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नेशनल खिलाड़ी के टी-स्टॉल को तोड़ा : ग़रीबों पर कार्रवाई में सरकारी मुस्तैदी कुछ ज़्यादा दिखती है

पांच फ़रवरी को रांची के अरगोड़ा में अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई के दौरान नेशनल खिलाड़ी को भी नहीं बख़्शा गया। आर्थिक परेशानी से गुज़र रही तीरंदाज़(आर्चरी) प्लेयर अब क्या करेगी?
tea stall

हैलो, दीप्ति कुमारी बोल रही हैं? 

जवाब- जी, मैं दीप्ति हूं 

मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट देखी थी जिसमें लिखा था कि आप आर्चरी की नेशनल खिलाड़ी रह चुकी हैं और आपका रांची में कोई टी-स्टॉल है जिसे तोड़ने की बात हो रही है 

जवाब- वो टूट गया, मेरे सामने ही मेरा टी-स्टॉल टूट रहा है मैं आपसे अभी बात नहीं कर सकती बाद में बात करूंगी...

ये झारखंड की आर्चरी में नेशनल मेडल जीत चुकी दीप्ति कुमारी थीं जिनसे जब हमारी बात हो रही थी तो पीछे बहुत शोर आ रहा था लेकिन उनके फोन रखने से पहले जो उनकी आवाज़ में ऐसी ख़ामोशी थी वो चीख़ते हुए कह रही थी कि ये मेरे साथ क्या हुआ?

दीप्ति कुमारी के फोन रखने के बाद वापस जाकर हमने वो पोस्ट देखी तो पता चला कि पोस्ट क़रीब 9 घंटे पहले की गई थी, ऐसा लगा हमारे देश में ग़रीबों और ज़रूरतमंदों पर कार्रवाई में प्रशासन कुछ ज़्यादा ही मुस्तैद रहता है।

देर रात दीप्ति ने ख़ुद हमें कॉल किया अब वो शांत लग रही थीं, लंबी बातचीत हुई। हमने दीप्ति से पूछा कि -

सवाल- आपको लगता है कि आपका टी स्टॉल यहां से हटा कर आपको किसी दूसरी जगह पर लगाने देते तो ठीक रहता?

जवाब- जगह तो छोड़िए, अगर ठीक से हटाने का मौक़ा भी दे देते तो ठीक रहता, मैं दुकान पर नहीं थी, किसी काम से बाहर गई हुई थी, दुकान पर छोटा भाई था उससे बोला गया कि ''10 दिन से हटाने के लिए कहा जा रहा है लेकिन आप लोगों को सुनाई नहीं दे रहा है'' (जबकि दीप्ति का दावा है ये बिल्कुल झूठ है अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई के बारे में पहले किसी ने भी सूचित नहीं किया था)  मैं आई तो मैंने लगातार कार्रवाई कर रहे लोगों की मिन्नतें की, बार-बार बताया कि सर मैं एक खिलाड़ी हूं मेरी आर्थिक हालात ठीक नहीं है, तो उन्होंने बहुत मुश्किल से दो घंटे का वक़्त दिया और फिर आए और तुरंत तोड़-फोड़ शुरू कर दी।

सवाल- क्या कुछ सामान निकाल पाईं?

जवाब - कुछ सामान निकाल पाई, लेकिन बहुत कुछ रह गया। 

और फोन पर ये बताते हुए दीप्ति कुछ देर के लिए ख़ामोश हो गईं और एक बार फिर ख़ुद को संभाल कर आगे की बातचीत जारी रखी।

दीप्ति कुमारी झारखंड की तीरंदाज़ ( आर्चरी प्लेयर) हैं। वे नेशनल लेवल पर खेल चुकी हैं और जीती भी हैं। उनकी घर की दीवार पर स्कूल लेवल से लेकर नेशनल लेवल तक के कई मेडल टंगे हैं। वो कहती हैं कि ''मेरे पास कुल कितने मेडल हैं शायद मुझे ख़ुद भी ठीक से याद नहीं ''

क्या है पूरा मामला?

