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केंद्र व राज्य दोनों बजट गरीबों के बजाय पूंजीपतियों को समर्पित

केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान ने किया 'केंद्र व राज्य की  बजट की राजनीतिक दिशा' पर विमर्श। 
केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान

बिहार सरकार ने  चंद दिनों पहले  राज्य बजट पेश किया। साथ ही इससे कुछ दिनों पूर्व केंद्रीय बजट  संसद में प्रस्तुत किया गया था। इन दोनों बजटों पर  'केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान', पटना द्वारा  विमर्श आयोजित किया गया था। प्रख्यात मज़दूर नेता केदारदास की स्मृति में आयोजित इस विमर्श का विषय था "बजट (केंद्र व राज्य) की राजनीतिक दिशा"। 

बजट पर आयोजित इस विमर्श में बड़ी संख्या में पटना  शहर के बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, विभिन्न दलों के प्रतिनिधि  मौजूद थे।

कॉरपोरेट टैक्स में कमी के कारण फिस्कल डिफिसिट बढ़ा: जब्बार आलम (सीपीआई नेता)

बजट पर परिचर्चा को आरंभ करते हुए  वरिष्ठ सीपीआई नेता मो. जब्बार आलम ने बजट पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा "नवउदारवादी दौर में केंद्रीय बजट पूरी तरह अनुदारवादी है। लगभग 34 लाख करोड़ के इस बजट में फिस्कल डेफिसिट बढ़ गया है। उसका प्रमुख कारण है कि कॉरपोरेट टैक्स में कमी आई है। उम्मीद थी कि कॉरपोरेट टैक्स लगभग 20 लाख करोड़ होगा, लेकिन यह मात्र 15 लाख करोड़ ही रहा है। कॉपोरेट टैक्स में कमी के कारण ही फिस्कल डेफिसिट बढ़ा है। इस बजट को यदि कॉपोरेट बजट कहा जाए तो गलत नहीं होगा।"

इकॉनॉमी में डिमांड ही नहीं है: पी.पी.घोष (आद्री)

एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (आद्री)  से जुड़े वरिष्ठ अर्थशास्त्री पी.पी.घोष ने अपने संबोधन में कहा "मैं पिछले चालीस सालों से  बजट का विश्लेषण कर रहा हूँ। लेकिन ऐसा बजट  कोरोना संकट सहित मंडी की अभूतपूर्व परिस्थितियों में पेश किया गया। बजट को 10-12 प्रतिशत का ग्रोथ हासिल करना था। यदि अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाना है तो हाथ कहाँ रखियेगा। डिमांड और सप्लाई का ध्यान रखना पड़ता है। कुछ दिन पहले तक  मकान की भारी डिमांड थी लेकिन सप्लाई नहीं थी। फिर बिहार में बहुत बिल्डिंग बनने लगी। सप्लाई की देश मे कोई कमी नहीं है। सबसे बड़ी कमी डिमांड की है। यदि डिमांड को नहीं बढाएंगे तो कैसे बात आगे बढ़ेगी। इकॉनॉमी में ग्रोथ के लिए इमीडिएट व मीडियम टर्म ग्रोथ को देखना पड़ता है।  कहा जाता है कि ब्राजील ने थोड़ा बेहतर किया है उसका कारण है कि वहां बड़े पैमाने पर इनकम ट्रांसफर किया गया है।

लेकिन यहां  उल्टा किया गया। यहां मनरेगा के माध्यम से यह काम किया जा सकता था। मनरेगा डिमांड आधारित कार्यक्रम है। इस बजट में मनरेगा में मात्र पचास हजार करोड़ रखा गया। जबकि डिमांड बढाने का आपके वास यही एक तरीका था। यदि हेल्थ सर्विसेज के लिए कुछ किया जाता तो फायदा होता। सरकारी स्वास्थ्य सेवा को बेहतर बनाते, प्राथमिक स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर बनाते तो सीधे फायदा  होता।  यहां तकनिकी ब्रिटेन में भी पचास प्रतिशत सेवाएं सरकार के माध्यम से पहुंचाई जाती है। लेकिन इस सरकार का अप्रोच है कि प्राइवेट सेक्टर को फायदा पहुंचे, जनता को बाई प्रोडक्ट में  भले कुछ मिल जाये,  तो मिल जाये। सैलरी से जितना टैक्स इकट्ठा करते हैं, वो कईं ज्यादा है कॉर्पोरेट टैक्स के मुकाबले। कोरोना संकट के ऐसे संकट में भी सरकार कॉरपोरेट सेक्टर, प्राइवेट सेक्टर को नहीं भूलना चाहती है।"

