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ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण स्त्री समुदाय को मानवाधिकारों से वंचित रखा: चौथीराम यादव

पंडिता रमाबाई के परिनिर्वाण दिवस के 100 साल पूरे होने पर सफाई कर्मचारी आंदोलन ने “पंडिता रमाबाई : जीवन और संघर्ष” विषय पर कार्यक्रम किया।
Chauthiram Yadav

“अब तक लोग ज्यादातर इसी बात पर चर्चा करते हैं कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों शूद्रों अछूतों को उनके अधिकारों से वंचित रखा। पर एक सच्चाई यह भी है कि इस व्यवस्था ने सम्पूर्ण स्त्री समुदाय को भी उनके अधिकारों से महरूम किया। ब्राह्मणों में श्रेष्ठ वे ही माने जाते थे जिनका उपनयन संस्कार हुआ हो। जो जनेऊ धारण करते हों। और उपनयन संस्कार सिर्फ ब्राह्मण लड़कों का किया जाता था लड़कियों का नहीं। इसलिए ब्राह्मण स्त्रियों को भी पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं था। उन्हें शिक्षा से दूर रखा जाता था। ऐसे समय में जब पंडिता रमाबाई के पिता ने उन्हें संस्कृत पढ़ाने का निर्णय लिया तो उस समय के ब्राह्मण समाज को यह स्वीकार्य न हुआ। हालांकि रमाबाई और उनके पिता उच्च कुलीन ब्राह्मण थे। पर ब्राह्मण स्त्रियों का पढ़ना-लिखना उस समय की व्यवस्था के अनुसार अक्षम्य अपराध था। इसलिए जब रमाबाई के पिता उनके समझाने के बाबजूद अपनी बेटी को संस्कृत पढ़ाने लगे तो उन्हें न  केवल जाति से बल्कि उनके गाँव से ही बहिष्कृत कर दिया गया। उन्हें सपरिवार गाँव छोड़ना पढ़ा।...”

उपरोक्त बातें प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव ने पंडिता रमाबाई के परिनिर्वाण दिवस के 100 साल पूरे होने पर कहीं। वे सफाई कर्मचारी आंदोलन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम ”पंडित रमाबाई : जीवन और संघर्ष” विषय पर मुख्य वक्ता के रूप में बोल रहे थे।

उन्होंने कहा कि कबीर ने सही सवाल उठाया है कि –“पहन जनेऊ जो बामन होया महरी क्या पहनाया, वा तो जन्म जन्म की शूद्रिन वा परसे तू खाया।”  यानी वहां छूआछूत नहीं है फिर बाहर क्यों फैला रखी है। उन्होंने कहा कि कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे, रैदास पढ़े-लिखे नहीं थे, पर उन्हें लोक का ज्ञान था। वे लोकज्ञानी थे। और इन लोकज्ञानियों के आगे शास्त्रमर्मज्ञों को भी शर्मसार होना पड़ता था। उन्होंने कहा कि लोकज्ञानियों का समाज यथार्थपरक है। जबकि शास्त्रज्ञानियों के सिद्धांत काल्पनिक है।  वे सिर्फ सुनने में अच्छे लगते हैं। जैसे  ‘सत्यमेव जयते’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता’ ये सब काल्पनिक आदर्श हैं। इन्हें समाज में क्रियान्वन नहीं किया गया। और जिन सिद्धांतों का क्रियान्वन नहीं किया जा सके उनका कोई महत्व नहीं।

उन्होंने पंडिता रमाबाई के जीवन के संघर्ष के बारे में बताते हुए कहा कि रमाबाई के पिता की मृत्यु के बाद उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। कोई उन्हें गाँव में घुसने नहीं देता था। ऐसे में रमाबाई को अपनी मां और भाई बहनों का पालन-पोषण करना भी मुश्किल हो गया। ऐसी विपरीत परिस्थितियों भी रामबाई ने हार नहीं मानी। वे निरंतर संघर्ष करती रहीं। उस जमाने में जब 9-10 साल की लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था। रमाबाई ने अपना विवाह 22 वर्ष की उम्र में एक गैर ब्राह्मण के साथ किया।

पंडिता रमाबाई एक प्रतिष्ठित भारतीय समाज सुधारिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता थीं। वह एक कवयित्री, अध्येता और भारतीय महिलाओं के उत्थान की प्रबल समर्थक थीं। महिलाओं के उत्थान के लिये उन्होंने न सिर्फ संपूर्ण भारत बल्कि  इंग्लैंड की भी यात्रा की। 1881 में उन्होंने 'आर्य महिला सभा' की स्थापना की।