लोहरदगा की रहने वाली तीरंदाजी की खिलाड़ी दीप्ति कुमारी क़रीब 8 महीने पहले रांची आईं, किराये का घर लिया और अपना एक टी-स्टॉल शुरू किया। ये टी-स्टॉल उन्होंने दोस्तों और कुछ जान पहचान के लोगों से पैसे उधार लेकर शुरू किया था। जिसमें क़रीब 70 से 80 हज़ार का ख़र्च आया था। दीप्ति बताती हैं कि 3 महीने तक कोई कमाई नहीं हुई लेकिन फिर धीरे-धीरे उनका टी-स्टॉल चल निकला और वो 500 से 1 हज़ार रुपये बचा लेती थीं। लेकिन 5 फरवरी को रांची नगर निगम की तरफ़ से एक अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई की गई और सड़क किनारे बने सभी स्टॉल हटा दिए, जिसमें दीप्ति का भी टी-स्टॉल उजाड़ दिया गया। दीप्ति का आरोप है कि जिस तरह से कार्रवाई की गई वो बहुत ग़लत है उन्हें वक़्त नहीं दिया गया कि वो अपना सामान ठीक से हटा सकें जैसे-तैसे वो अपना कुछ सामान ही बचा सकीं। वे बताती हैं कि इस कार्रवाई में उनका 25 से 30 हज़ार का नुक़सान हो गया। 

दीप्ति आगे कहती हैं, ''हम रांची में किराए के घर में रहते हैं हमारे टी-स्टॉल का बचा-कुचा सामान हम वहां नहीं रख सकते इसे हमें वापस लोहरदगा ले जाना होगा और उसमें भी 10 से 15 हज़ार का ख़र्चा आ सकता है''। दीप्ति के लिए ये बड़ा नुकसान है और उसकी वजह है परिवार पर कर्जा। जब हमने पूछा कि ''अब क्या करोगी''? तो दीप्ति ने कहा कि ''वापस जाएंगे।" किसी का दुख महज़ दो लफ़्ज़ में सिमट गया था।

चाय बेचने की नौबत क्यों आई?

दीप्ति बताती हैं कि साल 2012 में अमेरिका में होने वाले एक अंतरराष्ट्रीय मुकाबले के ट्रायल के लिए वो कोलकाता गई थीं लेकिन वहां उनका धनुष (जिससे वो आर्चरी करती हैं) टूट गया और उन्हें वहीं से वापस घर लौटना पड़ा। और उस ट्रायल में शामिल न होने के साथ ही उनका उस वक्त इंटरनेशनल खेल में हिस्सा लेने का सपना टूट गया।

जिसके बाद 2012 में ही उनकी मां ने महिला समिति से 7 लाख रुपये का लोन लिया जिसमें से उन्होंने साढ़े-चार लाख रुपये का अपना धनुष ख़रीदा, इस बीच उनकी माँ की तबीयत बिगड़ गई किडनी से जुड़ी बीमारी में कुछ पैसा खर्च हुआ और बाक़ी जो पैसा बचा उससे दीप्ति बीच-बीच में अपने लिए तीर ख़रीद रही थीं।

दीप्ति सात भाई-बहनों में दूसरे नम्बर पर हैं, पिता किसान हैं परिवार की मदद करने के लिए उन्होंने लोहरदगा (अपने घर पर) में एक किराने की दुकान खोल ली लेकिन दुकान चल नहीं पाई और लोन वापस करने का तनाव बढ़ता जा रहा था, किसी तरह थोड़ा बहुत लोन वापस हो रहा था लेकिन सात लाख परिवार के लिए बड़ा लोन था। दीप्ति बताती हैं कि सात लाख में से अब तक परिवार ने दो से ढाई लाख का कर्ज उतार दिया है लेकिन जो बचा है वो भी उनके लिए बहुत ज़्यादा है। 