पब्लिक के बदले प्राइवेट सेक्टर को बढ़ावा दिया गया बजट में: भगवान प्रसाद (पूर्व विभागाध्यक्ष, अर्थशास्त्र विभाग, पटना विश्विद्यालय)

पटना विश्विद्यालय में अर्थशास्त्र के पूर्व विभागाध्यक्ष भगवान प्रसाद सिंह ने बजट पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा "बजट में जनता के हाथों क्रयशक्ति आनी चाहिए थी, परन्तु वह काम नहीं हुआ। 2022 तक किसानों की आमदनी कैसे दुगुनी होगी इसका कोई नक्शा नहीं है। ऐसे हाल में कृषि को कैसे विकसित करें? सिंचाई  की कैसे व्यवस्था हो? बाजार  कैसे उपलब्ध हो इसका कोई ब्लूप्रिन्ट प्रस्तुत नहीं किया गया। सिर्फ लोन के माध्यम से विकास की बात की गई है जो सही नहीं है। कॉरपोरेट को छूट दे सकते हैं तो फिर किसानों को  छूट क्यों नहीं?

जबकि देश में  64  प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं किसानों की आमदनी कैसे बढ़े, इस पर बल दिया होता तो किसानों को प्रत्यक्ष लाभ मिला होता।  स्वास्थ्य के लिए सहयोगी इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध नहीं है। बिहार में  दस हजार की जनसंख्या पर मात्र एक डॉक्टर है और मात्र 2 नर्स हैं, जहाँ 45 डॉक्टर होने चाहिए। बिहार में सरकार मेडिकल कॉलेज खोलने की बात करती है इससे क्या होगा? इंफ्रास्ट्रक्चर बनाते हैं तो उसका लांग टर्म फायदा मिल सकता है। सिर्फ कह देने से की इतना कॉलेज खोल देंगे, हॉस्पीटल बना देंगे इनसे कुछ नहीं होता। टैक्स चुराने वाले को सुविधा दे दी है, उनको इनाम दे रहे हैं। मात्र 3-6 साल के पहले का टैक्स का रिकॉर्ड नहीं खोला जाएगा। कहीं भी कीमत पर कन्ट्रोल की कोई बात नहीं कही की गई। डीजल-पेट्रोल बढ़ने से इन्फ्लेशन बढ़ता है यह एक तरह का इनडायरेक्ट टैक्स है। इससे रिलीफ मिलता नहीं दिख रहा है। पब्लिक सेक्टर के बदले प्राइवेट को बढ़ावा दिया जा रहा है। विदेशों के लोगों को  उस सेक्टर में बुलावा मिल रहा है जबकि आप खुद उसको कर सकते हैं।

 डायरेक्ट इनकम  ट्रांसफर न होगा तो किसान खुद से स्थिति बेहतर नहीं कर सकता है। किसानों की सिंचाई की सुविधा तो सरकार को ही करनी होगी लेकिन इन सब चीजों को उपलब्ध कराने का काम नहीं किया गया। 2.7  ट्रिलियन डॉलर की इकॉनॉमी है, यदि 9 प्रतिशत के डर से हर साल ग्रोथ होगी तब जाकर 6 साल में 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी हो सकती है। लेकिन यह होगा कैसे इसका कोई ब्लू प्रिन्ट नहीं है। इस कोरोना संकट में अडानी का साढ़े छह गुना और अंबानी का तीन गुणा बढ़ेगा।  रोजगार बढाने के जो उपाय हैं उसमें काफी लंबा वक्त लगेगा। बिहार में जब लोगों को रोजगार नहीं है यातना झेलकर लोग इतनी दूर तक अपने घर आए हैं, उनको कैसे रोजगार मिलेगा इसपर सोचना होगा। असमानता  का हाल तो बहुत बुरा है। बिहार में बंद पड़े उद्योगों को खोलने पर कोई दया नहीं  की गई है। टूरिज्म पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। न सिर्फ सरकार के विरोधी बल्कि सरकार के समर्थक  लोग भी बजट की आलोचना कर रहे हैं। बजट आमलोगों, गरीबों के हित में नहीं बनाया गया है, सिर्फ अपने विचारधारा के अनुसार काम किया जा रहा है।"