रमाबाई का जन्म और आगे की यात्रा

रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल 1858 को संस्कृत विद्वान अनंत शास्त्री डोंगरे के घर हुआ। शास्त्री की दूसरी पत्नी लक्ष्मीबाई डोंगरे थीं और उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी और बेटी रमाबाई को संस्कृत ग्रंथों की शिक्षा दी, भले ही संस्कृत और औपचारिक शिक्षा के सीखने की महिलाएं और निचली जातियों के लोगों के लिए मना किया था।

उनके माता पिता को 1877 में अकाल मृत्यु हो गई, रमाबाई और उनके भाई ने अपने पिता के काम को जारी रखने का फैसला किया। भाई बहन ने पूरे भारत में यात्रा की। प्राध्यापक के रूप में रमाबाई की प्रसिद्धि कलकत्ता पहुँची जहां पंडितों ने उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया। 1878 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में इन्हें संस्कृत के क्षेत्र में इनके ज्ञान और कार्य को देखते हुये सरस्वती की सर्वोच्च उपाधि से सम्मानित किया।

1880 में भाई की मौत के बाद रमाबाई ने बंगाली वकील, बिपिन बिहारी दास से शादी कर ली। इनके पति एक बंगाली कायस्थ थे, और इसलिए शादी अंतर्जातीय और अंतर-क्षेत्रीय थी। दोनों की एक पुत्री हुई जिसका नाम मनोरमा रखा। पति और पत्नी ने बाल विधवाओं के लिए एक स्कूल शुरू करने की योजना बनाई थी, 1882 में इनके पति की मृत्यु हो गई।

पंडिता रमाबाई ऐसी महिला थीं, जिनके विचारों ने समाज में हलचल पैदा कर दी। जिस समय में महिलाओं को कम पढ़ाया जाता था, विधवाओं की शादी नहीं कराई जाती थी और बाल विवाह की प्रथा थी, इन कुप्रथाओं पर सवाल खड़े करने वाली पंडिता रमाबाई थीं। वे भारतीय महिलाओं के उत्थान की समर्थक थीं। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भी हिस्सा लिया।

आर्य महिला समाज की स्थापना

पति की मृत्यु के बाद भी रमाबाई ने जिंदगी से हार नहीं मानी। पुणे आकर उन्होंने आर्य महिला समाज की स्थापना की। वे बाद में मिशनरी गतिविधियों में भी शामिल हुर्इं। उनका इसाई धर्म में विश्वास अधिक बढ़ता जा रहा था और उन्होंने ईसाई धर्म को अपना लिया। 1882 में भारत सरकार ने शिक्षा में जांच के लिए एक आयोग गठित किया था, तब रमाबाई ने उसमें सक्रिय भागीदारी निभाई। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा शिक्षिकाओं के होने की मांग की। इसके अलावा उन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में भी महिलाओं की भागीदारी की मांग की। उन्होंने कहा कि ऐसी बहुत सी परेशानियां महिलाओं को होती हैं, जिनके लिए महिला डॉक्टर का होना जरूरी है। उनकी ये बातें रानी विक्टोरिया तक पहुंचीं।

पितृसत्ता से लड़ाई

रमाबाई ने बचपन से ही ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को झेला था, इसलिए उन्होंने अपने जीवन के आगे के वर्षों में इससे लड़ती रहीं। देश-विदेश में भ्रमण के दौरान उन्होंने ‘द हाई कास्ट हिंदू वूमेन’ किताब लिखी। इस किताब में महाराष्ट्र में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता पर प्रकाश डाला गया था। इसमें उन्होंने हिंदू महिलाओं की समस्याएं बतार्इं। बाल-विवाह, विधवा-विवाह और हिंदू महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों के बारे में भी इस किताब में लिखा। पंडिता रमाबाई मुक्ति मिशन आज भी सक्रिय है।

सम्मान और पुरस्कार

’समुदाय सेवा के लिए 1919 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कैसर-ए-हिंद पदक से सम्मानित किया।
’1989 में भारतीय महिलाओं के उत्थान के लिए काम करने पर भारत सरकार ने रमाबाई पर एक स्मारक टिकट जारी किया।

मुंबई में उनके नाम से एक सड़क का नाम भी है।

विगत 21 अप्रैल 2022 को पंडिता रमाबाई के निधन के 100 वर्ष होने पर सफाई कर्मचारी आंदोलन ने उनके जीवन और संघर्ष के बारे में एक कार्यक्रम का आयोजन किया।  इसमें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव को प्रमुख  वक्ता के रूप में बुलाया गया था। उनका स्वागत सफाई कर्मचारी आंदोलन की निर्मला ने किया। भाषा सिंह ने चौथीराम यादव और पंडित रमाबाई का संक्षिप्त परिचय दिया। उन्होंने कहा कि पंडिता रमाबाई को पहली भारतीय  नारीवादी सामाजिक कार्यकर्ता कहा जाता है। 

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं।)

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