर देतीं हैं।

पिंडर घाटी में कीड़ाजड़ी का व्यापार और स्मगलिंग दोनों चलती है। बाहरी स्मगलर से लेकर कम्पनियां भी आती है कामवर्धक कीड़ाजड़ी खोजने। इसका व्यापार कबसे शुरू हुआ है और कैसे चीन, इंडोनेशिया, वियतनाम से लेकर विभिन्न देशों में फैला है और कैसे ये ओलंपिक खेलों के समय एकदम से चर्चा में आया लेखक सब दर्ज करता चल रहा है।  खाती गाँव में जहाँ लेखक ठहरा हुआ है, लेखक के बगल वाले कमरे में ही तीन स्मगलर रुके हैं जो कीड़ाजड़ी के लिए ही आये हैं। पुलिस उनपर रेड डालती है, लेकिन वो पुलिस को पीटकर उनपर मिर्च का स्प्रे डालकर भाग जाते हैं।

लेकिन अनिल यादव की ये किताब महज कीड़ाजड़ी की बात करने के लिए नहीं लिखी गयी है। पिंडर घाटी का जनजीवन और वहाँ के लोगों की हिम्मत और संघर्ष की बात करने के लिए लिखी गयी है। जिस कीड़ाजड़ी को अपनी कामशक्ति बढ़ाने के लिए सुविधाभोगी लोग उपयोग करते हैं उसे निकालने के लिए पहाड़ के गरीब लोग बर्फ़ में खुदाई के लिए जान जोखिम में डालते हैं तब ये कीड़ा जड़ी निकाल पाते हैं। पिंडर घाटी के उन लोगों का जीवन कैसा है, जीवन यापन के लिए वो क्या क्या करते हैं अनिल यादव किताब में कुछ इन्हीं सवालों के जबाब देते और घाटी में उदास से फिरते हैं। वहाँ के कठिन जीवन और प्रकृति के करीब रहते उन मनुष्यों के जीवन को देखते, समझते और निरखते चलते हैं।

लेखक उस पूरी सभ्यता और संस्कृति की समीक्षा करता उनके जीवन दर्शन को समझता चल रहा है।  वहाँ के जीवन सौंदर्य व पीड़ा को देखते हुए वे अपनी हाह को क़िताब में एक जगह लिखते हैं “अपनी मार्केटिंग की झालरों से सजी नई दुनिया में यह पहाड़ी दिल ही तो है जिसके पास अपना एक फ़ोटो अलबम तक नहीं है”।

मनुष्य जीवन देखने की अनिल कुमार यादव की दृष्टि बहुत गहरी और विरल है इतनी कि कभी-कभी वो चकित कर देते हैं कि सामान्य सी घट रही जीवन की घटनाओं को हमसब देखते रहते हैं लेकिन लेखक ने जो देखा हमारी दृष्टि वो क्यों नहीं देख पायी। दृश्य में जो अदृश्य रहता है उसे देख लेने की दृष्टि, ये मनुष्य संवेदना को समझने का उनका अपना विज्ञान होगा  जो कभी-कभी दर्शन की तरह लगता है।

इस यात्रा वृत्तांत को पढ़ते हुए पहाड़ के दुर्गम जीवन को जीते हुए ऐसे कितने चरित्र आते हैं जो याद रह जाते हैं जैसे एक स्थानीय चरित्र है बाबा रामदेव और उसका विश्वास। उसका एक स्वप्न है जिसे सच मानकर वो जी रहा है जिसके लिए वो हमेशा नंगे पैर रहता है। उसे विश्वास है भगवान राम सपने में आकर उसे अपना मोबाइल नम्बर दिये। वो बताता है कि बीएसएनल के दो नम्बर भगवान राम ने उसे दिए थे जिसे उसने कागज पर लिख लिया था लेकिन गाँव वालों ने पुलिस को खबर कर दी और पुलिस ने वो भगवान का मोबाइल नंबर जब्त कर के मालखाने के रख दिया है।