एक वर्ष में सौ पूंजीपतियों ने 13 लाख करोड़ कमाए: अरुण कुमार मिश्रा (सेंट्रल कमिटी सदस्य, सीपीआई-एम)

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सेन्ट्रल कमिटी के सदस्य अरुण मिश्र ने इसे एक वर्ग का बजट बताया है। कोरोना संकट के दौरान निजी क्षेत्र फेल कर गया जबकि सरकारी स्वास्थ्य सुविधा ने ही इस संकट से हमें पार पहुँचाया। अब तो पूंजीवादी अर्थशास्त्री ही  कह रहे हैं कि मांग बढाने की जरूरत है।   यह तो पुराना केंसियन इकॉनॉमिक्स ही है। लेकिन यह सरकार तो यह सुझाव भी मानने को  तैयार नहीं है। कहा जा रहा है कि दक्षिण पूर्व एशिया में 70 मिलियन लोग और गरीब हुए हैं जिसमें सबसे ज्यादा हिस्सा भारत का  है। 13 लाख करोड़ 100 पूंजीपतियों के हाथों में गया है। यदि यह पैसा हर नागरिक को दिया जाता तो हर नागरिक को चौरानवे हजार रुपए मिलता। 9 लाख करोड़ रुपए की तो सिर्फ पूंजीपतियों को छूट दी गई है। प्रधानमंत्री  खुलेआम संसद में  कह रहे हैं कि अब  तथाकथित लिबरल लोग सरकार का गुणगान कर रहे हैं। धन सृजन करने वाला कौन है? वह है अंबानी, अडानी। मज़दूर, किसान धन सृजन नहीं कर रहे हैं।  इस बजट के क्लास अंतर्वस्तु को समझने की जरूरत है। मोदी  सरकार पूंजी के पक्ष में लाठी लेकर खड़ी है। अब आपको तय करना है कि आप उससे कैसे संघर्ष करेंगे ? आज हमारे देश के पूरे मध्यवर्ग का पूरा दिमाग निजी  क्षेत्र का हो गया है। अब हमलोगों को सरकारी  संस्थानों को बचाना है।"

पूंजीपतियों के  लिए बोल्डनेस दिखाया गया है बजट में: पार्थ सरकार ( महासचिव, कम्युनिस्ट  सेंटर ऑफ इंडिया)

'मज़दूर' पत्रिका के पार्थ सरकार ने कहा "यह बजट एक वर्ग चुनौती है वर्ग संघर्ष के लिए। इस सरकार ने नंगा होकर पूंजीपतियों का साथ दिया है। जिस बोल्डनेस के साथ यह पूँजीपतियों के पक्ष में खड़ी है, यह सरकार बताती है कि अब जनता अपने हाल पर है।  पहले कहा जाता था कि स्वास्थ्य, शिक्षा सार्वजनिक वस्तु हैं लेकिन उसे पूरी तरह छोड़ दिया गया है। हर चीज को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप  (पीपीपी मोड) पर देने की बात की जा रही है। जो रोड प्राइवेट हो गया है उनको अब सरकार ही पैसा दे रही है। इन्स्पेक्शन के नाम पर अब लेबर इंस्पेक्टर, फैसिलेटर का  काम कर रहा है। बेरोजगारी को छिपाया, एन. एस. एस. ओ की रिपोर्ट छुपा  रही है। हेल्थ में 137 प्रतिशत की वृद्धि दिखा रही है, लेकिन वह गलत है। सरकार चंद  कॉरपोरेट के हाथों में सिमटा चुकी है। यह सरकार  दक्षिणपन्थी  अर्थशास्त्रियों की बात भी नहीं सुनती है। रिजर्व आर्मी ऑफ लेबर को इस्तेमाल करने के लिए श्रम कानूनों को खत्म कर श्रम कोड ला रही है। 50 इनकम टैक्स के ऑफिसर कहते रहे गए कि ऊपर सेक्शन को टैक्स करिए, वेल्थ टैक्स लगाइए लेकिन  उल्टे उन्हीं लोगों पर कार्रवाई की जा रही है। इस बजट में सभी कल्याण के मद में कटौती की गई है।" 