लोहरदगा से रांची का रुख़

दीप्ति कहती हैं कि वे लगातार मदद के लिए इधर-उधर चक्कर काटती रहीं, स्पोर्ट्स कोटे से नौकरी के लिए भी कोशिश करती रहीं लेकिन कहीं बात नहीं बनी तो उन्होंने लोहरदगा से रांची का रुख किया और कुछ रिश्तेदारों और दोस्तों की मदद से अरगोड़ा में चाय की दुकान खोली, रांची में ही किराए का मकान लिया। शुरू के तीन महीने बहुत मुश्किल थे लेकिन फिर लगा कि चाय की दुकान चल जाएगी और जल्द ही कर्ज भी उतार जाएगा लेकिन तभी 5 फरवरी को नगर निगम ने शहर की ख़ूबसूरती में दाग़ महसूस होने वाले सड़क किनारे लगे सभी स्टॉल तोड़ डाले जिसमें जिन्दगी से जूझ रही एक नेशनल खिलाड़ी का भी टी-स्टॉल चला गया।

मुश्किल भरा है दीप्ति कुमारी का सफ़र

दीप्ति के मुताबिक़ क़रीब 7 साल की उम्र से उन्हें आर्चरी का शौक था जो वक़्त के साथ बढ़ता गया स्कूल लेवल पर तो उन्होंने मेडल जीते ही आगे स्टेट और फिर नेशनल तक गईं, जूनियर और सब जूनियर कैटेगरी में मेडल जीते। शुरुआती दिनों में दीप्ति ने बांस से बने धनुष के साथ ही खेला।  साल 2006 से 2008 तक उन्होंने झारखंड के ही खरसावां में रह कर जूनियर और सब जूनियर लेवल के ढेर सारे मुकाबलों में हिस्सा लिया। दीप्ति बताती हैं कि वहां वे 15-16 लड़कियां एक साथ रहती थीं,नहाने के लिए नदी पर जाना होता था, इतनी सारी लड़कियां एक साथ रहती थीं कभी खाना मिलता था कभी नहीं लेकिन फिर भी सब में खेल को लेकर जुनून था।

आठ महीने से नहीं की प्रैक्टिस

दीप्ति देश के लिए आगे भी खेलना चाहती हैं, हालांकि अब तक उन्होंने सीनियर लेवल पर नहीं खेला है। लेकिन उन्होंने पिछले आठ महीने से प्रैक्टिस नहीं की है, क्योंकि वो चाय की दुकान से कुछ कमाई करके परिवार के कर्ज को चुकाने की कोशिश कर रही हैं। दीप्ति बताती हैं कि वो लोहरदगा में अपने ही जैसे ग़रीब बच्चों को आर्चरी सिखाती थीं लेकिन जब उन्होंने रांची आने का फैसला किया तो उन सब बच्चों को किसी ना किसी ऐसे शख्स से मिलवा दिया जो उन्हें आगे आर्चरी सिखा सकें। पर अब वे अपने धनुष से दूर हैं,और फिलहाल ज़िन्दगी नाम के धनुष को थाम कर अपनी परेशानियों को भेदने की जुगत में लगी हैं।

कार्रवाई पर प्रतिक्रिया

इस मामले में सबसे पहले हमने रांची की मेयर आशा लकड़ा जी को फोन लगाया, हमारा फोन काट दिया गया और उधर से एक मैसेज आया '' can you call back later?'', दोबारा उनका फोन ही नहीं मिला। फिर हमने RMC ( Ranchi Municipal Corporation) के नगर आयुक्त शशि रंजन जी को फोन मिलाया उनका भी फोन नहीं मिला, फिर हमने खेल विभाग से जुड़े सचिव मनोज कुमार जी के ऑफिस में फोन लगाया तो पता चला वे शहर से बाहर हैं, लेकिन वहां से उनका मोबाइल नंबर तो मिल गया। जब उन्हें फोन किया गया तो एक बार फोन नहीं उठा और उसके बाद फोन मिला ही नहीं। अब हमने सीधे खेल मंत्री हफीजुल हसन जी को फोन लगाया तो किसी सज्जन ने फोन उठाया बहुत अदब से कहा कि ''सर अभी नीचे नहीं आए हैं एक घंटा बाद फोन कीजिए'' हमने दोबारा फोन किया शायद उन्हीं सज्जन ने दोबारा फोन उठाया और कहा कि ''मीटिंग चल रही है'' हमने अपना परिचय देते हुए गुज़ारिश की कि सिर्फ़ 5 मिनट चाहिए तो उन्होंने पूछा कि ''काम क्या है'' हमने दीप्ति कुमारी की कहानी सुना दी तो कहने लगे ''ठीक है जैसे ही मीटिंग से निकलते हैं हम बात करवा देंगे'' मगर कोई कॉल नहीं आया।