लेखक पूछता है बाबा रामदेव से कि क्या उनमें से कोई भी नम्बर आपको याद नहीं, बाबा रामदेव कहता है याद तो है। लेखक फिर सवाल कर लेता है कि फिर थाने से नम्बर छुड़ाने की बात क्यों कहते हो  भगवान राम को फोन क्यों नहीं लगा लेते। बाबा रामदेव झल्लाया कि लेकिन जो चीज मेरी है भगवान ने सिर्फ़ मुझे दी है वो भला थाने में बंद करके रखने वाली क्यों है। और जब लेखक बाबा रामदेव के विश्वास को पूर्ण रूप से खारिज करता है तो उसकी निराशा बेहद गहरी होकर दृष्य में उतर जाती है।

इसी तरह मौत को पहचानता रूप सिंह जो पर्वतारोहियों के साथ दुर्गम घाटी की चढ़ाई के लिए जाता है और हर बार आपदा से बचकर चला आता है। उसे देखकर लेखक को लगता है कि वो मौत को पहचानता है। जो कहता है- “कोर्स क्या होता है सर! एक बार गिर गया तो गिर गया, उस खड़ी ढलान पर हाथ छूटने के बाद कौन टिक पाता है”।

इसी तरह पहाड़ पर जीने के संघर्ष को लेकर अनिल जी लिखते हैं कि पहाड़ के लोग साथ में मिर्च रखते हैं। पूछने पर एक वृद्ध अपनी जिजीविषा बताता है कि जब ऊपर चढ़ाई पर सांस उखड़ने लगती है तो मिर्च खा लेते हैं तो तीखा लगने पर शी.. शी.. करने पर खूब हवा फेफड़े में भर जाती है और चढ़ाई को हम पार कर ले जाते हैं।

कोई संस्कृति सामूहिकता के जीवन पर निर्भर होकर कैसे खूबसूरत और अतिसुविधा की आदत से बची रह जाती है पिंडर घाटी की सैलून व्यवस्था में दिखती है। पिंडर घाटी में कोई नाई नहीं है, कोई हेयर कटिंग सैलून भी नहीं, ग्रामीण एकदूसरे के बाल खुद ही काटते हैं। पड़ोस के दो तीन घरों के बीच एक पुराना डिब्बा घूमता है जिसमे उस्तरा, कैंची, फिटकरी के डले और नेलकटर रहता है। लड़के कभी बाजार की तरफ जीप में लदकर जाते हैं तो पैसे की सुविधा होने पर पसंद के बाल कटवाते हैं। 

लेखक यहाँ सरकारी स्कूल के अध्यापक-वंचित बच्चों को एक एनजीओ की ओर से पढ़ाने आया है। यात्रा जीवन की ये किताब, यहाँ आकर लेखक घाटी के पूरे जीवन को कैसे देखा उन दृश्यों को ठीक-ठीक दर्ज करने की ईमानदार कोशिश है।

किताब के प्रथम पृष्ठ पर लेखक ने अपना मंतव्य लिख दिया है कि खिलाफ सिंह दानू के लिए जो सुन्दरढूंगा की बर्फ में दबकर मर गया। खिलाफ सिंह टूरिस्ट गाइड था, जोती का पिता और पहाड़ के कठिन जीवन को जीता एक मनुष्य जो अब दुनिया में नहीं है जिसके बच्चे अब अनाथाश्रम में हैं।

खिलाफ सिंह जो एक पैंतीस साल का नौजवान था जिसकी मौत बर्फ में दबकर हो गई थी लेखक जिस साल गया उसी साल हुई खिलाफ सिंह की मौत की बात कर रहा है, नहीं तो घाटी में तो हरसाल ऐसी मौतें होती रहती होंगी।

पिंडर घाटी के सौंदर्य को लेकर लेखक लिखता है कि कोई पूछे पिंडर घाटी कैसी जगह है तो मैं कहूँगा,  जोती जैसी है। एक यात्रा वृत्तांत की किताब में मानवीय संवेदना, और उनके जीवन मूल्यों को कितना थामकर लेखक चल रहा है ये बेहद महत्वपूर्ण बात है। जोती खिलाफ सिंह की बच्ची है।  आठ महीने पहले साँप काटने से खिलाफ सिंह की पत्नी की मौत हो गई है। ये बच्ची लेखक जिस स्कूल में पढ़ाने गया है वहीं पढ़ने आती है एकदम निडर और लड़ाकू - किताब का शुरुआती दृश्य जोती से ही शुरू होता है - मैं हिमालय दर्शन लॉज के एक कमरे में सो रहा हूँ, अँधेरा है वह कहीं से ऊबी हुई आती है, दरवाजे पर एक नन्ही लात मारती है,  'माट्टर  दरवाजा खोल’। दरवाजा भड़ाक से खुल जाता है उसने सोचा नहीं होगा दरवाजा इतनी आसानी से खुल जायेगा, मुँह में हाथ डाले हकबकायी खड़ी रहती है फिर जान लगाकर भागते हुए दूर जाकर हँसती है। ऐसी हँसी जो गले में भय और अचरज के बीच रगड़ खाकर किलकारी में बदल गयी है ।  