छोटे उत्पादकों को बर्बाद करना चाहती है केंद्र सरकार: सचिन (शोधार्थी, अर्थशास्त्र,  पटना विश्विद्यालय )

पटना विश्विद्यालय में अर्थशास्त्र के छात्र सचिन ने बजट पर आयोजित परिचर्चा  में अपनी राय प्रकट करते हुए कहा " रघुराम राजन  व  फिसिकल डेफिसिट कन्ट्रोल की बात करते हैं।  छोटे उत्पादकों को बर्बाद करना चाहती है।  एफिशिएंसी को बढ़ाने के लिए  छीटे  उत्पादकों को उजाड़ना चाहती है।  इकॉनॉमिक्स में सड़कों का रोल सिर्फ  माल को कंज्यूमर तक पहुंचाना होता है।  सड़क से कुछ होता जाता नहीं है, जो लोग जनता की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, अब समय आ गया है कि उनको रिस्क लेना होगा।"

नियो-लिबरलिज्म डेमोक्रेसी के साथ नहीं चल सकता: नवीनचंद्र (महासचिव, केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान)

अध्यक्षीय संबोधन करते हुए 'केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान' के महासचिव नवीनचंद्रा  ने कहा "हमारे एनालिसिस का फ्रेमवर्क  पूंजीवादी है। शब्दों का जब चयन करते हैं उसमें भी पॉलिटिक्स छुपा होता है। वर्ल्ड बैंक नए-नए शब्दों को लेकर आता है। ब्रिटिश के आने से पहले हमारी प्रोडक्टिविटी इंग्लैंड से बेहतर थी। हम धड़ल्ले से इसे कॉरपोरेट कैपिटलिज्म कहते हैं। उदारवाद का मतलब ही होता है कि बिजनेस के साथ सरकार दखल नहीं करेगी। इसे ही इक्कसवीं सदी में नियोलिबरलिज्म/उदारवाद कहा जाता है।  जब भी हम लोग नेहरूवियन या केंसियन इकॉनॉमिक्स की बात करते हैं तो लगता है कि वो बेहतर  था। जबकि नेहरूवियन इकॉनॉमिक्स का संकट ही नियोलिबरलिज्म  को लेकर आया है। नियोलिबरलिज्म तब सफल होता है जब डेमोक्रेसी नहीं थी, यूनिवर्सल फैंचाइज (सार्वभौमिक मताधिकार) नहीं थी।  फ़्रीमार्किट इकॉनॉमी डेमोक्रेसी को स्वीकार नहीं कर सकता। पोलिकटिकल डेमोक्रेसी में एक आदमी एक वोट की बात होती है, लेकिन अब  एक आदमी का महत्व तभी तक है, जब उसके पास पैसा है।

चिंदबरम ने डेमोक्रेटिक कंस्ट्रेंट की बात की थी। जो लिबरलाइजेशन से वो करना चाहते हैं  वो फासीवादी होगा ही। हम जब मोर्चे में जाएं जो लिबरलाइजेशन के ख़िलाफ़ लड़ें। डेमोक्रेटिक फोर्सेज किसान और मज़दूर हैं। पूंजीवाद के अंदर किसान समस्या का समाधान असम्भव है। ये जो संकट है ये स्ट्रक्चरल क्राइसिस है। पूंजीवाद का संकट उसी के संरचना के अंदर है। अतः इससे बाहर हमें निकलना होगा। हमें पूंजीवाद के पार जाने की रणनीति  अपनानी होगी। पूंजीवाद में फसल की लीगल गारंटी नहीं मिल सकती है। उसके लिए समाजवाद की ओर बढ़ना होगा। समाजवाद के बगैर कोई रास्ता नहीं है।"

इस विचार-विमर्श का संचालन केदारदास श्रम व समाज अध्ययन संस्थान के अशोक कुमार सिन्हा ने किया, जबकि धन्यवाद ज्ञापन संस्थान के सचिव अजय कुमार ने किया।

(अनीश अंकुर स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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