वेबसाइट पर योजनाओं की बहार है

संबंधित अधिकारी से लेकर मंत्री जी तक किसी एक से भी बात नहीं हो पाई तो हमने सोचना झारखंड की खेल विभाग की वेबसाइट पर ही कुछ खंगाल लिया जाए। तो वेबसाइट के स्कीम सेक्शन पर हम गए।  वहां हमें खेल वेलफेयर,खेल फंड, स्टाइपेंड, खेलों से जुड़ी किट और Equipment जैसे लफ़्ज़ दिखे। वो सब देखकर हमने दीप्ति कुमारी को फोन किया और पूछा कि

''झारखंड खेल मंत्रालय की वेबसाइट पर तो तमाम योजनाओं के बारे में लिखा है क्या उन्हें इसके बारे में जानकारी है और क्या उन्हें कभी इसका लाभ मिला?" 

दीप्ति ने इनकार कर दिया। झारखंड से हर दूसरे दिन खिलाड़ियों के कभी सब्ज़ी बेचने तो कभी राइस बीयर बेचने की कहानियां आती रहती हैं। ऐसा क्यों? दरअसल झारखंड में ऑर्चरी और हॉकी को लेकर बच्चों में बचपन से ही खेलने की ललक दिखाई देती है। लेकिन राज्य में खिलाड़ियों को सरकारी मदद न मिलने के पीछे काफी पेचीदा वजह हैं। इन सब चीजों को समझने के लिए हमने SAI (Sports Authority of India) के एक पूर्व अधिकारी से अनौपचारिक बातचीत की। उन्होंने विस्तार से समझाया कि झारखंड के गांव में जाकर देखने पर एहसास होता है कि यहां के क़रीब-करीब हर गांव और हर घर में बच्चे आर्चरी और हॉकी खेलते दिखेंगे। वे बताते हैं, "यहां के बच्चे जब अपनी ज़िन्दगी का बहुत लंबा वक़्त इन खेलों को दे देते हैं और आगे नहीं बढ़ पाते हैं तो सरकारी मदद की तलाश करते हैं लेकिन सरकारी मदद मिलने के पेचीदा टेक्निकल ग्राउंड होते हैं। उन्होंने उदाहरण देकर बताया कि  कौन सा गेम ओलंपिक के द्वारा मान्यता प्राप्त है और कौन सा गेम है जिसको सरकार मान्यता दे रही है ये देखना पड़ता है।"

इन तमाम बातों को सुनने के बाद बस ज़ेहन में एक ही सवाल आ रहा था कि आख़िर इसका समाधान क्या हो सकता है? ऐसा लगा कि जो सबसे अहम और बुनियादी बात है वे ये कि झारखंड के दूर दराज के इलाकों में लोगों को, खिलाड़ियों को खेल से जुड़ी तमाम सरकारी पेचीदगी के बारे में जागरूक करने की सख़्त ज़रूरत है।

लेकिन एक बात जो अब भी समझ में नहीं आ रही थी वो ये कि जब झारखंड के दूर दराज के किसी गांव में जब बच्चे बांस के धनुष को उठाकर सटीक निशाना साधते होंगे तो उन्हें एहसास भी नहीं होता होगा की उनकी प्रतिभा को आगे बढ़ने के लिए जितनी ज़्यादा हुनर की ज़रूरत है उससे कहीं ज्यादा उस सरकारी एहसास की जो टेक्निकल ग्राउंड की बात ज़्यादा समझते हैं बजाए खेल से जुड़े जुनून के।

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