किसी यात्रा वृतांत को पढ़ते हुए मैंने जगहों के रोमांच से  ज्यादा वहाँ के जनजीवन को जानना और समझना चाहा, जेहन में हमेशा वहाँ हमेशा बसने वाले लोगों का जीवन कैसे चलता है आखिर कैसे कठिन जलवायु में जीवन जीते हैं लोग, अपनी भूमि भाषा और संस्कृति के साथ बसर कितनी कठिन और सहज है, रीति-रिवाज और आस्था के साथ ये भी जानना होता है कि बाजार की क्रूर निगाह से कितने बचे हैं वे। खान-पान के साथ उनकी परम्परायें और मनुष्य से मनुष्य के सम्बंध समाज का कितना हस्तक्षेप है आदि क्योंकि भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से जनजीवन प्रभावित होता है। पहाड़ के रास्तों पर सफर करते हुए लेखक जैसे शब्द -चित्र बनाता चल रहा है -अगर बेला नेगी बड़ी डफल बैगों से ठूँसी गाड़ी के हिचकोलों से टूटकर मनुष्यतर हो चलीं आवाज़ में अपनी फिल्म  "दाँये या बाँयें बनने की कहानी न सुनातीं तो पसलियों में कहीं अधिक दर्द होता। कहानियाँ हरतरह के दर्द की सबसे पुरानी दवाई है। 

पहाड़ के जीवन, घाटी की दुनिया के लिए कहा जाता है कि जहाँ मोटर रोड पहुँचती वहाँ बर्बादी शुरू हो जाती है। राज्य और बाजार की नीयत ही यही है प्रकृति और मनुष्य की प्रकृति को नष्ट करना । किताब का एक अंश है-  भगवान सिंह, अनवाल के कंधे पर हाथ मारता है, अरे सुन खेतों में पेड़ उग आये बड़े बड़े पूरे पेड़, अब जवान आदमी अपना खेत नहीं पहचानता, सब सरकारी कोटे का राशन खाने लगे हैं, कल को सरकार ने स्कीम बंद कर दी अनाज महंगा कर दिया तो भूखे ही मरेंगे जो झक मारकर खेती करने जायेगें तो पहले जमीन के लिए ही झगड़ा करेंगे।

अवध के इलाके में कहावत कही जाती है कि गरीबी किसी का मान नहीं रखती लेकिन पहाड़ के लोगों का जीवन मैदान के उस मान का मोहताज नहीं होता, खंडूरी  कहता है- अब देखो जाड़े के तीन महीने कोई काम नहीं होगा, सिर्फ खाना और सोना यही चलेगा, बीच के टाइम के लिए आटा खरीद कर रखना है तंगी है तो घरवाली हमेशा टेंटें करती रहती है, गुस्सा आ जाता है पिटाई कर देता हूं, बच्चे रोने लगते हैं तो बड़ी घबराहट सी होती है,मैं भी रोने लगता हूं। कोई उपाय समझ में नहीं आता, तभी तो गोलू देवता से कह रहा हूं कि हम लोगों को एक रोटी कम खाकर भी किसी तरह प्यार से रहना सिखा दे।

इसके पहले अनिल यादव की यात्रा वृत्तांत की किताब 'वह भी कोई देश है महराज’, पढ़ी थी। यह पूर्वोत्तर को जानने के लिए यात्रा वृत्तांत की एक बहुत महत्वपूर्ण किताब है। यात्रा की ये किताब पढ़ते  मुझे याद आता है कि अनिल यादव जी ने वह भी कोई देश है महराज किताब में स्त्रियों की आत्मनिर्भरता को पुरुष के गले में पट्टा डालने के उपक्रम जैसा कुछ बताया था और कहा था कि वे रसोईघर में जो अन्नपूर्णा होने का सुख होता है ऐसी स्त्रियाँ नहीं पा सकती। लेकिन कीड़ाजड़ी किताब में सामाजिक शक्ति का स्त्री-पुरुष अनुपात का इतना सुंदर और सच्चा चित्रण करके पिछली किताब में आत्मनिर्भर स्त्रियों के लिए जल्दबाज़ी में कही गयी बात की भी भरपाई कर दी। कीड़ाजड़ी किताब का ये महत्वपूर्ण अंश महज पिंडर घाटी का सच नहीं कह रहा है ये हमारे पूरे समाज का भी सच है - वो कई तरह से हँसती रही जिसका आंशिक अनुवाद है, मास्टर साहब आपने मुझे कुछ पूछने लायक समझा आपका धन्यवाद, बाकी जो आप पूछ रहे हैं उसका दो तिहाई रहस्य है जिससे माथा मारकर कुछ नहीं जाना जा सकता। इससे एक दिलचस्प सवाल पैदा होता है जिसे गणित के छात्रों को हल करने के लिए दिया जा सकता है। अगर पिंडर घाटी की एक औरत किसी पुरुष के विषय में कोई बात कहती है तो उसका वजन कितना होगा सही जबाब के लिए बच्चों को ब्लैकबोर्ड नहीं सड़क किनारे बने टॉयलेट की ओर देखने के लिए कहना होगा जहाँ एक लड़की अंदर जाती है तो दूसरी या कई लड़कियाँ बिना सिटकिनी के दरवाजे को पकड़कर खड़ी रहती हैं जबकि लड़के थोड़ी दूरी पर एक खंडहर घर की दीवारों को भिगोकर चले आते हैं। सामाजिक शक्ति का न्यूनतम स्त्री-पुरुष अनुपात दो सम्बन्ध एक का है।

कीड़ाजड़ी पढ़ते हुए जो एकदम अलग बात लगती है कि पहाड़ के सौंदर्य से अधिक लेखक ने वहाँ के जनजीवन को निहारा और किताब में दर्ज किया है। किताब में एक जगह एक पहाड़ी आदमी से लेखक पूछता है कि आप कामवासना बढ़ाने के लिए कीड़ाजड़ी नहीं खाते तो वो कहता है कि हमें जरूरत नहीं पड़ती है। एक सुविधा और भोग के पीछे दौड़ते समाज के लिए ग्रामीण की ये बात उनकी सभ्यता के लिए आईना है। जब हम इस पूरे विमर्श में उतरते हैं तो लगने लगता है कि पूरी सभ्यता कितनी दूषित है, देखा जाये तो अगर किसी में सेक्स की इच्छा खत्म हो गई हो तो कोई एकदम खराब बात नहीं होती लेकिन एक सत्ता को स्त्री पर अपना पौरुष दिखाना है इसलिए भी वो इतनी महँगी दवाएं खरीद रहे हैं।

यात्रा वृत्तांत की ये सुंदर किताब है जिसे पढ़ते हुए मन कभी प्रकृति और उनके साथ रहते लोगों के सौंदर्य पर रीझता है कभी उनके दुखों से मन पीड़ा और उदासी से भर जाता है और बार-बार सोचता है कि धरती पर ऐसे कितने जीवन हैं जिन्हें हम नहीं जानते और उनकी रहने का अंदाजा भी नहीं लगा सकते।

किताब पढ़कर हो सकता है कुछ दिन बाद सब धुँधला होने लगे पर याद रह जाती है जोती, उस बच्ची का खेल, उसका अल्हड़पन, उसकी निर्झर हँसी और खिलाफ सिंह की अप्रत्याशित मौत। कितना सौंदर्य और अचरज यात्रा में लेखक देखता है लेकिन लगता है मनुष्य संवेदना से जुड़ी स्मृतियां, उनकी तकलीफें उनकी आस्थाएं उनका विश्वास, उनके कठिन जीवन की यातनाएं सब लेखक के मन में रह गईं थी और किताब लिखते हुए सब दर्ज होते गये। यात्रा वृत्तांत की ये महत्वपूर्ण किताब अद्भुत अनुभवों और पीड़ाओं से गुजरने के लिए याद रह जायेगी।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार-विश्लेषण व्यक्तिगत है।)

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